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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

रविवार, 4 दिसंबर 2016

नोटबंदी और हमारी साधारण बुद्धि


कई बार किसी-किसी प्रश्न पर कोई स्टैंड लेना काफी मुश्किल हो जाता है। उदाहरण के लिए नोटबंदी। इस मुद्दे पर पूरा देश दो हिस्सों में बंटा हुआ है। इस तरह बंटा हुआ है कि दोनों खेमें एक दूसरे की बात सुनना तो दूर एक दूसरे के देशप्रेम और नीयत पर भी शक करते हैं। दोनों अपने आपको एक दूसरे से बढ़कर देशप्रेमी और गरीबों का मसीहा सिद्ध करना चाहते हैं।

किसी प्रश्न पर कोई राय बनाने का मेरा तरीका यह है कि इसमें अपनी साधारण बुद्धि का इस्तेमाल करो, और विशेषज्ञ की भी राय सुनो। लेकिन इन सबके बीच जो कोई भी पड़ता है उनकी राय पर बिल्कुल ध्यान मत दो। जैसे राजनीतिक दलों के बड़े नेता, छुटभैया नेता, सरकारी बाबू, किसी न किसी विचारधारा या कारपोरेट स्वार्थ से जुड़े हुए पेशेवर टिप्पणीकार, स्तंभकार, एंकर। जब आपकी साधारण बुद्धि से निकलने वाले निष्कर्ष से विशेषज्ञ की राय भी मिलती हो तो समझ लीजिए कि आपका सोचना पूरी तरह सही है। लेकिन जब यह राय नहीं मिलती तो आपको अपनी राय बनाने के लिए कुछ समय के लिए रुकना चाहिए। यह देखना चाहिए कि विशेषज्ञ निष्पक्ष तो हैं न और वे अपने विश्लेषण के लिए वैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल तो कर रहे हैं न।

कहने का तात्पर्य यह है कि जिस बात को आपकी साधारण बुद्धि स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है वैसी बात को आसानी से मानने के लिये आपको तैयार नहीं होना चाहिए भले ही कहने वाला कितना ही बड़ा व्यक्ति क्यों न हो। मैंने अक्सर पाया है कि अंत में साधारण बुद्धि का फैसला ही सही निकलता है और राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित विचार अंततः गलत साबित हो जाते हैं।

एक उदाहरण लेते हैं कम्यूनिज्म का। मोटी-मोटी किताबों ने इसके पक्ष में बातें कहीं और मार्क्स और एंगेल्स जैसे दार्शनिक इसके पक्ष में खड़े थे। आपने कम्यूनिज्म के बारे में मोटी-मोटी किताबें पढ़ी होंगी और सोचा होगा कि क्या इतनी मोटी-मोटी किताबें भी कभी गलत हो सकती हैं? लेकिन आपकी साधारण बुद्धि ने कभी यह भी सोचा होगा कि बिना पैसों की प्रेरणा के कोई किस तरह बढ़-चढ़ कर काम कर पाएगा। लाभ, फायदा या पैसा सबसे बड़ी प्रेरक शक्ति है और उसी के कारण एक व्यक्ति काम कर पाता है। जब सत्तर साल तक रूस में कम्यूनिज्म चलता रहा तो बहुतों को अपनी साधारण बुद्धि पर शक होने लगा होगा कि कहीं मात्र धन को प्रेरक शक्ति मानना उनकी भूल तो नहीं थी। लेकिन अंततः 1989 में रूस में कम्यूनिज्म का खात्मा हो गया और इस साधारण सी बात पर सत्यता की मोहर लग गई कि बिना फायदा होने के लालच के इस दुनिया में कुछ भी नहीं चलता।

हमने कम्यूनिज्म का सिर्फ उदाहरण दिया है। यही बात नाजीवाद और फासीवाद को लेकर सही है। यूरोप में दुनिया की हर समस्या का कारण यहूदियों को बताया गया लेकिन बहुत से लोगों की साधारण बुद्धि को यह बात स्वीकार नहीं हो सकी। अंततः लाखों लोगों की जान जाने के बाद यह बात समझ में आई कि यहूदी कौम को खत्म करने मात्र से किसी देश का भला हो जाएगा, इससे बेहूदी बात दूसरी कोई नहीं है।

नोटबंदी प्रसंग

इतनी लंबी भूमिका हमने इसलिए लिखी है कि कुछ लोग आज किसी व्यक्तित्व के प्रभाव में आकर अपनी साधारण बुद्धि को कोई महत्व नहीं देना चाहते। नोटबंदी के प्रसंग में तीन बातें मुख्य रूप से कही जा रही हैं और हमारी साधारण बुद्धि को ये तीनों बातें पच नहीं पा रही।

एक, कहा जा रहा है कि इससे काला धन रखने वालों के जमा कर रखे हुए करेंसी नोट बरबाद गए और उन्हें बहुत बड़ा धक्का लगा है। हमारी साधारण बुद्धि कहती है कि राजनेताओं को छोड़कर शायद ही कोई अपना काला धन करेंसी के रूप में रखता है। जो थोड़ा-सा दस-बीस या तीस लाख रूपयों का धन आम मध्यवर्गीय लोगों के पास रखा था उसे बाहर लाने के लिए निश्चित रूप से यह योजना नहीं लाई गई थी। तो फिर किसके लिए लाई गई थी? क्या जिनके लिए लाई गई उनमें आपने कहीं भी अफरा-तफरी का माहौल देखा?

दो, कहा जा रहा है कि इससे भ्रष्टाचार मिट जाएगा, या कम हो जाएगा। हमारी साधारण बुद्धि कहती है कि जब तक किसी बाबू के पास विवेकाधीन अधिकार रहेगा, पैसे खाने की गुंजाइश बची रहेगी और पकड़े जाने का डर नहीं रहेगा, तब तक भ्रष्टाचार पर अंकुश नहीं लग सकता। पुराने पांच सौ और एक हजार के नोट नहीं रहे तो भ्रष्ट अधिकारी को दो हजार के नोट लेने से किसने रोका है।

तीन, कहा जा रहा है कि इससे इकानोमी कैशलेस हो जाएगी और आर्थिक वृद्धि के लिए तथा भ्रष्टाचार मिटाने के लिए कैशलेस इकानोमी का होना बहुत जरूरी है। इस बात को सिद्ध करने के लिए हमारी तुलना की जा रही है ऐसे देशों के साथ जो आज आर्थिक रूप से पूरी दुनिया में सबसे आगे हैं। जैसे, स्वीडन, डेनमार्क, सिंगापुर आदि। हमारी साधारण बुद्धि कहती है कि दुनिया के सबसे अग्रणी देशों के साथ हमारी तुलना करना तर्कसंगत नहीं है। हमें भारत की तुलना ऐसे देशों के साथ करनी चाहिए जो हमारे समकक्ष हैं और उनकी वृद्धि हमारी वृद्धि दर के आसपास हैं।

इस तर्क से हम इंडोनेशिया, थाइलैंड और चीन जैसे देशों के साथ हमारी तुलना करते हैं तो पाते हैं हमारी अर्थव्यवस्था में जो नगदी का चलन है वह कोई इतना अधिक नहीं है कि हमारी प्राथमिकता नगदी को खत्म करना ही हो जाए। तथ्य यह भी है कि जो विकसित देश हैं वहां की अर्थव्यवस्था से नगदी अपने आप कम होती गई और अर्थव्यवस्था कैशलेस होती गई। इसका उल्टा सही नहीं है। यानी ऐसा नहीं हो सकता कि आप अर्थव्यवस्था को कैशलेस कर दें और विकास अपने आप आ जाएगा।

एक साधारण बनिया अपनी साधारण बुद्धि का इस्तेमाल करते हुए हमेशा कोस्ट-बेनिफिट रेसियो यानी लागत और उससे होने वाले लाभ के अनुपात का हिसाब लगाता है। सरकारी बाबू और सरकारी अर्थशास्त्री सरकार के किसी भी कदम के समर्थन में हर तरह के तर्क देने के लिए मजबूर हैं। उन्हें उसी के पैसे मिलते हैं। लेकिन एक साधारण बनिया अपनी साधारण बुद्धि से यह सवाल किए बिना नहीं रह सकता कि एक पूर्ण गति से चल रही अर्थव्यवस्था की गति को रोककर जैसे लाभ होने का अनुमान किया जा रहा है क्या वे लाभ अर्थव्यवस्था को हुए नुकसान से अधिक होंगे?

और अंत में प्रार्थना


हमारे दिल की ख्वाहिश यही है कि हमारी साधारण बुद्धि गलत साबित हो, सरकारी विशेषज्ञों के अनुमान सही हों और हमारी अर्थव्यवस्था पहले से अधिक गति प्राप्त करे।

रविवार, 27 नवंबर 2016

बात पते की - आयकर विभाग का कैंटीन भी कैशलेस नहीं है


जहांपनाह आज शुरू से ही दो-दो हाथ करने के मूड में थे। दरबार में आते ही वे सीधे बीरबल की ओर मुखातिब हुए। Birbal को आभास हो गया कि नोटबंदी पर उनके रुख से बादशाह नाराज हैं। Akbar ने Birbal से सीधा सवाल पूछा – आखिर इतने पड़े इंकलाबी कदम से भी तुम खुश नहीं हो, तुम्हारे तर्क क्या हैं? क्या तुम्हारे पास भी ढेर सारा काला धन है?

Birbal – गुस्ताखी माफ हो जहांपनाह। कम-से-कम आपसे मैं इस सवाल को अच्छे तरीके से पूछे जाने की उम्मीद करता था। सरकार के किसी कदम का विरोध कर दो तो विरोध करने वाले को ही अपराधी घोषित कर देना – ऐसे वातावरण में तो फिर कोई चर्चा संभव ही नहीं है। इस तरह वही बहस करता है जिसके पास ठोस तर्क नहीं होते और जो अपने कदमों को सुधारने में और जनता का भला करने में विश्वास नहीं रखता।

Akbar – चलो दूसरी बातों को छोड़ देते हैं क्योंकि उससे दरबार का वक्त बरबाद होगा। बस इतना बता दो कि क्या इस कदम से हम cashless economy की ओर आगे नहीं बढ़ेंगे।

Birbal – जहांपनाह, cashless economy की ओर बढ़ने के लिए क्रांति की जरूरत नहीं होती। यह काम सरकार चाहती तो शासन में आने के पहले दिन से ही शुरू कर सकती थी और आज भी देर नहीं हुई है, आज भी शुरुआत हो सकती है। सरकार खुद एक बहुत बड़ी खरीदार है। मैं आपको ऐसे दस स्थान गिना सकता हूं जो या तो सीधे सरकार के दायरे में हैं या फिर सरकार नियंत्रित कंपनियों के नियंत्रण में हैं। ऐसे स्थानों पर सरकार चाहे तो debit card से पेमेंट की व्यवस्था कर सकती है। यह तो अच्छा है कि आज देश में शायद ही कोई बंदा बचा हुआ है जिसके पास debit card न हो, या मोबाइल फोन न हो। इस डेबिट कार्ड की मदद से सरकार यदि अपना पेमेंट ले तो कल्पना कीजिए कि कितने बड़े स्तर पर कार्ड से पेमेंट को बढ़ावा मिलेगा।

उदाहरण के लिए, रेलवे टिकट, पोस्ट आफिस, सरकारी अस्पताल, सरकारी फार्मेसी, सरकार नियंत्रित होटल, पर्यटन स्थलों के टिकट काउंटर, टोल गेट, सरकारी राशन की दुकानें, सरकारी बसें, नगरपालिका का टैक्स, पेट्रोल पंप, रसोई गैस, कोर्ट के वेंडर, सरकारी दफ्तरों, सचिवालयों, विधानसभाओं, आकाशवाणी, दूरदर्शन आदि के कैंटीन, सैनिक छावनियों के अंदर चलने वाली दुकानों - इन स्थानों पर स्वाइप मशीनें लगाना अनिवार्य किया जा सकता है। रेलवे के वेंडरों को आप चाहें तो बाध्य कर सकते हैं कि उन्हें स्वाइप मशीनें रखनी होंगी। यदि सचमुच वित्त मंत्री की मंशा cashless economy की दिशा में कुछ करने की होती तो वे ये सब काम करतें, न कि व्यापारियों को नसीहत देते कि तुम लोग कैशलेस व्यापार करना शुरू कर दो, और न ही बैंकों को टारगेट देते कि इतने लाख करोड़ का लेनदेन अब कैश से cashless हो जाना चाहिए। सच पूछिए तो इस सरकार में सबसे खराब कार्य वित्त मंत्री महोदय का ही रहा है। भले प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व के कारण उनकी असफलताओं पर लोग अभी कुछ बोल नहीं रहे।

यदि एक सर्वेक्षण किया जाए तो शायद income tax department के किसी कैंटीन में भी card swipe करने की सुविधा नहीं मिलेगी। तो फिर आप किस मुंह से दूसरों को नसीहत दे सकते हैं।


Akbar – बात तो तूने पते की कही है Birbal।

रविवार, 9 अक्तूबर 2016

कंकरीट का शहर दुबई : मोतियों से तेल तक

दुबई पहली बार जाने वाले किसी भी भारतीय के लिए पहली आश्चर्य वाली बात तब होगी जब टैक्सी ड्राइवर उससे हिंदी में बात करेगा। मेरे टैक्सी ड्राइवर ने भी मुझसे पूछा किदर जाना है। मैंने आश्चर्यचकित होकर पूछा यहां हिंदी चलती है। उसने कहा क्यों नहीं। यह टैक्सी ड्राइवर पाकिस्तान के फैसलाबाद से था। लगभग सभी ड्राइवर भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश से हैं। 

पाकिस्तान के पेशावर से बड़ी संख्या में लोग दुबई में ड्राइवरी करते हैं। कोई भी पेशावरी ड्राइवर आपको भारतीय जानकर शाहरुख खान के बारे में बातचीत कर सकता है। एक ड्राइवर टैक्सी चलाकर अमूमन एक सौ दिरहम रोजाना कमा लेता है। इस तरह महीने में तीन हजार दिरहम यानी करीब साठ हजार भारतीय रुपयों के बराबर आमदनी होती है। इसमें से करीब बीस हजार रुपयों के बराबर खर्च हो जाता है।

अधिकतर कामगार एक कमरे में पांच छह के हिसाब से रहते हैं। रहने की व्यवस्था पर ही कामगारों का मुख्य खर्च होता है। दुबई में भारतीयों की संख्या इतनी अधिक है कि कभी-कभी लगता है आप किसी भारतीय शहर में आ गए। जो भारतीय नहीं हैं वे पाकिस्तानी, बांग्लादेशी, नेपाली या श्रीलंकाई हैं। और अच्छी खासी संख्या फिलीपीन्स के लोगों की भी है। 

वर्क वीसा दो साल, तीन साल और पांच के लिए मिलता है। संयुक्त अरब अमीरात ने जहां लाखों दक्षिण एशियाई लोगों को रोजगार उपलब्ध करवाया है वहीं यहां के श्रमविरोधी कानूनों के लिए इसकी काफी आलोचना भी होती है। उदाहरण के लिए यदि किसी कामगार को कोई गंभीर बीमारी हो जाए (जैसे टीबी) तो उसे वापस उसके देश भेज दिया जाता है।

दुबई में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा हिंदी है। मलयालम भी काफी बोली जाती है। हालांकि मलयाली लोग भी हिंदी जानते हैं। इसी तरह पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका और बांग्लादेश के लोगों के लिए भी बातचीत करने का माध्यम हिंदी ही है। इससे हिंदी के विस्तार का पता चलता है। 

मन में भाव आता है कि क्या हिंदी प्रदेश के लोगों को इस बात का आभास भी है कि उनकी भाषा का भूगोल कितनी दूर दूर तक फैला हुआ है। क्या हिंदी प्रदेशों ने हमेशा शिकायती लहजा बनाए रखने की बजाय हिंदी की इस सहज ताकत का उपयोग इसके विकास के लिए करने के बारे में कभी सोचा है।

काम करने वालों में दक्षिण एशियाई लोगों के बाद फिलीपींस का नंबर है। एयरपोर्ट के स्टाफ हों या होटल के कर्मचारी हर कहीं फिलीपींस के युवक और युवतियां बड़ी संख्या में दिखाई दे जाते हैं। ऐसा लगता है कि यूएई के मूल निवासी सिर्फ सरकारी नौकरियों तक सीमित हैं।

प्रवासियों में तकरीबन पांच प्रतिशत यूरोपीय हैं। सिर्फ महंगे होटलों और ब्रांडेड कॉफी हाउसों में ही यूरोपीय लोग दिखाई देते हैं। हालांकि सिंगापुर की तुलना में दुबई में काम करने वालों में गोरों की संख्या मुझे काफी कम लगी। संयुक्त अरब अमीरात में ही नहीं बल्कि समूचे अरब जगत में हाल के वर्षों में निर्माण कार्य पर इतना अधिक निवेश नहीं हुआ होगा जितना दुबई, अबू धाबी और शरजाह में हुआ है। 

दुबई, अबू धाबी और शरजाह में आप जिधर भी नजर दौड़ाएं या तो आपको पिछले चालीस सालों में हुआ निर्माण दिखाई देगा या फिर नया निर्माण होता हुआ दिखाई देगा। इस तरह ये तीनों शहर गगनचुंबी इमारतों के शहर बन गए हैं।

इस बात पर आश्चर्य होता है कि सिर्फ कंकरीट के जंगल के बल पर दुबई के शासक ने अपने यहां पर्यटन को विकसित कर लिया। जब मैंने अपने जर्मन मित्र के साथ आधे दिन का शहर का महंगा दौरा किया तो हम दोनों ही बुरी तरह निराश हुए। क्योंकि दुबई में देखने के लिए न तो ऐतिहासिक इमारते हैं, न प्राकृतिक मनोरम दृश्य, न कोई कलाकृतियों के म्यूजियम, न थिएटर या ऑपेरा हाउस। वहां जो है वह है सिर्फ बाजार और बाजार। 

टूरिस्ट गाइड सैलानियों को आधुनिक माल में ले जाएगा, मसालों के पुराने बाजार में ले जाएगा जिन्हें सूक कहा जाता है, आंखें चौंधियाने वाले सोने के सूक में ले जाएगा, सात सितारा होटल दिखाएगा, दुनिया की सबसे ऊंची इमारत बुर्ज खलीफा बाहर से दिखाएगा और लीजिए शहर का दौरा पूरा हो गया।

दुबई दुनिया के महंगे शहरों में से एक है। एक तीन कमरों के फ्लैट का किराया भारतीय रुपयों के अनुसार दो लाख रुपए महीना हो सकता है। शरजाह में किराया कम है यानी एक लाख। अबू धाबी में यह और भी अधिक है यानी तीन लाख तक। 

यूएई में बीमार पड़ना पाकिट पर काफी महंगा पड़ता है। एक डाक्टर की फीस 400 दिरहम तक है यानी भारतीय रुपयों में करीब आठ हजार तक। साधारण जेलुसिल जैसी एंटासिड गोलियों के दाम 10 गोलियों के 20 दिरहम यानी 400 रुपए तक देने पड़ते हैं।

दुबई और पूरे यूएई का विकास अभी हाल की कहानी है। साठ के दशक के अंतिम वर्षों में वहां तेल मिलने के बाद उस देश की काया बदलने लगी। इससे पहले यहां काम के नाम पर समंदर से मोती निकालने का काम होता था। गरीब गोताखोर अपने साधारण औजारों के साथ समुद्र में गोता लगाते और गहरे समुद्र की तलहटी पर बिखरी सीपियों को ऊपर लाते। 

ऐसे परंपरागत गोताखोर तीन मिनट तक सांस रोककर पानी के अंदर रह लेते थे। इन सीपियों से मोती निकाले जाते। इन मोतियों की परख जानकार लोग करते जिन्हें तवासीन कहा जाता है। भारत इन मोतियों का एक बड़ा खरीदार देश हुआ करता था। पचास के दशक के बाद विभिन्न कारणों से मोतियों का धंधा मंदा पड़ गया जिसका एक कारण सीपियों के पालन करने की प्रथा शुरू होना है।

दुबई में सरकार ने एक म्यूजियम बनाया है जिसमें इसकी चार दशक पहले की गरीबी स्पष्ट रूप से झलकती है। म्यूजियम की संकल्पना और इसके रख-रखाव की निश्चित रूप से प्रशंसा की जानी चाहिए। इसमें बनाए गए पुतले देखकर लगता है यह भारत का ही कोई मुस्लिम बहुल छोटा-मोटा कस्बा है जहां लोग किसी तरह अपना गुजर-बसर कर रहे हैं। 

बाजार में मसालों, किराने की दुकान, दर्जी, सुनार आदि की दुकानें आज भी भारत के कस्बों में वैसी हैं जो अब दुबई में अब इतिहास और म्यूजियम में रखने की चीजें हो चुकी हैं।

बांग्लादेश का सत्ता समीकरण और सेना

भारत के एक उर्दू अखबार ने हाल ही में सुर्खी लगाई कि बांग्लादेश में हसीना सरकार पर सेना का खतरा। उस अखबार के ढाका संवाददाता के हवाले छपी इस खबर में अटकलबाजी के अलावा कुछ नहीं था। वैसे भी यह जाहिर सी बात है कि सेना यदि तख्तापलट करेगी तो अखबार वालों को पहले से बोलकर नहीं करेगी। 

लेकिन सवाल है कि क्या सचमुच बांग्लादेश में जमाते इस्लामी के नेताओं की फांसी से सेना इतनी विचलित है कि वहां तख्तापलट हो सकता है? बांग्लादेश की राजनीति की बारीकियों को जानने वाले जानते हैं कि एक तो वहां की सेना कट्टरवादियों की फांसी से विचलित जैसी कुछ नहीं है। वह स्वयं कट्टरवादियों को पसंद नहीं करती। दूसरे, सेना को शेख हसीना ने इतनी चतुराई के साथ साध रखा है कि वे तख्तापलट जैसी किसी कार्रवाई के बारे में सोचना भी पसंद नहीं करेंगे।

शेख हसीना सरकार ने पुलिस और सेना को इतने अधिक अधिकार दे रखे हैं कि वहां मानव अधिकार जैसी कोई चीज रह ही नहीं गई है। इसके अलावा सेना में नीचे स्तर से लेकर शीर्ष स्तर तक के अधिकारियों के आर्थिक लाभ में कोई कमी न आए इसकी भी पूरी व्यवस्था शेखा हसीना ने कर रखी है। पैसे की ताकत से शेख हसीना बखूबी वाकिफ हैं और सैन्य अधिकारियों को साधने में उन्होंने अपने इस ज्ञान का पूरा सदुपयोग किया है। 

अन्य सरकारी अधिकारियों की तुलना में सैन्य अधिकारियों के वेतनमान में अधिक वृद्धि तो हुई ही है, बांग्लादेश में कई व्यावसायिक उपक्रम भी सेना के अंतर्गत परिचालित होते हैं। इन व्यावसायिक उपक्रमों के मुखिया सेना के बड़े अफसर होते हैं और वे जब तक वहां तैनात होते हैं उनके पास जमकर पैसा बनाने के अवसर होते हैं। इस तरह शेख हसीना ने सेना के अफसरों के दिमाग में यह बात कभी आने ही नहीं दी कि वे स्वयं सत्ता पर काबिज हो जाएं तो उन्हें आर्थिक रूप से अधिक लाभ होगा।

अफसरों और जवानों को संतुष्ट करने का एक और तरीका है उन्हें राष्ट्र संघ के शांतिरक्षक बल (यूएनपीकेएफ) में डेपुटेशन पर जाने का मौका देना। बांग्लादेश भारत सहित उन कुछ देशों में से है जिसके सैनिक यूएनपीकेएफ में बड़ी संख्या में हैं। जहां पश्चिमी देशों के सैनिक और अफसर यूएनपीकेएफ में जाने से कतराते हैं वहीं बांग्लादेश के सैनिक और अफसर इसमें जाने के लिए लालायित रहते हैं। 

इसका कारण है इसमें जाने से होने वाला आर्थिक लाभ। कुछ साल तक राष्ट्र संघ की सेना में रहने पर एक सैनिक के आर्थिक स्तर में आमूल सुधार आ जाता है। और कोई भी सैनिक इस मौके को छोड़ना नहीं चाहता।

बांग्लादेश की सेना को सत्ता पर काबिज होने से रोकने में भी राष्ट्र संघ की सेना की एक बड़ी भूमिका है। अमरीका और यूके जैसे बड़े देश इस बात को तय करते हैं कि किस देश से कितने सैनिक राष्ट्र संघ की फौज में लिए जाएंगे। इसलिए बांग्लादेश में सेना के अधिकारियों के साथ होने वाली गुप्त बैठकों में इन देशों के राजदूत साफ-साफ कह देते हैं कि फौज ने यदि राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं पनपने दी तो राष्ट्र संघ की सेना में उनके सैनिकों की संख्या में कटौती कर दी जाएगी। 

इस तरह यूएनपीकेएफ बांग्लादेश में सेना की महत्वाकांक्षा को सीमा में रखने के लिए एक बहुत ही कारगर हथियार साबित हुआ है। साथ ही यह देश के राजनीतिक नेतृत्व को भी अपनी मांग के सामने झुकने पर मजबूर करने वाला एक अस्त्र है। क्योंकि यदि यूएनपीकेएफ में बांग्लादेशी सेनिकों की संख्या में कटौती होती है तो सेना में राजनीतिक नेतृत्व यानी प्रधानमंत्री शेख हसीना के विरुद्ध असंतोष पनपेगा, जो वे कभी नहीं चाहेंगी।

बांग्लादेश सहित विश्व के कई देशों में प्रतिबंधित संगठन हिजबुत तहरीर की ओर से ढाका की दीवारों पर बीच बीच में पोस्टर चिपकाए मिलते हैं। इन पोस्टरों में बांग्लादेश के “ईमानदार” सैन्य अधिकारियों के नाम अपील होती है कि आपलोग सत्ता को अपने हाथ में ले लें। हिजबुत में सिर्फ उच्च शिक्षित युवकों को सदस्य बनाया जाता है। 

इन उच्च शिक्षित युवकों को शायद यह व्यावहारिक ज्ञान नहीं है कि सत्ता में आने से सैन्य अधिकारियों को जो लाभ मिल सकते हैं वे लाभ उन्हें बिना सत्ता के ही मिल रहे हैं। फिर वे क्यों जान को जोखिम में डालें।

2014 के जिन चुनावों के माध्यम से शेख हसीना लगातार दूसरी बार के लिए सत्ता में आई उन्हें प्रहसन मात्र कहा जा सकता है। इन चुनावों में विपक्षी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) ने हिस्सा ही नहीं लिया था। इसलिए सत्ताधारी अवामी लीग के अधिकांश सांसद बिना किसी प्रतिद्वंद्विता के ही जीत गए थे। अमरीका और ब्रिटेन की अगुवाई में पश्चिमी देश काफी दिनों तक इन चुनावों को मान्यता देने से ना-नुकर करते रहे। 

उन्हें यह स्वीकार नहीं था कि एक कठपुतली चुनाव आयोग की अध्यक्षता में हुए चुनाव को वैध चुनाव मान लिया जाए। इसी तरह जिस ट्राइब्यूनल में जमाते इस्लामी के नेताओं पर मुकदमा चलाया जा रहा है उसकी प्रक्रिया से भी पश्चिमी देश खुश नहीं हैं। लेकिन शेख हसीना बड़ी होशियारी से इस स्थिति से निपट रही हैं। इसमें भारत का समर्थन उनके लिए काफी राहत देने वाला है। 

2014 के चुनावों को जब अमरीका, ब्रिटेन आदि किसी भी बड़े देश ने मान्यता नहीं दी थी तब भी भारत शेख हसीना के साथ खड़ा रहा। इसी के बल पर हसीना ने फिर से चुनाव करवाने के पश्चिमी देशों के दबाव के सामने झुकने से इनकार कर दिया।

हसीना समर्थक एक बुद्धिजीवी बिना झिझक इस बात स्वीकार करते हैं कि उनके यहां भारत जैसा लोकतंत्र फिलहाल संभव नहीं है। न ही ट्राइब्यूनल में पश्चिमी मानदंडों के अनुसार कानूनी प्रक्रिया अपनाते हुए युद्ध के अपराधियों पर मुकदमा चलाना। उनके अनुसार बांग्लादेश में अभी भी एक युद्ध चल ही रहा है। 

पाकिस्तान को हराने के बाद भी पाकिस्तानी मानसिकता को हराना अभी बाकी है। जमाते इस्लामी इसी मानसिकता का प्रतिनिधित्व करती है। ये लोग जमाते इस्लामी पर प्रतिबंध लगवाने के लिए दबाव बढ़ा रहे हैं। हर तरफ से घिर जाने के बाद पाकिस्तानी मानसिकता वाली जमाते इस्लामी के लोग आतंकवाद को अपना आखिरी अस्त्र मानते हैं। 

अपने नेताओं की फांसी और अपनी राजनीतिक सहयोगी बीएनपी के राजनीतिक मैदान में मात खाते जाने के बाद उसे आतंकवाद ही एक मात्र सहारा नजर आ रहा है। ऐसे में आईएस के लिटरेचर में जमाते इस्लामी की तीखी आलोचना को पढ़ना काफी दिलचस्प होता है। 

आईएस को जमाते इस्लामी की नीतियां इसलिए पसंद नहीं क्योंकि ये लोग चुनावों में हिस्सा लेते हैं। लोकतंत्र को आईएस वाले आदमी का बनाया हुआ नियम मानते हैं, जबकि शासन सिर्फ अल्लाह के बनाए हुए नियमों के अनुसार होना चाहिए।

शनिवार, 27 अगस्त 2016

कट्टरवाद बबुआ धीरे-धीरे आई

बांग्लादेश के एक अखबार के संपादक से मैंने कहा कि आपका नाम भी तो हिटलिस्ट में आया है। इस पर वे कहते हैं – मेरा नाम तो हर हिटलिस्ट में रहता है। उनके होठों पर हल्की सी मुस्कुराहट आती है और चली जाती है। शायद यह अभ्यासवश आई होगी। बांग्लादेश में ब्लागिंग का काफी प्रचलन है। ब्लाग के माध्यम से लोग अपने विचार स्वतंत्र रूप से प्रकाशित करते हैं। ब्लाग संपादकीय रोक-टोक से मुक्त होते हैं। रोकटोक न होने के कारण लोग धार्मिक विषयों पर भी खुलकर टिप्पणी करते हैं। मुस्लिम प्रधान होने के कारण अधिकतर इस्लाम को ही निशाना बनाया जाता है। ब्लागर ऐसी बातें भी लिख डालते हैं जो भारत में कोई उदार से उदार संपादक भी कभी छापने का साहस नहीं कर पाएगा।

ब्लागरों की वैचारिक स्वतंत्रता से हर इस्लामवादी को आपत्ति है लेकिन अल कायदा ने तो ऐसे ब्लागरों का खात्मा कर देने का बीड़ा ही उठा लिया है। अल कायदा नेताओं का कहना है कि उन्हें उनकी कलम की स्वतंत्रता है तो हमें भी हमारे छूरे की स्वतंत्रता है। पिछले तीन सालों में बांग्लादेश में अल कायदा के नाम से ऐसी कई हिटलिस्टें प्रकाशित हुईं और कहा गया कि इन-इन ब्लॉगरों या लेखकों को इस संगठन के लोग सबसे पहले खत्म करेंगे। इनमें कुछ सूचियां फर्जी थीं जिनके बारे में स्पष्टीकरण भी जारी हुए।

अल कायदा की धमकी सिर्फ धमकी नहीं थी। उसने शहबाग आंदोलन (2013) के बाद से अब तक कम से कम 8 ब्लॉगरों और प्रकाशकों की हत्या कर दी है। एक प्रकाशक की हत्या के बाद कहा गया कि प्रकाशक लेखक से भी ज्यादा खतरनाक होते हैं। अमरीकी नागरिक अभिजित रॉय की ढाका पुस्तक मेले से निकलते समय हत्या कर दी गई थी, जिसके बाद में अमरीकी सरकार ने भी बांग्लादेश सरकार पर अपना दबाव बढ़ाया। सभी हत्याओं का एक ही पैटर्न है। छूरा घोंपकर हत्या करना और शरीर को क्षत-विक्षत कर देना।

सरकार का रवैया अल कायदा की इन कार्रवाइयों पर बड़ा लचर और निराश करने वाला है। सरकार उल्टे ब्लॉगरों से ही कहती है कि वे अपनी लेखनी को लगाम दें। इसी साल एक ब्लॉगर निजामुद्दीन समद की हत्या के बाद गृह मंत्री ने कहा कि किसी को भी धार्मिक नेताओं पर लेखकीय हमला करने का अधिकार नहीं है। सरकार देखेगी कि निजामुद्दीन ने अपने ब्लॉग में क्या लिखा था। कुछ ब्लॉगरों को धार्मिक भावनाओं को आघात पहुंचाने के कथित जुर्म में जेल में भी डाल दिया गया है। एक ब्लॉगर बताते हैं कि वे जब सुरक्षा की गुहार लेकर थाने गए तो उन्हें सलाह दी गई कि जिंदा रहना चाहते हैं तो देश छोड़कर कहीं और चले जाइए।

दरअसल बांग्लादेश के ब्लॉगर देश छोड़कर जा भी रहे हैं। उनमें से ज्यादातर यूरोपीय देशों में शरण ले रहे हैं और कुछ अमरीका भी जा रहे हैं। जो नहीं जा पा रहे वे अपनी पहचान छुपाकर घूमते हैं। कोई कोई बताता है कि उसने अमुक ब्लॉगर को हेलमेट पहनकर सड़क पर पैदल घूमते देखा। लेकिन ऐसे भी हैं जो अब भी बांग्लादेश में ही रहते हुए कट्टरपंथियों को अपनी लेखनी का लक्ष्य बना रहे हैं। ऐसे ही एक निर्भीक शख्स हैं इमरान एच सरकार। इमरान सरकार गण जागरण मंच के संयोजक भी हैं और आतंकवादियों तथा कट्टरपंथियों के मुख्य निशाने पर हैं। गण जागरण मंच के ही बैनर तले कादेर मुल्ला को फांसी की सजा देने की मांग करने वाला शहबाग आंदोलन हुआ था।

एक विदेशी न्यूज़ एजेंसी ने जब इमरान सरकार से कहा कि वह उनके बयान के साथ उनका नाम नहीं छापेगी। इस पर सरकार ने कहा कि वे चाहेंगे कि उनका नाम अवश्य छापा जाए। क्योंकि नाम छुपाने पर आतंकवादियों के हौसले और बुलंद होंगे। वे लोग सोचेंगे कि स्वाधीन चिंतक (वैसे ब्लॉगरों को कट्टरपंथी खेमा नास्तिक कहकर पुकारता है) डर गए हैं, बयान के साथ अपना नाम नहीं दे रहे, उनकी योजना सफल हो रही है। इमरान सरकार अपनी सरकार और गृह मंत्री के रवैये से बिल्कुल नाराज हैं। उनका कहना है कि गृह मंत्री के बयान से हत्यारों के हौसले बढ़ेंगे।

इमरान सरकार अकेले ऐसे निर्भीक ब्लॉगर नहीं हैं। मारुफ रसूल भी इमरान सरकार की तरह ही अपने नाम के साथ बयान देने की जिद करते हैं। मारे गए एक प्रकाशक फैज़ल अरेफिन दीपन के पिता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं। उनका बयान सरकार और प्रशासन को सुनने में कड़वा तो लगा होगा लेकिन उससे सरकार के रवैये पर कोई फर्क नहीं पड़ा। दीपन के पिता ने अपने बेटे की हत्या के बाद कहा था कि वे इस सरकार से न्याय की मांग नहीं करेंगे। क्योंकि इस देश में न्याय है ही नहीं। ब्लॉगर आरिफ जेबतिक कहते हैं जब किसी ब्लॉगर की हत्या की खबर आती है तब उन्हें एक अजीब सी राहत की अनुभूति होती है। राहत यह कि चलो इस बार भी शिकार मैं नहीं कोई और बना है।

बांग्लादेश में एक चरम निराशा का वातावरण है। आरिफ कहते हैं मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों ने कट्टरपंथी हत्यारों और अतिवादियों के लिए रास्ता साफ और चौड़ा किया है। ज्यादा दिन नहीं हुए जब सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी बीएनपी ने तथाकथित नास्तिक ब्लॉगरों को फांसी देने की मांग करते हुए एक रैली की थी। इस रैली में पूर्व प्रधानमंत्री बेगम खालिदा जिया ने फरमाया था कि ये ब्लॉगर इस देश के लिए पराए लोग हैं। इन्हें फांसी दी जानी चाहिए। यह बात आरिफ की नजरों से छुपती नहीं कि इस बार पोइला बैशाख (बांग्ला नववर्ष दिवस जिसे बांग्लादेश में बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता रहा है और जो बांग्ला राषट्रवाद का एक प्रतीक भी है) के दिन पिछले सालों की अपेक्षा काफी कम उत्साह था।



भारत में वामपंथी विचारक और कवि स्वर्गीय गोरख पांडेय ने किसी समय एक व्यंगात्मक कविता लिखी थी ‘समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई’। समाजवाद तो धीरे धीरे भी नहीं आया लेकिन बांग्लादेश के संदर्भ में हम जरूर कह सकते हैं कि ‘कट्टरवाद बबुआ धीरे-धीरे आई’। कट्टरवाद बांग्लादेश में धीरे-धीरे अपने पांव पसार रहा है और लगता है सिर्फ बुद्धिजीवियों को ही उसकी पदचाप सुनाई दे रही है। शायद इसीलिए बुद्धिजीवी बुद्धिजीवी है।

इस्लाम की हिफाजत या महिलाओं को रोजगार

सात को ईद थी और दस को ढाका शहर अलसाया हुआ सा फिर से पटरी पर लौटने की कोशिश करता दिखा। अभी भी बड़ी संख्या में दुकानें खुली नहीं थीं। ढाका के ट्रैफिक जाम से और एक-दो दिनों के लिए राहत रहेगी। सुप्रीम कोर्ट में अभी कामकाज शुरू नहीं हुआ है लेकिन वकील लोग अपनी देशेर बाड़ी से शहर लोटने लगे हैं। 

सुप्रीम कोर्ट के वकील सुब्रत चौधरी का भी आज से व्यस्तता भरा दिन शुरू हो गया है। बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के हितों के लिए हिंदू, ईसाई और बौद्धों की संयुक्त संस्था के वे भी एक बड़े नेता हैं। सुब्रत को साफ दिखाई दे रहा है कि हालात दिन पर दिन बदतर होते जा रहे हैं। अपने बिंदास अंदाज में वे बताते हैं कि दाढ़ी रखने और सर पर टोपी पहनने का रिवाज बढ़ने लगा है। उनके चैंबर में उनके साथ और भी कई वकील बैठते हैं। ईद मनाकर लौटने पर सुब्रत ने उन्हें बधाई दी थी। इससे पता चला कि वे मुसलमान हैं। मैं कनखियों से देखता हूं उनकी सुब्रत की बातों पर क्या प्रतिक्रिया है। सभी अपने काम में व्यस्त दिखे। सुब्रत की असिस्टैंट लैपटाप पर टाइप करने में मुब्तिला थी। 

पिछले चालीस सालों में बांग्लादेश में आया अंतर सुब्रत को ज्यादा कचोट है। इस अंतर को हमने भी एक अलग तरीके से महसूस किया। बांग्लादेश के राष्ट्रीय म्यूजियम में वहां के प्रशासक ने विशेष अनुरोध कर हमें एक 22 मिनट की फिल्म दिखाई। उस फिल्म में 21 फरवरी 1952 को शुरू हुए भाषा आंदोलन से लेकर 1971 में बांग्लादेश के स्वतंत्र राष्ट्र बनने तक की गाथा को बड़े ही प्रामाणिक तरीके से दर्शाया गया है। फिल्म में सभी वास्तविक फुटेज हैं। 

हमने इस बात को खास तौर पर नोट किया कि छठे और सातवें दशक के फुटेज में शायद ही कोई ऐसा था जिसने अपने शरीर पर अपने धर्म को प्रचारित करने वाले प्रतीक धारण कर रखे थे। ढाका में आज भी अधिकतर मुस्लिम महिलाएं माथे पर बिंदी लगाती हैं और बुर्के का प्रचलन बहुत कम है। और उन फुटेज में तो आपको बिरला ही कोई टोपी या दाढ़ी वाला मिलेगा। 

उस फिल्म के दृश्यों को आधार बनाकर हम इस बात पर चिंतन कर सकते हैं कि आखिर वे कौन-सी शक्तियां हैं जिनके कारण दुनिया जाने-अनजाने में एक खास दिशा में बढ़ती जा रही है। पिछली आधी सदी में इस्लामिज्म या इस्लामवाद किस तरह फैला है इसका एक अंदाजा बांग्लादेश में इस्लाम के प्रतीक धारण करने वाले लोगों की संख्या में हुए इजाफे से लगाया जा सकता है। 

सुब्रत चौधरी सरकार की नीतियों से खफा हैं। उन्हें लगता है कि शेख हसीना भी अंततः इस्लामवादी ताकतों के सामने यदि घुटने नहीं टेक रही तो उन्हें संतुष्ट करने की कोशिश तो कर ही रही हैं। उदाहरण के रूप में वे हिफाजते इस्लाम के साथ सरकार के अच्छे रिश्तों को गिनाते हैं। बांग्लादेश में हिफाजते इस्लाम के त्वरित उत्थान और पतन की अपनी ही एक अनूठी कहानी है। 

बांग्लादेश में पुरानी और नई पीढ़ी के लोगों ने 1971 की यादों को भुलाया नहीं है। पाकिस्तान के साथ इस युद्ध में 30 लाख लोगों की जानें गई थीं। पाकिस्तान को तो बांग्लादेश के फेसबुक पोस्टर गंदी गालियों से संबोधित करते ही हैं, उनका अधिक गुस्सा अपने ही देश के उनलोगों के खिलाफ है जिन लोगों ने पाकिस्तानी सेना की मदद की थी। इसमें बांग्लादेश की जमाते इस्लामी नामक राजनीतिक पार्टी और अल बदर नामक संस्था अग्रणी थीं। 

कुल मिलाकर पाकिस्तान आज भी बांग्लादेश के बहुसंख्यक लोगों की घृणा का मुख्य केंद्र है। बांग्लादेश का समाज अपने नए राष्ट्र के उदय के समय से ही दो भागों में बंटा हुआ है। एक बहुसंख्यक समाज उनलोगों का है जिनलोगों ने पाकिस्तान की उर्दू थोपने की जिद के खिलाफ आवाज उठाई थी और इसकी परिणति स्वरूप पैदा हुए स्वाधीनता आंदोलन में हिस्सा लिया था या कम से कम उसकी सफलता चाही थी। 

दूसरा एक बहुत ही छोटा सा वर्ग उनलोगों का है जिसने उस समय पाकिस्तान का समर्थन किया था। इसमें जमाते इस्लामी के लोग तो हैं ही। उर्दूभाषी मुसलमानों को, जिन्हें वहां बिहारी मुसलमान कहा जाता है, इसीलिए ढाका में अच्छी नजर से नहीं देखा जाता। लोगों का मानना है कि इनलोगों ने 1971 में पाकिस्तानी फौज का साथ दिया था। 

स्वाधीनता समर्थक बहुसंख्यक लोग चाहते हैं कि 30 लाख लोगों की हत्या में पाकिस्तान की मदद करने वाले लोगों में से सभी को नहीं तो कम से कम उनके नेताओं को तो फांसी पर लटका ही दिया जाना चाहिए। शेख हसीना ने 2009 के चुनावों में यह वादा किया था कि फिर से उनकी सरकार आई तो वे ऐसे लोगों को फांसी पर लटकाएंगी। 

सत्ता में आने के बाद शेख हसीना ने ऐसे लोगों पर मुकदमा चलाने के लिए एक ट्राइब्यूनल का गठन किया। जिन लगभग एक दर्जन लोगों पर पाकिस्तानी सेना की मदद में नेतृत्व करने का आरोप था उन्हें गिरफ्तार कर उनके विरुद्ध मुकदमा शुरू कर दिया गया। 2013 आते-आते ऐसे पहले मुजरिम के खिलाफ फैसला भी आ गया। 

लेकिन इस फैसले से लोगों का गुस्सा एक बार फिर फट पड़ा। कारण यह कि मुजरिम अब्दुल कादेर मुल्ला को, जिसे लोग कसाई मुल्ला कहना ज्यादा पसंद करते हैं, ट्राइब्यूनल ने सिर्फ उम्रकैद की सजा सुनाई थी। ढाका में शहबाग नामक चौराहे पर फैसला सुनाने के दिन से ही लोगों का जमावड़ा शुरू हो गया। 

इस आंदोलन के दबाव में सरकार को फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करनी पड़ी और सुप्रीम कोर्ट ने ट्राइब्यूनल के फैसले को बदलकर सजाए मौत कर दिया। जमाते इस्लामी के बड़े नेताओं पर मुकदमे चल रहे थे और छोटे नेताओं और कार्यकर्ताओं को जेलों में भर दिया गया था, ऐसी स्थिति में इस्लामवादी खेमा पूरी तरह रक्षात्मक स्थिति में चला गया। लेकिन यह स्थिति ज्यादा दिन नहीं चलनी थी और नहीं चली। 

साल बीतते न बीतते हिफाजते इस्लाम नामक संस्था एक बड़ी शक्ति के रूप में उभरी। यह मूलतः कौमी मदरसे चलाने वाली संस्था है। इसके एजेंडा में दो मुख्य बातें थीं और हैं। एक, सरकार को कौमी मदरसों पर निगरानी करने और उनमें दखलंदाजी करने से रोकना, जिसके लिए शेख हसीना आमादा थीं। और दो, सार्वजनिक स्थानों पर पुरुषों और महिलाओं के मेलजोल की बढ़ती कथित रूप से गैर-इस्लामी आदतों को रोकना। 

इसके लिए हिफाजत ने महिलाओं के लिए शिक्षा और रोजगार आदि पर बंदिश लगाने वाले कई प्रस्ताव सरकार के सामने रखे थे। हिफाजत का सबसे बड़ा कार्यक्रम था 5 मई 2013 को ढाका पर कब्जा करने का। हिफाजत चूंकि मदरसों का संचालन करने वाली संस्था है इसलिए इसके पास मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों का अच्छा-खासा आधार है। 

इस दिन देश भर से मदरसा छात्रों को ढाका लाया गया। और उन्हें लाने वाले नेताओं का कहना था कि जब तक उनकी मांगों को मान नहीं लिया जाता वे राजधानी से वापस नहीं जाएंगे। 5 मई की रात को पुलिस और सशस्त्र बलों ने बत्तियां गुल करके मोती झील नामक इलाके में आपरेशन चलाया और हिफाजत समर्थकों से ढाका को खाली करवा लिया। 

आज भी आतंकवाद समर्थकों के बयानों में इस घटना का जिक्र आता ही आता है। अल कायदा नेता जवाहिरी का जो बांग्लादेश केंद्रित बयान इंटरनेट के माध्यम से प्रचारित हुआ था उसमें भी इस घटना का जिक्र था। इस्लामवादी ताकतों का कहना है कि इस दिन पुलिस आपरेशन में हजारों छात्रों को मौत के घाट उतार दिया गया था। 

लेकिन जल्दी ही स्थिति फिर उलट गई। हिफाजते इस्लाम को सत्ताधारी दल का पिछलग्गू कैसे बनाया गया इस पर कोई यदि किताब लिखे तो वह राजनीति में साम दाम दंड भेद के सफल प्रयोग की गाइडबुक बन जाएगी। ढाका में पत्रकारों को यह कहने से कोई गुरेज नहीं कि हिफाजत के नेताओं पर एक और तो पुलिस केस की तलवार लटका दी गई और दूसरी और सरकार की बात मानने से उनकी तिजौरियों को मनचाही दौलत से भर दिया गया। आज हिफाजते इस्लाम और शेख हसीना की अवामी लीग के नेता एक मंच पर बैठे दिख जाएं तो कोई बड़ी बात नहीं। 

इसी बात से सुब्रत चौधरी नाराज थे।

सोमवार, 15 अगस्त 2016

कहां है आईएस, ये तो घरेलू आतंकवादी हैं

ढाका के गुलशन नामक जिस इलाके में 1 जुलाई को आतंकवादी घटना हुई थी वह काफी पोश इलाका माना जाता है। सुंदर तालाब के किनारे बड़ी तरतीबी से बने इस इलाके में ज्यादातर देशों के दूतावास स्थित हैं। कुछ ही महीनों पहले यहां एक इतालवी नागरिक की हत्या कर दी गई थी। उस हत्या की जिम्मेवारी आईएस यानी इस्लामिक स्टेट ने स्वीकार की थी। 

उस घटना के थोड़े ही दिन बाद पश्चिमी बांग्लादेश में रंगपुर शहर के पास एक जापानी नागरिक की हत्या हुई थी। इसमें भी आईएस ने ऑनलाइन पोस्टिंग कर यह दावा किया था कि यह उसी का काम है। उसने साथ ही धमकी दी थी कि इस्लाम और ईसाई धर्मों के बीच चार सौ सालों तक चले धर्मयुद्ध यानी क्रूसेड में भाग लेने वाले देशों और उनकी मदद करने वाले जापान जैसे देश के नागरिकों पर उसका खतरा इसी तरह मंडराता रहेगा। 

खासकर मुसलमान आबादी वाले देशों में। उस समय भी सरकार की ओर से यह कहने में जरा भी देर नहीं की गई थी कि आईएस का बांग्लादेश में कोई अस्तित्व नहीं है। जो कुछ भी किया है बांग्लादेश के ही आतंकवादियों ने किया है। इस बार भी घटना घटते ही सरकार के उच्चतम स्तर से कह दिया गया कि यह देश के अंदर के आतंकवादियों की ही करतूत है। 

अचरज की बात है कि घटना घटने के साथ-साथ बिना किसी तहकीकात के सरकार को या प्रधानमंत्री को कैसे पता चल जाता है कि इसमें आईएस का हाथ है या नहीं।

जिस हड़बड़ी में प्रधानमंत्री और उनकी सरकार के मंत्री कहते हैं कि नहीं, नहीं आईएस जैसा हमारे यहाँ कुछ भी नहीं है उसी से पता चलता है कि जरूर सरकार को आईएस (या अल कायदा) का नाम सामने आने से घोर आपत्ति है। मैंने कई लोगों से इस बारे में पूछताछ की कि आखिर क्या कारण है कि सरकार आईएस के शामिल होने की बात स्वीकार करने से कतराती है। 

आखिर यही समझ में आया कि यदि आईएस का बांग्लादेश में अस्तित्व होने की बात स्वीकार कर ली जाती है तो उसके बाद ढाका पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव काफी बढ़ जाएगा। साथ ही बाहर से आने वाले निवेश पर भी इसका असर पड़ सकता है।

कुछ सुरक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि आईएस हो या न हो इससे क्या फर्क पड़ता है। फर्क तो इससे पड़ता है कि आतंकवादी अपना काम करने में सफल कैसे हो जाते हैं। अति सुरक्षित माने जाने वाले इलाके में कैसे आतंकवादी अस्त्र-शस्त्र लेकर घुस पाने में सफल हो गए।

शेख हसीना इस मामले में काफी होशियार हैं। अपने अनुभव से उन्हें पता है कि आईएस के अस्तित्व से वे जब तक इनकार करती रहेंगी तब तक अंतर्राष्ट्रीय मीडिया के लिए बांग्लादेश एक केंद्र बिंदु नहीं बनेगा। 

लेकिन जैसे ही आईएस के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया जाएगा वैसे ही अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में बांग्लादेश छा जाएगा। हर देश चाहता है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसका नाम हो। लेकिन कोई भी देश यह नहीं चाहता कि आतंकवाद के लिए वह अंतर्राष्ट्रीय जगत में पहचाना जाए।

बांग्लादेश की आमदनी का एक अच्छा खासा प्रतिशत आज वहां गारमेंट उद्योग से आता है। यदि अंतर्राष्ट्रीय मीडिया की कृपा से यह संदेश जाता है कि बांग्लादेश में भी आईएस का आतंक पसर गया है तो इसका सीधा असर इस उद्योग पर पड़ेगा। आज बांग्लादेश में जिसके पास भी थोड़ा पैसा है उद्योग में लगाने के लिए वही गारमेंट उद्योग में पैसा लगा रहा है। 

विश्व भर के खरीदार आज ढाका आते हैं और अपनी पसंद की पोशाकें ढाका की गारमेंट फैक्टरियों में बनवाते हैं। गुलशन की आर्टिजन बेकरी में जो इतालवी नागरिक मारे गए थे वे भी गारमेंट के खरीदार ही थे और अपना माल बनवाने ढाका आए थे।

अब सवाल यह है कि क्या अब भी समय वहीं रुका है कि आईएस के अस्तित्व से इनकार किया जाए। गलत प्रचार से बचने के लिए किसी चीज के अस्तित्व से इनकार करने की एक सीमारेखा होती है। 

जब वह सीमा पार हो जाती है तब आपको उसके अस्तित्व को स्वीकार करना ही पड़ता है। वरना लोग उसमें किसी साजिश की बू सूंघने की कोशिश करेंगे। एक तरह से यह साजिश है भी। भारत के असम प्रांत में भी तत्कालीन मुख्यमंत्री काफी समय तक उल्फा जैसे सशस्त्र संगठन के अस्तित्व से इनकार करते रहे। लेकिन एक सीमा के बाद उनका यह इनकार हास्यास्पद हो गया था।

बांग्लादेश में हर दूसरी चीज की तरह उग्रवादी हमले को लेकर भी एक के द्वारा दूसरी पार्टी पर आरोप लगाने का रिवाज है। एक उदाहरण, 12 जुलाई को ढाका में उग्रवाद, जिसे वहां जंगीवाद कहते हैं, के विरुद्ध सत्ताधारी मोर्चे की एक रैली थी। इस रैली में एक बड़े नेता का भाषण - बेगम जिया कैसे कहती हैं कि सही चुनाव करवाएं तो जंगीवाद खत्म हो जाएगा। 

इसका मतलब उन्हें पता है कि कौन यह सब कर रहा है। नेताजी इसका प्रमाण भी देते हैं। वे कहते हैं कि गुलशन की घटना के ठीक बाद विदेश से बेगम जिया के लिए एक फोन आया था। फोन करने वाले ने अपने आपको बेगम के बेटे तारेक रहमान का कर्मचारी बताया। इस फोन के आने के इर्द-गिर्द नेताजी एक रहस्य का जाल बुनते हैं ताकि लोग सोचने लग जाएं कि कहीं आतंकवादी हमले में सचमुच विपक्ष की नेता खालिदा जिया का हाथ तो नहीं। 

इधर एक मीटिंग में बीएनपी (खालिदा जिया की पार्टी) के एक बड़े नेता हन्नान शाह कहते हैं कि किसी की दलाली करने वालों की बातों पर ध्यान न दें। यह सत्ताधारी पार्टी के लिए कहा गया है। वह किसकी दलाली करती है? भारत की। बांग्लादेश में बिना बताए भी लोग इस बात को समझ जाते हैं। हालांकि बीएनपी वालों को खुलेआम भी भारत के विरुद्ध बोलने में कोई संकोच नहीं होता।

गुलशन की घटना के लिए किसी बड़े अखबार या किसी बड़ी पार्टी को भारत पर आरोप लगाते हुए नहीं देखा। लेकिन फेसबुक की पोस्टों पर अक्सर ऐसा होता है। गुलशन की घटना के लिए भी भारत को दोषी करार देने वाले लोगों की फेसबुक पर कमी नहीं। 

पिछले साल बांग्लादेश में कुछ दिनों के लिए सोशल मीडिया पर थोड़ा अंकुश लगाया गया था। लेकिन फिलहाल ऐसा कोई अंकुश नहीं है। जिहादी शक्तियां सोशल मीडिया का भरपूर उपयोग अपनी विचारधारा के प्रचार के लिए करती हैं।

पिछले दिनों अपने आपको बांग्लादेश में आईएस का चीफ बताने वाले शख्स का एक इंटरव्यू इंटरनेट पर पोस्ट किया गया। दरअसल मूल रूप से यह इंटरव्यू आईएस की ही अपनी एक (अंग्रेजी) पत्रिका को दिया गया था। इंटरव्यू में कहा गया कि अभी हमारा भारत पर ध्यान नहीं है। 

जब बंगाल और पाकिस्तान (आईएस और अल कायदा वाले कभी-कभार ही बांग्लादेश शब्द का इस्तेमाल करते हैं, वे ज्यादातर बंगाल शब्द का ही प्रयोग करते हैं। उनकी अपनी शब्दावली है। 

देश के नामों को भी वे अपने हिसाब से पुकारते हैं।) में हमारी ताकत काफी बढ़ जाएगी तब हम हिंदुस्तान पर हमला करेंगे और तब हिंदुस्तान की मुस्लिम आबादी वहां हमारी मदद के लिए तत्पर रहेगी ही। यही बात बर्मा के लिए कही गई है। वहां के मुसलमानों की स्थिति पर चिंता जाहिर की गई है लेकिन कहा गया है कि अभी हम उस पर ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहते।

ढाका में आज हर सोचने विचारने वाला व्यक्ति इसी बात से चिंतित है कि इस घटना से गारमेंट उद्योग पर बुरा असर पड़ेगा। मुझे विदेशी पत्रकार जानकर बुद्धिजीवियों का एक वर्ग यह स्वीकार करने में सकुचाता है कि असर पड़ेगा। बांग्लादेश के एक बड़े अखबार के संयुक्त संपादक सोहराब हसन कहते हैं कि नहीं कोई असर नहीं पड़ेगा यदि आगे ऐसी घटनाएं फिर से नहीं घटतीं। 

एक अन्य अखबार के सहायक संपादक अली हबीब कहते हैं नहीं ऐसा कुछ नहीं होगा। गारमेंट उद्योग तभी घट सकता है जब इसके कोई आर्थिक कारण हों, जैसे कि भारत या चीन की प्रतियोगिता में बांग्लादेश का माल महंगा हो जाना।

हबीब कहते हैं कि जब राना प्लाजा की घटना हुई थी तब भी आशंका की गई थी कि गारमेंट उद्योग पर इसका असर पड़ेगा। राना प्लाजा 2013 में घटी बांग्लादेश की एक अत्यंत ही दर्दनाक घटना है जिसमें एक आठमंजिला इमारत के पूरी तरह गिर जाने के कारण उसमें दबकर एक हजार से भी अधिक लोगों की जान चली गई थी। 

काफी दिनों बाद तक मलबे से लाशें निकलती रही थीं। उस इमारत में कई गारमेंट फैक्टरियां थीं और मरने वालों में लगभग सभी उन फैक्टरियों में काम करने वाली महिलाएँ थीं। इस घटना के बाद यूरोप और अन्य देशों में इस बात को लेकर काफी बहस हुई कि उनके देशों की कंपनियाँ बांग्लादेश में इतनी कम लागत पर काम करवाती हैं कि वहाँ कामगारों के काम करने की परिस्थितियाँ अत्यंत जोखिम भरी हैं।

रविवार, 7 अगस्त 2016

वो उदास थे या लेखक तुम खुद उदास थे


ढाका में चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात रहती है। यहां की पुलिस काफी चुस्त-दुरुत दिखती है। पुलिस वाले बंदूकों से लैस रहते हैं। हमारे होटल के बाहर भी विशेष रूप से पुलिस तैनात थी क्योंकि इस होटल में ज्यादाततर विदेशी रुकते हैं। 

होटल का नाम है होटल 71। 71 का मतलब है 1971 का मुक्ति युद्ध या स्वाधीनता संग्राम। बांग्लादेश में स्वाधीनता संग्राम को बात बात में याद किया जाता है। लोग अपने ईमेल आईडी अमूमन इस तरह बनाते हैं। जैसे – विनोद71, विनोद21 या विनोद52।

71 का मतलब तो हमने ऊपर बता ही दिया है, 21 का मतलब हुआ 21 फरवरी 1952 जिस दिन बांग्ला भाषा के लिए आंदोलन शुरू हुआ था और जो अंततः स्वाधीनता युद्ध में बदल गया। 52 भी 1952 को याद करते हुए रखा जाता है। टीवी चैनल में से भी एक का नाम एकुइशे चैनल है। जिन्ना की बांग्लादेश पर उर्दू थोपने की मूर्खता के कारण ही पाकिस्तान के दो टुकड़े हो गए।

हमारे होटल की पूरी थीम ही स्वाधीनता संग्राम पर थी। इसकी सजावट में पश्चिमी पाकिस्तान के साथ हुए गृह युद्ध की याद दिलाने वाली कलाकृतियाँ थीं। कमरों के नाम देखिए – लाल-सबुज (यानी लाल-हरा, बांग्लादेश के झंडे के रंग), बिजय। रेस्तरांओं के नाम स्वाधिकार, बिजय स्मरणी।

ढाका में ईद के एक-दो दिन पहले से ही छुट्टियाँ शुरू हो जाती हैं और लोग पूरी तरह दफ्तरों में आने लगे इसमें एक सप्ताह तक लग जाता है। गारमेंट फैक्टरियाँ पूरे दस दिनों के लिए पूरी तरह बंद रहती हैं। वृहस्पति, शुक्रवार और शनिवार को तो ढाका पूरी तरह सुनसान लग रहा था। 

रविवार को अखबारों में तस्वीरों के साथ खबरें छपीं कि देखिए लोग घरों से वापस आने लगे हैं। चूंकि ईद से पहले जाने वालों और अब ईद के बाद आने वालों की भीड़ काफी तगड़ी होती है इसलिए अखबारों में खबर छपना भी लाजिमी है। वैसे भी ईद के बाद खुमारी मिटाते हुए रिपोर्टर और क्या लिखेंगे।




मैंने ढाकेश्वरी मंदिर जाने के लिए एक रिक्शा ठीक किया। और उससे पूछ लिया कि पांच सौ टाका का छुट्टा हो जाएगा न। उसने कहा छुट्टा तो नहीं है। लेकिन गाहक छोड़ना भी नहीं चाहता था। हम दोनों ने ही सोचा देखा जाएगा। 

ढाकेश्वरी मंदिर हमारे होटल से 4.2 किलोमीटर दूर था। ढाका में इतनी दूर रिक्शे पर जाना आम बात है। वो भी तीन-तीन सवारियों को लादकर। लोग सजी-धजी पोशाकों में और लड़कियां होठों पर बेतरतीब-सी लिपस्टिक लगाए शायद अपने आत्तीय (आत्मीय) स्वजनों (रिश्तेदारों) के यहां ईद के आंमत्रण जा रहे थे। सभी रिक्शे में।

ढाकेश्वरी मंदिर एक ऐसे इलाके में है जिसे किसी भी दृष्टि से खास नहीं कहा जा सकता। बख्शी बागान। एक संकरी गली के बाहर रास्ते को रोकते हुए बैंच पर पुलिस वाले हथियार लिए बैठे थे तो मैंने समझ लिया कि यहीं मंदिर होगा। ढाका का नाम ढाकेश्वरी पर पड़ा या ढाकेश्वरी का नाम ढाका पर, इस पर मतभेद हैं। 

कहते हैं ढाक (बंगाल में प्रचलित ढोल जैसा वाद्य) की आवाज जितने इलाके में पहुंचती थी उस सारे इलाके का नाम ढाका पड़ा। ढाका की प्राचीनता की तुलना में कोलकाता बिल्कुल बच्चा है। कहते हैं मंदिर की स्थापना बारहवीं सदी में हुई थी। गली में जाते हुए हमें पुलिस वालों ने कुछ नहीं कहा, जबकि वे एक अन्य दंपति से काफी पूछताछ कर रहे थे। वे हिंदू बंगाली सज्जन कह रहे थे हम तो जमालपुर से आए हैं, आदि आदि।

मंदिर बिल्कुल छोटा-सा है। चूने और गारे से बना हुआ। कहते हैं इस मंदिर को 12वीं सदी के सेन वंश के राजा बिल्लाल सेन ने बनवाया। मंदिर के बाहर चारों ओर अट्टालिकाएं खड़ी हैं जिनके कारण दूर से कौन कहे, गली के बाहर से भी मंदिर दिखाई नहीं देता। मंदिर कई बार टूटा-फूटा और इस समय जो ढांचा खड़ा हुआ है कहते हैं वह ईस्ट इंडिया कंपनी के एजेंट ने बनवाया। 

कुछ विद्वान कहते हैं बनवाने का मतलब है मरम्मत करवाना। गर्भगृह के बाहर एक बड़ी छत और नीचे बैठने का स्थान बना हुआ है, जो बिल्कुल नया और चमाचम है। मंदिर से सटा हुआ एक तालाब है जैसाकि हर पुराने मंदिर के पास हुआ करता था। वहीं एक लाल बिल्डिंग है जिसमें हिंदू नेताओं का काफी आना-जाना होता है। ढाकेश्वरी न सिर्फ बांग्लादेश में हिंदू आस्था का केंद्र है बल्कि हिंदुओं की सुरक्षा को लेकर चिंतित लोगों का जमावड़ा भी वहीं होता है।

ढाकेश्वरी मंदिर को राष्ट्रीय मंदिर का ओहदा प्राप्त है। ढाका के एक इलाके रमना में स्थित काली मंदिर पहले सबसे बड़ा मंदिर हुआ करता था। लेकिन 1971 में उस मंदिर को आतताइयों का शिकार होना पड़ा। उसके बाद से ढाकेश्वरी ही बांग्लादेश में हिंदुओं की आस्था का सबसे बड़ा केंद्र है। 

मंदिर के अंदर भी सुरक्षाकर्मी थे। गर्भगृह के बाहर कोई कथा चल रही थी। गर्भगृह में दुर्गा की एक बहुत छोटी-सी पीली धातु की मूर्ति स्थापित थी। दुर्गा मंदिर के पास ही चतुर्भुज विष्णु का मंदिर है उसी गर्भगृह में। दुर्गा की आठ सौ साल पुरानी असली प्रतिमा यहां इस मंदिर में नहीं है। उसे कोलकाता के कुमारटुली के एक मंदिर में ले जाकर वहीं स्थापित कर दिया गया है। 
यहां के गर्भगृह में जो स्थापित है वह असली विग्रह की प्रतिकृति है। लोग – पुरुष और महिलाएं और युवा - चुपचाप और उदास से बैठे थे। क्या वे सचमुच उदास थे या उदासी हमारे मन के अंदर थी और हमें हर कोई उदास दिखाई दे रहा था। हिंदू समुदाय के लिए माइनॉरिटी शब्द का उच्चारण अब तक कई बार सुन चुका था। इसके लिए हमारे कान अभ्यस्त नहीं थे। हिंदू बहुसंख्यक देश से आए एक व्यक्ति को यह अजीब लगता है।

रविवार, 31 जुलाई 2016

देखिए न इस्लाम के नाम पर क्या कर दिया

जब भी बांग्लादेश जाना होता है उसके पहले पहले वहां हालात असामान्य हो जाते हैं। पिछली बार बांग्लादेश में घुसने से पहले ही वहां विपक्षी दल का पथ अवरोध शुरू हो गया था जिसमें बसों को आग लगाई जा रही थी। उस समय मुझे ट्रेन से होकर ही ढाका पहुंचना था, इसलिए मन में काफी डर था। 

इस बार वीसा बनवाने के बाद ढाका में एक जुलाई 2016 को गुलशन वाली घटना हो गई जिसमें आईएस के आतंकियों ने कई विदेशियों को मार डाला था। इसके तुरंत बाद किशोरगंज (शलोकिया) में ईद की नमाज के इमाम को मारने के लिए आतंकियों ने हमला किया जिसमें पुलिस वाले मारे गए। 

किशोरगंज की घटना के बाद सोचा कि कार्यक्रम रद्द कर दिया जाए। फिर कार्यक्रम को नहीं बदलने का फैसला किया। क्योंकि बार-बार जाना होता नहीं है। और सोचा कि इतनी बड़ी घटना हुई है तो कुछ ज्यादा जानकारियां मिल जाएंगी।

विमान बांग्लादेश एयरलाइंस को बोलचाल की भाषा में विमान या विमान बांग्लादेश कहते हैं। विमान के उड़ते ही उद्घोषक बिस्मालाह से शुरुआत करती है और अंत अल्लाह हाफिज से। बांग्लादेश का राष्ट्रधर्म इस्लाम होने के बाद से यह जरूरी है। 

एयरलाइंस काफी लचर व्यवस्था वाली है। एयरपोर्ट पर जो बस हमें विमान से गेट तक ले जाने के लिए खड़ी थी वह काफी धुंआ फेंक रही थी। उतना धुंआ फेंकने वाली आजकल हमारे यहां की सीटी बसें भी नहीं रहीं।

अंदर इमीग्रेशन के कई काउंटर तो हैं और विदेशियों के लिए अलग काउंटर भी, पर उन पर इतनी धीमी गति से कार्रवाई होती है कि एक-एक यात्री के लिए 7-8 मिनट लग जाते हैं। मैं जहां कतार में खड़ा था वहां किसी ने उल्टी कर दी थी या पता नहीं किस चीज की गंदगी थी। 

थोड़ी देर में हिजाब परिहित एक सफाई करने वाली महिला आई और उसे साफ कर दिया। मेरे आगे पांच लोग ही होंगे लेकिन खड़े-खड़े पांव दुखने लगे। मैं काउंटर के उस पार देख रहा था जहां मनी एक्सचेंज के करीब आधा दर्जन काउंटर थे। मैं सोच रहा था कि किस काउंटर से हमें डालर को टाका में बदलवाना चाहिए। 

ऐसा नहीं हो कि उधर दलाल पीछे पड़ जाएं। देखा कि सोनाली बैंक के काउंटर से लोग पैसे बदलवा रहे हैं। मैंने भी सोच लिया कि सोनाली बैंक के पास ही जाऊँगा। सोनाली बैंक का नाम किसी समय असम के अखबारों में खूब उछला था। उस समय उल्फा का बोलबाला था और खबरें थीं कि उल्फा के नेता परेश बरुवा का करोड़ों रुपया इसी बैंक में है। 

यह खबर भी निकली कि बांग्लादेश सरकार ने जब से सख्ती बढ़ा दी तब से उसका सारा पैसा बैंक में जब्त कर लिया गया। लेकिन इसके बारे में प्रामाणिक जानकारी मिलना मुश्किल है। खबरें तो ये भी थीं कि फुटबाल के शौकीन परेश बरुवा ने करोड़ों रुपए बांग्लादेश के विभिन्न कारोबारों में लगा रखे हैं।

कई फ्लाइटें एक साथ आई थीं। इमिग्रेशन के जिन काउंटरों पर बांग्लादेशी नागरिक अपने पासपोर्ट पर स्टांप लगवा रहे थे उन पर काफी भीड़ थी। लगभग सभी लोग रियाध, अबू धाबी, दम्माम और दुबई से लौटे थे। उनके पास काफी सामान था। इन देशों से भारत आने वाले यात्री भी जमकर खरीदारी करके आते हैं। आने वाले यात्री उन देशों में काम करते हैं। 

काफी यात्रियों के साथ उनकी पत्नियाँ भी थीं जो काले बुर्के में थीं। काफी पुरुष भी अरब शैली के लंबे चोंगे में थे और उनके बच्चे भी। दक्षिण एशियाई देश बांग्लादेश के माहौल में यह हास्यास्पद लग रहा था।

पहली बार किसी एयरपोर्ट पर देखा कि सामान वाले आधे बेल्ट एक तरफ हैं और आधे बेल्ट दूसरी तरफ। इमिग्रेशन अधिकारी ने सरलता से पूछा ढाका क्यों आए हैं। मैंने कहा किसी परिचित से मिलने। तो उसने कहा - सौजन्यमूलक मुलाकात करने? शुद्ध बांग्ला बोलने का टिपिकल बांग्लादेशी स्टाइल।

सोनाली बैंक के काउंटर पर एक डालर के अस्सी टाका और बीस पैसे के हिसाब से टाका मिल गए। बस डालर लिया, उसे देखा, परखा कि असली तो है न और टाका दे दिए। कोई कमीशन वगैरह नहीं। पास के काउंटर से चार सौ टाका में बांग्लालिंक का सिम कार्ड, टॉक टाइम और डाटा भरवा लिया। आगे कौन यह सब करता रहेगा। बाहर निकलने के गेट पर सूटकेश को एक्स रे कराना पड़ा। खैर!

टैक्सी के काउंटर पर पूछा कि अमुक जगह जाने के कितने तो उसने चार्ट देखकर कहा चौदह सौ। मैंने अपनी सूटकेश पकड़ी और कहा कि बाहर तीन सौ में सीएनजी ले लूंगा। यहां ऑटोरिक्शा को सीएनजी कहते हैं क्योंकि वे सीएनजी से चलते हैं। टैक्सी के काउंटर वाले ने कहा कि नाराज क्यों होते हैं चलिए सौ टाका कम दे दीजिएगा।

मैंने कहा सात सौ दे सकता हूं। मेरे लाख रुखापन दिखाने के बावजूद उसने सात की जगह आठ सौ के लिए मुझे मनवा ही लिया। आखिर हमारा होटल था भी 18 किलोमीटर दूर। आते समय इतनी ही दूरी के लिए ऑटो वाले को तीन सौ टाका दिए। ऑटो यानी सीएनजी और टैक्सी में इतना फर्क तो होता ही है।

टैक्सी कंपनी का कर्मचारी हमारी मदद के लिए हमारे साथ हो गया। उसने कहा बस टैक्सी आ ही रही है। उसने ड्राइवर को फोन कर दिया था। कहा कि चेकिंग के लिए पांच मिनट लेट हो रहे हैं। गुलशन की घटना के बाद चेकिंग बढ़ा दी है। देखिए न इस्लाम के नाम पर कितना बुरा काम कर दिया। 

मैंने पूछा यहां जो इतनी पुलिस मिलिटरी है हमेशा रहती है या इस घटना के बाद लगा दी है। उसने कहा हमेशा रहती है। फिर और भी कुछ-कुछ बताने लगा। नई बात यह हुई है कि अब एयरपोर्ट आने वाली हर टैक्सी और गाड़ी के यात्रियों को उतारकर बाकायदा तलाशी ली जाती है।

टैक्सी पर पानी के छींटें लगे हुए थे। पता नहीं धुलाई करके लाया था या और कुछ। यह एक काफी पुरानी टोयोटा कार थी। ढाका में जितनी भी कारें हैं वे सभी टोयोटा हैं। दूसरी कंपनियां अपवाद स्वरूप ही दिखाई देती हैं। टोयोटा भी जापान से पुरानी रीकंडीशंड की हुई आती हैं। 

2012-13 के मॉडल का करीब 22-23 लाख टाका पड़ जाता है। कारों के बहुत दाम हैं क्योंकि आयातित कारों पर 300 फीसदी तक ड्यूटी लगती है। मैंने पूछा कुछ लोगों को ड्यूटी से छूट मिल जाती होगी। 

लेकिन नहीं, यहां सिर्फ संसद सदस्यों को ही यह छूट मिलती है। आखिर जनता के प्रतिनिधियों को जनता से मिलने के लिए काफी घूमना भी तो पड़ता होगा।

रविवार, 24 जुलाई 2016

क्यों बीमार है बांग्लादेश का हिंदू हेडमास्टर



ढाका के पास ही लगभग 18 किलोमीटर दूर नारायणगंज है। ढाका का ही एक हिस्सा। वहां एक स्कूल के हेडमास्टर श्यामल कांति भक्त आजकल बीमार चल रहे हैं। डाक्टरी परीक्षण में बीमारी का कोई कारण पकड़ में नहीं आता। डाक्टर कहते हैं इनके शरीर में कोई गड़बड़ी नहीं है। फिर भी उन्हें भूख नहीं लगती, उल्टियां आती हैं और रात को एक मिनट भी नींद नहीं आती। पहले नारायणगंज में इलाज करवाया फिर ढाका के अस्पताल में भर्ती रहे। अंततः वापस अपने घर लौट आए। 

श्यामल कांति की बीमारी है खौफ जो उनके अंदर घुस गया है। लगभग तीन महीने पहले की बात है, उन्होंने अपने एक छात्र की पिटाई कर दी थी। जैसा कि अमूमन होता है पिटाई करते समय उन्होंने गुस्से में कुछ बोला भी होगा।

नारायणगंज में खबर फैल गई कि हेडमास्टर ने इस्लाम को लेकर कुछ गलत-सलत कहा है। नारायणगंज में जनरल एरशाद की जातीय पार्टी के सांसद सलीम उस्मान की दबंगई चलती है। इस्लाम के कथित अपमान को सह पाने में असमर्थ यह दबंग नेता अपने गुर्गों के साथ श्यामल कांति के स्कूल में गया और उन्हें उनके ही छात्रों के सामने कान पकड़कर बैठने के लिए मजबूर कर दिया। 

श्यामल कांति कान पकड़कर अपने स्कूल के बाहर बैठे रहे और उनके छात्र और भीड़ खड़ी-खड़ी इसका नजारा लेती रही। और आईंदा ऐसा किया तो तुम्हारे परिवार सहित तुम्हें उठाकर बांग्लादेश से बाहर कर दूंगा, जैसा भी कुछ कहा होगा, सलीम उस्मान ने।

एक शिक्षक के लिए इससे बुरा और कुछ नहीं हो सकता। श्यामल कांति ने बिस्तर पकड़ लिया। रात को भी उन्हें लगता कि उस्मान के गुर्गे आ रहे हैं और उनके साथ मारपीट करेंगे। नारायणगंज में किसी का साहस नहीं था कि उस्मान परिवार के खिलाफ आवाज उठाए। लेकिन जिसका कोई नहीं होता उसका मीडिया होता है।

बांग्लादेश का मीडिया कुल मिलाकर अब भी सेकुलर बना हुआ है। उसमें इस घटना की जमकर निंदा हुई। अंततः सरकार जागी और श्यामल कांति के घर पर सुरक्षा दे दी गई। लगभग तीन महीने बाद श्यामल कांति पुलिस सुरक्षा के साथ अपने स्कूल गए। अखबारों वालों के लिए अपने छात्रों के बीच खड़े होकर फोटो खिंचवाई। यह अलग बात है कि फोटोग्राफरों के लाख मुस्कुराने के लिए कहने पर भी श्यामल कांति अपने होठों पर मुस्कुराहट नहीं ला पाए।


बांग्लादेश के अखबार साफ लिखते हैं कि श्यामल कांति पर अत्याचार करना इसलिए संभव हुआ कि वे हिंदू समुदाय से थे। अत्याचार करने वाले को पता था कि यह आदमी उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा। बस एक दिन चुपचाप बांग्लादेश छोड़कर कहीं दूसरे देश चला जाएगा। 

एक अखबार के संपादक बताते हैं कि बांग्लादेश के हिंदुओं में फिर से एक बार बांग्लादेश छोड़कर भारत चले जाने की आपाधापी मची है। जाने की तैयारी करने वाला पूछने पर कभी नहीं बताएगा, लेकिन संपादक महोदय ने बताया कि उनके कुछ परिचित भी इस बारे में विचार कर रहे हैं। ज्यादातर लोग पश्चिम बंगाल जाने की सोचते हैं। क्योंकि असम जाने पर आसमान से गिरकर खजूर पर लटकने जैसी बात हो जाती है।

हिंदुओं को बांग्लादेश में अवामी लीग का पिट्ठू समझा जाता है। करीब दस फीसदी हिंदुओं का समर्थन अवामी लीग को एक ठोस आधार प्रदान करता है। इसी कारण हर चुनाव के पहले और बाद में हिंदू बहुल इलाकों में धमकियों का दौर चलता है।

 विपक्षी यह कोशिश करते हैं कि हिंदू वोट ही न दे पाएं क्योंकि उनके वोट सौ फीसदी अवामी लीग के ही पक्ष में पड़ने की संभावना रहती है। बांग्लादेश में जब भी कोई बड़ी घटना घटती है तो छोटे गांवों और शहरों के हिंदू डर से मां काली को याद करने लगते हैं। जमाते इस्लामी की छात्र शाखा इस्लामी छात्र शिविर अपनी वहशियाना हिंसा के लिए कुख्यात है। आम लोगों की कौन कहे, वे लोग सीधे पुलिस के सिपाहियों को ही अपना लक्ष्य बनाते हैं।

शेख हसीना इस स्थिति से निपटने के लिए पूरी तरह पुलिस, खुफिया एजेंसियों और सशस्त्र बलों पर निर्भर हो गई हैं। पुलिस को अत्यधिक अधिकार मिले हुए हैं। 

ग्लादेश की रैब (रैपिड एक्शन फोर्स) का गठन सिर्फ आतंकवाद और नशीली दवाओं की तस्करी को रोकने के लिए किया गया था। रैब में सेना के लोग भी भर्ती हैं। इस तरह बांग्लादेश के सिविल प्रशासन में सेना की भूमिका को संस्थागत रूप दे दिया गया है। सरकार और उसके मंत्री रैब तथा अन्य सुरक्षा एजेंसियों का इस्तेमाल अपने राजनीतिक विरोधियों को खत्म कराने के लिए करते हैं। यहां तक कि बांग्लादेश में यह एक मुख्य राजनीतिक मुद्दा बनकर उभरा है।

राजनीतिक विरोधी का अगवा कर उसका कत्ल करवा देने को वहां गुम करवा देना कहते हैं। गुम सत्ताधारी दल के पास एक बहुत बड़ा हथियार है। जब राजनेता गंदे कामों में लिप्त हों तो अफसर पीछे क्यों रहेंगे। रैब जैसी एजेंसियों के अधिकारी भी अपने स्वार्थ के लिए धनी लोगों को गुम करवा देते हैं।


बांग्लादेश की राजनीति में इतनी अधिक आपसी कड़वाहट है कि दोनों बेगमें सार्वजनिक स्थानों पर या तो एक साथ कभी आती नहीं। और यदि आती भी हैं तो एक दूसरे को अभिवादन तक नहीं करतीं।

यहां तक कि पिछले दिनों जब विपक्षी खालिदा जिया के एक बेटे की मृत्यु हो गई तो सांत्वना देने के लिए शेख हसीना उनके घर जाना चाहती थीं। लेकिन बेगम जिया ने घर के बाहर तक आई हुई शेख हसीना को वापस जाने के लिए मजबूर कर दिया। उन्हीं की देखादेखी उनके नीचे के नेता लोग करते हैं। बांग्लादेश में नाम के लिए लोकतंत्र है लेकिन लोकतंत्र की आत्मा कहीं नहीं है। चुनाव होते हैं लेकिन निर्वाचन आयोग स्वतंत्र नहीं है। सरकार के इशारे पर चलता है, इसलिए स्वतंत्र चुनाव हो नहीं पाते।

न्यायपालिका में सुनवाई का प्रहसन होता है लेकिन फैसला वही आता है जो सरकार चाहती है। जजों की नियुक्ति आदि के नियम ऐसे हैं कि जज सरकार के मौखिक निर्देशों का पालन करने को ही अपने कैरियर के लिए अच्छा समझते हैं। अदालतों में साधारण लोगों के मामले सालों तक लंबित रहते हैं जबकि राजनीतिक मामलों पर फैसला काफी तेजी से होता है यदि इसके लिए सरकार की ओर से निर्देश आया हुआ हो तो। 

मौखिक निर्देश देते-देते सरकार की ऐसी आदत हो गई है कि अब वह अदालतों के लिए सार्वजनिक रूप से भी बयान जारी करती है। गुलशन की घटना के बाद सरकार ने फरमान जारी कर दिया कि अदालतें आतंकवाद संबंधी मामलों में जमानत देने के समय सावधानी बरतें।

रविवार, 17 जुलाई 2016

संगीत और कला का शहर विएना

हर यूरोपीय शहर की तरह विएना में भी ट्राम और ट्रेन का जाल बिछा है। दूसरे शहरों की तरह यहां भी एक ही टिकट से आप ट्राम, ट्रेन, सबवे और बस में यात्रा कर सकते हैं। शोनब्रुन पैलेस ही यहां देखने लायक है, जैसे दिल्ली में लाल किला। यह भी हैब्सबर्ग साम्राज्य के सम्राटों की आरामगाह था।

विएना में निश्चित स्थान पर ऑपेरा के पोस्टर लगे होते हैं
 यहां यह रिवाज है कि आरामगाह के तौर पर जो महल बनवाए जाते थे उनमें एक गार्डेन और यह चिड़ियाखाना (टियरगार्टन) भी होता था। शोनब्रुन में भी चिड़ियाखाना है जिसे देखने के लिए टिकट है। मजे की बात है कि महल की देखरेख एक सरकारी कंपनी के जिम्मे है और वह कंपनी अपना सारा खर्च खुद ही निकालती है सरकार से कोई मदद नहीं लेती। टिकट से अच्छी खासी आमदनी हो जाती है।

विएना खुला-खुला है। प्राग ही तरह बंद-बंद नहीं। वैसे भी धूप निकलने के कारण सबकुछ ज्यादा अच्छा लग रहा है। पता नहीं क्यों यहां जापानी सैलानियों की भरमार है।

बिग बस के बारे में पहले नहीं सुना था। यह कई पर्यटन के लिए प्रसिद्ध शहरों में चलती है। इसमें आप जहां चाहे उतर जाएं और फिर घूमघाम कर अगली बिग बस में चढ़ जाएं। साथ में कई भाषाओं (हिंदी सहित) वाला ऑडियो गाइड दिया जाता है जिसे कान से लगाने पर आपको सारा विवरण मिलता रहता है।

विएना कला का शहर है। संगीत सम्राट बीथोवन और मोजार्ट यहीं के थे। मनोविज्ञान को अपने सिद्धांतों से उलट-पलट कर देने वाले फ्रायड भी वियेना के ही थे। शहर म्यूजियमों से भरा है। सड़कों पर निश्चित स्थान पर पोस्टर लगे हैं, ऑपेरा और थियेटर के होने वाले शो के।

पैलेस में भी एक थियेटर है जिसमें शाम को शो होने वाला है। गार्डेन में कला के अनुपम नमूनों के रूप में मूर्तियां भरी पड़ी हैं। ये मूर्तियां ग्रीक मिथक, इतिहास और संस्कृति पर आधारित हैं। इनमें होमर के महाकाव्य इलियाड, ओडिसी आदि की कहानियां शामिल हैं। ब्रुटस की भी एक मूर्ति लगी है जिसमें एक हाथ में वह लुक्रेशिया को थामे हुए है। 

शेक्सपीयर की रचना रेप आफ लुक्रेश में यह प्रकरण आता है। ईशा से 500 साल पहले की इस कहानी में प्रकरण है कि लुक्रेशिया का रोम के राजा के पुत्र सेक्सटस ने बलात्कार कर लिया था। लुक्रेशिया ने इसके बारे में अपने पति को बताने के बाद छूरा घोंपकर आत्महत्या कर ली। 

विएना में एक व्यक्ति संगीतकार मोजार्ट की मूर्ति बनकर खड़ा है। मोटार्ट विएना का ही था।
बाद में इसी घटना को केंद्रित करते हुए राजा के विरुद्ध विद्रोह हुआ और तख्तापलट हो गया। एक मूर्ति कृषि, विवाह और मृत्यु की देवी सेरिस की है। यह पुनरुत्पादन या उपजाऊपन का प्रतिनिधित्व करती है। पुनरुत्पादन की पूजा करने का हमारी संस्कृति में भी रिवाज है। 

कुल मिलाकर इस बगीचे में आप एक-एक मूर्ति के पीछे के इतिहास में जाएं तो यूनानी सभ्यता, संस्कृति और परंपरा के बारे में आपको अच्छी जानकारी हो जाएगी। विएना में सड़कों के किनारे भी सुंदर लाल और पीले ट्यूलिप खिले हुए हैं। 

इन्हें देखकर हमारे यहां के एक सज्जन की याद आती है जो सुबह-सुबह उचक-उचक कर फूल तोड़ते हैं और इस बात को सुनिश्चित करते हैं कि अंतिम फूल भी तोड़ लिया जाए। पता नहीं फूल का जन्म पूजा में चढ़ने के लिए हुआ है या भंवरों को आकर्षित करने के लिए।

बर्लिन और न्यूरमबर्ग में परिवार के बीच रहने के कारण यूरोप के पारिवारिक मूल्यों के बारे में जानकारी हासिल हुई। अब तक जो जानकारी थी वह सिनेमा और उपन्यासों पर आधारित थी। न्यूरमबर्ग में मेरी मेजबान मारिया इग्लिच अपने दूसरे पति के साथ रहती हैं। 

दूसरा पति, बच्चे की गर्लफ्रेंड आदि ऐसे शब्द हैं जिनका हम भारतीय खुलकर उच्चारण नहीं करते। लेकिन मारिया बताती हैं कि उसके तीनों बच्चे उसके पहले पति से हैं। बच्चे अब साथ नहीं रहते क्योंकि बड़े हो गए हैं। क्या उनकी शादी हो गई है। नहीं। 

हमें बड़ा अजीब लगता है कि शादी भी नहीं हुई और बच्चे अलग रहने लग गए वो भी लड़के ही नहीं लड़कियां भी। मारिया के पति स्टीफन अंग्रेजी समझते हैं लेकिन बोल नहीं पाते। वे भी अपने लड़के की तस्वीर दिखाते हैं साथ ही उसकी मैक्सिकन गर्लफ्रेंड की भी। 

स्टीफन और मारिया दोनों के माता-पिता भी अलग रहते हैं। यानी तीन पीढ़ियां अलग-अलग रहती हैं। और यह यूरोप में बिल्कुल सामान्य बात है। मारिया और उसके पति पूरे परिवार के एकत्र होने के मौके की तस्वीर भी दिखाते हैं।

न्यूरमबर्ग में मारिया के घर में रहने के दौरान एक मित्र की याद बरबस चली आती थी। उनके घर में एक जैसे कप-प्लेट और चम्मच बिरले ही मिलते थे। वे बिना किसी संकोच के बताते थे कि ये विभिन्न होटलों से चुराए हुए कप-प्लेट और चम्मच हैं इसलिए इनका सेट नहीं है। यह हमारे जातीय चरित्र पर एक टिप्पणी है। 

कई भारतीय होटलों में चेकआउट के समय होटल का कर्मचारी कमरे में जाकर यह देखता है कि कोई चीज चोरी तो नहीं हुई। मारिया अपना पूरा घर मेरे जिम्मे सौंपकर चाबियां मुझे थमाकर अपने दफ्तर चली गई थीं। कह गई थीं कि वह रात दस बजे आएंगी और चाहूं तो फ्रिज से कुछ भी निकालकर खाता रहूं। 

घर में किसी कमरे में कोई ताला-वाला नहीं लगा था। यह कोई अपवाद नहीं बल्कि यूरोप के लिए एक सामान्य बात थी। क्लेश आफ सिविलाइजेशन के लेखक ने और एक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी थी जिसका नाम था ट्रस्ट। इस पुस्तक में दिखाया गया है कि जो संस्कृतियां उच्च स्तर के विश्वास पर आधारित हैं उनका अधिक विकास हुआ है।

मारिया का दफ्तर भी शनिवार को बंद रहता है। इस दिन नाश्ते पर काफी सारी बातचीत हुई। सुबह-सुबह मोटा सा 72 पृष्ठों का अखबार भी आ गया जिसकी कीमत 2.90 यूरो थी। यह शनिवार और रविवार दोनों दिनों के लिए था। यानी रविवार को अखबार नहीं निकलता। 

इस बात में तो कोई शक ही नहीं है कि दक्षिण एशिया में अखबार जितनी कम कीमत में मिलते हैं दुनिया में और कहीं नहीं मिलते। लेकिन क्या यह भी सही है कि जो इलाका जितना अधिक अशांत और गड़बड़ी वाला होता है वहां उतने ही अधिक अखबार निकलते हैं और उतनी ही कम कीमत में। 

जर्मन भाषा में रोमन अक्षरों के उच्चारण अंग्रेजी से थोड़े भिन्न हैं। अखबार को साइटुंग कहा जाता है लेकिन इस शब्द में स के लिए जेड वर्ण का प्रयोग किया जाता है। जेड को स पढ़ते हैं, लेकिन कई तरह के स होते हैं। सी की बजाय के का प्रयोग ही ज्यादा होता है। जर्मन में जैसे लिखा जाता है वैसे ही पढ़ा जाता है। 

अंग्रेजी में जिसे बर्गर पढ़ा जाता है जर्मन में उसीको बुर्गर पढ़ा जाएगा। यानी कहीं यू है तो अक्सर उसका उच्चारण भी उ होता है, जैसे साइटुंग में। कल्चर को कुलटुर लिखते हैं और यही पढ़ते हैं। जे को य और वाई को ज पढ़ा जाता है। लेकिन जर्मन लोगों को गर्व करते सुना जा सकता है कि जर्मन भाषा सीखना बहुत कठिन है।

रविवार, 10 जुलाई 2016

चार घंटे यूरोपीय ट्रेन में

ट्रेन छूटने के समय से पांच मिनट पहले आई और समय पर छूट गई। आने और जाने के समय कोई ईंजन की सीटी की आवाज नहीं। पश्चिम में आवाज से काफी परहेज किया जाता है। इस ट्रेन को दो कंपनियां सीडी (चेस्के ड्राही) और ओबीबी (यह विएना की है) मिलकर चलाती हैं। ट्रेन अपने नंबर से जानी जाती है। इस ट्रेन का नाम 75 है। 

कौन सा फर्स्ट क्लास, कौन सा सेकेंड क्लास और कौन सा रेस्तरां सब पहले से फिक्स है। मेरी सीट के ऊपर नंबर के साथ स्क्रीन पर लिखा है यह प्राग से विएना के लिए है। दूसरे यात्रियों की तरह मैंने भी अपनी जैकेट उतारकर खूंटी पर टांग दी। सीट के नीचे ही छोटा कूड़ा गिराने का स्थान है। 

पैर से उसे खोलना पड़ता है। बड़ा कूड़ा टॉयलेट के पास के कूड़ेदान में गिराया जा सकता है। आधी सीटें खाली हैं। परसों जिस बस में न्यूरमबर्ग से प्राहा या प्राग आया था उसमें लगभग 100 की क्षमता थी लेकिन यात्री दस ही थे।

डर था कि शायद कंडक्टर क्रेडिट कार्ड मांगेगी जो कि बर्लिन में खो गया। लेकिन उसने केवल पासपोर्ट मांगा। इस ट्रेन में क्रेडिट कार्ड की जरूरत नहीं होती। बर्लिन से न्यूरमबर्ग आते समय क्रेडिट कार्ड मांगा था (वह जर्मनी की राजकीय कंपनी डीबी थी)। 

वे लोग पासपोर्ट को नहीं मानते। यह उनका नियम है। ऑनलाइन टिकट पर ही साफ लिखा था। मैंने कहा कि मुझे पता है, लेकिन अब खो गया तो क्या करेंगे, मैं तो आपके इनफॉर्मेशन पर पूछकर चढ़ा हूं। कंडक्टर समझी नहीं। पास बैठी युवती ने जर्मन में बताया तो समझी और मान गई। 

बर्लिन से न्यूरेमबर्ग के बीच तीन कंडक्टरों ने टिकट चेक किया था। सभी किसी एयरहोस्टेस की तरह नम्र व्यवहार वाली थीं। हाथ में पकड़ी मशीन से टिकट का बारकोड स्कैन कर लेती थीं, लेकिन बार-बार नहीं।

यह फर्स्ट क्लास है। फर्स्ट क्लास में आधे लीटर की पानी की बोतल और अखबार फ्री मिलता है। अंग्रेजी अखबार इनके पास नहीं है। वाई-फाई भी नहीं है हालांकि दूसरी ट्रेनों में है। कहते हैं इसमें भी हो जाएगा। कुछ सीटें उन यात्रियों के लिए हैं जो 10 साल से नीचे के बच्चों के साथ यात्रा कर रहे होते हैं। 

ये सीटें हमेशा के लिए निश्चित हैं। वहां उनके खेलने के लिए एक गेम दिया जाता है और साथ में खेल के नियम भी। बच्चों के लिए सिनेमा का प्रावधान भी है। अक्षम यात्रियों के लिए व्हीलचेयर ले जाने लायक अलग से सीट बना दी जाती है। फर्स्ट क्लास में एक बिजनेस क्लास भी है जिसमें एक पेय और पचास क्राउन (2 यूरो) का कूपन दिया जाता है, जो इच्छा हो मंगा लो। 

पांव के लिए ज्यादा स्पेस। ट्रेन 155 की गति से चल रही है। सामने स्क्रीन पर सबकुछ आता रहता है, आप किस ट्रेन में किस वैगन में बैठे हैं, ट्रेन की गति, आने वाले स्टेशन (स्टेशनों) का समय और नाम। बाहर आज धूप निकली है। शायद फोटोग्राफी अच्छी कर पाना संभव हो। आप ट्रेन में साइकिल भी ले जा सकते हैं। साइकिल और प्राम रखने के लिए प्रावधान हैं।

रेस्तरां के स्टाफ आर्डर लेने आते हैं और आप खाने के सामान का मेनू देखकर आर्डर दे सकते हैं। यानी हवाई यात्रा की तरह। ट्रेन में एक-दो डिब्बे शांत डिब्बे होते हैं उसमें बैठने वालों को अपने मोबाइल को स्विच ऑफ करना पड़ता है, फोन करने या रिसीव करने से परहेज करना पड़ता है, म्यूजिक नहीं बजा सकते हेड फोन लगाकर भी और बातें धीमी आवाज में करनी होती है। वैसे भी यहां हर कोई धीमी आवाज में ही बातें करता है।

बाहर सरसों के खेत हैं और फूल खिले हुए हैं। क्रिसमस ट्री बहुतायत में उगे हुए हैं जिन्हें हमारे यहां काफी प्रीमियम दिया जाता है। कहीं भी मनुष्य या अन्य कोई भी जीव जंतु दिखाई नहीं देता। 

पास बैठी कैलिफोर्निया की महिला ने कहा कि उसे यात्रा में दिक्कत होती है, कोई खाली सीट हो तो बताना। वह शायद सोएगी। होस्ट (वेटर) ने कहा कि मैं देखकर बताता हूं। थोड़ी देर बाद महिला अपने पति के साथ दूसरी किसी सीट पर चली गई।

11.47 बज गए और पहला स्टेशन पार्डुबाइस आ गया। यह कोई औद्योगिक शहर लगता है। छोटा-सा। प्राग की आबादी 12 लाख है। अभी चेक गणराज्य ही चल रहा है। क्योंकि स्टेशन के लिए हालविना नाडराजी लिखा हुआ आ रहा है।

गार्ड ने हल्की सी सीटी बजाई, ऑटोमैटिक दरवाजे बंद होने का पीं-पीं पीं-पीं संकेत हुआ और गाड़ी 11.49 पर चल पड़ी। प्लेटफॉर्म खाली पड़े हैं। बाहर धूप निकल आई है। अगला स्टेशन 12.22 पर सेस्का ट्रेबोवा है। बाहर का दृश्य उबाने वाला है। खेत दिख रहे हैं लेकिन खेतिहर कहीं नहीं। गति वही 160। 

रास्ते के स्टेशनों पर कोई झंडी दिखाने वाला नहीं खड़ा रहता। दरअसल कोई नहीं रहता, न स्टाफ, न यात्री। हरियाली लगभग आ गई है। लेकिन कहीं भी फूल वाले वृक्ष नहीं हैं। हां कुछ छोटे वृक्ष हैं सफेद फूलों वाले। वनस्पति की विभिन्नता हमारे यहां की तरह नहीं दिखाई देती। 

असम में तो इस समय लाल गुलमोहर और बैंगनी रंग के एजार फूल, और पीले अमलतास के फूल खिल गए होंगे। यहां लाल रंग को मिस कर रहा हूं। कुछ दिन रहना पड़ जाए तो नजारा काफी उबाऊ हो जाएगा। कुछ खेत जुते हुए हैं, बुवाई के लिए तैयार। कुछ में छोटी पौध उग आई है।

यहां शहर के पार्कों में भी छोटी दूब या घास के बीच सुंदर पीले-पीले फूल उगे हुए होते हैं। कोई घास पर नहीं चलता इसलिए वे बने रहते हैं। ...वाह, अब तक की यात्रा में जंतु के नाम पर अभी-अभी कुछ बकरियां चरती हुई दिखाई दीं। लेकिन चार-पांच ही। 

यह किसी गांव या कस्बे को पार कर रहे हैं लेकिन कहीं इंसान नाम का जीव दिखाई नहीं दिया। पहली बार एक रेलवे फाटक दिखाई दिया जो ट्रेन के आने से पहले अपने-आप बंद हो जाता है। छोटे से गांव के सर्विस रोड के लिए यह काफी है।

रेलवे ट्रैक थोड़ी देर के लिए एक छोटी-सी नदी के साथ-साथ गुजर रही है। एक और चीज यहां आपको नहीं मिलेगी वह है बिखरा हुआ प्लास्टिक। शहरों में सिगरेट के टुकड़े हर कहीं बिखरे मिल जाते हैं, क्योंकि सिगरेट पीने के बाद कूड़ेदान में गिराना मना है। कोई नहीं गिराता। 

कल रास्ते किनारे की एक दुकान में बर्गर खाने के बाद एक अन्य व्यक्ति (शायद अरब या तुर्क) ने बड़ी तत्परता से कहा यहां – यहां। यानी इस कूड़ेदान में कागज गिरा दें। क्या मेरे भारतीय होने के कारण उसे डर था कि मैं नीचे ही गिरा दूंगा। उसने मुझे न-मस्ते भी कहा। मैंने कुछ नहीं कहा था, शायद किसी शो का दलाल होगा।

 हमारे यहां हम किसी अनजान व्यक्ति के साथ ज्यादा बात नहीं करते। यहां किसी अनजान व्यक्ति से आंखें मिलाते ही - जैसे होटल की रिसेप्शनिस्ट, या लिफ्ट में पहले से आ रहा कोई व्यक्ति, या रेस्तरां में आपकी मेज पर पहले से बैठा हुआ कोई ग्राहक - गर्मजोशी के साथ मुस्कुराकर हलो कहते हैं। ऐसा नहीं करना अच्छा नहीं माना जाता।

एक स्टेशन पार हुआ है, दूर स्टेशन के पास तीन चार लोग दिखाई दिए और एक महिला प्राम पर अपने बच्चे को ले जा रही है।

हमारे लोगों को आश्चर्य होगा कि आदमी कहां छिपे रहते हैं। न्यूरमबर्ग के उपनगर न्यूरमबर्ग स्टाइन, जहां मैं ठहरा था, में जब रात आठ-नौ बजे बाहर का नजारा लेने के लिए निकला तो सचमुच एक भी आदमी दिखाई नहीं दिया। मैं एक तरह से घबराकर वापस अपने फ्लैट में लौट आया। 

उपनगर में एक इटालवी रेस्तरां ला कुलटुरा दिखाई दिया था, जिसके बारे में मेरी होस्ट ने बता दिया था कि वह महंगा होगा। ठंड में अकेले घूमना और रास्ता भटक जाएं तो पूछने के लिए कोई नहीं, सचमुच घबराहट होती है। 

लो 12.23 हो गए और चेस्का ट्रेबोवा आ गया। गाड़ी एक मिनट विलंब से आई है। और 12.24 पर चल पड़ी। अगला स्टेशन ब्रनो 1.22 पर है। बाहर प्लास्टिक का कूड़ा गिराने की जगह दिखाई दी है। तीन-चार मशीनें उस पर काम कर रही हैं। पता नहीं क्या काम।

यह कोई अच्छा-खासा शहर पार हो रहा है। एक हाइपरमार्केट पार हुआ है। शहर के बाहर गांव शुरू होता है। खेतीबाड़ी की मशीनें हर घर के बाहर पड़ी दिखाई दे रही हैं। हर घर के साथ छोटी-सी बगीची है जिसमें शायद सब्जी उगाते होंगे। 

सर्दी से बचाने के लिए और एक खास तापमान पर रखने के लिए ग्रीन हाउस जैसा बनाया रहता है। जैसे हमारे यहां ठंडक बनाए रखने के लिए कोई-कोई ऐसा करता है। पटरी के साथ-साथ एक मानव निर्मित छोटी सी नहर चल रही है। अच्छी धूप निकल आई है। मैंने थोड़ी फोटोग्राफी कर ली।

एक और रेलवे फाटक पार हुआ। छोटे से शहर के बीच। यानी यहां भी रेलवे फाटक हैं। मेरे एक मित्र ने बताया था कि यहां रेलवे फाटक नहीं होते। हालांकि सभी स्वचालित हैं। अरे हां, पार हो रहे स्टेशन के बाहर लाल टोपी पहने स्टेशन का कर्मचारी दिखाई दिया है।

उसने शायद सबकुछ ठीक होने का सिगनल दिया होगा। लेकिन हाथ में झंडी-वंडी नहीं थी। हमारी बोगी अंतिम है इसलिए दिखाई नहीं देता कि वह क्या करता है। वह बस वापस अंदर जाता हुआ दिखाई देता है।

ब्रनो भी आखिर 1.23 पर आ ही गया। यह स्टेशन काफी पुराना और साधारण है। कम से कम बाहर से तो हमारे यहां के जैसा ही। स्टेशन का मकान भी जराजीर्ण है। बाहर शहर में नई शैली की बहुमंजिला इमारते हैं। पारंपरिक शैली की टेराकोटा टाइल्स की तिकोनी छत वाले मकान यहां गायब हो गए। 


सबलोग शांत बैठे हैं। पास वाले दंपति धीमी आवाज में बात कर रहे हैं और पुस्तक पढ़ रहे हैं। आगे की सीट पर कोरियाई बच्चे कलम कागज से पहेली पूरी करने में व्यस्त हैं। एक बच्ची डायरी लिख रही है। बाहर कोई दिलचस्प दृश्य दिखाई नहीं दे रहा। न ही कोई आदमी। यदि कॉफी का ऑर्डर देता हूं तो तीन-चार यूरो खर्च हो जाएंगे। विएना आने में पूरे दो घंटे बाकी हैं। इससे अच्छा है मैं भी थोड़ा सो लेता हूं।

रविवार, 3 जुलाई 2016

प्राहा – ओल्ड इज गोल्ड

अभी-अभी Czech Republic की राजधानी Prag या Praha में उतरा हूं। बस, जिसमें कि किसी विमान से ज्यादा ही सुविधाएं थीं, 3.18 की जगह 3.05 पर ही अपने गंतव्य पर पहुंच गई। उतरते ही एक दलाल आया और मुद्रा बदलने के लिए कान में कह गया। पता लगा कि Czech Republic में Crown चलता है। 

एक Euro 25 क्राउन के बराबर होता है। जो भी हो, बस अड्डा सूनसान लगा, किसी चर्च जैसा स्थापत्य था। टैक्सी की खोज में चर्च के अंदर गया और सीढ़ियों से नीचे उतरा तो नीचे पूरा एक मार्केट था। दरअसल यह बस अड्डा नहीं रेलवे स्टेशन था। यूरोप में मैंने बस अड्डा कहीं नहीं देखा। बसें रेलवे के साथ तालमेल रखकर चलती हैं। 

टिकट भी स्टेशन पर मिलता है। टैक्सी वाले ने लिस्ट देखकर कहा 28 यूरो लगेंगे। मैंने कहा क्यों भई पिछली बार तो कम लिए थे। एक दूसरे ड्राइवर ने जो ज्यादा अच्छी अंग्रेजी जानता था कहा नहीं फिक्स रेट है। मैं मान गया तो एक टैक्सी वाले ने बैग अपनी टैक्सी में डाल ली। बैठने पर कहा 28 यूरो। मैंने कहा ठीक है। उसने कहा निकालो। मैंने कहा एडवांस।..हां। ...ठीक है ले लो। जो भी हो होटल पहुंच गया। होटल में भी एडवांस पेमेंट का रिवाज है।

Czech लोग ऊंची कदकाठी के होते हैं। काफी लंबे। समझ लीजिए गोरे पठान। हमारी फिल्मों में किसी गोरे कप्तान या अफसर का रोल करने के लिए यहां से से किसी ड्राइवर को ले जाना बुरा खय़ाल नहीं होगा। होटल अच्छा है, लेकिन यहां वैसे नहीं है कि कोई बेयरा आपका सामान लेकर आपके कमरे में पहुंचा देगा। इतने लोग नहीं हैं इनके पास।

Germany में मुख्य स्टेशन को हाफ्टबानहॉफ कहते हैं, Czech भाषा में भी एक नाम है अभी याद नहीं आ रहा। चेक भाषा में क्या कहते हैं याद रखना पड़ता है क्योंकि तभी आप उस ट्राम स्टॉप पर उतर पाएंगे जहां रेल स्टेशन है। Tram में सिर्फ Czech भाषा में सभी नाम आते हैं और घोषणाएं आती हैं।


Europe में भाषाओं का बड़ा गड़बड़झाला है। स्टेशन पर चेक और जर्मन भाषा तो काफी है लेकिन अंग्रेजी बस कहीं-कहीं। जर्मनी में काम चलाने के लिए सीखा कि प्लेटफॉर्म को क्या कहते हैं, ट्रेन नेम को क्या कहते हैं यहां Czech गणराज्य में अब फिर से सीखना पड़ रहा है।

अंत में इन्फॉर्मेशन में जाकर पुष्टि भी कर ली कि मैंने ठीक ही समझा है न। उन्होंने बताया कि 20 मिनट पहले प्लेटफॉर्म की घोषणा होगी। स्टेशन कम से कम चार मंजिलों वाला है। सभी मंजिलें नीचे की ओर है। बर्लिन में भी ऐसा था। किसी एयरपोर्ट से भी बढ़कर।

Praha में अंग्रेजी बोलने वाले युवा बड़ी संख्या में दिखाई पड़े। आसपास के लोग तो German बोल लेते हैं और शायद बाकी के बाहर के लोगों को अंग्रेजी में ही बात करनी पड़ती होगी। Germany में ऐसा नहीं था। हालांकि यहां और वहां लगभग सभी लोग अंग्रेजी बोल और समझ लेते हैं।

किसी ने ठीक ही कहा था कि Europe में हम भारतीयों के लिए लघुशंका बड़ी समस्या हो जाती है। यहां कहीं भी आलिंगनबद्ध, चुंबन लेते हुए जोड़े दिख जाएंगे लेकिन लघुशंका के लिए पेशाबघऱ या उसका संकेत नहीं दिखाई देता। हैं भी बहुत कम। 

होटल में पानी पीते समय ही सोचा था कि आगे मुश्किल होगी। हुई भी। स्टेशन की चार मंजिलों पर बहुत खोजने के बाद एक आलीशान यूरीनल दिखाई दिया। वहां ऑटोमेटिक मशीन में एक यूरो का सिक्का डालने पर आगे जाने का रास्ता खुलता है। 

अमूमन Germany और Praha में पचास सेंट लगते हैं। यहां सार्वजनिक स्थानों पर जीवित व्यक्ति का राष्ट्रीय नायकों की मूर्ति बनकर खड़ा होना या बैठना एक आर्ट है। मैंने ऐसी ही एक मूर्ति के साथ फोटो खिंचवाई।

Czech गणराज्य में कम्युनिस्ट शासन की छाप तीन चीजों में आज भी दिखाई देती है – एक, ट्राम के किराए में तरह-तरह की छूट में। जैसे गर्भवती महिला के लिए या बुजुर्गों के लिए किराया कम है। इसी तरह छूट की कई श्रेणियां हैं। Germany में ऐसा कुछ नहीं था। इससे ऑटोमैटिक टिकट मशीन पर लिखावट काफी उलझाव वाली हो जाती है क्योंकि बटन के पास छोटे से स्थान पर कई तरह का किराया जैसे-तैसे ठूस-ठास कर लिखा रहता है। 

दो, वहां मुख्य चौराहे का नाम अब भी रिवोल्यूशनस्का नामेस्ती है। नामेस्ती Czech भाषा में चौराहे को कहते हैं। नए प्रशासन की तारीफ की जानी चाहिए कि उसने इस चौराहे का नाम बदलने के बारे में नहीं सोचा। तीन, कहीं-कहीं अब भी रूसी भाषा में लिखावट दिखाई दे जाती है। उसे बदला नहीं गया है। communist शासन के खात्मे के बाद रूसी यहां से चले गए थे। 

लेकिन करीब दो दशकों बाद वे फिर से Prag और Czech गणराज्य में अच्छे अवसरों की तलाश में आने लगे हैं। प्राग और इसके आसपास रूसी स्कूल, अखबार और व्यापार फल-फूल रहे हैं। दरअसल रूसियों की संख्या सिर्फ Czech गणराज्य में ही नहीं पूर्वी यूरोप के Bulgaria, Slovakia, लाटविया, एस्टोनिया जैसे देशों में दिन पर दिन बढ़ रही है। प्राग में पढ़ने वाली वलेरिया नाम की उस होटल प्रबंधन की छात्रा के वाकये में रूस की सच्चाई साफ झलकती है। 

हमारे यहां से जब कोई बाहर पढ़ने जाता है तो माता-पिता कहते हैं बेटा जल्दी वापस आ जाना। लेकिन जब वलेरिया रूस के Siberia से Prag के लिए रवाना हो रही थी तो उसके माता-पिता ने उससे कहा था – बेटी वापस मत लौटना। यूरोपियन संघ का सदस्य होने के कारण Czech गणराज्य में एक तरह की गतिशीलता तो है ही।


Prag यूरोप का काफी पुराना शहर है। इसके दो भाग हैं एक पुराना शहर और दूसरा नया शहर। मजेदार बात यह है कि जो नया शहर है वह भी 14वीं शताब्दी का बना हुआ है। पुराना शहर इससे और एक सदी पुराना है। जब गाइड कहती है कि यह पब है जो डेढ़ सौ साल पुराना है और Prag के सभी कलाकार यहां बीयर पीने आया करते थे और आज भी आते हैं तो प्राग की ऐतिहासिकता हमारी आंखों को चकाचौंध कर देती है।

लेकिन पुराना कहते ही पुरानी दिल्ली की तस्वीर मन में लाने की जरूरत नहीं जहां पुरानी हवेलियां टूट रही हैं और गलियां संकरी हैं। निःसंदेह Prag में सड़कें आज के शहरों जैसी चौड़ी नहीं हैं लेकिन फिर भी उन्हें गली नहीं कहा जा सकता। Czech लोगों ने अपने शहर को संजोकर रखा है।

शनिवार, 25 जून 2016

शरणार्थी, भिखारी और हीनता ग्रंथि



जर्मनी में इस समय विमर्श का केंद्र सीरिया का युद्ध है। सीरिया युद्ध इसलिए क्योंकि इसी के कारण वहां से बड़ी संख्या में यूरोप में शरणार्थियों के रेले आने शुरू हो गए हैं। आम बातचीत में शरणार्थी का मुद्दा निकल ही आता है जो यह दर्शाता है यूरोपवासी शरणार्थियों के प्रति अपनी सरकारों की नीति से काफी खफा हैं।

एक बातचीत के दौरान जब मैंने कहा कि पासपोर्ट की जांच करने के दौरान अधिकारी ने मुझसे वापसी का टिकट भी मांगा था तो मेरे मित्र ने व्यंग्य करते हुए कहा कि यदि तुम कहते कि मेरा नाम अली है और मैं सीरिया से आया हूं तो फिर किसी भी चीज की जरूरत नहीं पड़ती। पासपोर्ट भी न होने से चल जाता।

जर्मन सरकार ने तुर्की से समझौता किया है कि यदि वह एक शरणार्थी को लेता है तो उसके बदले बाकी यूरोप भी एक शरणार्थी को लेगा। मित्रों ने बताया कि यूरोप का असली मतलब है जर्मनी। यानी ये शरणार्थी जर्मनी छोड़कर और कहीं नहीं जाएंगे। जर्मनी में शरणार्थियों के विरुद्ध प्रदर्शन शुरू हो गए हैं।

बर्लिन में इसका कोई प्रभाव दिखाई नहीं दिया। मेरा सैक्सनी राज्य की राजधानी ड्रेसडन जाने का इरादा था लेकिन मित्रों ने बताया कि वहां नहीं जाना ही बेहतर होगा क्योंकि वहां शरणार्थियों के विरुद्ध काफी आक्रोश है और ऐसा न हो कि गोरी चमड़ी को न होने के कारण कहीं मैं भी इसका शिकार हो जाऊं। विदेश में सावधानी बरतना ही ठीक है। मैंने ड्रेसडन न जाकर न्यूरमबर्ग जाने का कार्यक्रम बना लिया।

बर्लिन में शरणार्थी कहीं दिखाई नहीं दिए। किसी-किसी सबवे या फ्लाईओवर पर पूरा का पूरा परिवार बैठा दिखाई दिया। पता नहीं ये लोग कौन थे। भीख के लिए कागज का गिलास का इस्तेमाल करते हैं। लगभग हर परिवार के साथ उनका कुत्ता भी साथ में दिखा। 
इसी से मैंने अंदाज लगाया कि ये शरणार्थी भी हो सकते हैं। वैसे बर्लिन में जिप्सी भी मेट्रो में भीख मांगते हैं।

 लेकिन इससे यह छवि नहीं बना लेनी चाहिए कि भारत की तरह वहां बड़ी संख्या में भिखारी हैं। बस थोड़े से भिखारी हैं। स्थानीय यात्री इनसे बचकर रहते हैं क्योंकि पॉकेटमारी जैसे अपराधों के लिए इन्हीं पर संदेह किया जाता है। कोई जिप्सी ट्रेन स्टेशन के बाहर कोई वाद्य यंत्र लेकर बजाता दिखा जाएगा। ट्रेन में भी वाद्य यंत्र बजाकर भीख मांगते हैं। सीधे-सीधे नहीं। 

वियेना में वहां का मुख्य महल शोनब्रून स्लॉस देखने के बाद मैं सुहानी धूप में टहलते हुए पैदल ही फुटपाथ पर चल रहा था कि एक चौराहे पर एक भारतीय युवती दिखाई पड़ गई। स्मार्ट-सी चाल से चौराहे ही तरफ आ रही थी, जैसे कहीं जाना है। लगभग ठीकठाक पोशाक में। पैरों में जूते, जैकेट और कंधे पर एक थैला या बैग।

 मैंने सोचा इनसे बात की जाए क्या, कि यहां क्या काम करती हैं। तब तक चौराहे पर लाल बत्ती हो गई थी। गाड़ियां रुक गईं और मेरे लिए आगे बढ़ने का हरा संकेत आ गया। तब तक मैंने देखा कि वह युवती रुकी हुई कारों से भीख मांगने लगी। हाथ से इशारा करती कि भूख लगी है कुछ खाने के लिए पैसे चाहिए।

 बस एक दो तीन सेकंड के लिए इंतजार करती फिर अगली गाड़ी की ओर बढ़ जाती। यह युवती कैसे वियेना आई और क्या भीख मांगना ही इसका एकमात्र पेशा है, इन सवालों से ज्यादा यह सवाल मुझे परेशान करने लगा कि इससे हम भारतीयों की इन देशों में क्या छवि बनती होगी।

 वियेना में दूसरे दिन भी एक चौराहे पर एक दाढ़ी वाला व्यक्ति उसी तरीके से चौराहे पर गाड़ी के चालकों से भीख मांगता दिखा। शरीर से वह भी उस युवती की तरह चुस्त दिखा। पैरों में जूते पहनना वहां के मौसम की मजबूरी है।

जर्मनी से लौटे हमारे एक मित्र ने बताया था कि वहां हम भारतीयों को उतनी अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता। हालांकि मुझे प्रत्यक्ष रूप से कहीं भी रंगभेद का आभास नहीं हुआ। जर्मनी और आस्ट्रिया दोनों ही गैर-अंग्रेजी भाषी देश होने के कारण सार्वजनिक स्थानों पर लिखी हर बात को समझना संभव नहीं होता था और हमें किसी अनजान व्यक्ति की मदद लेनी ही पड़ती थी।

ऐसे समय सभी का व्यवहार नम्र और भद्रोचित होता था। उन देशों में ज्यादा समय तक रहने पर क्या मेरी यही धारणा बनी रहती इस प्रश्न का जवाब वहां ज्यादा समय रहकर ही पाया जा सकता था। हो सकता है भारतीयों के कुछ जातीय गुणों के कारण उन्हें संदेह का पात्र बनना पड़ता होगा।

 एक बार एक एयरपोर्ट में एक पुस्तकों की दुकान पर एक कागज चिपका देखा जिस पर लिखा था कि आप पर कैमरे की नजर है, चोरी करने की कोशिश की तो पकड़े जाएंगे। इस बात के साथ उस पर एक चित्र लगा था जिसमें एक नीग्रो को पुस्तक चोरी करते दिखाया गया था।

चोर का उदाहरण देने की जरूरत पड़ते ही उस नोटिस बनाने वाले के दिमाग में नीग्रो की तस्वीर देने का खयाल क्यों आया होगा। सोचने वाली बात है। बर्लिन के एक स्टेशन पर देखा कि टिकट इंस्पेक्टर एक भारतीय के साथ बहस कर रहा था।

 जल्दी-जल्दी में मैंने जो अंदाज लगाया वह यह था कि भारतीय बिना टिकट के पकड़ा गया है और जुर्माना देने के पहले बहस कर रहा है। मेरे लिए यह उत्सुकता का विषय बन गया था। इसलिए अपनी ट्रेन की ओर दौड़ते-दौड़ते भी मैं उस पर नजर डालते रहा और देखा कि भारतीय पुलिस का नाम सुनने के बाद जुर्माना देने के लिए अपना बटुआ निकाल रहा है।

पता नहीं कैसे गोरों के देश में घूमते-घूमते अनजाने की एक हीनता ग्रंथि धीरे-धीरे किसी अनजाने रास्ते से होकर मेरे अंदर घुस जाती है। तब किसी अजनबी का व्यवहार सामान्य होने पर भी मुझे लगता है यह कहीं मुझे हिकारत की नजर से तो नहीं देख रहा है। किसलिए? हो सकता है मेरी चमड़ी के रंग के कारण।

 लेकिन चमड़ी के रंग से क्या होता है। देखो ढेर सारे जापानी, कोरियाई, विएतनामी और चीनी लोगों की चमड़ी का रंग भी मेरे ही जैसा है। वे किस तरह सामान्य ढंग से गर्व से मुंह उठाकर चल रहे हैं। मुझे भी दबने की क्या जरूरत है। लेकिन किसी जापानी, कोरियाई, विएतनामी या चीनी को चौराहे पर भीख मांगते तो नहीं देखा। और किसी को बिना टिकट यात्रा कर पकड़े जाते भी नहीं।