सात को ईद थी और दस को ढाका शहर अलसाया हुआ सा फिर से पटरी पर लौटने की कोशिश करता दिखा। अभी भी बड़ी संख्या में दुकानें खुली नहीं थीं। ढाका के ट्रैफिक जाम से और एक-दो दिनों के लिए राहत रहेगी। सुप्रीम कोर्ट में अभी कामकाज शुरू नहीं हुआ है लेकिन वकील लोग अपनी देशेर बाड़ी से शहर लोटने लगे हैं।
सुप्रीम कोर्ट के वकील सुब्रत चौधरी का भी आज से व्यस्तता भरा दिन शुरू हो गया है। बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के हितों के लिए हिंदू, ईसाई और बौद्धों की संयुक्त संस्था के वे भी एक बड़े नेता हैं। सुब्रत को साफ दिखाई दे रहा है कि हालात दिन पर दिन बदतर होते जा रहे हैं। अपने बिंदास अंदाज में वे बताते हैं कि दाढ़ी रखने और सर पर टोपी पहनने का रिवाज बढ़ने लगा है। उनके चैंबर में उनके साथ और भी कई वकील बैठते हैं। ईद मनाकर लौटने पर सुब्रत ने उन्हें बधाई दी थी। इससे पता चला कि वे मुसलमान हैं। मैं कनखियों से देखता हूं उनकी सुब्रत की बातों पर क्या प्रतिक्रिया है। सभी अपने काम में व्यस्त दिखे। सुब्रत की असिस्टैंट लैपटाप पर टाइप करने में मुब्तिला थी।
पिछले चालीस सालों में बांग्लादेश में आया अंतर सुब्रत को ज्यादा कचोट है। इस अंतर को हमने भी एक अलग तरीके से महसूस किया। बांग्लादेश के राष्ट्रीय म्यूजियम में वहां के प्रशासक ने विशेष अनुरोध कर हमें एक 22 मिनट की फिल्म दिखाई। उस फिल्म में 21 फरवरी 1952 को शुरू हुए भाषा आंदोलन से लेकर 1971 में बांग्लादेश के स्वतंत्र राष्ट्र बनने तक की गाथा को बड़े ही प्रामाणिक तरीके से दर्शाया गया है। फिल्म में सभी वास्तविक फुटेज हैं।
हमने इस बात को खास तौर पर नोट किया कि छठे और सातवें दशक के फुटेज में शायद ही कोई ऐसा था जिसने अपने शरीर पर अपने धर्म को प्रचारित करने वाले प्रतीक धारण कर रखे थे। ढाका में आज भी अधिकतर मुस्लिम महिलाएं माथे पर बिंदी लगाती हैं और बुर्के का प्रचलन बहुत कम है। और उन फुटेज में तो आपको बिरला ही कोई टोपी या दाढ़ी वाला मिलेगा।
उस फिल्म के दृश्यों को आधार बनाकर हम इस बात पर चिंतन कर सकते हैं कि आखिर वे कौन-सी शक्तियां हैं जिनके कारण दुनिया जाने-अनजाने में एक खास दिशा में बढ़ती जा रही है। पिछली आधी सदी में इस्लामिज्म या इस्लामवाद किस तरह फैला है इसका एक अंदाजा बांग्लादेश में इस्लाम के प्रतीक धारण करने वाले लोगों की संख्या में हुए इजाफे से लगाया जा सकता है।
सुब्रत चौधरी सरकार की नीतियों से खफा हैं। उन्हें लगता है कि शेख हसीना भी अंततः इस्लामवादी ताकतों के सामने यदि घुटने नहीं टेक रही तो उन्हें संतुष्ट करने की कोशिश तो कर ही रही हैं। उदाहरण के रूप में वे हिफाजते इस्लाम के साथ सरकार के अच्छे रिश्तों को गिनाते हैं। बांग्लादेश में हिफाजते इस्लाम के त्वरित उत्थान और पतन की अपनी ही एक अनूठी कहानी है।
बांग्लादेश में पुरानी और नई पीढ़ी के लोगों ने 1971 की यादों को भुलाया नहीं है। पाकिस्तान के साथ इस युद्ध में 30 लाख लोगों की जानें गई थीं। पाकिस्तान को तो बांग्लादेश के फेसबुक पोस्टर गंदी गालियों से संबोधित करते ही हैं, उनका अधिक गुस्सा अपने ही देश के उनलोगों के खिलाफ है जिन लोगों ने पाकिस्तानी सेना की मदद की थी। इसमें बांग्लादेश की जमाते इस्लामी नामक राजनीतिक पार्टी और अल बदर नामक संस्था अग्रणी थीं।
कुल मिलाकर पाकिस्तान आज भी बांग्लादेश के बहुसंख्यक लोगों की घृणा का मुख्य केंद्र है। बांग्लादेश का समाज अपने नए राष्ट्र के उदय के समय से ही दो भागों में बंटा हुआ है। एक बहुसंख्यक समाज उनलोगों का है जिनलोगों ने पाकिस्तान की उर्दू थोपने की जिद के खिलाफ आवाज उठाई थी और इसकी परिणति स्वरूप पैदा हुए स्वाधीनता आंदोलन में हिस्सा लिया था या कम से कम उसकी सफलता चाही थी।
दूसरा एक बहुत ही छोटा सा वर्ग उनलोगों का है जिसने उस समय पाकिस्तान का समर्थन किया था। इसमें जमाते इस्लामी के लोग तो हैं ही। उर्दूभाषी मुसलमानों को, जिन्हें वहां बिहारी मुसलमान कहा जाता है, इसीलिए ढाका में अच्छी नजर से नहीं देखा जाता। लोगों का मानना है कि इनलोगों ने 1971 में पाकिस्तानी फौज का साथ दिया था।
स्वाधीनता समर्थक बहुसंख्यक लोग चाहते हैं कि 30 लाख लोगों की हत्या में पाकिस्तान की मदद करने वाले लोगों में से सभी को नहीं तो कम से कम उनके नेताओं को तो फांसी पर लटका ही दिया जाना चाहिए। शेख हसीना ने 2009 के चुनावों में यह वादा किया था कि फिर से उनकी सरकार आई तो वे ऐसे लोगों को फांसी पर लटकाएंगी।
सत्ता में आने के बाद शेख हसीना ने ऐसे लोगों पर मुकदमा चलाने के लिए एक ट्राइब्यूनल का गठन किया। जिन लगभग एक दर्जन लोगों पर पाकिस्तानी सेना की मदद में नेतृत्व करने का आरोप था उन्हें गिरफ्तार कर उनके विरुद्ध मुकदमा शुरू कर दिया गया। 2013 आते-आते ऐसे पहले मुजरिम के खिलाफ फैसला भी आ गया।
लेकिन इस फैसले से लोगों का गुस्सा एक बार फिर फट पड़ा। कारण यह कि मुजरिम अब्दुल कादेर मुल्ला को, जिसे लोग कसाई मुल्ला कहना ज्यादा पसंद करते हैं, ट्राइब्यूनल ने सिर्फ उम्रकैद की सजा सुनाई थी। ढाका में शहबाग नामक चौराहे पर फैसला सुनाने के दिन से ही लोगों का जमावड़ा शुरू हो गया।
इस आंदोलन के दबाव में सरकार को फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करनी पड़ी और सुप्रीम कोर्ट ने ट्राइब्यूनल के फैसले को बदलकर सजाए मौत कर दिया। जमाते इस्लामी के बड़े नेताओं पर मुकदमे चल रहे थे और छोटे नेताओं और कार्यकर्ताओं को जेलों में भर दिया गया था, ऐसी स्थिति में इस्लामवादी खेमा पूरी तरह रक्षात्मक स्थिति में चला गया। लेकिन यह स्थिति ज्यादा दिन नहीं चलनी थी और नहीं चली।
साल बीतते न बीतते हिफाजते इस्लाम नामक संस्था एक बड़ी शक्ति के रूप में उभरी। यह मूलतः कौमी मदरसे चलाने वाली संस्था है। इसके एजेंडा में दो मुख्य बातें थीं और हैं। एक, सरकार को कौमी मदरसों पर निगरानी करने और उनमें दखलंदाजी करने से रोकना, जिसके लिए शेख हसीना आमादा थीं। और दो, सार्वजनिक स्थानों पर पुरुषों और महिलाओं के मेलजोल की बढ़ती कथित रूप से गैर-इस्लामी आदतों को रोकना।
इसके लिए हिफाजत ने महिलाओं के लिए शिक्षा और रोजगार आदि पर बंदिश लगाने वाले कई प्रस्ताव सरकार के सामने रखे थे। हिफाजत का सबसे बड़ा कार्यक्रम था 5 मई 2013 को ढाका पर कब्जा करने का। हिफाजत चूंकि मदरसों का संचालन करने वाली संस्था है इसलिए इसके पास मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों का अच्छा-खासा आधार है।
इस दिन देश भर से मदरसा छात्रों को ढाका लाया गया। और उन्हें लाने वाले नेताओं का कहना था कि जब तक उनकी मांगों को मान नहीं लिया जाता वे राजधानी से वापस नहीं जाएंगे। 5 मई की रात को पुलिस और सशस्त्र बलों ने बत्तियां गुल करके मोती झील नामक इलाके में आपरेशन चलाया और हिफाजत समर्थकों से ढाका को खाली करवा लिया।
आज भी आतंकवाद समर्थकों के बयानों में इस घटना का जिक्र आता ही आता है। अल कायदा नेता जवाहिरी का जो बांग्लादेश केंद्रित बयान इंटरनेट के माध्यम से प्रचारित हुआ था उसमें भी इस घटना का जिक्र था। इस्लामवादी ताकतों का कहना है कि इस दिन पुलिस आपरेशन में हजारों छात्रों को मौत के घाट उतार दिया गया था।
लेकिन जल्दी ही स्थिति फिर उलट गई। हिफाजते इस्लाम को सत्ताधारी दल का पिछलग्गू कैसे बनाया गया इस पर कोई यदि किताब लिखे तो वह राजनीति में साम दाम दंड भेद के सफल प्रयोग की गाइडबुक बन जाएगी। ढाका में पत्रकारों को यह कहने से कोई गुरेज नहीं कि हिफाजत के नेताओं पर एक और तो पुलिस केस की तलवार लटका दी गई और दूसरी और सरकार की बात मानने से उनकी तिजौरियों को मनचाही दौलत से भर दिया गया। आज हिफाजते इस्लाम और शेख हसीना की अवामी लीग के नेता एक मंच पर बैठे दिख जाएं तो कोई बड़ी बात नहीं।
इसी बात से सुब्रत चौधरी नाराज थे।
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