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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

रविवार, 8 सितंबर 2019

क्या असम में बांग्लादेशियों का होना एक मिथ था


राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) एक ऐसा दस्तावेज है जिसके प्रकाशित होने से कोई भी खुश नहीं हुआ। लेकिन यह वैसे ही है जैसे नया टैक्स लगने से कोई खुश नहीं होता। धीरे-धीरे टैक्स को भी तर्कसंगत बनाया जाता है और लोग भी समझने लगते हैं कि टैक्स तो देना ही होगा। इसी तरह एनआरसी को भले खुद सत्ताधारी दल के अध्यक्ष ने रद्दी का टुकड़ा बताया हो लेकिन अंततः सभी को एनआरसी को मानना ही होगा।

इस संदर्भ में असम के मंत्री हिमंत विश्व शर्मा का बयान काफी मायने रखता है। उनके पहले आए बयान से ऐसा लगता था कि सरकार एनआरसी पर न्यायपालिका के निर्णय को पलटने वाला कोई बिल संसद में पारित करवा सकती है। 

लेकिन उनके हाल के बयान में कहा गया है कि वे सुप्रीम कोर्ट से अपील करेंगे कि सीमावर्ती जिलों में कुछ प्रतिशत लोगों के डेटा की फिर से जांच की जाए ताकि पता लग सके कि क्या एनआरसी की प्रक्रिया में ठीक ढंग से काम हुआ या इसमें धांधली हुई।

दूसरे, उन्होंने यह मार्के की बात कही कि किसी का नाम छूट गया है तो उसके लिए प्रक्रिया है और वह देर-सबेर अपना नाम वापस एनआरसी में दर्ज करवा सकता है। हालांकि ऐसा विदेशी ट्राइब्यूनलों के लंबे और थका देने वाले चक्करों के बाद ही होगा। 

और सबका होगा या नहीं यह भी ठीक नहीं है। उनका कहना यह था कि जिन विदेशियों के नाम एनआरसी में शामिल हो गए हैं उन्हें वापस निकालने के लिए कोई प्रक्रिया नहीं है। और यदि सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका पर ध्यान नहीं दिया तो जिनके नाम इस बार एनआरसी में शामिल हो गए हैं वे पक्के भारतीय नागरिक बन गए हैं।


एनआरसी को लेकर दो तरह की आपत्तियां हैं। एक, कई भारतीयों के नाम इसमें शामिल नहीं हो पाए। इनमें मुख्य रूप से बंगाली हिंदू, बंगाली मुसलमान और कुछ गोरखा समुदाय के लोग हैं। कहते हैं लगभग पांच लाग हिंदू और साढ़े सात लाख मुसलमान बंगालियों के नाम इसमें आने से छूट गए हैं। काम भले सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हो या सरकार की निगरानी में, हमारे देश में सरकारी काम किस तरह होता है यह हम जानते हैं और नोटबंदी के समय हमने फिर से जान लिया। 

जब तक नया एसओपी नहीं आया था हजारों हिंदीभाषी भारतीय दस्तावेज का जुगाड़ करने के लिए इधर से उधर दौड़ रहे थे। तो फिर बंगाली हिंदू और बंगाली मुसलमानों में से हजारों वास्तविक भारतीयों की क्या हालत हुई होगी और उनमें से बहुतों के नाम निश्चित रूप से छूटे होंगे।

इस लेखक का पिछले साल का एनआरसी से छूटे लोगों की मदद करने का कुछ अनुभव है। एक मामला ऐसा भी आया जिसमें पति-पत्नी दोनों के नाम (दोनों बंग्लाभाषी) तो एनआरसी में आ गए लेकिन उनके 10-12 वर्षीय पुत्र का नाम इसलिए नहीं आ पाया क्योंकि बताया गया कि फोरेनर्स ट्राइब्यूनल ने उसके नाम को अस्वीकार कर दिया था। भारतीय माता-पिता का वह विदेशी बच्चा किसी दिन डिटेन्शन कैंप में भेज दिया जाए तो क्या बड़ी बात है।

मूल असमिया लोगों को एनआरसी से घोर निराशा होने का कारण है कि वे लोग सोच रहे थे एनआरसी प्रक्रिया के कारण कम-से-कम 30-40 लाख मुसलमानों के नाम एनआरसी और फिर मतदाता सूचियों से कट जाएंगें। इसीलिए कुछ लोग अंतिम सूची के प्रकाशित होने के पहले से आंदोलन करने लग गए कि इस सूची में बहुत से विदेशी लोगों के नाम शामिल हो गए हैं।


मूल असमिया लोगों के आतंकित होने के कारणों का विश्लेषण करें तो हम पाएंगें कि असम के एक विशेष इलाके में मुसलमानों की संख्या में 1971 से बहुत बड़ा इजाफा हुआ है। इस विशेष इलाके में पुराना ग्वालपाड़ा, बरपेटा, कामरूप, दरंग और नगांव (सभी पुराने जिले) पड़ते हैं, इसे हम आगे सुविधा के लिए लोअर असम कहेंगे। इस इलाके में मुसलमानों की संख्या सारे भारत की तुलना में अति तीव्र गति से बढ़ी है जो आज इस इलाके की कुल आबादी का पचास प्रतिशत यानी 83.5 लाख है। 

इससे कुछ कम गति से पश्चिम बंलाल के कुछ जिलों की आबादी बढ़ी है। 1971 से 2011 के बीच मुसलमानों की आबादी बढ़कर तिगुना हो गई जबकि भारतीय धर्मावलंबियों की आबादी इस दौरान 1.8 ही बढ़ी। एक और आंकड़ा देखें। 1901 से 2011 तक की समयावधि में पूरे असम में मुसलमानों की आबादी 22 गुना बढ़ गई जबकि बाकी भारतीय धर्मावलंबियों की संख्या 7 गुना ही बढ़ी। और लोअर असम की बात करें तो यहां मुसलमानों की आबादी इन 110 सालों में बढ़कर 40 गुना हो गई।


एक और आंकड़ा देखें। वर्ष 2001 में असम में मुसलमानों की आबादी 82 लाख थी। यदि यह आबादी बाकी धर्मावलंबियों की ही रफ्तार से बढ़ती तो इसे 56 लाख होना चाहिए था। यदि हम इस तथ्य को भी नजर में रखते हैं कि सारे भारत में मुसलमानों की वृद्धि दर औसत से थोड़ी ज्यादा है और यदि असम के मुसलमानों की संख्या भी बाकी भारत के मुसलमानों की वृद्धि दर के अनुसार ही बढ़ती तो यह 72 लाख होती। 

तो फिर हम जिस समयावधि की बात कर रहे हैं सिर्फ उसी अवधि में 10 लाख अतिरिक्त लोग कहां से आए? क्या असम के मुसलमानों की वृद्धि दर ज्यादा है या फिर बांग्लादेश से अतिरिक्त लोग यहां आ गए?

कुछ लोगों का कहना है कि असम में तीस-चालीस लाख बांग्लादेशी लोगों का होना एक मिथ था जो एनआरसी प्रक्रिया ने पूरी तरह तोड़ दिया। लेकिन क्या यह उसी तरह का मिथ था जिस तरह भारत में काले धन का होना था। 

नोटबंदी के बाद सारे नोट रिजर्व बैंक में वापस पहुंच गए, यह क्या प्रमाणित करता है? कि भारत में कभी काला धन रहा ही नहीं और यह एक मिथ था। या भारत की सरकारी व्यवस्था एक बीमार व्यवस्था है जिसके माध्यम से आप न तो काले धन को निकलवा सकते हैं, न ही विदेशी नागरिकों की पहचान कर सकते हैं।


हमारे विचार से एनआरसी को लेकर सुप्रीम कोर्ट में फिर से अपील करने का कोई फायदा नहीं है। काम तो अंततः वही मशीनरी करेगी। यह कहने का भी कोई फायदा नहीं है कि यह एक रद्दी का टुकड़ा है और हम इसे नहीं मानते। कानूनी प्रक्रिया को अंततः मानना ही पड़ेगा भले आप सत्ताधारी दल के अध्यक्ष ही क्यों न हो।

दूसरे, मूल भारतीयों को इस बात से संतोष करना चाहिए कि अंततः सुप्रीम कोर्ट के प्रयास के कारण हमें एक दस्तावेज हासिल हुआ है जिसके आधार पर हम किसी भी पड़ोसी देश से नए आने वाले लोगों की पहचान कर सकते हैं। जो काम 1985-90 तक हो जाना चाहिए था, वह काम आज भी हो गया तो अच्छा ही है। यदि आज भी हमारे पास एक एनआरसी नहीं होती तो आगामी 10 वर्षों में कितने अवैध विदेशी असम में घुस जाते और घुलमिल जाते इसके बारे में भी सोचना चाहिए।


जहां तक लोअर असम की आधी आबादी के मुस्लिम हो जाने का सवाल है तो एनआरसी के बाद असम के सभी निवासियों को इस नई सच्चाई के साथ जीना सीखना होगा। यह विडंबना ही है कि 1978 से विदेशियों के खिलाफ आंदोलन शुरू हुआ और लोअर असम में मुसलमानों की संख्या भी 1971 से 2011 के बीच ही उस सदी में सबसे अधिक बढ़ी। यदि 1978 से ही एनआरसी बनने की प्रक्रिया शुरू हो जाती तो हो सकता है लोअर असम में आबादी का संतुलन इस तरह नहीं बिगड़ता।

हो सकता है उपरोक्त बातों से हम पर सांप्रदायिक होने का आरोप लगे लेकिन हम मानते हैं कि भारत के किसी भी इलाके में किसी एक धर्म के मानने वालों की आबादी इतनी अधिक न बढ़े कि दूसरे धर्म के लोग अपने आपको अल्पसंख्यक में तब्दील होता हुआ देखने लगे। हमारा मानना है कि इससे भविष्य के लिए कई तरह के नए संकट खड़े होंगे।


और अंत में, यदि असम में तीस-चालीस लाख बांग्लादेशियों का होना एक मिथ ही था, तो फिर इस बात के कारण खोजे जाने चाहिए कि सिर्फ लोअर असम और पश्चिम बंगाले में 1971 से 2011 के बीच मुसलमानों की वृद्धि दर सारे भारत में सबसे अधिक क्यों रही।