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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

शनिवार, 31 जनवरी 2015

ट्रेन टू बांग्लादेश (3)

ढाका विश्वविद्यालय छात्र संघ के कार्यालय में बने
म्यूजियम में शोहराब हसन के साथ
सोनार गांव ढाका के चंद बड़े होटलों में से है। वहां चट्टग्राम विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रोफेसर अब्दुल मन्नान और भोरेर कागज के संपादक श्यामल दत्त के साथ मुलाकात तय थी। श्यामल दत्त बांग्लादेश में किसी अखबार के एकमात्र हिंदू संपादक हैं। रंगून में ही इन दोनों विद्वानों से मुलाकात हो गई थी और मुलाकात दोस्ती में बदल गई। श्यामल रोज रात को एक चैनल के टाक शो में एंकरिंग करते हैं। इस तरह काफी व्यस्ततापूर्ण रहती हैं उनकी दिनचर्या। मैंने कहा कि हमें तो कभी एक दिन भी टीवी पर बोलना होता है तो हम दिन भर उसी के बारे में सोचकर हलकान होते रहते हैं। ढाका में कुल 27 चैनल हैं। मन्नान साहब को भी आज टाक शो में जाना था। मैंने बांग्लादेश की आर्थिक स्थिति के बारे में कुछ प्रश्न दागे। अब्दुल मन्नान ने बताया कि पहले बांग्लादेश के अखबारों में खबरें निकला करती थीं कि अमुक जगह ठंड के कारण लोग मर गए। अब ऐसी खबरें नहीं आतीं। अब बदन पर बिना पर्याप्त कपड़े वाला आदमी शायद ही सड़कों पर दिखाई दे। इसी तरह कम से कम शहर में सभी के पांवों में चप्पलें थीं। आपके यहां घरों में काम करने वालियों का क्या वेतन है? अब्दुल मन्नान बताते हैं कि अलग-अलग काम के लिए अलग-अलग बाइयां आती हैं। जैसे बर्तन मांजने के लिए अलग, और कपड़े धोने के लिए अलग। वैसे काम करने वाली बाई पाना आसान नहीं है। और सिल्हट में? सिल्हट में तो सभी लोग धनी हैं – वे कुछ मजाक में कहते हैं। श्यामल भी साथ देते हैं। सिल्हट के तो हर घर का आदमी विदेश में काम करता है। श्यामल का घर चट्टगांव की तरफ है। कहते हैं वहां उनकी पुश्तैनी जमीन बंटाई पर लेने वाला किसान नहीं मिलता।

ढाका में घूमने के बाद मेरी यह समझ बनी कि वहां दैनिक मजदूरी करने वाले की न्यूनतम दर भारतीय रुपयों में 400 है। हमने एक जगह मोबाइल में सिम भरवाया। मोबाइल मैकेनिक से आम मजदूरी करने वालों की मजदूरी के बारे में पूछा तो उसने कहा – सोर्बोनिम्नो पांच सो टाका। यानी बांग्लादेश में भारतीय रुपयों में 400 के नीचे काम करने वाला नहीं मिलता। अब्दुल मन्नान ने भी इसकी पुष्टि की और कहा कि यदि टाका पांच सौ नहीं भी है तो टाका 400 ही पकड़िए। इसके नीचे आपको मजदूर कहीं नहीं मिलेगा। बात भारत में होने वाली घुसपैठ पर आ गई। हमें लगा कि इस समय बांग्लादेश से आर्थिक कारणों से शायद ही बड़े पैमाने पर घुसपैठ होती होगी। लेकिन इसकी और अधिक पड़ताल करने की जरूरत है। असम में किसी भी राजनीतिक विमर्श की शुरुआत और अंत घुसपैठ के मुद्दे से ही होती है। लेकिन ढाका में ऐसी कोई बात नहीं है। वहां राजनीतिक चर्चा अधिकतर इस बात के इर्द-गिर्द घूमती है कि क्या देश में शांति आ पाएगी। क्या पाकिस्तान समर्थक जिहादवादी शक्तियां मजबूत हो जाएंगी, क्या दो बेगमों के बीच कभी आपसी बातचीत होगी भी या नहीं, क्या बांग्लादेश कभी अमरीका के सामने सर उठाकर बातचीत कर पाएगा, क्या भारत की दखलंदाजी से बांग्लादेश को निजात मिल पाएगी? हमें लगा कि ढाका में उस विमर्श के बारे में कोई ज्यादा जानकारी नहीं है जिसमें आरोप के स्वर में कहा जाता है कि बांग्लादेश के मजदूर बड़ी संख्या में चोरी-छुपे भारत में आ जाते हैं।

एक प्रश्न मेरे दिमाग में काफी दिनों से घूम रहा था। बांग्लादेश में अमरीका का रवैया ऐसा है जिससे लगता है कि वह विपक्षी बीएनपी की चेयरपर्सन खालिदा जिया का समर्थन करता है। पिछले साल 5 जनवरी को बिना विपक्ष की भागीदारी के जो चुनाव हुए उसका अमरीका ने अंत तक समर्थन नहीं किया था। अमरीका के ही कारण यूरोपियन यूनियन ने भी उन चुनावों को मान्यता देने में आनाकानी की थी। यही रवैया ब्रिटेन का था। लेकिन जब भारत ने चुनावों और इसके नतीजों को मान्यता दे दी तो एक के बाद एक देश चुनावों को मान्यता देने के लिए आगे आते रहे। भारत के पीछे-पीछे रूस आया, फिर चीन, फिर यूरोपियन यूनियन। शेख हसीना की बांह मरोड़ने का अमरीकी कौशल काम नहीं आया। अंततः अमरीका और ब्रिटेन को भी नई सरकार को मान्यता देनी पड़ी। जिस सवाल का जवाब मैं खोज रहा था वह यह था कि बीएनपी हमेशा जमाते इस्लामी की मदद लेती रही है जबकि शेख हसीना की अवामी लीग सच्चे मायने में सेकुलर है। फिर भी क्यों अमरीका बीएनपी का समर्थन करता है।

ढाका विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर शांतनु मजूमदार ने लंदन में सेकुलरिज्म पर ही डाक्टरेट की है। हम उनके साथ काफी देर तक विश्वविद्यालय में मधु के कैंटीन में बैठे। विश्वविद्यालय परिसर में मधु के कैंटीन का अपना एक इतिहास है। 1971 के मुक्तियुद्ध के दौरान इस कैंटीन के मालिक मधु को गोली मार दी गई थी। अब कैंटीन उनका लड़का चलाता है। काफी पुराने कैंटीन में साधारण कदकाठी वाले मधु की तस्वीर लगी हुई है। अमरीका और शेख हसीना के बीच की तनातनी को लेकर शांतनु दो-एक कारण बताते हैं जोकि व्यक्तिगत संबंधों को लेकर थे। ढाका में अमरीका के राजदूत मोजेना के साथ शेख हसीना के संबंध कभी सामान्य नहीं रहे। यहां तक कि शेख हसीना ने कई वर्षों तक उन्हें मिलने का समय तक नहीं दिया। यह अपनी नाराजगी व्यक्त करने का उनका तरीका था। उधर मोजेना राजदूत के रूप में काफी सक्रिय रहे। उन्होंने देश के सभी जिलों की यात्राएं की और वहां बैठकें आदि करते रहे। हालांकि यह रिपोर्ट लिखने के बाद तक अमरीका ने अपना राजदूत बदल दिया है। दूसरा कारण शांतनु के अनुसार नोबेल पुरस्कार विजेता यूनुस थे। शेख हसीना के प्रधानमंत्री बनने से पहले दो साल तक बांग्लादेश में सेना समर्थित सरकार का शासन था। उस दौरान इस विचार पर काफी सोचा गया कि आपस में लड़ने वाली दोनों बेगमों को विदेश भेज दिया जाए, क्योंकि कुछ लोगों का मत था कि दोनों बेगमों के रहते बांग्लादेश की राजनीति में सुधार नहीं आ सकता। कई प्रभावशाली देशों के राजदूतों के साथ भी इस पर विचार-विमर्श किया गया। राजदूतों ने शेख हसीना के साथ विचार-विमर्श किया। हसीना को पता चल गया कि इस विचार के प्रतिपादक यूनुस ही हैं। उसके बाद से उनके साथ यूनुस के संबंध कभी सामान्य नहीं हुए।

शेख हसीना ने प्रधानमंत्री बनते ही यूनुस के खिलाफ प्रचार अभियान को हरी झंडी दिखा दी। लेकिन देश में भले न हो लेकिन पश्चिमी देशों में यूनुस की अच्छी पूछ है। तत्कालीन अमरीकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन के साथ भी उनके संबंध अच्छे थे। अपने विरुद्ध दुष्प्रचार रुकवाने के लिए यूनुस ने क्लिंटन को कहा होगा और क्लिंटन ने शेख हसीना से फोन पर इसके लिए अनुरोध किया। कहते हैं कि दोनों के बीच चालीस मिनट तक बात हुई, गरमा-गरमी भी हुई, लेकिन हसीना टस से मस नहीं हुईं। और इसके बाद से ही अमरीका बढ़-चढ़कर बीएनपी का समर्थन करने लगा। जो भी हो, इन खबरों से बांग्लादेश के अंदर शेख हसीना के कद में इजाफा ही हुआ है। लोग चर्चा करते हैं कि चलो कोई तो ऐसा है जो अमरीका के साथ सर उठाकर स्वाभिमान के साथ बात कर सकता है। यह अलग बात है कि कुछ लोग हसीना को भारत की पिट्ठू बताते हैं।

हसीना ने भारत की काफी मदद की। खासकर आज असम में जो शांति है उसका नब्बे फीसदी श्रेय उन्हीं को दिया जाना चाहिए। क्योंकि उन्होंने उल्फा के नेताओं को पकड़कर भारत के हवाले कर दिया था। इसी तरह बोड़ो उग्रवादियों के कई नेताओं और मणिपुर अलगाववादियों के नेता राजकुमार मेघेन को भी उन्होंने भारत के हवाले कर दिया। ऐसा करने से देश के अंदर उनकी भारत समर्थक छवि बन गई और किसी भी राजनेता के लिए यह अच्छी बात नहीं होती कि उसे किसी अन्य देश का समर्थक बताया जाए। क्योंकि समर्थक को पिट्ठू या कठपुतली कहने में ज्यादा देर नहीं लगती। भारत के साथ भूमि के लेनदेन वाले समझौते की जब भारतीय संसद में पुष्टि नहीं हुई थी तो अपने देश में उनकी काफी किरकिरी हुई। अखबारों में जो कुछ लिखा जाता है आम जनता पर उसका प्रभाव पड़ता ही है। ढाका विश्वविद्यालय के छात्र संघ के कार्यालय में 1971 के मुक्तियुद्ध की स्मृतियों को लेकर यह म्यूजियम बनाया हुआ है। म्यूजियम के संचालक प्रथम आलो के हमारे मित्र शोहराब हसन को पहचानते हैं। शोहराब संचालक महोदय को बताते हैं कि ये इंडिया से आए हमारे मित्र हैं। संचालक महोदय बात ही बात में कह बैठते हैं हम भारत की जितनी कद्र करते हैं भारत तो हमारी नहीं करता। शोहराब भाई दूसरी ओर देखने लगते हैं।


शनिवार, 24 जनवरी 2015

ट्रेन टू बांग्लादेश (2)



इस बात से भी हमारे हिंदी उत्साही मित्र खुश होंगे कि बांग्लादेशियों ने चुन चुनकर अपनी भाषा में से अंग्रजी के शब्दों को निकाल बाहर किया है। जैसे कोलकाता में आपको कोई नो प्रॉब्लम जैसे शब्दों का व्यवहार करता मिल सकता है। बल्कि वैसा ही मिलेगा। लेकिन बांग्लादेश में लोग कहेंगे ‘समस्या नेई’, या ‘असुबिधा नेई’। लेकिन दूसरी ओर बांग्लादेश की बंगला पर अरबी प्रभाव भी साफ है। जैसे कोलकाता में ब्रेकफास्ट को नाश्ता कोई नहीं कहता, लेकिन बांग्लादेश की बंग्ला में नाश्ता शब्द आम चलन में है। कोलकाता में पानी को जल कहते हैं। बांग्लादेश में पानी कहते हैं। इसी तरह कोलकाता की बौदी, बांग्लादेश में भाबी हो जाती है। मोटे तौर पर हिंदू भाभी को बौदी और मुस्लिम भाभी को भाबी कहते हैं। जिस तरह मुस्लिम अंकल को चाचा और हिंदू अंकल को काका कहते हैं। कितने गहराई तक बंटे हुए हैं हम।

बांग्लादेश के बुद्धिजीवियों में इस समय आमीर खान की पीके को लेकर काफी चर्चा है। चर्चा इस संदर्भ में होती है कि ‘हिंदी विस्तारवाद’ किस तरह अपनी जड़ें फैला रहा है। हमारे जैसे असम के किसी भी व्यक्ति को यह सुनकर आश्चर्य होगा और उसकी दिलचस्पी बढ़ेगी क्योंकि असम में भी हिंदी विस्तारवाद की बातें होती हैं। बांग्लादेश में भी पीके काफी लोकप्रिय रही और इसे लेकर चर्चा होती रही। चर्चा कुछ इस तरह की होती है कि हिंदी सिनेमा जैसे बरगद के नीचे बांग्ला सिनेमा कभी नहीं पनप सकता। एक व्यक्ति अपनी बातचीत के सिलसिले में कहता है ‘पोर्न या हिंदी सिनेमा’, तो दूसरा उसका विरोध करता है कि तुम्हें पोर्न और हिंदी सिनेमा को एक ही सांस में बोलने का अधिकार कहां से मिला। कोई पीके के बजट की बात कहता है तो कोई कहता है कि सत्यजीत राय, ऋत्विक घटक जैसों ने बहुत कम बजट में ही अच्छी फिल्में बनाई थीं। फिर बांग्लादेश के किसी भी विमर्श में जैसा कि अनिवार्य रूप से होता है बात राजनीति पर आ जाती है। कोई कहता है हमारे इस सूचना मंत्री के रहते बांग्ला सिनेमा कभी पनप नहीं सकता।

हिंदी विस्तारवाद की बातें सुनकर बेचारे अल्फा वालों पर तरस आया कि वे बेकार में ही स्वाधीनता के लिए अपनी जान दे रहे हैं। वे इस आस में हैं कि दिल्ली के ‘साम्राज्यवाद’ से ‘मुक्त’ होने पर हिंदी विस्तारवाद से भी अपने आप मुक्त हो जाएंगे। लेकिन यहां हमारे पड़ोस में एक राष्ट्र है जिसका जन्म ही भाषा और संस्कृति के मुद्दे पर हुआ। और वह हिंदी के तथाकथित विस्तारवाद के सामने अपने आपको असहाय पाता है। यानी परेश बरुवा महोदय को राजनीतिक स्वाधीनता से आगे सोचना होगा।

कभी-कभी लगता है कि असम के उन लोगों को पड़ोसी देशों में खूब घूमना चाहिए जो बात-बात में दिल्ली को गालियां देते हैं, और इस गाली का कुछ हिस्सा बेचारी हिंदी के पल्ले भी आ जाता है। क्योंकि तब कई मुद्दों पर उनकी दृष्टि साफ हो जाएगी। जैसे म्यांमार में जाने पर अवैध घुसपैठ को लेकर उनकी सोच को एक नई दृष्टि मिलेगी। वे यह सोचने के लिए मजबूर होंगे कि घुसपैठियों को लेकर सबकुछ हो गया, उनकी शिनाख्त हो गई लेकिन आप जिनको घुसपैठिया बता रहे हैं पड़ोसी देश उन्हें वापस लेने से इनकार कर दे तो आप क्या करेंगे। बांग्लादेश जाएंगे तो भाषा-संस्कृति की रक्षा का मुद्दा सोचने के लिए नए-नए विचार देगा। असम स्वाधीन हो भी गया तो भी आज के दौर में किस तरह हवाओं से होकर हिंदी असम के लोगों के घरों में घुसी रहेगी इसका क्या कोई इलाज स्वाधीनतावादियों ने सोचा है? बांग्लादेश में एक महिला अफसोस करती है कि हमलोग तो टीवी खोलते ही इंडिया के चैनल देखते हैं लेकिन इंडिया (पढ़ें पश्चिम बंगाल) के लोगों को बांग्लादेश के चैनलों के बारे में कुछ पता ही नहीं। दरअसल इंडिया बांग्लादेश के दिलोदिमाग पर हर समय छाया रहता है। भले इसकी प्रशंसा करते वक्त या आलोचना करने के समय।

ट्रेन का एक वाकया। एक ग्रामीण युवा को ट्रेन में सीट नहीं मिली। जबकि टिकट के अनुसार वह सीट पाने का अधिकारी था। पहले तो वह हमारे पड़ोसी यात्री के पास आया और कहा कि जरा बता दें कि मेरी कौन से कमरे (कोच को वहां कमरा कहते हैं, कहा न कि अंग्रेजी शब्दों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है) में सीट है। उसे बता दिया। वह थोड़ी देर बाद फिर लौट कर आया और बोला कि टीटी बाबू कहां हैं। क्योंकि वहां तो मेरी सीट नहीं मिल रही है। इस पर हमारे पास बैठे यात्री ने कहा कि यह जो नंबर लिखा है, इस नंबर वाली सीट तुम्हारी है। उसने कहा उस पर तो कोई बैठा है। बैठा है तो क्या हुआ उसे उठने बोलो, यह भी कोई बात हुई कि जिसकी मर्जी हुई वही बैठ गया। यह कहते-कहते वह यात्री उत्तेजित हो गया। यह कोई देश है जो कुर्सी पर बैठ गया वह उठेगा नहीं। कोई कानून-कायदा है या नहीं। पूरे कोच का वातावरण उत्तेजित हो गया। कई यात्री एक साथ बोलने लगे। हमारे पास बैठे यात्री ने एक युवा लड़के को ग्रामीण लड़के के साथ भेज दिया कि जाओ इसे सीट दिलाकर आओ।

बात तुरंत राजनीति पर आ गई। इशारा प्रधानमंत्री की कुर्सी की ओर था। देश ऐसे ही चल रहा है। एक यात्री बोला इंडिया में देखिए एक साधारण अभिनेत्री, क्या नाम है सृति ईरानी न क्या (बंग्ला में संयुक्त अक्षर में म जुड़ा होने पर म का उच्चारण नहीं करते, जैसे आत्म को लिखते आत्म ही हैं लेकिन उच्चारण आत्त करते हैं) वह आज शिक्षा मंत्री बन गई है। एक अन्य यात्री बोला – एक चाय वाला वहां प्रधानमंत्री बन सकता है। संसद में जाने से पहले वहां प्रधानमंत्री सीढ़ियों पर सर नवाकर सलाम करते हैं, प्रणाम करते हैं। इतना सम्मान है डेमोक्रेसी का। प्रणव मुखर्जी कांग्रेस के हैं लेकिन बीजेपी के प्रधानमंत्री उनका चरण स्पर्श करके सलाम करते हैं, प्रणाम करते हैं। डेमोक्रेसी के बारे में जानना है तो इंडिया से जानो, इसके लिए ब्रिटेन अमेरिका से जानने की जरूरत नहीं है।

राजनीति की चर्चा छिड़ने पर वहां सभी जोश में आ जाते हैं। एक यात्री कहता है जयललिता, सिर्फ एक अभिनेत्री थी और आज मुख्यमंत्री बन गई। इनके ही राज्य से तो हैं, उसने हमारी ओर इशारा करते हुए कहा। आप तमिलनाडु के ही हैं न, मैं आपलोगों की बातचीत सुनकर ही समझ गया था। हमने हां में सिर हिलाकर उसके बुद्धिमान होने की पुष्टि की। दरअसल देश दो बेगमों की आपसी लड़ाई के कारण पूरी तरह बरबाद हो रहा है। पिछले साल 5 जनवरी को चुनाव हुए जिसमें शेख हसीना की सत्ताधारी पार्टी अवामी लीग बिना किसी प्रतिद्वंद्विता के ही जीत गई क्योंकि विपक्षी खालिदा जिया की बीएनपी ने चुनाव का बायकाट कर दिया था। अब इस 5 जनवरी से बीएनपी ने समूचे देश को अस्थिर करने की ठान ली है। हम 6 जनवरी को बांग्लादेश में घुसे और 5 जनवरी से रास्तों पर गाड़ियों का चलना बंद हुआ था। बीएनपी का समर्थन करने वाली जमाते इस्लामी के जंगी कार्यकर्ता चुपके से मोटरसाइकिल पर आते हैं और किसी चलती गाड़ी पर पेट्रोल बम फेंक जाते हैं। रोज लोग मर रहे हैं। जनता हताश है। ट्रेनों में लोग जो अचानक उत्तेजित हो जाते हैं तो उत्तेजित न होकर वे और करें क्या।

सोमवार, 19 जनवरी 2015

ट्रेन टू बांग्लादेश


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 ढाका के ऑटोरिक्शे लोहे की जालियों से पूरी तरह सुरक्षित होते हैं।

हमें यह पता नहीं था कि त्रिपुरा की राजधानी अगरतला बिल्कुल अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर ही बसी हुई है (हम कितने अज्ञानी हैं)। हमें यह तो पता था कि अंतर्राष्ट्रीय सीमा वहां से पास ही है लेकिन इस बात का आभास नहीं था कि हमारे देश के एक राज्य की राजधानी बिल्कुल सीमा पर ही है। सीमा के उस पार के कस्बे का नाम अखौड़ा है। औपचारिकताएं पूरी कर सीमा चौकी पार करने के बाद ऑटो से अखौड़ा स्टेशन तक जाने के दो सौ बांग्लादेशी टाका लगते हैं। यही 7-8 किलोमीटर की दूरी होगी। अखौड़ा में सड़कें संकरी थीं, काफी भीड़-भड़क्का। स्टेशन पर एक ट्रेन खड़ी थी। बांग्लादेश की सभी ट्रेनें चेयर कार वाली हैं। टिकट पर ही सीट नंबर लिखा रहता है। प्लेटफार्म पर तीन-चार सजे-धजे किन्नर तेज-तेज जा रहे थे, एक-दूसरे से होड़ करते हुए। जैसे हमारे यहां जाते हैं। जब हम बांग्लादेश में घुसे तो वहां विपक्षी पार्टियों का रास्ता जाम चल रहा था जिसे वहां अवरोध कहा जाता है। अवरोध के कारण पहले से ही भीड़ वाली ट्रेनों में और भी ज्यादा भीड़ थी। लेकिन अखौड़ा से ढाका जाने वाली ट्रेन भी नहीं थी। हमें आजमपुर जाने की सलाह दी गई। आजमपुर वहां से यही कोई 6-7 किलोमीटर था। हमने एक ऑटो ले लिया।

ढाका विश्वविद्यालय के छात्र संघ कार्यालय में एक छोटा सा म्यूजियम है जिसमें 1971 के स्वाधीनता संग्राम की यादें सुरक्षित हैं। लेखक के साथ परिलक्षित हैं प्रथम आलो नामक समाचार पत्र के संयुक्त संपादक सोहराब हसन।

ऑटो ड्राइवर हारून ने हमसे पूछा कि असमिया कैसे बोलते हैं। मैंने एक-दो वाक्य बोलकर सुनाया। लगा कि उसे अच्छा लगा। उसका मन हिंदी बोलने का था। कहा हिंदी बोलिए न। मैं हिंदी जानता हूं। हारून ने दुबई में हिंदी में सीखी थी। वहां वह रंगमिस्त्री का काम करता था। लेकिन ज्यादा कमाई नहीं कर पाया। वहां की एक हजार मुद्राएं यानी बांग्लादेशी टाका में बाईस हजार की कमाई होती थी। अब वह ऑटो चलाकर कम-से-कम तीस हजार कमा लेता है। अखौड़ा में ऑटो ड्राइवरों की अच्छी कमाई है। ऑटो चलाने वाले छह सौ टाका देकर किराए पर ऑटो ले सकते हैं। जबकि अगरतला में एक दिन का किराया तीन सौ रूपया (बांग्लादेशी 360 टाका) है। यानी उधर कमाई ज्यादा है। उधर कमाई ज्यादा होने के प्रमाण हमें आगे भी मिलते गए।

आजमपुर का दबा-सिकुड़ा-मरियल सा स्टेशन था। हमारे यहां ऐसे स्टेशन चालीस साल पहले भी नहीं थे। प्लेटफार्म पर ही मस्जिद बनी हुई थी। विदेशी जानकर प्लेटफार्म के बाहर एक युवक हमारी मदद करने के लिए आगे आया। कहा आपलोग बंग्ला नहीं जानते क्या। हमने पूछा तुम हिंदी कहां से सीखे। वह भी दुबई रिटर्न था। हमें अपने देश का मेहमान समझकर वह मदद करने को आगे आया था। तब तक ट्रेन आ चुकी थी। हमारी टिकट पर सीट नंबर नहीं थे। सीट वाली टिकटें खत्म हो चुकी थी। हमें बैठने का अधिकार नहीं था। पहले ही मिल चुकी सलाह के अनुसार हम बिल्कुल पीछे चले गए थे। वहां की ट्रेनों में पीछे के कोच में कैंटीन रहता है। कैंटीन वाले की ना-नुकर की परवाह नहीं करते हुए हम उसमें जबरदस्ती घुस गए। आखिर कैंटीन वाले को भी पैसे कमाने थे। जो पैसे देने वाले जैसे लगे उनलोगों को उसने कड़ाई से नहीं रोका।

अंदर चाय पीने और खाने के लिए टेबल-कुर्सियां लगी हुई थीं, जैसे कभी हमारे यहां की ट्रेनों में डाइनिंग कार में हुआ करती थीं। लेकिन यह पूरा कोच नहीं था। कोच का आधा या एक-तिहाई हिस्सा था। हर कुर्सी पर यात्री जमे हुए थे। ये लोग कुछ खाने-पीने के लिए नहीं आए थे। बल्कि कैंटीन वाले को कुछ टाका देकर वे लोग उन सीटों पर जम गए थे। कैंटीन वाले ने हमारे लिए भी एक बक्से पर जगह कर दी। उस स्थिति में हमारे लिए वह एसी से भी बढ़िया जगह थी। कैंटीन में सैंडविच, चाय, पानी, कोल्ड ड्रिंक और चावल मिल रहे थे। हमने भी समय पर सैंडविच खा ली। बांग्लादेश में ट्रेनों को किराया बहुत अधिक है। 120 किलोमीटर के 150 टाका ज्यादा ही हैं। हमारे यहां स्थानीय गाड़ियों में बीस-बाइस रुपए लगते हैं, मेल ट्रेन में यही 65-70 रुपए होंगे।

ढाका बिमान बंदर स्टेशन से हमारा होटल नजदीक पड़ता था इसलिए हम वहीं उतर गए। ढाका में कहीं टैक्सी दिखाई नहीं दी। स्टेशन से हमने ऑटो लिया। ढाका के ऑटो लोहे की जाली से पूरी तरह सुरक्षित रहते हैं। बताते हैं कि यहां छिनताई बहुत होती है। चलते ऑटो से औरतों के पर्स या मोबाइल छीन ले जाना आम बात है। उल्फा के अध्यक्ष अरविंद राजखोवा की पत्नी काबेरी कछारी राजखोवा अपने संस्मरण में बताती हैं कि तरह एक बार रिक्शे पर जाते समय एक लड़का उनका पर्स छीन ले गया। ढाका में ऑटो वालों की तेज गति दिल दहला देने वाली होती है। अब मैंने जाना कि ढाका अखबारों में दुर्घटनाओं की खबरें इतनी ज्यादा क्यों होती हैं। सीटी बस वाले चाहते हैं कि सिगनल को अनदेखा कर गाड़ी लाल बत्ती में भी बढ़ा ले जाएं। घर लौटने के बाद ढाका के अखबार में पढ़ा कि एक बस तीन लोगों के ऊपर से निकल गई। पहले लगता था ढाका में इतनी ज्यादा दुर्घटनाएं क्यों होती हैं। अब लगता है इतनी बेपरवाह ड्राइविंग के बाद भी इतनी कम दुर्घटनाएं। शायद ईश्वर के अस्तित्व का यही प्रमाण है। (बस एक मजाक है, ढाका के मित्र माफ करेंगे।)

हमारे हिंदी को लेकर अति उत्साही रहने वाले मित्रों को पता नहीं बांग्लादेश जाकर कैसा लगेगा। बांग्लादेश में सार्वजनिक स्थानों पर अंग्रेजी न के बराबर है। ट्रेनों में कहीं भी अंग्रेजी में कुछ भी लिखा नहीं रहता। टिकट पर होने को तो अंग्रेजी है लेकिन वह साफ नहीं है और आप यदि बंग्ला नहीं जानते तो आपको दूसरों के आसरे ही रहना पड़ेगा। यहां तक कि रोमन संख्याओं का उपयोग करने से भी उन्हें परहेज है। इस स्थिति में हमारे हिंदी-उत्साही मित्र शायद यह कहें कि देखो हमारा एक छोटा-सा पड़ोसी देश भी अपनी भाषा को कितना प्यार करता है और उसने अंग्रेजी को उखाड़ बाहर किया है। और हम हैं कि अंग्रेजी की गुलामी करते हैं। बांग्लादेशियों ने शायद यह मान लिया है कि विदेश से आने वाला कोई भी इंसान बंग्ला तो जानता ही होगा। या फिर उनलोगों को शायद विदेशी सैलानियों की जरूरत नहीं है या यह उम्मीद नहीं है कि उनके यहां काफी संख्या में विदेशी सैलानी आएंगे। बंग्ला पढ़ना नहीं जानने वाले को बांग्लादेश में निश्चित रूप से दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा, लेकिन हमारे हिंदी-उत्साही मित्र शायद इन दिक्कतों को इसलिए सहर्ष झेल लें कि अंग्रेजी हटाओ का साक्षात पूर्ण क्रियान्वयन उनके बिल्कुल पड़ोस में हो रहा है।

(अगले रविवार को पढ़ें ट्रेन में इंडिया की बातें। लेखक से संपर्क 98640-72186)





शनिवार, 3 जनवरी 2015

पहले दिन का विषाद और असमिया भाषा से दूरियां



यह 1974 की बात होगी जब मैंने पहली बार राजस्थान की धरती पर पैर रखा था। मैंने अब तक दो ही बार मुख्य रूप से राजस्थान की यात्राएं की हैं। हमारे परिवार में बच्चे के बाल पहली बार राजस्थान जाकर अपने ईष्टदेवता के सामने कटवाने का नियम है। इसे हम लोग जड़ूला कहते हैं। तब तक मेरी उम्र 13 साल हो चुकी थी और मेरे बाल कटवाए नहीं गए थे। इससे दिक्कत तो हुई लेकिन फायदा यह हुआ कि जब मैं पहली बार राजस्थान गया तब तक चीजों को समझने और याद रखने लायक हो चुका था। अब भी वो अल्ल सुबह उठकर ऊंटगाड़ी में बिस्तर (सोड़िए) बिछाकर आसपास के गांवों की यात्रा करने का मनोरम दृश्य याद है। एक दृश्य - सामने से आ रही एक ऊंटगाड़ी भी बांई ओर से आ रही थी। हमारी ऊंटगाड़ी भी बांई ओर से जा रही थी। जब उसे रास्ता देने के लिए हमारी गाड़ी दाएं हुई तो वो भी दाएं हो गई। यह खेल दो-तीन दफे चला। गांव वाले बाएं और दाएं का नियम जानते ही नहीं थे। रेगिस्तान की निष्कलुष भोर में गांववासियों का यह भोलापन मिलकर उसे एक अनुपम ही रंग दे रहा था।

दूसरी बार राजस्थान की यात्रा करीब दस साल पहले हुई। मेरी ही तरह इस बार मेरे बच्चे के बाल कटवाने। मैं पिछली बार जैसी मनोरम यात्रा को लेकर अति उत्साहित था। इस बार हमने एक जीप कर ली। रास्ते भी ऐसे हो गए थे जिन पर जीप चल सके। जीप वाला फर्र-फर्र कर हमें हर जगह ले गया और करीब सात में से छह मंदिरों की यात्रा एक ही दिन में पूरी करवा दी। इस यात्रा में पिछली बार तीन-चार दिन लग गए थे। लेकिन पिछली बार जैसा मजा आया था उसका एक शतांश भी इस बार नहीं आया। पेट्रोल और डीजल से चलने वाले वाहन परिवेश में धुंआ फैला रहे थे। मुझे गुवाहाटी, सुजानगढ़, डीडवाना और कांकरोली में कोई फर्क नजर नहीं आया। गुवाहाटी में तो फिर भी पांव से चलने वाले रिक्शे अभी हैं लेकिन राजस्थान में तो सभी रिक्शे डीजल से चलने वाले हो गए हैं। वे बेहद शोर करते हैं। एक पीढ़ी ऐसी है जिसे कम भीड़ वाले रास्तों और रास्तों पर सहनीय शोर के बारे में कुछ मालूम ही नहीं है। जिस तरह बहुत से लोगों को असली जर्दा, असली दूध, असली मसालों के बारे में कुछ भी पता नहीं।

नववर्ष किसने किस तरह मनाया होगा। सारे भारतवर्ष में इसका भी एक पैटर्न बन गया है। लगभग हर जगह ही कुछ मोटरसाइकिल सवार अपने पिकनिक स्थल पर पहुंचने के लिए किसी ट्रक से होड़ करने के दौरान दुर्घटनाग्रस्त हुए होंगे। कुछ कार चालक नियम तोड़कर सामने से आते किसी वाहन से टकराते-टकराते बचे होंगे। और उनमें से कुछ सचमुच टकरा गए होंगे। लगभग हर शहर के बाहर किसी नदी-तालाब के किनारे पिकनिक मनाने गए कुछ लोगों में कुछ लोग तैरना नहीं जानते हुए नदी-तालाब में उतरे होंगे। और उनमें कुछ लोग डूबते-डूबते बचे होंगे। और उनमें से कुछ लोगों को उनके साथी बचा नहीं पाए होंगे।

क्या मैं बेवजह डर पैदा कर रहा हूं। ऐसी बात नहीं है। आप 2 जनवरी का अखबार उठाकर देखें। कम-से-कम सात लोगों ने छोटे से असम में इन्हीं तरह के कारणों से अपनी जान गंवाई और अपने साथियों के लिए 1 जनवरी को एक मनहूस दिन में तब्दील कर दिया। वाहनों का बढ़ना प्रगति की निशानी है। एक स्तर तक वाहन बढ़ते जाएंगे। फिर एक दौर आएगा जब बहुत अधिक पैसे वाले लोग पेट्रोल-डीजल से चलने वाले वाहनों की जगह साइकिल जैसे वाहन को पसंद करने लगेंगे। तब उनकी देखादेखी हो सकता है साइकिल चलाना एक क्रेज हो जाए। यह सब कब होगा कहना मुश्किल है। लेकिन जब तक साइकिलें वापस आएंगी तब तक के लिए क्या हम नियमों के अनुसार नहीं चल सकते। प्रगति हर निशानी के साथ कुछ नियम भी चले आते हैं। उनका यदि पालन नहीं करें तो प्रगति ही दुर्गति में बदल जाती है।

‘हमारी” युवा पीढ़ी

जो लोग असम के बाहर से आकर यहां रह रहे हैं और जिनकी दो-दो पीढ़ियों का जन्म यहीं हुआ है और जो बात-बात में यहीं के होने का दावा करते हैं उनका असमिया भाषा के साथ कोई गहरा रिश्ता नहीं बन पाया था, लेकिन क्या उनकी नई पीढ़ी का ही स्थानीय भाषा के साथ कोई रिश्ता बन पाया है। मुझे लगता है कि नई पीढ़ी तो और भी अधिक असमिया भाषा से दूर है। एक मित्र ने कहा कि भाषा क्या है, सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम ही तो है। आप जैसे भी हो अपनी बात किसी को समझा पाते हैं तो और क्या चाहिए। लेकिन भाषा के साथ एक पूरा साझा इतिहास, एक संस्कृति जुड़ी होती है। जो युवा असमिया भाषा के साथ नहीं जुड़ा होगा, वह असमिया साहित्य के साथ भी जुड़ा नहीं होगा, वह असमिया नाटक और फिल्म से भी जुड़ा नहीं होगा, उसे असमिया संगीत से भी (हालांकि संगीत की कोई भाषा नहीं होती) कोई सरोकार नहीं होगा। और वह असमिया मानसिकता से भी दूर होगा। तो क्या जिन लोगों के पुरखे यहां सिर्फ रोजगार के लिए आए थे और इस तरह रहते थे जैसे कोई धर्मशाला में रहता है, तो नई पीढ़ी भी उस मानसिकता से उबर नहीं पाई है? जब हम हमारी पड़ताल को जरा गहरे में ले जाते हैं और देखते हैं कि असम जैसे प्रदेश में बाहर से कौन लोग आए? जिन जातियों के लोग आए उन्हें क्या अपने प्रदेश में भाषा, साहित्य, संगीत जैसी (बेकार की) चीजों से बहुत लगाव है। तो हम पाते हैं उन्हें अपने उस प्रदेश की भाषा से भी कोई वैसा लगाव नहीं है, वह चाहे हिंदी भाषा हो चाहे कोई और।


जब हम देखते हैं कि असम जैसे राज्य में पुस्तकों को लेकर कोई चर्चा हो, या टीवी पर कोई कार्यक्रम हो, सिनेमा को लेकर कोई विचारगोष्ठी हो, या नाटक पर कोई वर्कशाप हो, किसी नृत्य की कार्यशाला हो, या पत्रकारिता ही हो – हर जगह मुख्यतः मुख्यधारा के असमिया समुदाय का ही बोलबाला रहता है। फिर यह ख्याल आता है कि इन क्षेत्रों में जहां पैसे नहीं हैं या कम पैसे हैं दूसरे लोग आते कहां हैं। फिर यदि हम किसी की उपेक्षा करने का आरोप लगाएं तो यह गलत होगा। पिछले कुछ अरसे से बाहर से आए ऐसे एक समुदाय के लोगों में राजनीति में आने के लिए काफी जद्दोजहद देखने को मिली। जैसे व्यापार में आए वैसे ही ये लोग राजनीति में आना चाहते हैं। आखिर मलाई तो राजनीति में ही है। राजनीति भी तो एक व्यापार ही है। तो फिर क्यों नहीं आएं हम राजनीति में। लेकिन बिना समाज से जुड़े, बिना स्थानीय भाषा को प्यार किए, बिना स्थानीय संस्कृति का आदर किए – की जाने वाली यह राजनीति किस तरह सिर्फ पैसा कमाने और सिर्फ अपने समुदाय की मुखियागिरी करने वाली राजनीति होगी यह तो पहले से ही साफ है।