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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

रविवार, 23 सितंबर 2012

सुनो गौर से हिंदी वालों

हिंदी दिवस मनाने का प्रचलन करने वालों ने भले और कुछ भी सोचा होगा, लेकिन निश्चित तौर पर उनलोगों ने इस दिन की कल्पना इस रूप में नहीं की होगी कि इस दिन हिंदी की दुर्दशा (वास्तविक या काल्पनिक) पर सामूहिक विलाप किया जाए। कहीं हिंदी की स्थिति कहानी के उस भिखारी जैसी तो नहीं हो गई जो कभी बिना गद्दे और चादर के ही आराम से गहरी नींद सो लेता था। लेकिन कुछ दिनों के राजमहल के ऐश के बाद एक दिन उसे राजसी पलंग पर भी रात भर नींद नहीं आई। कारण यह पाया गया कि बिस्तर पर कपास का एक बीज रह गया था, जो उसे चुभ रहा था और नींद में बाधक बना हुआ था। कुछ यही हाल हमारी हिंदी का है। अनुकूल ऐतिहासिक परिस्थितियों में हिंदी अपने खड़ी बोली के छोटे से भौगोलिक दायरे से बाहर निकली और एक समय जब यह प्रश्न सामने आया कि भारत की एक अपनी राष्ट्रभाषा होनी चाहिए, वह भाषा कौन-सी हो सकती है, तब हिंदी को छोड़कर दूसरा कोई विकल्प ही नहीं था। जिन ऐतिहासिक परिस्थितियों की हम बात कर रहे हैं उनमें मुख्य है मुगल साम्राज्य का फैलाव और उसकी स्थिरता तथा बाद में चला स्वाधीनता संग्राम। खड़ी बोली का विकास और फैलाव स्वाधीनता संग्राम के साथ-साथ होता गया, इस पर शायद ही दो मत हों।

हिंदी के विकास में उन भाषाओं के बलिदान पर बहुत ही कम लिखा और कहा गया है जिन्हें आज हिंदी की बोलियां या उपभाषाएं मान लिया गया है। समृद्ध साहित्यिक विरासत वाली अवधी, भोजपुरी, राजस्थानी, मैथिली जैसी भाषाओं को यदि बोली मान लिया गया, तो सिर्फ इस वजह से कि इन भाषाओं के बोलने वालों ने हिंदी के विकास के हित में इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया था। वरना ज्यादा नहीं पांच सौ साल पीछे भी जाएं तो खड़ी बोली आपको कहीं दिखाई नहीं देगी, जबकि (उदाहरण के लिए) अवधी, राजस्थानी, मैथिली जैसी भाषाएं उस समय साहित्यिक ऊंचाइयां छू रही थीं। दरअसल आज जिसे हिंदी प्रदेश कहा जाता है विकास की विभिन्न पायदानों पर खड़ी उस प्रदेश की भाषाओं-बोलियों ने हिंदी के अबाध विकास को अपनी सहमति दी थी और इस सहमति का मतलब यदि इन भाषाओं-बोलियों की अपनी मृत्यु था, तो वह भी उन्हें स्वीकार था।

हमारे परिवार में एक समय तीन पीढ़ियां तीन भाषाओं का व्यवहार करती थीं। हमारी दादी राजस्थानी के अलावा दूसरी भाषा नहीं बोल पाती थीं। उनकी स्कूली शिक्षा नहीं हुई थी। वे हिंदी, बांग्ला और असमिया समझ लेती थीं, लेकिन राजस्थानी के अलावा दूसरी किसी भाषा में जवाब नहीं दे पाती थीं। हमारे माता-पिता राजस्थानी और हिंदी दोनों भाषाओं का व्यवहार कर पाते थे। हम तक आते-आते राजस्थानी सिर्फ बोलचाल की भाषा बनकर रह गई। मां या बहन जैसे अंतरंग संबंध वालों, जिनके साथ हम हिंदी में बात करने की कल्पना भी नहीं कर सकते थे, को भी यदि पत्र लिखना होता तो हमारे पास हिंदी में लिखने के सिवाय कोई चारा नहीं था। कहने का तात्पर्य यह है कि जो कुछ भी औपचारिक था वह हिंदी में होने लगा। किसी सभा में श्रोता बनकर हम राजस्थानी में बात कर सकते थे, लेकिन माइक पर राजस्थानी का प्रयोग कल्पनातीत था।

यह वह समय था, जब हिंदी पट्टी की तथाकथित उपभाषाएं निश्चित मृत्यु की ओर सरक रही थीं। और यह सब इन भाषाओं के बोलने वालों की सहर्ष सहमति से हो रहा था। एक राष्ट्रभाषा के निर्माण में अपने योगदान को लेकर हिंदी पट्टी के लोग गर्वित थे। हम हिंदी की नवीनता की बात कर रहे थे। क्या आप ऐसे किसी बंगाली की कल्पना कर सकते हैं जो यह कहेगा कि मेरे दादा बांग्ला नहीं जानते। या कोई तमिल भाषी यह कहेगा कि मेरी दादी तमिल नहीं बोल सकतीं। लेकिन हम हिंदीभाषियों के अधिकांश परिवारों का सच कमोबेश यही है कि दो पीढ़ियों पहले हिंदी कहीं थी ही नहीं।

जितनी आसानी और स्वाभाविक प्रक्रिया के तहत हिंदी पट्टी की तथाकथित उपभाषाओं को हिंदी ने हटाया, उतनी आसानी हिंदी पट्टी के बाहर होना तो दूर, उल्टे वहां हिंदी को चुनौतियों का सामना भी करना पड़ा। खड़ी बोली हिंदी विकास की जिस पायदान पर खड़ी थी, बांग्ला, असमिया और तमिल जैसी भाषाएं उससे कहीं ऊंची पायदानों पर थीं। उनसे अपने व्यवहार के दायरे को संकुचित कर लेने की उम्मीद करना अव्यावहारिक था और ऐसा किया भी नहीं गया। इन हिंदीतर भाषाओं से सिर्फ यह अपेक्षा थी कि वे अपनी भाषा केे साथ-साथ हिंदी को अपना लें और इस तरह इसे भारत की निर्विवाद राष्ट्रभाषा बनाने का रास्ता सुगम बना दे। हिंदी पट्टी की मातृभाषा बनने के बाद अब हिंदी का सामना पूर्णतः विकसित भाषाओं से हुआ था। इन भाषाओं का लंबे समय से आधुनिक व्यवहार की भाषा के रूप में उपयोग हो रहा था। उनसे यह अपेक्षा नहीं की जा सकती थी कि वे राजस्थानी, अवधी, मैथिली, भोजपुरी आदि की तरह अपने आपको सिर्फ बोलचाल की भाषा तक महदूद कर दे। फिर भी स्वाधीनता मिलने तक और उसके बाद भी लगभग एक दशक तक हिंदीतर क्षेत्रों में हिंदी सीखने की ललक थी और इस पर कोई विवाद नहीं था।

स्वाधीनता के पहले तक हिंदी सीखने के साथ स्वेच्छा का तत्व जुड़ा था। लेकिन स्वाधीनता के बाद हिंदी सीखने और इसके प्रयोग के साथ शासन द्वारा मिलने वाली सुविधा-असुविधा के मसले जुड़ गए। मसलन हिंदी प्रदेश आज भी अहिंदीभाषी प्रदेशों की कुछ शंकाओं के जवाब नहीं दे पाए हैं। ये शंकाएं हैं ः यदि केंद्र सरकार की भाषा सिर्फ हिंदी बन गई तो केंद्र की नौकरियों, राजनीति, शिक्षा आदि हर क्षेत्र में हिंदी वाले अहिंदी वालों की अपेक्षा एक लाभ की स्थिति में रहेंगे। इस तरह क्या हिंदी प्रदेश के लोग इन क्षेत्रों में (नौकरी, राजनीति, शिक्षा) छा नहीं जाएंगे! दूसरा प्रश्न है कि अहिंदी क्षेत्र वाले अपनी मातृभाषा के अलावा अंग्रेजी और हिंदी पढ़ते हैं, जबकि हिंदी वालों को सिर्फ हिंदी और अंग्रेजी पढ़नी पड़ती है। इस तरह अहिंदी क्षेत्र पर हिंदी क्षेत्र की बनिस्पत ज्यादा यानी तीन भाषाओं का बोझ पड़ जाता है। इसका हल अहिंदी क्षेत्र के लोग यह बताते हैं कि आप हिंदी और अंग्रेजी पढ़ें, हम भी हमारी मातृभाषा और अंग्रेजी पढ़ेंगे। यहां यह नोट करने वाली बात है कि इस तरह के प्रस्ताव हिंदी को हिंदी पट्टी की क्षेत्रीय भाषा के रूप में सीमित करके देखते हैं। जबकि अब तक हिंदी की महत्वाकांक्षाएं इतनी बढ़ चुकी हैं कि ऐसे प्रस्ताव उसे अपमानजनक लगते हैं।

बहरहाल, आज का सच यह है कि हिंदी भारत में एक बड़े भूभाग की मातृभाषा बन गई है। 40 करोड़ लोग इसे अपनी मातृभाषा बताते हैं। दूसरी ओर, अहिंदीभाषी राज्यों ने हिंदी को आज की हिंदी पट्टी तक ही सीमित कर दिया है। हिंदी के अश्वमेध का घोड़ा इन सीमाओं से बाहर नहीं निकल सका। हिंदी अपने क्षेत्र के बाहर उतनी ही फैल रही है जितनी इतने विशाल क्षेत्र और बोलने वालों की इतनी बड़ी संख्या से उत्पन्न दबाव के कारण अपरिहार्य है। मसलन, जो तमिल भाषी उत्तर भारत में रोजगार की संभावनाएं तलाशना चाहता है, वह हिंदी सीखने को फायदे का सौदा समझता है। इसी तरह चालीस करोड़ की मातृभाषा होने के नाते सेना में हिंदी वालों की बड़ी संख्या होना स्वाभाविक है और उनके संपर्क में आकर अहिंदीभाषी सैनिक भी हिंदी सीख जाते हैं, या उन्हें सीखनी पड़ जाती है। और अंततः हिंदी ऐसे लोगों के बीच फैलती है जो इसके फैलाव को रोकना चाहते हैं।

हिंदी का यह जो फैलाव हो रहा है, वह उसके संख्या बल से उत्पन्न दबाव के कारण स्वाभाविक रूप से हो रहा है। कदाचित ही हिंदी वालों को हिंदी को एक समर्थ भाषा बनाने के लिए सायास प्रयास करते देखा जाता है। उदाहरण के लिए हिंदी प्रदेश का क्या एक भी विश्वविद्यालय इतना समर्थ नहीं हो सका कि दक्षिण या पूर्वी भारत में अपना कैम्पस स्थापित कर वहां हिंदी विषय या हिंदी माध्यम से अन्य विषयों की शिक्षा का अवसर प्रदान करता? हिंदी प्रदेशों ने हिंदी को आगे बढ़ाने की सारी जिम्मेवारी केंद्र सरकार को सौंप दी और खुद गहरी नींद सोते रहे। हिंदी प्रदेशों से तो यह भी नहीं हो सका कि आपस में बैठकर सरकारी कामकाज में इस्तेमाल होने वाले विभिन्न पारिभाषिक शब्दों में एकरूपता लाए। आज हिंदी में साहित्य के अलावा ऐसी एक दर्जन पुस्तकों के नाम भी अनायास याद नहीं आते, जिन्हें पढ़ने की ललक के कारण कोई अहिंदीभाषी हिंदी सीखने को उद्यत हो।

किसी भाषा के विकास के लिए जरूरी नहीं कि वह सरकारी भाषा ही बने। फारसी भारत के कई प्रतापी राजदरबारों की भाषा थी, लेकिन आज वह भारत में कहां है? ज्यादा जरूरी है किसी भाषा को ज्ञान की भाषा बनाना। हमारी पीढ़ी ने बड़े चाव से हिंदी सीखी। इसके बाद शायद हम अंग्रेजी नहीं सीख पाते, यदि हिंदी बातचीत, शिक्षा का माध्यम और साहित्य की भाषा होने के साथ-साथ ज्ञान की भाषा भी होती। हिंदी को ज्ञान की भाषा बनाने का काम हुआ ही नहीं और अंततः हमारे बाद की पीढ़ी को सिर्फ साहित्य पढ़ने के लिए हिंदी सीखना फालतू का काम लगने लगा। जिस गाड़ी में हमारे जैसे लोग बैठे थे, वह गाड़ी स्टार्ट ही नहीं हुई और अब बाद वाली पीढ़ी के लोग दूसरी तेज गाड़ी में बैठ रहे हैंतो उन्हें दोष देकर सही नहीं। पहली गाड़ी वाला ड्राइवर शायद इंतजार कर रहा था कि सारे यात्री इसमें आ जाएं तब वह गाड़ी चलाएगा। इसका नतीजा यह हुआ कि जो पहले से बैठे थे वे भी उतरने लग गए।

रविवार, 16 सितंबर 2012

किसे बेहतर मालूम है बढ़ती मुस्लिम आबादी का सच

हम अपनी बात को आगे बढ़ाने से पहले यह बता देना चाहते हैं कि हमारा उद्देश्य असम में बांग्लादेशियों के अवैध प्रव्रजन की समस्या को कम करके आंकना नहीं है, न ही हम चाहते हैं कि अवैध विदेशी नागरिकों की शिनाख्त के काम में ढिलाई बरती जाए। बल्कि हम तो यह भी चाहते हैं कि सभी सीमांत प्रांतों के भारतीय नागरिकों को फोटो पहचान-पत्र दे दिए जाने चाहिए ताकि नए आने वाले किसी भी घुसपैठिए की शिनाख्त करना आसान हो जाए।

हम असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के उस बयान पर चर्चा करना चाहते हैं, जिसमें उन्होंने कहा है कि असम में मुसलमानों की संख्या में इजाफा होने का कारण उस समुदाय में जन्म दर ज्यादा होना है। मुख्यमंत्री के इस बयान पर तूफान तो नहीं मचा लेकिन विरोध की प्रबल हवाएं जरूर बहना शुरू हो गईं। विरोधियों का कहना है कि ऐसा कहकर मुख्यमंत्री यह साबित करना चाहते हैं कि असम में बांग्लादेशियों का अवैध आगमन नहीं हुआ है। विरोध के स्वर एक बार फिर हमें 1979-85 की याद दिलाते हैं जब असम में चले जबर्दस्त विदेशी भगाओ आंदोलन के नेतृत्व का आचरण इस तरह का था कि सत्य क्या है यह सिर्फ उन्हें ही मालूम है? चूंकि असम में मुसलमान अपने खुद के कारणों से काफी संख्या में (लेकिन शत-प्रतिशत नहीं, क्योंकि तब बदरुद्दीन अजमल का एआईयूडीएफ राज्य विधानसभा में प्रमुख विपक्षी दल कैसे बनता!) कांग्रेस को वोट देता है, इसलिए यह मान लिया गया है कांग्रेस का कोई भी नेता जो कुछ भी कहेगा वह बांग्लादेशियों के बचाव के लिए ही कहेगा। बहुत से लोग यह नहीं देख पा रहे हैं कि तरुण गोगोई एक ही साथ मुस्लिम कार्ड और हिंदू कार्ड खेल लेते हैं। मुसलमान के अलावा हिंदू, खासकर आहोम समुदाय, के समर्थन पर भी आज की प्रदेश कांग्रेस काफी हद तक निर्भर है।

असम में 1971 के पहले या बाद कितने बांग्लादेशी आए हैं, इसका हिसाब किसी के पास नहीं है। लेकिन हर कोई कह रहा है कि बांग्लादेशी जरूर आए होंगे क्योंकि इस दौरान सूबे में मुसलमानों की आबादी में इजाफा हुआ है। 1971 में असम में मुस्लिम आबादी 24.56 प्रतिशत थी, जो 2001 में बढ़कर 30.92 प्रतिशत हो गई। इसी तरह राज्य के मुस्लिम बहुल जिलों में मुसलमानों के बढ़ते अनुपात पर चिंता व्यक्त की जाती है। धुबड़ी जिला बांग्लादेश से सटा हुआ है और वहां नदी के रास्ते बांग्लादेश आना-जाना बिल्कुल आसान है। वहां की मुस्लिम आबादी का फीसद 1971 के 64.46 से बढ़कर 2001 में 74.29 हो गया। बांग्लादेशियों के मुद्दे पर फिर से आंदोलन छेड़ने वाले संगठन इस जनसंख्या वृद्धि को अवैध प्रव्रजन का अकाट्य प्रमाण मानते हैं।

बिना इस प्रश्न का उत्तर दिए कि क्या असम में 1971 के बाद भी बड़ी संख्या में बांग्लादेशी प्रव्रजन हुआ है, हम सिर्फ इस बात की पड़ताल करेंगे कि क्या 1971 से 2001 तक के जनगणना के आंकड़े बड़ी संख्या में अवैध घुसपैठ का संकेत देते हैं? धुबड़ी में मुस्लिम आबादी 1971 की 64.46 फीसदी से बढ़कर 2001 में 74.29 हो गई। यानी 30 सालों में इस जिले में मुसलमानों की संख्या में 119 फीसदी बढ़ोतरी हुई। समूचे असम राज्य में इन 30 सालों के दौरान मुसलमानों की आबादी में 129.5 फीसदी वृद्धि दर्ज की गई और देश भर की मुस्लिम जनसंख्या में इस दौरान 133.3 फीसदी इजाफा हुआ।

हो सकता है धुबड़ी जिले में और असम में 1971 के बाद भी बड़ी संख्या में अवैध रूप से लोग बांग्लादेश से आए हों। लेकिन कम-से-कम जनगणना के आंकड़ों से यह सिद्ध नहीं होता। जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि इन 30 सालों में असम में यदि मुसलमानों की संख्या 129.5 फसदी बढ़ी है, तो सारे भारत में इस समुदाय की आबादी इससे भी अधिक यानी 133.3 फीसदी बढ़ी है। जाहिर है हमें देश के स्तर पर मुस्लिम आबादी में इतनी अधिक बढ़ोतरी की व्याख्या करने के लिए दूसरे कारण खोजने होंगे, क्योंकि यह तो नहीं कहा जा सकता कि इन 30 सालों में मुस्लिम समुदाय में जो आठ करोड़ के लगभग नए सदस्य शामिल हुए हैं, वे बांग्लादेश से आए हैं।

जनगणना के आंकड़े साफ बताते हैं कि 1971 से 2001 तक की अवधि में भारत में मुसलमानों की संख्या में वृद्धि 133.3 फीसदी हुई, जबकि सभी समुदायों के लिए यह आंकड़ा 87.37 फीसदी था। इस तरह मुस्लिम और गैर-मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर में काफी फर्क है और यह देश में राजनीतिक तनाव का एक अहम कारण रहा है। असम में आलोच्य अवधि में सभी समुदायों की जनसंख्या वृद्धि दर अखिल भारतीय औसत से कम यानी 82 फीसदी रही। हम इन आंकड़ों को जानने के लिए इसलिए भी विशेष तौर पर उत्सुक थे, क्योंकि विदेशी भगाओ आंदोलन के दौरान असम में बाकी भारत की तुलना में असामान्य रूप से अधिक जनसंख्या वृद्धि को अवैध बांग्लादेशी प्रव्रजन के अकाट्य तर्क के रूप में पेश किया गया था और चिंतित होने तथा समस्या का समाधान खोजने के लिए उद्यत होने का यह एक सही कारण था भी।

2011 के आंकड़े साफ दिखाते हैं कि भारत की कुल उर्वरता दर (टोटल फर्टिलिटी रेट या टीएफआर) 2.6 रही, जबकि इसी वर्ष मुसलमानों के लिए यह दर 3.1 थी। टीएफआर का मतलब है एक महिला उम्र भर में कितने बच्चों को जन्म देती है। जब तक यह दर सभी समुदायों के लिए 2.0 के नजदीक नहीं आती, तब तक भारत में यह सामाजिक और राजनीतिक तनाव का कारण बना रहेगा। यह 2.0 के आसपास आने पर इसे स्थिरता लाने वाली दर कहा जाता है यानी तब उस समुदाय की कुल आबादी लगभग स्थिर हो जाती है। यहां इस बात का उल्लेख किए बिना बात अधूरी रह जाएगी कि "औसत भारतीय' और मुसलमान - दोनों ही मामलों में कुल उर्वरता दर में लगातार कमी आ रही है। 1998-99 में मुसलमानों में यह दर 3.6 थी और "औसत भारतीय' में 2.85। मुसलमानों में टीएफआर का 3.6 से घटकर 3.1 तक आना एक अच्छा संकेत है - समुदाय और देश दोनों के लिए। औसत भारतीय के मामले में गत 50 सालों में यह दर लगभग आधी हो गई है। यहां यह भी उल्लेख करना जरूरी है कि बांग्लादेश में परिवार नियोजन कार्यक्रम को इस तरह लोकप्रिय किया गया कि वहां कुल उर्वरता दर 2011 में सिर्फ 2.2 रह गई। यह आंकड़ा भारत को मुंह चिढ़ाने वाला है, जिसके तथाकथित विकसित राज्य गुजरात में यह दर अब भी 2.5 और हरियाणा में 2.3 है।

मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने असम में मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि का कारण अशिक्षा बताया था। ऐसा कहते हुए उन्हें भान होगा कि आखिर यह बात उलटकर उन्हीं पर आएगी कि तब आपकी सरकार ने अशिक्षा खत्म करने के लिए कुछ किया क्यों नहीं। लेकिन फिर भी उन्होंने मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि जैसे मसले को उठाने का साहस किया। हो सकता है मुख्यमंत्री ने जो कारण बताया है वही कारण सही नहीं हो या एकमात्र कारण नहीं हो। लेकिन इस पर कोई विवाद की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए कि जनसंख्या नियंत्रण के मामले में बांग्लादेश ने सीमित संसाधनों और हमारी तुलना में कम प्रति व्यक्ति आय के बावजूद जो उपलब्धि हासिल की है, भारत और असम को भी उस दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिए। कहीं भी आबादी का ढांचा गड़बड़ाने से रोकने की दिशा में यही कदम अंततः कारगर साबित होगा।

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

क्या बांग्लादेश वापस लेगा घुसपैठियों को?

क्या इतिहास अपने आपको दोहराएगा? इस बात का अंदेशा इस कारण हो रहा है कि १९७९ से १९८५ तक चले विदेशी भगाओ आंदोलन की तर्ज पर फिर से लोग सड़कों पर निकल पड़े हैं| १९८५ में इस बात पर सहमति हो गई थी कि २४ मार्च १९७१ के बाद आए बांग्लादेशियों को अवैध माना जाएगा और उन्हें वापस उनके देश भेजने की व्यवस्था सरकार करेगी| यदि बांग्लादेशी प्रव‘जन के विरुद्ध लोगों की भावनाएं फिर से एक बार आंदोलन का रूप लेती है (इसकी उम्मीद कम है), तो क्या इस बार लोग इस संबंध में पहले की अपेक्षा ज्यादा शिक्षित हैं कि क्यों इस दो दशकों से ज्यादा की अवधि में एक भी अवैध बांग्लादेशी को वापस उसके देश नहीं भेजा जा सका | (हम यहां ‘एक भी’ शब्दों का इस्तेमाल इसलिए कर रहे हैं क्योंकि हमारे पास इस बात की सूचना नहीं है कि इस अवधि में बांग्लादेश सरकार ने भारत द्वारा बांग्लादेशी करार दिए गए किसी व्यक्ति को अपना नागरिक मानकर स्वीकार किया है|)

यदि कोई व्यक्ति सचमुच यह जानना चाहता है कि किन कारणों से बांग्लादेशी घुसपैठियों को निकाला नहीं जा सका, तो वह तथ्यों को जानने की कोशिश करेगा और यदि वह जानने का परिश्रम नहीं करना चाहता तो वह कहेगा कि राजनीतिज्ञों की वोट लोलुपता के कारण ऐसा नहीं हो सका| यह सच है कि राजनीतिज्ञों ने कभी नहीं चाहा कि बांग्लादेशी घुसपैठियों के मामले को गंभीरता से लिया जाए| क्योंकि पुलिस और सरकारी एजेंसियां जिस तरह काम करती हैं, उसमें यह नितांत संभव है कि निर्दोष नागरिकों को परेशान किया जाए| कोई भी सरकार बैठे-बिठाए बंग्ला भाषा बोलने वाले हिंदुओं और मुसलमानों को अपना दुश्मन नहीं बनाना चाहेगी| और इस तरह किसी भी अधिकारी को अवैध बांग्लादेशी को खोज निकालने के लिए कुछ भी न करने का संकेत दे दिया जाता है| यह वैसे ही है, जैसे सत्ताधारी दल के गुंडे-बदमाशों पर पुलिस जल्दी से हाथ नहीं डालती| अभी हाईकोर्ट के आदेश पर जब पुलिस ने डी-वोटरों को खोज निकालना शुरू किया, तो खासकर हिंदू बंगालियों में हड़कंप मच गया| आज भी असम के बंग्ला अखबार हिंदू बंगालियों को होने वाली परेशानियों से भरे पड़े रहते हैं| डिटेंशन कैम्पों में कैद कई हिंदू बंगालियों की गाथा आए दिन बंग्ला अखबारों में छपती रहती है| कोर्ट के आदेशों के कारण मु‘यमंत्री डी-वोटर के मुद्दे पर कोई कार्रवाई तो क्या, आश्‍वासन तक देने की स्थिति में नहीं थे| लेकिन फिर भी उन्होंने चुनाव से पहले हिंदू बंगाली समुदाय को गोल-मोल भाषा में आश्‍वासन दे डाला और चुनाव में वोटों की अच्छी फसल काट ली|

अवैध बांग्लादेशियों की समस्या पर आने से पहले यह भी देख लें कि बीटीएडी में हुई हिंसा का लोकसभा चुनावों पर क्या असर पड़ेगा? असम से बाहर क्या होता है, यह अभी देखने वाली बात होगी, लेकिन असम का मुसलमान वोटर एक बार फिर से कांग‘ेस की ओर झुक जाए तो आश्‍चर्य नहीं होना चाहिए| जो मुसलमान वोटर बदरुद्दीन अजमल की पार्टी की ओर झुकने लगा था, वह इस बार तो अवश्य देख रहा होगा कि किस तरह मौलाना अजमल चुप्पी साध गए हैं| या किस तरह वे संकट के समय भी मुंबई-दुबई के चक्कर लगा रहे हैं|

किसी अन्य देश के नागरिक के बारे में तभी यह प्रमाणित किया जा सकता है कि वह अन्य देश का नागरिक है, जब या तो उसके पास ऐसे दस्तावेज पाए जाएं, जैसे पासपोर्ट या फोटो पहचान पत्र, जो उसे उस देश का नागरिक साबित कर सके, या फिर वह स्वयं स्वीकार करे कि वह अमुक देश में अमुक गांव का नागरिक है| जिन लोगों को अब तक न्यायालय के आदेश पर वापस खदेड़ने के लिए सीमा पर ले जाया गया है, उनके बारे में यह तो प्रमाण है कि वह भारत का नागरिक नहीं है, लेकिन क्या हमारी अदालतों ने यह भी प्रमाणित किया है कि वह बांग्लादेश का ही नागरिक है? ऐसा नहीं होने तक हम बांग्लादेश सरकार से इस मुद्दे पर अपनी बात नहीं मनवा पाएंगे और न ही अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अपनी बात को तर्कपूर्ण ढंग से रख पाएंगे।

अवैध बांग्लादेशियों की समस्या के जिस पहलु पर सबसे कम ध्यान दिया गया, वह है अवैध बांग्लादेशी प्रमाणित हो चुके व्यक्ति को वापस उसके देश किस तरह भेजा जाएगा| बांग्लादेशियों के मुद्दे पर जो लोग भावनाओं में बहते हैं और सोचते हैं कि सरकार कड़ाई बरते तो उन्हें उनके देश वापस भेजा जा सकता है, उन्हें यदि यह बताया जाए कि ऐसा होना लगभग असंभव है तो उनके उत्साह पर पानी फिर सकता है| बांग्लादेशियों के मुद्दे पर अति उत्साही लोगों को यदि यह बताया जाए कि घुसपैठिया प्रमाणित होने के बाद भी ऐसे लोगों के भारत में ही रह जाने की संभावना है, भले उनके नागरिक अधिकार न रहें - तो उनमें से अधिकांश मानेंगे कि उनकी ऊर्जा एक निरर्थक काम में जाया हो गई| लेकिन ऐसा होने की संभावना ही अधिक है।

किसी अन्य देश के नागरिक के बारे में तभी यह प्रमाणित किया जा सकता है कि वह अन्य देश का नागरिक है, जब या तो उसके पास ऐसे दस्तावेज पाए जाएं, जैसे पासपोर्ट या फोटो पहचान पत्र, जो उसे उस देश का नागरिक साबित कर सके, या फिर वह स्वयं स्वीकार करे कि वह अमुक देश में अमुक गांव का नागरिक है| जिन लोगों को अब तक न्यायालय के आदेश पर वापस खदेड़ने के लिए सीमा पर ले जाया गया है, उनके बारे में यह तो प्रमाण है कि वह भारत का नागरिक नहीं है, लेकिन क्या हमारी अदालतों ने यह भी प्रमाणित किया है कि वह बांग्लादेश का ही नागरिक है? ऐसा नहीं होने तक हम बांग्लादेश सरकार से इस मुद्दे पर अपनी बात नहीं मनवा पाएंगे और न ही अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अपनी बात को तर्कपूर्ण ढंग से रख पाएंगे| इसलिए यह तय है कि जिन लोगों को अवैध घुसपैठिया करार दिया जाएगा, वह अंततः भारत में ही राज्यविहीन व्यक्ति के रूप में रह जाएगा| बहुत कम लोगों को मालूम है कि रोहिंग्या मुसलमानों की तरह दो लाख से ऊपर हिंदुओं को बर्मा में राज्यविहीन व्यक्ति करार दे रखा गया है| बर्मा के ब्रिटिश शासन से स्वाधीन होने के बाद ये भारतीय मूल के लोग वहीं रह गए थे| आज उन हिंदुओं को भारत सरकार स्वीकार नहीं कर रही और बर्मा सरकार उन्हें किसी भी तरह का नागरिक अधिकार दे नहीं रही| कुल मिलाकर यही समझ में आता है कि अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं की क्रूरता के बारे में आम आदमी को कितनी कम समझ है।