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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

गुरुवार, 8 सितंबर 2011

कोलकाता से श्री प्रमोद शाह की टिप्पणी

टीवी के सारे चैनलों में, सारे अखबारों में एक ही आंदोलन की चर्चा हो और जनसैलाब सड़कों पर
उतर आया हो, ऐसे में धारा के विरुद्ध लिखना सचमुच साहस का काम है। वास्तव में विचार प्रधान लेखों का उद्देश्य चिंतन-प्रक्रिया को जीवित रखना होता है। विचारों से सहमत या असहमत होना स्वाभाविक है। 28 अगस्त 2011 को विनोद रिंगानिया के लेख "अन्ना तुम जीवित रहो, देश को जरूरत है' इसके कुछ बिंदुओं पर सहमत होने के बावजूद कुछ बिंदुओं पर विचार-विमर्श करना चाहूंगा। बात स्पष्ट करने के लिए इसे दो भागों में विभाजित कर रहा हूं-एक, आजादी से नेहरू युग तक, दूसरा, केवल सन् 2010-2011।
आज अन्ना को अनशन क्यों करना पड़ा? इसकी जड़ तक जाना जरूरी है। दरअसल नेहरू युग तक हमें पुनर्जागरण काल के चिंतन की लौ मिलती रही। उसके बाद हमारा चिंतन दूषित होते चला गया। हमारे पढ़ने, सोचने, देखने, करने, बोलने, महसूस करने, लिखने और आचरण में कहीं कोई तालमेल नहीं रहा। पिछले चालीस वर्षों में बुद्धिजीवियों की एक प्रभावशाली जमात लिखने के पहले अपना स्वार्थ देखती रही। जैसे उसे कोई पद मिल जाए, धन मिल जाए, संतान को नौकरी मिल जाए, राज्यसभा की सीट मिल जाए, कोई पुरस्कार मिल जाए, राजनेता नाराज न हो जाए, मेरी राजनीतिक पार्टी मुझे अलग न कर दे-ऐसे विचारों में खोखलापन नहीं होगा, तो क्या होगा। हमें वहां शुद्धता की तलाश नहीं करनी चाहिए। यही हाल है अधिकांश धर्म-गुरुओं का। ये दोनों राजनीतिज्ञों पर अंकुश रखा करते थे। आम आदमी उन पर भरोसा करता था। दुर्भाग्य से ये दोनों भी राजनीति के प्रभाव में आ गए।
जिस गांधी टोपी की चर्चा विनोद जी ने की है, वह आजादी के बाद काफी बदनाम हुई। इसी तरह खादी को भी बदनाम किया राजनीतिज्ञों ने। धीरे-धीरे उनके लिए गांधी अप्रासंगिक हो गए।
नेहरू युग के चिंतकों की भावना के कुछ उदाहरण देखिए-
सन् 1955 में कवि शैलेंद्र को अपनी कविता की पुस्तक "न्यौता और चुनौती' में क्या लिखना पड़ा-
"भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की
देश-भक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फांसी की'
या
वही नवाब, वही राज, कुहराम वही है
पदवी बदल गई है, किंतु निजाम वही है
जाहिर है कि राजनीति पतनोन्मुख हो चली थी। उस समय भी राजनीतिज्ञों के आचरण को लेकर विवेकशील लोगों के कान खड़े हो चले थे। नेहरू जी का व्यक्तित्व इतना विराट था कि अनेक बातें छिप जाती थीं। लेकिन वे कभी तो सामने आती ही। भ्रष्टाचार परिदृश्य पर आने लगा। नेहरू जी ने कहा, "भ्रष्टाचारियों को बिजली के खंभे पर लटका देना चाहिए।' यानी भ्रष्टाचार खतरा बन चुका था। कवि देवराज "दिनेश' को यह आजादी, आजादी नहीं लग रही थी। उन्होंने सन् 1963 में कहा-
"महाक्रांति की बेला लानी ही होगी
युग का भ्रष्टाचार मिटाना ही होगा
बनकर इंद्र आज असुरों की सेना पर
अपनी भीषण वज्र गिराना ही होगा
यदि हमको अपने प्राणों का मोह रहा
मानवता का होगा कभी विकास नहीं
आजादी मिल गई, किंतु आजादी का
जाने प्रिय! क्यों कर होता आभास नहीं।'
सन् 1947 से 1964 तक भ्रष्टाचार के कई मामले सामने आए। खेल बिगड़ना शुरू हो गया था, यहां उदाहरण नहीं दूंगा। केवल चिंतकों की भावना से वातावरण को समझने की चेष्टा करें।
उसी समय 3 अप्रैल 1963 में प्रसिद्ध विधिवेता लक्ष्मीमल्ल सिंघवी ने नागरिक स्वातंत्र्य और अधिकारों की रक्षा की बात करते हुए कहा कि इनके लिए परंपरागत तरीके न तो उपयुक्त हैं और न पर्याप्त। उन्होंने पं. जवाहर लाल नेहरू से "ओम्बड्समैन (सार्वजनिक समस्याओं के विरुद्ध जनसाधारण की शिकायतों पर सुनवाई करने वाला उच्च शासकीय अधिकारी)' की चर्चा की। स्वीडन में सन् 1713 (1809 में संवैधानिक मान्यता), डेनमार्क में सन् 1946 (1953 में मूर्तरूप) और सन् 1962 में न्यूजीलैंड में यह व्यवस्था है और इंग्लैंड में लेबर पार्टी इसी साल (सन् 1964) में घोषणा कर चुकी है, कभी भी लागू हो सकती है।
पंडितजी ने कहा आप इसे कोई भारतीय शब्द बनाकर मसौदा तैयार करें। उन्होंने नाम के लिए एक सप्ताह मांगा और "ओम्बसड्मैन' को "लोकायुक्त-लोकपाल' नाम पहली बार दिया। पंडितजी ने अपनी पसंद और अनुशंसा प्रदान की। इस संस्थान की उपयोगिता पर सिंघवीजी लिखते हैं "इस संस्थान की स्थापना में अधिक विलंब अनावश्यक ही नहीं, अक्षम्य प्रतीत होता है, क्योंकि यह संस्थान लोकतांत्रिक आदर्शों की एक मूर्त मांग है।' "लोकायुक्त' संस्थान की अावश्यकता' नामक लेख "धर्मयुग' में 15 अगस्त 1965 को छपा था। (संदर्भ "भारत और हमारा समय'- डा. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी पृ. 209-211 प्रथम संस्करण 1995)
15 अगस्त 1965 से 15 अगस्त 2011, तक पूरे 46 वर्ष हुए और जिस संस्थान को टालना उस समय अक्षम्य प्रतीत होता था, वह आधी सदी तक ठंडे बस्ते में पड़ा रहा। इस दौरान न जाने कितने घोटाले हुए, कितनों को जान से हाथ धोना पड़ा, अमीर-गरीब की खाई बढ़ती गई, पूंजी कुछ मुट्ठी भर लोगों के हाथों में एकत्रित हो गई, महंगाई आसमान को छूने लगी, देश का अरबों-खरबों रुपया विदेशी बैंकों में चला गया और देश की जनता संसद की ओर आशा से ताकती रही। "शायद उनका आखिरी हो यह सितम' समझ कर जनता हर सितम सहती गई।
64 वर्षों को एक रात मान लिया जाए तो "मीर' का यह शेर कितना सटीक बैठता है-
"फोड़ा-सा सारी रात जो पकता रहेगा दिल
तो सुबह तक तो हाथ लगाया न जाएगा।'
आज भ्रष्टाचार रूपी फोड़े को हाथ लगाते हुए डर लगता है।
अब हम संविधान की बात करते हैं। संविधान के दो रूप होते हैं-एक शब्द एक उसकी आत्मा। संविधान की आत्मा का हनन राजनीतिज्ञों ने न जाने कितनी बार किया है और कर रहे हैं। यहां तक कि संविधान के आमुख (Preamble) को भी बदल कर उसकी भाषा त्रुटिपूर्ण कर दी गई, जबकि संिवधान के निर्माता ने सही आमुख बनाया था। 3 जनवरी 1977 में Sociallist एवं Secular शब्द जोड़कर अब यह पढ़ाया जाता है-
"The Preamble of our Constitution declares" WE THE PEOPLE OF INDIA, having solemnly resolved to Constitute India into SOVEREIGN SOCIALIST SECUALR DEMOCRATIC REPUBLIC.
In our Constituent Assembly this twenty sixth day of November 1949 to HEREBY ADOPT ENACT AND GIVE TO OURSEVLES THIS CONSTITUTION"
संविधान के महान ज्ञाता एसएम सिरवई अपनी पुस्तक Constitution Law of India के चौथे अध्याय Preamble में आगे लिखते हैं-संविधान के निर्माताओं ने 26 नवंबर 1949 को SOVEREIGN SOCIALIST SECULAR DEMOCRATIC REPUBLIC प्रस्तावित नहीं किया था। उन्होंने SOVEREIGN DEMOCRATIC REPUBLIC प्रस्तावित किया था। उनके अनुसार इसकी ड्राफ्टिंग सही नहीं है। भाषा यह होनी चाहिए WHEREAS the people of India in their Constituent Assembly enacted the following preamble and WHEREAS Parliament in the... year of the Republic desires to add the preamble, be it enacted as follow-
After the world sovereign add the words socialist secular.
आगे भी लिखते हैं आमुख में और किसी तरह का संशोधन एक ऐतिहासिक असत्य होगा जो प्रत्यक्ष रूप से विरोधाभास पैदा करता है। उन्होंने यह भी लिखा कि Secular एवं Socialist ये दोनों शब्द स्पष्ट नहीं है-अस्पष्ट शब्दों को आमुख में नहीं लेना चाहिए।
इस तरह अनेक संविधान के ज्ञाता ने समय-समय पर संविधान के साथ की गई छेड़छाड़ से अपनी नाराजगी जताई है।
कहने का तात्पर्य है भ्रष्टाचार के बढ़ते आकार और संविधान की आत्मा का हनन देखकर जनता आक्रोश से भरती जा रही थी। चुनाव प्रक्रिया में सुधार के कदम न उठाना और भ्रष्टाचार को चौंका देने वाले मामलों को देखकर जनता की सहनशक्ति ने जवाब दे दिया। गत अप्रैल में अन्ना हजारे के आंदोलन में आशा की नई किरण दिखाई दी। उन्हें लगा कि सरकार का जो रवैया है, उसे देखकर अनशन के अलावा उपाय भी क्या है। आज ही सर्वोच्च न्यायालय ने चेतावनी दे दी है कि अगर भविष्य में सरकार नहीं चेती तो देश में अन्ना हजारे जैसे और भी आंदोलन होंगे, जो सरकार को हिला देंगे और जनता उनको सबक सिखाएगी (प्रभात खबर, कोलकाता, 1 सितंबर 2011)
विनोद रिंगानिया ने कुछ चिंताएं व्यक्त की हैं। एक अहिंसा केंद्रित आंदोलन कैसे करना है, यह आंदोलन करने वालों पर छोड़ दें। हमारे सभी राजनीतिक दल एक भरोसेमंद राष्ट्रीय नेतृत्व देने में असफल हो चुके हैं। देश नेतृत्व के संकट से गुजर रहा है। अन्ना के समर्थकों को अन्ना से अनशन तोड़ने के लिए क्यों कहना चाहिए था? यह आंदोलन आजादी की दूसरी लड़ाई के रूप में लड़ा जा रहा था। लड़ाई काफी हद तक आगे बढ़ चुकी थी। ऐसे में कोई सेना अपने सेनापति को कहे कि तुम आगे मत बढ़ो, मर सकते हो, वापस आ जाओ। दरअसल ऐसे में किसी भी स्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए। यूं भी अन्ना समर्थक यह कहते हैं कि "अन्ना तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं' इसका अर्थ केवल अनशन में साथ नहीं, बल्कि पूरे आंदोलन में साथ है। अन्ना को देखकर जनता को यूं लगा कि-
"आंधियों के इरादे तो अच्छे न थे
ये दीया कैसे जलता हुआ रह गया।'
(वसीम बरेलवी)
विनोद जी की चिंता है कि यह दीया अनशन के कारण बुझ न जाए। उनकी चिंता स्वाभाविक है, लेकिन ऐसे दीये जल्दी से बुझते नहीं हैं। ये ऐसे चिराग हैं जिनसे हजार चिराग जल उठते हैं। जहां तक अनशन के बाद स्वास्थ्य प्राप्त करने का प्रश्न है, जिनका जीवन अनुशासित होता है, जिनको अनशन की आदत होती है और जिनके पास आत्मबल होता है, उन्हें स्वास्थ्य फिर से पाने में ज्यादा समय नहीं लगता।
जहां तक गांधीजी के अनशन का प्रश्न है कई विचारकों ने उनके अनशन को भी एक तरह की हिंसा बताया था। वे कहते हैं हिंसा में चाकू की नोंक प्रतिपक्षी की ओर रहती है और अहिंसा में अपनी ओर। यह तर्क सही भी मान लिया जाए तो जिसमें कम हिंसा हो वही काम बेहतर। अन्ना के अनशन ने यह साबित कर दिया कि हमारी सरकार और हमारे राजनीतिज्ञ जनता से कितने कट गए हैं।
जहां तक विरोधी स्वर का प्रश्न है, विरोध तो प्रजातंत्र के प्राण हैं, किसी को भी किसी भी विचार का विरोध करने का पूरा अधिकार है। किसी भी स्तर पर भाषा का स्खलन स्वीकार्य नहीं है। सबकी बात शालीनता से सुनी जानी चाहिए। यूं आज अरुंधति राय ने देश की जनता को बताया है कि अन्ना एक खोखला बर्तन हैं और बन्दे मातरम् शब्द सांप्रदायिक है व देश को बांटता है-यह चिंतन है या सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने की हवस?
जन लोकपाल बिल की मांग जबर्दस्ती मनवाना कतई न्यायसंगत नहीं, लेकिन जब पूरी संसद बहस करेगी, तो पूरा देश देखेगा और अन्ना टीम की कोई मांग नाजायज हुई तो खुद नकार देगा। अतः एक-एक बिंदु पर चर्चा करके बिल पारित करना चाहिए।
ताज्जुब है कि सरकार अप्रैल 2011 से अब तक चुप क्यों थी? टीवी चैनलों, ग्राम पंचायतों, ग्राम सभाओं और अखबारों में इसकी चर्चा करवाई जा सकती थी। लोगों के समक्ष बातें और स्पष्ट होतीं। दरअसल न्यूटन का ये भी एक नियम है कि जड़ता को तोड़ने के लिए बल की जरूरत पड़ती है। सरकार को यह सलाह दी जाए कि जनता की भावना के प्रति संवेदनशील बने। आजाद देश में अनशन करना पड़े इससे बड़ी शर्म की बात और क्या हो सकती है? यह आंदोलन अहिंसा और अनशन केंद्रित था। इसमें आवश्यकता होती है-सहनशीलता, त्याग, आत्मबल, निष्कलंकता की। अन्ना के अनशन ने इस बात को प्रमाणित किया कि भारतीय संस्कृति के शाश्वत मूल्य-अहिंसा, न्याय, त्याग और सहनशीलता इस भोग व अराजक काल में भी सर्वोपरि है-गांधी आज भी प्रासंगिक हैं। दुनिया में आज जहां चारों तरफ हिंसात्मक आंदोलन हो रहे हैं वहां अन्ना का यह आंदोलन एक प्रकाश स्तंभ की तरह काम करेगा।
भविष्य में आशंका
अन्ना टीम को चुनाव कभी नहीं लड़ना चाहिए। प्रजातंत्र में कुछ लोग व्यवस्था का पुर्जा बनकर नहीं बाहर से भी बहुत कुछ योगदान करते हैं। वे हमारे राजनीतिज्ञों का मन बदले, राजनीतिज्ञ मुद्दों से भटकते हैं तो जनता के बारे में सोचने पर मजबूर करें मगर शालीन भाषा और रुख में नरमी के साथ। अन्ना ने गांव-गांव जाकर आंदोलन को बढ़ाने की बात कही है-यही काम्य है।
बड़ी आशंका यह है कि कहीं अन्ना के साथ वह न हो जो गांधीजी और लोकनायक जेपी के साथ हुआ था। लार्ड माउंटबेटन ने गांधीजी से कहा था "अब कांग्रेस मेरे साथ है, महात्मा के साथ नहीं।' और गांधीजी ने अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के सदस्यों को देश विभाजन के पश्चात कहा था-
Wouldn't I do it (Oppose it) if only I had the time? But I cannot challenge the present leadership and demolish the people's faith in it unless I am in a position to tell them, "Here is an alternative leadership". I have not the time to left to build up such an alternative. It would be wrong under the circumstances to weaken the present leadership. I must, therefore, swallow the bitter pill"
उन्होंने आगे कहा-
"I have not strength to-day or else I would have declared rebellion single-handed ('Genesis of Partition'- J.B. Kripalni)
इस तरह गांधीजी अपने साथियों द्वारा ही अलग-थलग कर दिए गए थे।
जेपी की बदौलत सन् 1977 में जनता पार्टी ने सत्ता में आने के पश्चात उनको दरकिनार कर दिया। इससे जो नुकसान हो रहा था उसकी चर्चा लोकनायक बराबर करते रहे। उस समय जेपी की कोशिशों से बनाए गए प्रधानमंत्री मोरारजी भाई देसाई ने तो यहां तक कह दिया था कि जेपी अपने आप को मसीहा समझते हैं। अंततः जेपी ने कहा मुझसे चूक हुई कि आपलोगों पर विश्वास किया। वे एक बड़ी पीड़ा लेकर चले गए।
अन्ना के साथ गांधी और जेपी जैसा सलूक न हो। गत अप्रैल में जब अन्ना ने आंदोलन किया था और लोगों ने उस आंदोलन को आंधी कहा था, तब मैंने दो पंक्तियां कही थीं-उन्हें यहां लिपिबद्ध कर रहा हूं-
"अन्ना की इस आंधी का गांधी की तरह अंजाम न हो
आजादी वाली सुबह न हो, यह जेपी वाली शाम न हो।'
भगवान न करे कि अन्ना को दरकिनार कर दिया जाए। भगवान न करे ऐसा हो।
विनोद जी! मैं आपके शीर्षक में एक शब्द जोड़कर कहना चाहूंगा- "अन्ना तुम ससम्मान जीवित रहो, देश को जरूरत है।'
(लेखक कोलकाता रहते हैं। संपर्क ः 99032-46427)

रविवार, 28 अगस्त 2011

अन्ना तुम जीवित रहो, देश को जरूरत है

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आज जब शहर की सड़कों से गुजर रहा था तो कालेजी छात्राओं को नारे लगाते सुना - अन्ना तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं। असम में हिंदी में नारे सुनना एक हिंदीप्रेमी के कानों को अच्छा लगता है। राष्ट्रीय पताका, गांधी टोपी, हिंदी भाषा - इन दिनों हवा में राष्ट्रप्रेम घुला हुआ है। असम जैसे प्रदेश में यह सब विशेष रूप से अच्छा लगता है। लेकिन जब नारे के मर्म में जाते हैं तो ध्यान आता है कि इसका क्या मतलब है। एक व्यक्ति 11 दिन से अनशन पर बैठा हुआ है और हम कह रहे हैं कि तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं। एक अनशन पर बैठे हुए व्यक्ति से यह कहना कि तुम संघर्ष करो, 11 दिन अनशन पर पर बैठे एक सम्माननीय व्यक्ति के समर्थकों से, हम सबसे उम्मीद यह होनी चाहिए कि हम उनसे अनशन तोड़ने की प्रार्थना करें। अनशन तोड़कर आगे सघर्ष चलाते रहने की प्रार्थना करें और आगे चलने वाले संघर्ष में साथ देने का वादा करें। अन्ना हजारे ने स्वयं कहा भी है कि उनकी तीन शर्तों पर लोकसभा में चर्चा होने पर वे अनशन तोड़ने के बारे में सोचेंगे लेकिन रामलीला मैदान से नहीं हटेंगे। भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष चलते रहना चाहिए, लेकिन इसके पहले अन्ना के साथियों को चाहिए कि वे अन्ना से अनशन तुड़वाएं।
2
इन पंक्तियों के लेखक ने गांधीजी के बारे में सिर्फ किताबों से जाना है। लेकिन जितनी-सी हमें जानकारी है उसके अनुसार गांधीजी जब भी अनशन की घोषणा करते थे उनके निकट सहयोगियों - नेहरू, पटेल आदि - के मुंह सूख जाते थे। वे गांधीजी को अनशन नहीं करने के लिए मनाते थे। यहां एक बात और कहना चाहेंगे। गांधीजी ने बहुत कम ही बार अनशन अपने मुख्य प्रतिपक्ष यानी ब्रिटिश के विरुद्ध किया। उनके अनशन का उद्देश्य अपने देशवासियों या अपने सहयोगियों से कोई बात मनवाना होता था। या फिर किसी ऐसी बात पर वे अनशन करते थे जिसमें ऐसी स्थिति आ जाती थी कि यदि अभी जिद करके इस बात को नहीं मनवाया तो आगे कभी नहीं हो पाएगा। और इससे होने वाले नुकसान की भरपाई कभी नहीं हो पाएगी। उदाहरण के लिए ब्रिटिश सरकार का अनुसूचित जातियों के लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्र बनाने का प्रस्ताव। गांधीजी को लगा कि इससे हिंंदू समाज में जो फूट पड़ेगी उसकी भरपाई बाद में कभी नहीं हो पाएगी, इसलिए वे अनशन पर बैठ गए और आंबेडकर को अपनी बात मानने के लिए मजबूर कर दिया। आंबेडकर गांधीजी की रणनीति से काफी नाराज भी हुए। गांधीजी अनशन को नैतिक ताकतों के प्रति अपील करने का एक आध्यात्मिक अस्त्र मानते थे। लेकिन अन्ना और उनकी टीम के वक्तव्यों से यह स्पष्ट है कि वे अपने देश के राजनीतिज्ञों की नैतिकता में विश्वास नहीं करते। वे ठीक ही मंच से उनके धोखाधड़ीपूर्ण तरीकों की आलोेचना कर रहे हैं। उन पर व्यंग्य कस रहे हैं। लेकिन आप अपने प्रतिपक्ष को अनैतिक मानते हैं तो अनशन जैसे आध्यात्मिक अस्त्र (गांधीजी की भाषा में) का इसके लिए प्रयोग करने का कोई अर्थ ही नहीं है। यहीं हम इस बात का उल्लेख करना चाहेंगे कि अन्ना हजारे के समर्थन में देश भर में कई स्थानों पर (गुवाहाटी में भी) कुछ लोगों द्वारा उनके साथ-साथ अनशन किया जा रहा है। ज्यादातर स्थानों पर ऐसे लोग उपेक्षित हैं और कोई उन्हें जाकर समझाता नहीं है कि इस चरम अस्त्र का इस तरह उपयोग न करें। जरूरत है ऐसे लोगों को समझाने और उनकी जान बचाने की।
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अन्ना ने नौ दिन का अनशन पूरा होने पर कहा था कि अभी और नौ दिन तक अनशन करने की उनमें ताकत है। लेकिन उनकी उम्र के एक व्यक्ति के इतनी लंबी अवधि तक अनशन करने के बाद क्या उनका स्वास्थ्य वही रह जाएगा जो आज है! ऐसे मामलों में स्वास्थ्य को फिर से पुरानी स्थिति में आने में कई महीने/साल लग जाते हैं। गांधीजी का स्वास्थ्य भी बाद की अवधि में किए गए अनशन के कारण काफी गिर गया था। लेकिन रामलीला मैदान के जमावड़े से अभी भी भ्रष्टाचार को खत्म करने के नारे तो लग रहे हैं, लेकिन अन्ना से अनशन वापल लेने की अपील नहीं की जा रही है। इसका कारण क्या आंदोलनकारियों का स्वार्थपूर्ण रवैया है (कि अनशन टूटने से पहले सरकार से ठोस आश्वासन ले लिया जाए)? हमारे विचार से अब अन्ना को अनशन तोड़ने के लिए मनाना चाहिए और देश भर में भ्रष्टाचार के खिलाफ उठ खड़े हुए आंदोलन को अन्य तरीकों से आगे चलाया जाना चाहिए।
4
ऐसे क्षण आते हैं जब लगता है कि देश की सारी जनता किसी एक मुद्दे पर एकमत है। लोग ऐसे समय किसी भी भिन्न मत को सुनना पसंद नहीं करते। भिन्न मत का रहना और उसके रहने की परिस्थितियों का बना रहना ही किसी लोकतंत्र के असली या नकली होने की पहचान होती है। हो सकता है आपका मत ही सही हो, लेकिन आप यह दावा नहीं कर सकते कि सिर्फ आप ही सही हैं और सौ फीसदी सही हैं। दूसरी बात यह है कि भिन्न मत व्यक्त करने वालों के लिए अक्सर गाली-गलौच वाली भाषा का इस्तेमाल किया जाता है। इस समय शेखर गुप्ता, अरुंधती राय, तवलीन सिंह, शबाना आजमी आदि कई लोगों ने अन्ना के आंदोलन के कई पहलुओं पर अपने मतभेद व्यक्त किए हैं। ये मतभेद सार्वजनिक विमर्श में बने रहते हैं तो हर्ज क्या है, जरूरी नहीं कि उनके लिए अभद्र भाषा का प्रयोग किया जाए।
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देश भर में अन्ना के आंदोलन के लिए उमड़ पड़े जनसैलाब को इस रूप में समझा जाना चाहिए कि यह भ्रष्टाचार के प्रति लोगों के मन में सालों से जमा गुस्से का इजहार है। यह विशेषकर राजनेताओं के खिलाफ भी है। इसे कुछ लोग जनलोकपाल बिल के समर्थन के रूप में पेश करना चाहते हैं। दोनों में फर्क है। लेकिन टीम अन्ना के लोेग इसे जनलोकपाल के प्रति समर्थन बताकर और अन्ना के अनशन की दुहाई देकर अपने बिल को ज्यों का त्यों पारित करवाना चाहते हैं। यह एक तरह का ब्लैकमेल है और इसके नतीजे भविष्य के लिए अच्छे नहीं भी हो सकते हैं। जैसे कि कुछ विधिवेत्ताओं का कहना है कि सरकार और टीम अन्ना, दोनों के बिल अपनी-अपनी अति के शिकार हैं। एक संतुलित कानून नहीं बनाने की परिणतियां इस रूप में सामने आ सकती हैं कि या तो अभियुक्त को अपना बचाव करने और शिकायतकर्ता को धमकाने आदि का ज्यादा ही मौका मिल सकता है (सरकारी बिल) या फिर अभियुक्त को अपना पक्ष रखने का उचित समय पर उचित तरीके से मौका ही नहीं मिले (जनलोकपाल)। यदि यह कानून शिकायत मिलने के साथ ही अभियुक्त को दोषी मानकर आगे बढ़ता है तो इससे निर्दोष लोगों को फंसाया जा सकता है या फंसाने की धमकियां देकर लोग उनसे गलत काम करवा सकते हैं। यह कानून से संबंधित मामला है और अच्छा होता यदि दोनों ही पक्षों की सहमति से देश के कुछ चुनिंदा विधिवेत्ताओं (जैसे राम जेठमलानी) की टीम को अपनी ओर से इस बिल का एक मसौदा बनाने की जिम्मेवारी सौंपी जाती।
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यह सही है कि लोकपाल के मुद्दे को राजनेताओं ने उलझाकर रखा है और कुछ लोग कमर कसे हुए हैं कि किसी भी हालत में इसे पारित नहीं होने देना है। महिला आरक्षण बिल का हस्र हम देख चुके हैं। यानी मुंह से इसका विरोध नहीं करना है लेकिन पारित भी नहीं होने देना है। इसलिए हो सकता है इसी कारण टीम अन्ना में एक तरह की जिद आ गई हो कि इस बार राजनेताओं को अपनी साजिश में सफल नहीं होने देना है। लेकिन यह पुरानी बात हो गई है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध इतने बड़े जनांदोलन के बाद किसी भी पार्टी के लिए यह संभव नहीं रह जाएगा कि वह लोकपाल बिल को नियमों की भूलभुलैया में छिपा दे और दिन की रोशनी देखने से वंचित कर दे। इतने बड़े आंदोलन कोे दबाना अब संभव नहीं होगा।

रविवार, 6 फ़रवरी 2011

लांक्षन सहना प्रवासी की नियति है



हाल ही में मैं राज्य के बाहर गया। वहां एक साहित्यिक मित्र ने मुझे उलाहना दिया कि आपलोग हिंदी अखबार क्यों निकालते हैं? इस तरह आपलोग मारवाड़ी समाज को असमिया समाज से दूर रखने का काम करते हैं। हिंदी अखबार न होते तो मारवाड़ी लोग असमिया अखबार पढ़ते और असमिया समाज-संस्कृति के ज्यादा निकट जाने का मौका मिलता। यदि हम काफी हाउस या पनवाड़ी की दुकान पर मिले होते तो मैं जोर-शोर से बहस करता, लेकिन किसी के घर अतिथि बनकर गर्मागर्म बहस करने का मौका नहीं था। फिर भी मैंने मिमियाते हुए कहा कि जब हिंदी अखबार नहीं थे, तब मारवाड़ी कौन-सा असमिया अखबार पढ़ते थे। उन दिनों वे सन्मार्ग और दैनिक विश्वमित्र पढ़ा करते थे जिनमें असम के बारे में कुछ नहीं होता था। हमारे मित्र को एतराज था कि मारवाड़ी फैंसी बाजार में अपनी डफली पर अपना राग गाते हैं, उन्होंने फैंसी बाजार को छोटा-सा टापू जैसा बना रखा है। इसीलिए तो स्थानीय लोगों में विद्रोह होता है।

चूंकि मैं वहां कुछ बोल नहीं पाया था, शायद इसीलिए इन प्रश्नों के बीज दिमाग में रह गए और अंकुरित होकर बड़े होते रहे। मैं सोचता रहा कि क्या इसीलिए असमिया समाज में विद्रोह पनपा है! मैं मारवाड़ी समाज के किसी भी स्थानीय समाज के नजदीक जाने, उसकी संस्कृति-भाषा को अपनाने का विरोधी नहीं बल्कि समर्थक हूं। लेकिन यह भी कहता हूं कि यह काम एक स्वाभाविक प्रक्रिया के तौर पर होगा, न कि किसी राजनीतिक कार्यक्रम की तर्ज पर।

फिर यह प्रश्न भी है कि असमिया भाषा-संस्कृति को काफी हद तक अपना लेने वाले समुदायों को क्या संदेह की दृष्टि से नहीं देखा जाता? उदाहरण के लिए नेपाली समुदाय। हमारे मित्र को जिन मुद्दों पर मारवाड़ी समुदाय से शिकायत थी उन मुद्दों पर नेपाली समुदाय उन्हें शिकायत का मौका नहीं देगा। मसलन, वे लोग शहरों में टापू बनाकर नहीं रहते। नेपाली समुदाय असम में खेती और गोपालन से जुड़ा हुआ है, इसलिए गांवों में रहता है। इस समुदाय के लोग असमिया भाषा को मातृभाषा की तरह प्रयोग में लाते हैं। नेपाली समुदाय का असमिया साहित्य में अच्छा योगदान है। हमारे मित्र को संतोष होगा, कि ये लोग अपनी भाषा में समाचार पत्र भी नहीं निकालते, और असमिया पत्र ही पढ़ते हैं। लेकिन इससे क्या नेपाली समुदाय दोषारोपण से बच जाता है?

असमिया समाज-भाषा-साहित्य के सामने संकट हो सकते हैं- इनमें से कई वास्तविक हैं और कुछ काल्पनिक। लेकिन इस संकट को पैदा करने में मारवाड़ी समुदाय की मुझे कोई भूमिका नजर नहीं आती। एक कहानी है- एक मक्खी एक बैल के सींग पर बैठी थी। उसने देखा कि बैल की आंखों से आंसू बह रहे हैं। द्रवित होकर मक्खी ने पूछा- बैल भाई, मेरा भार सहन नहीं हो रहा है तो मैं कहीं और बैठ जाऊँ। कुछ ऐसी ही स्थिति मारवाड़ी समाज की असम में है। मारवाड़ी समुदाय मुश्किल से यहां की जनसंख्या का एक फीसदी होगा। ये एक फीसदी लोग दिन-रात अपने व्यापार में मगन रहते हैं। ये लोग असमिया भाषा सीखे, असमिया संस्कृति के नजदीक जाए तो इनलोगों के लिए ही अच्छा है- लेकिन न जाए तो यह स्थानीय लोगों में असंतोष का कारण बन सकता है यह बात समझ से परे है। मारवाड़ी समाज सिर्फ असम ही नहीं देश के हर राज्य में फैला है। अपने प्रवास के करीब दो सौ सालों के दौरान किसी भी राज्य में इसके द्वारा स्थानीय भाषा-संस्कृति के विरुद्ध कोई काम करने का उदाहरण नहीं मिलता। यह समाज अपनी भाषा को ही संवैधानिक या किसी भी तरह की सरकारी मान्यता दिलाने के लिए कोई प्रयत्न नहीं करता, ऐसा समाज किसी भी अन्य भाषा-संस्कृति के लिए खतरा बनने का तो सवाल ही नहीं।

फिर भी मारवाड़ी लोग अपने स्वभाव के कारण हमेशा रक्षात्मक मुद्रा में खड़े रहते हैं। (व्यावहारिक तौर पर देखें तो यह अच्छा है, लेकिन बौद्धिकता के स्तर पर पीड़ा तो होती ही है)। कोई कहता है तुम बहुत बुरे हो, तब यह अपने गिरेबान में झांकने लग जाता है, कोई कहता है तुम अपने बच्चों को हिंदी क्यों पढ़ाते हो तब यह हिंदी स्कूलों को बुराई की जड़ बताने लग जाता है; कोई कहता है तुम शोषक हो तब यह जनकल्याण के काम गिनाने लग जाता है; कोई कहता है तुम जाहिल हो तब यह अपने समाज के बौद्धिकों के नाम गिनाने लग जाता है; कोई इसे देशद्रोही तक कह देता है तब यह स्वाधीनता संग्राम में मारवाड़ी समाज की भूमिका को गिनाने लग जाता है।

दरअसल हम एक जटिलताओं भरे समाज में रह रहे हैं। एक मारवाड़ी मध्यप्रदेश या उत्तर प्रदेश में रहता है, तब उस पर बहुत सारे प्रश्नों की बौछार नहीं की जाती, लेकिन वही मारवाड़ी जब उड़ीसा या असम में आ जाता है तो उससे इतने सारे सवाल पूछे जाते हैं कि वह अपराध बोध तले पिस जाता है। मध्य देश में मारवाड़ी ठीक है तो पूर्व देश में आकर वह बुरा कैसे हो गया?

कहीं ऐसा तो नहीं कि गालियां सुनना प्रवास की अनिवार्य शर्त होती है! बाहर से आए आदमी को आप सारी बुराइयों की जड़ बता दो, फिर भी वह रक्षात्मक मुद्रा में रहेगा, हाथ जोड़े खड़ा रहेगा, क्योंकि उसे भान है कि वह किस जमीन पर खड़ा है।

मारवाड़ी कैसा दिखता है यह इस बात पर जितना निर्भर करता है कि मारवाड़ी कैसा है, उससे ज्यादा इस बात पर निर्भर करता है कि देखने वाला कौन है? जहां तेज उद्योगीकरण हो रहा है, पूंजी और उद्यमियों का स्वागत किया जाता है वहां मारवाड़ी उद्यमी है और विकास का वाहक है (कर्नाटक)। जहां के लोग अपनी भाषा-संस्कृति-साहित्य की समृद्धि और भविष्य के प्रति आश्वस्त हैं वहां मारवाड़ी एक छोटा-सा अल्पसंख्यक समूह है जिसकी अपनी अलग भाषा-संस्कृति है। वे लोग अपनी भाषा में क्या करते हैं इससे किसी को कोई मतलब नहीं (पश्चिम बंगाल)। जहां के लोग अपनी भाषा-संस्कृति के भविष्य को लेकर आशंकित हैं वहां मारवाड़ियों को अलग दृष्टि से देखा जाता है (असम)।

असम के ज्यादातर मारवाड़ी द्विभाषी हैं। नई पीढ़ी में मारवाड़ी बोली खत्म हो रही है, उसका स्थान हिंदी ले रही है। इस तरह ज्यादातर मारवाड़ी हिंदी और असमिया का मातृभाषा के रूप में व्यवहार करते हैं। ज्यादातर मारवाड़ी शुद्ध असमिया बोलना जानते हैं। असमिया भाषा को इन लोगों ने दिल से अपना लिया है। लेकिन ज्यादातर मारवाड़ी हिंदी हो या असमिया - लिखने-पढ़ने से कोई ताल्लुक नहीं रखते। इसलिए उन्हें असमिया भाषा के प्रति अपने प्रेम को प्रदर्शित करने का अवसर नहीं मिलता। इधर असमिया समाज भाषा व साहित्य को लेकर अति संवेदनशील है। अपनी भाषा-साहित्य-संस्कृति के भविष्य को सुरक्षित करने की यह जद्दोजहद कम -से-कम डेढ़ सौ साल पुरानी है। असमिया संस्कृति के प्रति किसी का नजरिया क्या है, इसे असम में दोस्त और दुश्मन की पहचान के लिए एक संदर्भ बिंदु की तरह इस्तेमाल किया जाता है।

हाल ही में मारवाड़ी समाज से कई असमिया साहित्यकार उभरे हैं। कुछ लोग हिंदी के माध्यम से ही असमिया संस्कृति की सेवा में उतरे हैं। इसका असमिया समाज में अच्छा स्वागत हुआ है। व्यापक मारवाड़ी समाज के असमिया प्रेम को यही वर्ग आगे लेे जा सकता है और उसे संस्थागत रूप दे सकता है।

अपराध बोध से ग्रसित रहने वाले मारवाड़ी भाइयों से संक्षेप में यही कहना चाहूंगा-(1) आप असम की जनसंख्या का एक अति क्षुद्र अंश हैं। जनसंख्या संतुलन को बदलने या राजनीतिक फायदे बटोरने में आपकी कोई भूमिका नहीं है, (2) आप नौकरियों के बाजार पर कोई दबाव नहीं डालते, उल्टे नौकरियां पैदा करते हैं, (3) आप धर्म और कानून से डरने वाले दब्बू लोग हैं, गैर कानूनी काम आपके स्वभाव में नहीं है (अपवाद हर जगह होते हैं), (4) स्थानीय भाषा का अहित कर हिंदी या राजस्थानी को आगे बढ़ाने के लिए आपने आज तक कुछ नहीं किया, आगे भी उम्मीद नहीं है, (5) आप पिछड़े इलाकों में आधुनिक पूंजीवाद के वाहक रहे हैं, (6) आपकी नई पीढ़ियां काफी पढ़-लिख कर यह साबित कर रही है कि आपकी बौद्धिक योग्यता सिर्फ परंपरागत बनियागिरी तक सीमित नहीं है।

जब सच्चाई यह है तब आपको अपराधबोध या हीनता ग्रंथि से ग्रस्त होने की क्या जरूरत है? क्या आप इसलिए हतोत्साहित हो जातेे हैं कि दूसरे समुदाय के दस लोगों के बीच कोई भी आपकी खिल्ली उड़ा देता है और आपके समुदाय के नाम पर वे अपराध जड़ देता है जो आपके समुदाय ने कभी किए ही नहीं। इससे हतोत्साहित होने की जरूरत नहीं, यह हम भारतीयों का स्वभाव है, यहां हर भारतीय समुदाय दूसरे समुदाय का मजाक उड़ाता है और उनके चुटकुले बनाता है। हमें इसके साथ ही जीना सीखना होगा।