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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

अंग्रेजी मैया की जय



उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले के बनका गांव में इंग्लिश देवी का मंदिर बन रहा है। मंदिर दलित लोग बनवा रहे हैं। खबर चौंकाने वाली नहीं, सोचने को मजबूर करने वाली है। देश की यह गोबर पट्टी ही तो थी, जहां सबसे पहले अंग्रेजी हटाओ का नारा लगा था। इसी पट्टी के लोगों में से कुछ ने हिंदी न जानने वालों की देशभक्ति पर संदेह व्यक्त किया था। इसी पट्टी में ही तो हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तानी का नारा उछला था। तो अब क्या हो गया? ठेेठ गंवई लहजे में पूछें तो क्या अकल ठिकाने आ गई?

अध्यात्म की गहराइयों की बात छोड़ दें और एक राह चलते आदमी से पूछें कि आप देवी दर्शन के लिए क्यों जाते हैं, तो वह अमूमन इन्हीं में से कोई जवाब देगा - बेटे की नौकरी के लिए, फैक्टरी की सफलता के लिए, स्वास्थ्य लाभ के लिए, गृहस्थी में शांति के लिए। आदमी चार दिन के लिए दुनिया में आता है लेकिन ये चार दिन भी रोटी, कपड़ा और मकान के बिना नहीं कट सकते। इसके बाद स्वास्थ्य चाहिए, समाज में सम्मान चाहिए, फिर....। यह सूची लंबी होती जाएगी। बात कुल मिलाकर यह है कि लोग हर देवी के पास कुछ प्राप्त करने के लिए जाते हैं। कहते हैं अलग-अलग देवियों के पास अलग-अलग शक्तियां होती हैं। इंग्लिश देवी का जहां तक सवाल है, यह बड़ी चमत्कारिक शक्तियों वाली देवी है। इसने देश को एक सूत्र में बांध दिया। कहते हैं हिंदी बोलने-समझने वालों की संख्या अंग्रेजी वालों से कई गुना है, फिर भी अंग्रेजी का प्रताप है। यही तो चमत्कार है। जिस तमिल भाषी को हिंदी में साम्राज्यवाद का खतरा नजर आता है, वह इंग्लिश देवी की शरण में चला जाता है।

इंग्लिश देवी सबके साथ समान व्यवहार करती है। वह किसी की मातृभाषा नहीं है। सभी लोग इसमें गलतियां करते हैं। जो कम गलत अंग्रेजी बोलता है, वह अंग्रेजी का विद्वान माना जाता है। हिंदी वालों के सामने बुद्धू बनने से तो अच्छा है टूटी-फूटी अंग्रेजी बोल लो, हम अपनी गलत अंग्रेजी बोलेंगे, तुम अपनी गलत अंग्रेजी बोलो। इंग्लिश देवी भोले शंकर की तरह है, छोटी-मोटी गलतियों का बुरा नहीं मानती, यहां अभिनव ओझा जैसे कर्मकांडी ब्राह्मण डंडा लेकर गलतियां पकड़ने के लिए नहीं खड़े रहते।

इंग्लिश देवी रोजगार देती है, सम्मान दिलाती है। कोई दलित भी दो-चार कदम धांसू अंग्रेजी में बोल लेता है तो हिंदी बोलने वाला ब्राह्मण धौंस में आ जाता है। इसके भक्त सारी दुनिया में फैले हैं। ज्यादातर ज्ञान अंग्रेजी में निकल रहा है। उसका एक फीसदी भी हिंदी में आने में दस साल लग जाते हैं। उसकी भी कोई गारंटी नहीं है कि हिंदी में वह आएगा ही। इसलिए हर ज्ञान पिपासु अंग्रेजी की शरण में जाने को बाध्य है।

यूरोप के देश अब तक इस देवी के सामने सर नहीं झुकाते थे। लेकिन अब वे भी अपनी-अपनी देवियों - जर्मन, फ्रेंच के साथ-साथ अंग्रेजी की भी आराधना करने में लगे हैं। कारण यह कि जो किताब आज अंग्रेजी में आई है वह जर्मन और फ्रेंच में आने में साल दो साल तो लग ही जाएंगे। और आज दुनिया जिस तेजी से आगे बढ़ रही है उस तेजी के सामने एक-दो साल बड़ा लंबा समय है। हमारे हिंदी वाले भाई दांतों तले अंगुली दबा लें कि हमारे यहां तो अंग्रेजी में उपलब्ध ज्ञान का पचास साल में भी अनुवाद नहीं हुआ और किसी ने चूं तक नहीं की। ये जर्मनी, फ्रांस वाले किताबी कीड़े होते होंगे या फिर अहमक होंगे जो ज्ञान जैसी चीज के लिए दूसरों की भाषा सीखते हैं (हमारे लिए तो मलेच्छ हैं)।

अब तो भाषा को लेकर अहंकारी चीन और जापान ने भी अंग्रेजी सीखना शुरू कर दिया । स्कूलों में अंग्रेजी एक विषय के तौर पर लेना अनिवार्य कर दिया है। आखिर आने वाली पीढ़ी को इंटरनेट पर दुनिया भर के लोगों से बातचीत करनी है, चिट्ठी-पत्री करनी है, चीनी-जापानी के भरोसे बैठे रहोगे तो कुएं में मेंढक बन जाओगे।

एक उदाहरण है। अक्सर देखा जाता है कि हिंदी पत्रकार बिरादरी में कुछ लोग असम और पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों की समस्याओं के बारे में ऐसी बातें करते हैं जो किसी मूर्ख के मुंह पर ही शोभ सकती है। अपने ही देश के बारे में घोर अज्ञानता का कारण यह है कि हिंदी में अब तक असम के बारे में एक भी स्तरीय राजनीतिक पुस्तक उपलब्ध नहीं है। अब जिस आदमी ने अंग्रेजी देवी की कभी आराधना नहीं की, वह अपने ही देश के बारे में सही समझ कैसे विकसित कर सकता है। या तो आप अपनी भाषा में ज्ञान लाइए, या उस भाषा को सीखिए जिसमें वह ज्ञान उपलब्ध है - यह सब न करके मूर्तिभंजकों की तरह "अंग्रेजी हटाओ' का नारा देने का नतीजा यह हुआ है कि देश की हिंदी पट्टी में दो तरह के स्कूल खुल गए हैं। एक आम जनता के लिए, जिन्हें सरकारी स्कूल कहा जाता है। इन स्कूलों में पढ़ने वाला बच्चा अंग्रेजी तो दूर जोड़-घटाव भी ठीक तरह से नहीं सीख पाता। दूसरे हैं, निजी स्कूल, जिन्हें अंग्रेजी स्कूल कहा जाता है। गांवों-कस्बों में ये स्कूल छोटे-मोटे उद्यमी लगाते हैं, जहां सारी जरूरी सुविधाएं उपलब्ध नहीं होतीं। पत्रकार बंधु इनके आगे हमेशा "कुकुरमुत्तों की तरह उग आए' यह वाक्यांश जोड़ना नहीं भूलते। वे यह छिपाना नहीं चाहते कि उन्हें इन स्कूलों का "उगना' पसंद नहीं है। लेकिन गांव-कस्बे-शहर में जिस किसी के पास भी साधन है, वह अपने बच्चे को इन अंग्रेजी स्कूलों में ही भेजना पसंद करते हैं। ऐसे सर्वेक्षण हो चुके हैं, आगे और भी करवा लीजिए, आप पाएंगे कि अधिकांश हिंदी पत्रकारों-लेखकों-प्रोफेसरों के बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ते हैं। है न अंग्रेजी मैया का चमत्कार।

हिंदी पट्टी वालों ने काफी सालों तक सोचा कि हमारा विकास तो वैसे भी हो जाएगा। इसलिए वे राष्ट्र के, राष्ट्रभाषा के, राष्ट्रीयता के गीत गाते रहे। लेकिन ये गीत बस दक्षिण वालों, आसाम-बंगाल को सुनाने के लिए थे। उनके अपने घर में झांककर देखिए बड़ी दरिद्रता है। किसी राह चलते हिंदी वाले से कोई पूछ ले कि भैया जैसे बंग्ला में सुनील गंगोपाध्याय है, वैसे आपके यहां कौन हैं? इस बात की गारंटी दी जा सकती है कि कोई जवाब नहीं मिलेगा, या यह भी हो सकता है जवाब प्रेम वाजपेयी या रानू या ओमप्रकाश शर्मा मिले। अपनी ही भाषा के महान साहित्यकारों के बारे में अनभिज्ञ हिंदी पट्टी के लोग आज भाषा के मामले में सबसे ज्यादा गरीब हैं। उनमेें से ज्यादातर सिर्फ एक भाषा जानते हैं, जबकि देश के दूसरे राज्यों के ज्यादातर लोग अपनी प्रादेशिक भाषा के अलावा हिंदी और अंग्रेजी भी जानते हैं। उन्हें सीखना पड़ता है। हिंदी वाले भला प्रादेशिक भाषा क्यों सीखे। वे तो राष्ट्रीयता का झंडा लहराने वाले लोग हैं। क्षेत्रीयतावाद से उनका दूर-दूर तक रिश्ता नहीं। अंग्रेजी उन्होंने इसलिए नहीं सीखी क्योंकि इसके दो फायदे हैं। एक तो विदेशी भाषा सीखने की मेहनत से मुक्ति मिल गई, दूसरे देशभक्ति का एक काम हो गया। जैसे असम में किसी हिंदीभाषी को गाली देने से दो लाभ होते हैं- एक तो इलाके में धौंस जम जाती है, दूसरे असमी मां की सेवा हो जाती है। आखिर देश/प्रदेश के प्रति इतना कर्त्तव्य तो होना ही चाहिए।