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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

शनिवार, 27 अगस्त 2016

कट्टरवाद बबुआ धीरे-धीरे आई

बांग्लादेश के एक अखबार के संपादक से मैंने कहा कि आपका नाम भी तो हिटलिस्ट में आया है। इस पर वे कहते हैं – मेरा नाम तो हर हिटलिस्ट में रहता है। उनके होठों पर हल्की सी मुस्कुराहट आती है और चली जाती है। शायद यह अभ्यासवश आई होगी। बांग्लादेश में ब्लागिंग का काफी प्रचलन है। ब्लाग के माध्यम से लोग अपने विचार स्वतंत्र रूप से प्रकाशित करते हैं। ब्लाग संपादकीय रोक-टोक से मुक्त होते हैं। रोकटोक न होने के कारण लोग धार्मिक विषयों पर भी खुलकर टिप्पणी करते हैं। मुस्लिम प्रधान होने के कारण अधिकतर इस्लाम को ही निशाना बनाया जाता है। ब्लागर ऐसी बातें भी लिख डालते हैं जो भारत में कोई उदार से उदार संपादक भी कभी छापने का साहस नहीं कर पाएगा।

ब्लागरों की वैचारिक स्वतंत्रता से हर इस्लामवादी को आपत्ति है लेकिन अल कायदा ने तो ऐसे ब्लागरों का खात्मा कर देने का बीड़ा ही उठा लिया है। अल कायदा नेताओं का कहना है कि उन्हें उनकी कलम की स्वतंत्रता है तो हमें भी हमारे छूरे की स्वतंत्रता है। पिछले तीन सालों में बांग्लादेश में अल कायदा के नाम से ऐसी कई हिटलिस्टें प्रकाशित हुईं और कहा गया कि इन-इन ब्लॉगरों या लेखकों को इस संगठन के लोग सबसे पहले खत्म करेंगे। इनमें कुछ सूचियां फर्जी थीं जिनके बारे में स्पष्टीकरण भी जारी हुए।

अल कायदा की धमकी सिर्फ धमकी नहीं थी। उसने शहबाग आंदोलन (2013) के बाद से अब तक कम से कम 8 ब्लॉगरों और प्रकाशकों की हत्या कर दी है। एक प्रकाशक की हत्या के बाद कहा गया कि प्रकाशक लेखक से भी ज्यादा खतरनाक होते हैं। अमरीकी नागरिक अभिजित रॉय की ढाका पुस्तक मेले से निकलते समय हत्या कर दी गई थी, जिसके बाद में अमरीकी सरकार ने भी बांग्लादेश सरकार पर अपना दबाव बढ़ाया। सभी हत्याओं का एक ही पैटर्न है। छूरा घोंपकर हत्या करना और शरीर को क्षत-विक्षत कर देना।

सरकार का रवैया अल कायदा की इन कार्रवाइयों पर बड़ा लचर और निराश करने वाला है। सरकार उल्टे ब्लॉगरों से ही कहती है कि वे अपनी लेखनी को लगाम दें। इसी साल एक ब्लॉगर निजामुद्दीन समद की हत्या के बाद गृह मंत्री ने कहा कि किसी को भी धार्मिक नेताओं पर लेखकीय हमला करने का अधिकार नहीं है। सरकार देखेगी कि निजामुद्दीन ने अपने ब्लॉग में क्या लिखा था। कुछ ब्लॉगरों को धार्मिक भावनाओं को आघात पहुंचाने के कथित जुर्म में जेल में भी डाल दिया गया है। एक ब्लॉगर बताते हैं कि वे जब सुरक्षा की गुहार लेकर थाने गए तो उन्हें सलाह दी गई कि जिंदा रहना चाहते हैं तो देश छोड़कर कहीं और चले जाइए।

दरअसल बांग्लादेश के ब्लॉगर देश छोड़कर जा भी रहे हैं। उनमें से ज्यादातर यूरोपीय देशों में शरण ले रहे हैं और कुछ अमरीका भी जा रहे हैं। जो नहीं जा पा रहे वे अपनी पहचान छुपाकर घूमते हैं। कोई कोई बताता है कि उसने अमुक ब्लॉगर को हेलमेट पहनकर सड़क पर पैदल घूमते देखा। लेकिन ऐसे भी हैं जो अब भी बांग्लादेश में ही रहते हुए कट्टरपंथियों को अपनी लेखनी का लक्ष्य बना रहे हैं। ऐसे ही एक निर्भीक शख्स हैं इमरान एच सरकार। इमरान सरकार गण जागरण मंच के संयोजक भी हैं और आतंकवादियों तथा कट्टरपंथियों के मुख्य निशाने पर हैं। गण जागरण मंच के ही बैनर तले कादेर मुल्ला को फांसी की सजा देने की मांग करने वाला शहबाग आंदोलन हुआ था।

एक विदेशी न्यूज़ एजेंसी ने जब इमरान सरकार से कहा कि वह उनके बयान के साथ उनका नाम नहीं छापेगी। इस पर सरकार ने कहा कि वे चाहेंगे कि उनका नाम अवश्य छापा जाए। क्योंकि नाम छुपाने पर आतंकवादियों के हौसले और बुलंद होंगे। वे लोग सोचेंगे कि स्वाधीन चिंतक (वैसे ब्लॉगरों को कट्टरपंथी खेमा नास्तिक कहकर पुकारता है) डर गए हैं, बयान के साथ अपना नाम नहीं दे रहे, उनकी योजना सफल हो रही है। इमरान सरकार अपनी सरकार और गृह मंत्री के रवैये से बिल्कुल नाराज हैं। उनका कहना है कि गृह मंत्री के बयान से हत्यारों के हौसले बढ़ेंगे।

इमरान सरकार अकेले ऐसे निर्भीक ब्लॉगर नहीं हैं। मारुफ रसूल भी इमरान सरकार की तरह ही अपने नाम के साथ बयान देने की जिद करते हैं। मारे गए एक प्रकाशक फैज़ल अरेफिन दीपन के पिता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं। उनका बयान सरकार और प्रशासन को सुनने में कड़वा तो लगा होगा लेकिन उससे सरकार के रवैये पर कोई फर्क नहीं पड़ा। दीपन के पिता ने अपने बेटे की हत्या के बाद कहा था कि वे इस सरकार से न्याय की मांग नहीं करेंगे। क्योंकि इस देश में न्याय है ही नहीं। ब्लॉगर आरिफ जेबतिक कहते हैं जब किसी ब्लॉगर की हत्या की खबर आती है तब उन्हें एक अजीब सी राहत की अनुभूति होती है। राहत यह कि चलो इस बार भी शिकार मैं नहीं कोई और बना है।

बांग्लादेश में एक चरम निराशा का वातावरण है। आरिफ कहते हैं मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों ने कट्टरपंथी हत्यारों और अतिवादियों के लिए रास्ता साफ और चौड़ा किया है। ज्यादा दिन नहीं हुए जब सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी बीएनपी ने तथाकथित नास्तिक ब्लॉगरों को फांसी देने की मांग करते हुए एक रैली की थी। इस रैली में पूर्व प्रधानमंत्री बेगम खालिदा जिया ने फरमाया था कि ये ब्लॉगर इस देश के लिए पराए लोग हैं। इन्हें फांसी दी जानी चाहिए। यह बात आरिफ की नजरों से छुपती नहीं कि इस बार पोइला बैशाख (बांग्ला नववर्ष दिवस जिसे बांग्लादेश में बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता रहा है और जो बांग्ला राषट्रवाद का एक प्रतीक भी है) के दिन पिछले सालों की अपेक्षा काफी कम उत्साह था।



भारत में वामपंथी विचारक और कवि स्वर्गीय गोरख पांडेय ने किसी समय एक व्यंगात्मक कविता लिखी थी ‘समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई’। समाजवाद तो धीरे धीरे भी नहीं आया लेकिन बांग्लादेश के संदर्भ में हम जरूर कह सकते हैं कि ‘कट्टरवाद बबुआ धीरे-धीरे आई’। कट्टरवाद बांग्लादेश में धीरे-धीरे अपने पांव पसार रहा है और लगता है सिर्फ बुद्धिजीवियों को ही उसकी पदचाप सुनाई दे रही है। शायद इसीलिए बुद्धिजीवी बुद्धिजीवी है।

इस्लाम की हिफाजत या महिलाओं को रोजगार

सात को ईद थी और दस को ढाका शहर अलसाया हुआ सा फिर से पटरी पर लौटने की कोशिश करता दिखा। अभी भी बड़ी संख्या में दुकानें खुली नहीं थीं। ढाका के ट्रैफिक जाम से और एक-दो दिनों के लिए राहत रहेगी। सुप्रीम कोर्ट में अभी कामकाज शुरू नहीं हुआ है लेकिन वकील लोग अपनी देशेर बाड़ी से शहर लोटने लगे हैं। 

सुप्रीम कोर्ट के वकील सुब्रत चौधरी का भी आज से व्यस्तता भरा दिन शुरू हो गया है। बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के हितों के लिए हिंदू, ईसाई और बौद्धों की संयुक्त संस्था के वे भी एक बड़े नेता हैं। सुब्रत को साफ दिखाई दे रहा है कि हालात दिन पर दिन बदतर होते जा रहे हैं। अपने बिंदास अंदाज में वे बताते हैं कि दाढ़ी रखने और सर पर टोपी पहनने का रिवाज बढ़ने लगा है। उनके चैंबर में उनके साथ और भी कई वकील बैठते हैं। ईद मनाकर लौटने पर सुब्रत ने उन्हें बधाई दी थी। इससे पता चला कि वे मुसलमान हैं। मैं कनखियों से देखता हूं उनकी सुब्रत की बातों पर क्या प्रतिक्रिया है। सभी अपने काम में व्यस्त दिखे। सुब्रत की असिस्टैंट लैपटाप पर टाइप करने में मुब्तिला थी। 

पिछले चालीस सालों में बांग्लादेश में आया अंतर सुब्रत को ज्यादा कचोट है। इस अंतर को हमने भी एक अलग तरीके से महसूस किया। बांग्लादेश के राष्ट्रीय म्यूजियम में वहां के प्रशासक ने विशेष अनुरोध कर हमें एक 22 मिनट की फिल्म दिखाई। उस फिल्म में 21 फरवरी 1952 को शुरू हुए भाषा आंदोलन से लेकर 1971 में बांग्लादेश के स्वतंत्र राष्ट्र बनने तक की गाथा को बड़े ही प्रामाणिक तरीके से दर्शाया गया है। फिल्म में सभी वास्तविक फुटेज हैं। 

हमने इस बात को खास तौर पर नोट किया कि छठे और सातवें दशक के फुटेज में शायद ही कोई ऐसा था जिसने अपने शरीर पर अपने धर्म को प्रचारित करने वाले प्रतीक धारण कर रखे थे। ढाका में आज भी अधिकतर मुस्लिम महिलाएं माथे पर बिंदी लगाती हैं और बुर्के का प्रचलन बहुत कम है। और उन फुटेज में तो आपको बिरला ही कोई टोपी या दाढ़ी वाला मिलेगा। 

उस फिल्म के दृश्यों को आधार बनाकर हम इस बात पर चिंतन कर सकते हैं कि आखिर वे कौन-सी शक्तियां हैं जिनके कारण दुनिया जाने-अनजाने में एक खास दिशा में बढ़ती जा रही है। पिछली आधी सदी में इस्लामिज्म या इस्लामवाद किस तरह फैला है इसका एक अंदाजा बांग्लादेश में इस्लाम के प्रतीक धारण करने वाले लोगों की संख्या में हुए इजाफे से लगाया जा सकता है। 

सुब्रत चौधरी सरकार की नीतियों से खफा हैं। उन्हें लगता है कि शेख हसीना भी अंततः इस्लामवादी ताकतों के सामने यदि घुटने नहीं टेक रही तो उन्हें संतुष्ट करने की कोशिश तो कर ही रही हैं। उदाहरण के रूप में वे हिफाजते इस्लाम के साथ सरकार के अच्छे रिश्तों को गिनाते हैं। बांग्लादेश में हिफाजते इस्लाम के त्वरित उत्थान और पतन की अपनी ही एक अनूठी कहानी है। 

बांग्लादेश में पुरानी और नई पीढ़ी के लोगों ने 1971 की यादों को भुलाया नहीं है। पाकिस्तान के साथ इस युद्ध में 30 लाख लोगों की जानें गई थीं। पाकिस्तान को तो बांग्लादेश के फेसबुक पोस्टर गंदी गालियों से संबोधित करते ही हैं, उनका अधिक गुस्सा अपने ही देश के उनलोगों के खिलाफ है जिन लोगों ने पाकिस्तानी सेना की मदद की थी। इसमें बांग्लादेश की जमाते इस्लामी नामक राजनीतिक पार्टी और अल बदर नामक संस्था अग्रणी थीं। 

कुल मिलाकर पाकिस्तान आज भी बांग्लादेश के बहुसंख्यक लोगों की घृणा का मुख्य केंद्र है। बांग्लादेश का समाज अपने नए राष्ट्र के उदय के समय से ही दो भागों में बंटा हुआ है। एक बहुसंख्यक समाज उनलोगों का है जिनलोगों ने पाकिस्तान की उर्दू थोपने की जिद के खिलाफ आवाज उठाई थी और इसकी परिणति स्वरूप पैदा हुए स्वाधीनता आंदोलन में हिस्सा लिया था या कम से कम उसकी सफलता चाही थी। 

दूसरा एक बहुत ही छोटा सा वर्ग उनलोगों का है जिसने उस समय पाकिस्तान का समर्थन किया था। इसमें जमाते इस्लामी के लोग तो हैं ही। उर्दूभाषी मुसलमानों को, जिन्हें वहां बिहारी मुसलमान कहा जाता है, इसीलिए ढाका में अच्छी नजर से नहीं देखा जाता। लोगों का मानना है कि इनलोगों ने 1971 में पाकिस्तानी फौज का साथ दिया था। 

स्वाधीनता समर्थक बहुसंख्यक लोग चाहते हैं कि 30 लाख लोगों की हत्या में पाकिस्तान की मदद करने वाले लोगों में से सभी को नहीं तो कम से कम उनके नेताओं को तो फांसी पर लटका ही दिया जाना चाहिए। शेख हसीना ने 2009 के चुनावों में यह वादा किया था कि फिर से उनकी सरकार आई तो वे ऐसे लोगों को फांसी पर लटकाएंगी। 

सत्ता में आने के बाद शेख हसीना ने ऐसे लोगों पर मुकदमा चलाने के लिए एक ट्राइब्यूनल का गठन किया। जिन लगभग एक दर्जन लोगों पर पाकिस्तानी सेना की मदद में नेतृत्व करने का आरोप था उन्हें गिरफ्तार कर उनके विरुद्ध मुकदमा शुरू कर दिया गया। 2013 आते-आते ऐसे पहले मुजरिम के खिलाफ फैसला भी आ गया। 

लेकिन इस फैसले से लोगों का गुस्सा एक बार फिर फट पड़ा। कारण यह कि मुजरिम अब्दुल कादेर मुल्ला को, जिसे लोग कसाई मुल्ला कहना ज्यादा पसंद करते हैं, ट्राइब्यूनल ने सिर्फ उम्रकैद की सजा सुनाई थी। ढाका में शहबाग नामक चौराहे पर फैसला सुनाने के दिन से ही लोगों का जमावड़ा शुरू हो गया। 

इस आंदोलन के दबाव में सरकार को फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करनी पड़ी और सुप्रीम कोर्ट ने ट्राइब्यूनल के फैसले को बदलकर सजाए मौत कर दिया। जमाते इस्लामी के बड़े नेताओं पर मुकदमे चल रहे थे और छोटे नेताओं और कार्यकर्ताओं को जेलों में भर दिया गया था, ऐसी स्थिति में इस्लामवादी खेमा पूरी तरह रक्षात्मक स्थिति में चला गया। लेकिन यह स्थिति ज्यादा दिन नहीं चलनी थी और नहीं चली। 

साल बीतते न बीतते हिफाजते इस्लाम नामक संस्था एक बड़ी शक्ति के रूप में उभरी। यह मूलतः कौमी मदरसे चलाने वाली संस्था है। इसके एजेंडा में दो मुख्य बातें थीं और हैं। एक, सरकार को कौमी मदरसों पर निगरानी करने और उनमें दखलंदाजी करने से रोकना, जिसके लिए शेख हसीना आमादा थीं। और दो, सार्वजनिक स्थानों पर पुरुषों और महिलाओं के मेलजोल की बढ़ती कथित रूप से गैर-इस्लामी आदतों को रोकना। 

इसके लिए हिफाजत ने महिलाओं के लिए शिक्षा और रोजगार आदि पर बंदिश लगाने वाले कई प्रस्ताव सरकार के सामने रखे थे। हिफाजत का सबसे बड़ा कार्यक्रम था 5 मई 2013 को ढाका पर कब्जा करने का। हिफाजत चूंकि मदरसों का संचालन करने वाली संस्था है इसलिए इसके पास मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों का अच्छा-खासा आधार है। 

इस दिन देश भर से मदरसा छात्रों को ढाका लाया गया। और उन्हें लाने वाले नेताओं का कहना था कि जब तक उनकी मांगों को मान नहीं लिया जाता वे राजधानी से वापस नहीं जाएंगे। 5 मई की रात को पुलिस और सशस्त्र बलों ने बत्तियां गुल करके मोती झील नामक इलाके में आपरेशन चलाया और हिफाजत समर्थकों से ढाका को खाली करवा लिया। 

आज भी आतंकवाद समर्थकों के बयानों में इस घटना का जिक्र आता ही आता है। अल कायदा नेता जवाहिरी का जो बांग्लादेश केंद्रित बयान इंटरनेट के माध्यम से प्रचारित हुआ था उसमें भी इस घटना का जिक्र था। इस्लामवादी ताकतों का कहना है कि इस दिन पुलिस आपरेशन में हजारों छात्रों को मौत के घाट उतार दिया गया था। 

लेकिन जल्दी ही स्थिति फिर उलट गई। हिफाजते इस्लाम को सत्ताधारी दल का पिछलग्गू कैसे बनाया गया इस पर कोई यदि किताब लिखे तो वह राजनीति में साम दाम दंड भेद के सफल प्रयोग की गाइडबुक बन जाएगी। ढाका में पत्रकारों को यह कहने से कोई गुरेज नहीं कि हिफाजत के नेताओं पर एक और तो पुलिस केस की तलवार लटका दी गई और दूसरी और सरकार की बात मानने से उनकी तिजौरियों को मनचाही दौलत से भर दिया गया। आज हिफाजते इस्लाम और शेख हसीना की अवामी लीग के नेता एक मंच पर बैठे दिख जाएं तो कोई बड़ी बात नहीं। 

इसी बात से सुब्रत चौधरी नाराज थे।

सोमवार, 15 अगस्त 2016

कहां है आईएस, ये तो घरेलू आतंकवादी हैं

ढाका के गुलशन नामक जिस इलाके में 1 जुलाई को आतंकवादी घटना हुई थी वह काफी पोश इलाका माना जाता है। सुंदर तालाब के किनारे बड़ी तरतीबी से बने इस इलाके में ज्यादातर देशों के दूतावास स्थित हैं। कुछ ही महीनों पहले यहां एक इतालवी नागरिक की हत्या कर दी गई थी। उस हत्या की जिम्मेवारी आईएस यानी इस्लामिक स्टेट ने स्वीकार की थी। 

उस घटना के थोड़े ही दिन बाद पश्चिमी बांग्लादेश में रंगपुर शहर के पास एक जापानी नागरिक की हत्या हुई थी। इसमें भी आईएस ने ऑनलाइन पोस्टिंग कर यह दावा किया था कि यह उसी का काम है। उसने साथ ही धमकी दी थी कि इस्लाम और ईसाई धर्मों के बीच चार सौ सालों तक चले धर्मयुद्ध यानी क्रूसेड में भाग लेने वाले देशों और उनकी मदद करने वाले जापान जैसे देश के नागरिकों पर उसका खतरा इसी तरह मंडराता रहेगा। 

खासकर मुसलमान आबादी वाले देशों में। उस समय भी सरकार की ओर से यह कहने में जरा भी देर नहीं की गई थी कि आईएस का बांग्लादेश में कोई अस्तित्व नहीं है। जो कुछ भी किया है बांग्लादेश के ही आतंकवादियों ने किया है। इस बार भी घटना घटते ही सरकार के उच्चतम स्तर से कह दिया गया कि यह देश के अंदर के आतंकवादियों की ही करतूत है। 

अचरज की बात है कि घटना घटने के साथ-साथ बिना किसी तहकीकात के सरकार को या प्रधानमंत्री को कैसे पता चल जाता है कि इसमें आईएस का हाथ है या नहीं।

जिस हड़बड़ी में प्रधानमंत्री और उनकी सरकार के मंत्री कहते हैं कि नहीं, नहीं आईएस जैसा हमारे यहाँ कुछ भी नहीं है उसी से पता चलता है कि जरूर सरकार को आईएस (या अल कायदा) का नाम सामने आने से घोर आपत्ति है। मैंने कई लोगों से इस बारे में पूछताछ की कि आखिर क्या कारण है कि सरकार आईएस के शामिल होने की बात स्वीकार करने से कतराती है। 

आखिर यही समझ में आया कि यदि आईएस का बांग्लादेश में अस्तित्व होने की बात स्वीकार कर ली जाती है तो उसके बाद ढाका पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव काफी बढ़ जाएगा। साथ ही बाहर से आने वाले निवेश पर भी इसका असर पड़ सकता है।

कुछ सुरक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि आईएस हो या न हो इससे क्या फर्क पड़ता है। फर्क तो इससे पड़ता है कि आतंकवादी अपना काम करने में सफल कैसे हो जाते हैं। अति सुरक्षित माने जाने वाले इलाके में कैसे आतंकवादी अस्त्र-शस्त्र लेकर घुस पाने में सफल हो गए।

शेख हसीना इस मामले में काफी होशियार हैं। अपने अनुभव से उन्हें पता है कि आईएस के अस्तित्व से वे जब तक इनकार करती रहेंगी तब तक अंतर्राष्ट्रीय मीडिया के लिए बांग्लादेश एक केंद्र बिंदु नहीं बनेगा। 

लेकिन जैसे ही आईएस के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया जाएगा वैसे ही अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में बांग्लादेश छा जाएगा। हर देश चाहता है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसका नाम हो। लेकिन कोई भी देश यह नहीं चाहता कि आतंकवाद के लिए वह अंतर्राष्ट्रीय जगत में पहचाना जाए।

बांग्लादेश की आमदनी का एक अच्छा खासा प्रतिशत आज वहां गारमेंट उद्योग से आता है। यदि अंतर्राष्ट्रीय मीडिया की कृपा से यह संदेश जाता है कि बांग्लादेश में भी आईएस का आतंक पसर गया है तो इसका सीधा असर इस उद्योग पर पड़ेगा। आज बांग्लादेश में जिसके पास भी थोड़ा पैसा है उद्योग में लगाने के लिए वही गारमेंट उद्योग में पैसा लगा रहा है। 

विश्व भर के खरीदार आज ढाका आते हैं और अपनी पसंद की पोशाकें ढाका की गारमेंट फैक्टरियों में बनवाते हैं। गुलशन की आर्टिजन बेकरी में जो इतालवी नागरिक मारे गए थे वे भी गारमेंट के खरीदार ही थे और अपना माल बनवाने ढाका आए थे।

अब सवाल यह है कि क्या अब भी समय वहीं रुका है कि आईएस के अस्तित्व से इनकार किया जाए। गलत प्रचार से बचने के लिए किसी चीज के अस्तित्व से इनकार करने की एक सीमारेखा होती है। 

जब वह सीमा पार हो जाती है तब आपको उसके अस्तित्व को स्वीकार करना ही पड़ता है। वरना लोग उसमें किसी साजिश की बू सूंघने की कोशिश करेंगे। एक तरह से यह साजिश है भी। भारत के असम प्रांत में भी तत्कालीन मुख्यमंत्री काफी समय तक उल्फा जैसे सशस्त्र संगठन के अस्तित्व से इनकार करते रहे। लेकिन एक सीमा के बाद उनका यह इनकार हास्यास्पद हो गया था।

बांग्लादेश में हर दूसरी चीज की तरह उग्रवादी हमले को लेकर भी एक के द्वारा दूसरी पार्टी पर आरोप लगाने का रिवाज है। एक उदाहरण, 12 जुलाई को ढाका में उग्रवाद, जिसे वहां जंगीवाद कहते हैं, के विरुद्ध सत्ताधारी मोर्चे की एक रैली थी। इस रैली में एक बड़े नेता का भाषण - बेगम जिया कैसे कहती हैं कि सही चुनाव करवाएं तो जंगीवाद खत्म हो जाएगा। 

इसका मतलब उन्हें पता है कि कौन यह सब कर रहा है। नेताजी इसका प्रमाण भी देते हैं। वे कहते हैं कि गुलशन की घटना के ठीक बाद विदेश से बेगम जिया के लिए एक फोन आया था। फोन करने वाले ने अपने आपको बेगम के बेटे तारेक रहमान का कर्मचारी बताया। इस फोन के आने के इर्द-गिर्द नेताजी एक रहस्य का जाल बुनते हैं ताकि लोग सोचने लग जाएं कि कहीं आतंकवादी हमले में सचमुच विपक्ष की नेता खालिदा जिया का हाथ तो नहीं। 

इधर एक मीटिंग में बीएनपी (खालिदा जिया की पार्टी) के एक बड़े नेता हन्नान शाह कहते हैं कि किसी की दलाली करने वालों की बातों पर ध्यान न दें। यह सत्ताधारी पार्टी के लिए कहा गया है। वह किसकी दलाली करती है? भारत की। बांग्लादेश में बिना बताए भी लोग इस बात को समझ जाते हैं। हालांकि बीएनपी वालों को खुलेआम भी भारत के विरुद्ध बोलने में कोई संकोच नहीं होता।

गुलशन की घटना के लिए किसी बड़े अखबार या किसी बड़ी पार्टी को भारत पर आरोप लगाते हुए नहीं देखा। लेकिन फेसबुक की पोस्टों पर अक्सर ऐसा होता है। गुलशन की घटना के लिए भी भारत को दोषी करार देने वाले लोगों की फेसबुक पर कमी नहीं। 

पिछले साल बांग्लादेश में कुछ दिनों के लिए सोशल मीडिया पर थोड़ा अंकुश लगाया गया था। लेकिन फिलहाल ऐसा कोई अंकुश नहीं है। जिहादी शक्तियां सोशल मीडिया का भरपूर उपयोग अपनी विचारधारा के प्रचार के लिए करती हैं।

पिछले दिनों अपने आपको बांग्लादेश में आईएस का चीफ बताने वाले शख्स का एक इंटरव्यू इंटरनेट पर पोस्ट किया गया। दरअसल मूल रूप से यह इंटरव्यू आईएस की ही अपनी एक (अंग्रेजी) पत्रिका को दिया गया था। इंटरव्यू में कहा गया कि अभी हमारा भारत पर ध्यान नहीं है। 

जब बंगाल और पाकिस्तान (आईएस और अल कायदा वाले कभी-कभार ही बांग्लादेश शब्द का इस्तेमाल करते हैं, वे ज्यादातर बंगाल शब्द का ही प्रयोग करते हैं। उनकी अपनी शब्दावली है। 

देश के नामों को भी वे अपने हिसाब से पुकारते हैं।) में हमारी ताकत काफी बढ़ जाएगी तब हम हिंदुस्तान पर हमला करेंगे और तब हिंदुस्तान की मुस्लिम आबादी वहां हमारी मदद के लिए तत्पर रहेगी ही। यही बात बर्मा के लिए कही गई है। वहां के मुसलमानों की स्थिति पर चिंता जाहिर की गई है लेकिन कहा गया है कि अभी हम उस पर ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहते।

ढाका में आज हर सोचने विचारने वाला व्यक्ति इसी बात से चिंतित है कि इस घटना से गारमेंट उद्योग पर बुरा असर पड़ेगा। मुझे विदेशी पत्रकार जानकर बुद्धिजीवियों का एक वर्ग यह स्वीकार करने में सकुचाता है कि असर पड़ेगा। बांग्लादेश के एक बड़े अखबार के संयुक्त संपादक सोहराब हसन कहते हैं कि नहीं कोई असर नहीं पड़ेगा यदि आगे ऐसी घटनाएं फिर से नहीं घटतीं। 

एक अन्य अखबार के सहायक संपादक अली हबीब कहते हैं नहीं ऐसा कुछ नहीं होगा। गारमेंट उद्योग तभी घट सकता है जब इसके कोई आर्थिक कारण हों, जैसे कि भारत या चीन की प्रतियोगिता में बांग्लादेश का माल महंगा हो जाना।

हबीब कहते हैं कि जब राना प्लाजा की घटना हुई थी तब भी आशंका की गई थी कि गारमेंट उद्योग पर इसका असर पड़ेगा। राना प्लाजा 2013 में घटी बांग्लादेश की एक अत्यंत ही दर्दनाक घटना है जिसमें एक आठमंजिला इमारत के पूरी तरह गिर जाने के कारण उसमें दबकर एक हजार से भी अधिक लोगों की जान चली गई थी। 

काफी दिनों बाद तक मलबे से लाशें निकलती रही थीं। उस इमारत में कई गारमेंट फैक्टरियां थीं और मरने वालों में लगभग सभी उन फैक्टरियों में काम करने वाली महिलाएँ थीं। इस घटना के बाद यूरोप और अन्य देशों में इस बात को लेकर काफी बहस हुई कि उनके देशों की कंपनियाँ बांग्लादेश में इतनी कम लागत पर काम करवाती हैं कि वहाँ कामगारों के काम करने की परिस्थितियाँ अत्यंत जोखिम भरी हैं।

रविवार, 7 अगस्त 2016

वो उदास थे या लेखक तुम खुद उदास थे


ढाका में चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात रहती है। यहां की पुलिस काफी चुस्त-दुरुत दिखती है। पुलिस वाले बंदूकों से लैस रहते हैं। हमारे होटल के बाहर भी विशेष रूप से पुलिस तैनात थी क्योंकि इस होटल में ज्यादाततर विदेशी रुकते हैं। 

होटल का नाम है होटल 71। 71 का मतलब है 1971 का मुक्ति युद्ध या स्वाधीनता संग्राम। बांग्लादेश में स्वाधीनता संग्राम को बात बात में याद किया जाता है। लोग अपने ईमेल आईडी अमूमन इस तरह बनाते हैं। जैसे – विनोद71, विनोद21 या विनोद52।

71 का मतलब तो हमने ऊपर बता ही दिया है, 21 का मतलब हुआ 21 फरवरी 1952 जिस दिन बांग्ला भाषा के लिए आंदोलन शुरू हुआ था और जो अंततः स्वाधीनता युद्ध में बदल गया। 52 भी 1952 को याद करते हुए रखा जाता है। टीवी चैनल में से भी एक का नाम एकुइशे चैनल है। जिन्ना की बांग्लादेश पर उर्दू थोपने की मूर्खता के कारण ही पाकिस्तान के दो टुकड़े हो गए।

हमारे होटल की पूरी थीम ही स्वाधीनता संग्राम पर थी। इसकी सजावट में पश्चिमी पाकिस्तान के साथ हुए गृह युद्ध की याद दिलाने वाली कलाकृतियाँ थीं। कमरों के नाम देखिए – लाल-सबुज (यानी लाल-हरा, बांग्लादेश के झंडे के रंग), बिजय। रेस्तरांओं के नाम स्वाधिकार, बिजय स्मरणी।

ढाका में ईद के एक-दो दिन पहले से ही छुट्टियाँ शुरू हो जाती हैं और लोग पूरी तरह दफ्तरों में आने लगे इसमें एक सप्ताह तक लग जाता है। गारमेंट फैक्टरियाँ पूरे दस दिनों के लिए पूरी तरह बंद रहती हैं। वृहस्पति, शुक्रवार और शनिवार को तो ढाका पूरी तरह सुनसान लग रहा था। 

रविवार को अखबारों में तस्वीरों के साथ खबरें छपीं कि देखिए लोग घरों से वापस आने लगे हैं। चूंकि ईद से पहले जाने वालों और अब ईद के बाद आने वालों की भीड़ काफी तगड़ी होती है इसलिए अखबारों में खबर छपना भी लाजिमी है। वैसे भी ईद के बाद खुमारी मिटाते हुए रिपोर्टर और क्या लिखेंगे।




मैंने ढाकेश्वरी मंदिर जाने के लिए एक रिक्शा ठीक किया। और उससे पूछ लिया कि पांच सौ टाका का छुट्टा हो जाएगा न। उसने कहा छुट्टा तो नहीं है। लेकिन गाहक छोड़ना भी नहीं चाहता था। हम दोनों ने ही सोचा देखा जाएगा। 

ढाकेश्वरी मंदिर हमारे होटल से 4.2 किलोमीटर दूर था। ढाका में इतनी दूर रिक्शे पर जाना आम बात है। वो भी तीन-तीन सवारियों को लादकर। लोग सजी-धजी पोशाकों में और लड़कियां होठों पर बेतरतीब-सी लिपस्टिक लगाए शायद अपने आत्तीय (आत्मीय) स्वजनों (रिश्तेदारों) के यहां ईद के आंमत्रण जा रहे थे। सभी रिक्शे में।

ढाकेश्वरी मंदिर एक ऐसे इलाके में है जिसे किसी भी दृष्टि से खास नहीं कहा जा सकता। बख्शी बागान। एक संकरी गली के बाहर रास्ते को रोकते हुए बैंच पर पुलिस वाले हथियार लिए बैठे थे तो मैंने समझ लिया कि यहीं मंदिर होगा। ढाका का नाम ढाकेश्वरी पर पड़ा या ढाकेश्वरी का नाम ढाका पर, इस पर मतभेद हैं। 

कहते हैं ढाक (बंगाल में प्रचलित ढोल जैसा वाद्य) की आवाज जितने इलाके में पहुंचती थी उस सारे इलाके का नाम ढाका पड़ा। ढाका की प्राचीनता की तुलना में कोलकाता बिल्कुल बच्चा है। कहते हैं मंदिर की स्थापना बारहवीं सदी में हुई थी। गली में जाते हुए हमें पुलिस वालों ने कुछ नहीं कहा, जबकि वे एक अन्य दंपति से काफी पूछताछ कर रहे थे। वे हिंदू बंगाली सज्जन कह रहे थे हम तो जमालपुर से आए हैं, आदि आदि।

मंदिर बिल्कुल छोटा-सा है। चूने और गारे से बना हुआ। कहते हैं इस मंदिर को 12वीं सदी के सेन वंश के राजा बिल्लाल सेन ने बनवाया। मंदिर के बाहर चारों ओर अट्टालिकाएं खड़ी हैं जिनके कारण दूर से कौन कहे, गली के बाहर से भी मंदिर दिखाई नहीं देता। मंदिर कई बार टूटा-फूटा और इस समय जो ढांचा खड़ा हुआ है कहते हैं वह ईस्ट इंडिया कंपनी के एजेंट ने बनवाया। 

कुछ विद्वान कहते हैं बनवाने का मतलब है मरम्मत करवाना। गर्भगृह के बाहर एक बड़ी छत और नीचे बैठने का स्थान बना हुआ है, जो बिल्कुल नया और चमाचम है। मंदिर से सटा हुआ एक तालाब है जैसाकि हर पुराने मंदिर के पास हुआ करता था। वहीं एक लाल बिल्डिंग है जिसमें हिंदू नेताओं का काफी आना-जाना होता है। ढाकेश्वरी न सिर्फ बांग्लादेश में हिंदू आस्था का केंद्र है बल्कि हिंदुओं की सुरक्षा को लेकर चिंतित लोगों का जमावड़ा भी वहीं होता है।

ढाकेश्वरी मंदिर को राष्ट्रीय मंदिर का ओहदा प्राप्त है। ढाका के एक इलाके रमना में स्थित काली मंदिर पहले सबसे बड़ा मंदिर हुआ करता था। लेकिन 1971 में उस मंदिर को आतताइयों का शिकार होना पड़ा। उसके बाद से ढाकेश्वरी ही बांग्लादेश में हिंदुओं की आस्था का सबसे बड़ा केंद्र है। 

मंदिर के अंदर भी सुरक्षाकर्मी थे। गर्भगृह के बाहर कोई कथा चल रही थी। गर्भगृह में दुर्गा की एक बहुत छोटी-सी पीली धातु की मूर्ति स्थापित थी। दुर्गा मंदिर के पास ही चतुर्भुज विष्णु का मंदिर है उसी गर्भगृह में। दुर्गा की आठ सौ साल पुरानी असली प्रतिमा यहां इस मंदिर में नहीं है। उसे कोलकाता के कुमारटुली के एक मंदिर में ले जाकर वहीं स्थापित कर दिया गया है। 
यहां के गर्भगृह में जो स्थापित है वह असली विग्रह की प्रतिकृति है। लोग – पुरुष और महिलाएं और युवा - चुपचाप और उदास से बैठे थे। क्या वे सचमुच उदास थे या उदासी हमारे मन के अंदर थी और हमें हर कोई उदास दिखाई दे रहा था। हिंदू समुदाय के लिए माइनॉरिटी शब्द का उच्चारण अब तक कई बार सुन चुका था। इसके लिए हमारे कान अभ्यस्त नहीं थे। हिंदू बहुसंख्यक देश से आए एक व्यक्ति को यह अजीब लगता है।