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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

पैसा कमाने के कारण क्षमाप्रार्थी होने की आवश्यकता नहीं

प्राइम टाइम की चर्चाओं के शोर ने राष्ट्रीय मानसिकता ऐसी बना दी है कि उम्मीद की बात करना और वर्तमान सत्ता प्रतिष्ठान में भी कुछ अच्छा खोजना सत्ता प्रतिष्ठान के चमचे की गाली खाने के लिए पर्याप्त होता है। लेकिन फिर भी हम मानने को तैयार नहीं कि भारतीय राजनीति में अरविंद केजरीवाल नाम के धूमकेतु के उदय से पहले सब कुछ शून्य था और (असली) लोकतंत्र की यात्रा सिर्फ दिसंबर 2013 से शुरू हुई है।

2012 की तरह ही 2013 का भी असली हीरो संचार का नया माध्यम सोशल मीडिया था। इस मीडिया ने एक आम आदमी को भी अपनी ब्रांडिंग करने का अवसर प्रदान कर दिया है। आपके विचार कितने ही उम्दा हों, आप कितने ही ईमानदार हों, आप कितने ही कार्यकुशल हों- फिर भी आप राजनीति में सफल नहीं हो सकते यदि आपके बारे में लोग जानें ही नहीं। राजनीति आखिर ब्रांडिंग का ही खेल है, वरना बालीवुड का कोई सितारा कैसे चुनाव जीत लेता है जिसने पैसे कमाने के सिवा कभी कुछ सोचा ही नहीं। 2014 का हीरो भी सोशल मीडिया के ही रहने की उम्मीद है।

2013 में इस साधारण सी लगने वाली बात पर ध्यान गया कि आज के दौर में जितनी भी कुशलताएं (स्किल्स) हैं, उनमें गूगल का इस्तेमाल करना सबसे काम की कुशलता है। लेकिन इसे सिखाने के लिए कोई स्कूल नहीं है। पुस्तक पढ़ना, समझना, उसमें से कुछ लिखना- से सब कुशलताएं सिखाने के लिए स्कूलों में कितने पापड़ बेले जाते हैं, लेकिन गूगल पर मनचाही चीज कम समय में खोजना भी एक कला है इसे नई पीढ़ी तो जानती है, लेकिन पुराने ढर्रे के लोग अभी भी इसके विराट स्वरूप के दर्शन करने में असमर्थ हैं। अच्छे-खासे बुद्धिजीवियों को यह कहते सुना कि इंटरनेट पर तो नब्बे फीसदी पोर्न ही है। सत्तर के दशक की मांएं सिनेमा से डरती थीं कि यह बच्चों को बिगाड़ देगा। आज बच्चे दिन में तीन फिल्में देखकर भी पुरानी पीढ़ी से आगे ही जा रहे हैं। 2014 में कोई संकल्प लेने की सोच रहे हैं तो यही संकल्प लें कि इस वर्ष इंटरनेट-प्रवीण बनना है। वरना पीछे छूट जाएंगे इसमें कोई शक नहीं।

हमारे प्यारे आसाम के बारे में क्या कहें। इसमें सुधार के कोई लक्षण नजर नहीं आ रहे हैं। यह अब भी अपनी बीमारी का इलाज टोना और झाड़-फूंक से करना चाहता है। जिस दवा से थोड़ा फायदा होता है उसे ही जहर बताकर नाली में डालने के लिए उद्‌यत होता है। यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की यह बात सटीक लगी कि लोगों को बहकाना आसान है, समझाना कठिन। जो बच्चे सूबे से बाहर जाकर पढ़कर आ रहे हैं या वहीं काम-धाम कर रहे हैं, उनकी सोच बदली है। इस तरह से देखें तो ज्यादा से ज्यादा बच्चों को बाहर भेजना अच्छा विचार हो सकता है।

यही हाल असम के हिंदीभाषी समाज का है। व्यक्तिगत स्तर पर या छोटे-छोटे गुटों के रूप में यह समाज अच्छा कर रहा है। जितनी चुनौतियों के बीच इसे काम करना पड़ता है, उससे साफ है कि यदि मार्ग थोड़ा भी प्रशस्त हो तो यह भारत के सर्वश्रेष्ठ समुदायों में शामिल हो सकता है। जैसे पारसी समुदाय। इस समुदाय की सबसे बड़ी समस्या है एक भिन्न संस्कृति के बीच समृद्ध समझे जाने के कारण उत्पन्न वल्नरेबिलिटी। हम कहां खड़े हैं और हमें कहां जाना है इसे समझने की कोई जद्दोजहद 2013 में भी इस समुदाय में दिखाई नहीं दी। इस समुदाय को दो बातें 2014 में कहने का प्रयास करना चाहिए- एक, अब तक के इतिहास में असम के हिंदीभाषी समाज ने ऐसा कोई काम नहीं किया, जिसके लिए उसे शर्मिंदा होना पड़े। दो, पैसा कमाने के कारण क्षमाप्रार्थी होने की आवश्यकता नहीं।

पुराना साल जाते-जाते दो पुस्तकें हमें पकड़ा गया। एक काबेरी कछारी राजखोवा ने लिखी है जो अल्फा नेताओं के भूटान और बांग्लादेश के अनुभवों का अच्छा खासा आभास देती है। दूसरी पुस्तक है वरिष्ठ पत्रकार राजीव भट्टाचार्य की जिसमें उन्होंने परेश बरुवा के साथ लंबी मुलाकातों के बारे में लिखा है। दोनों ही पुस्तकों में कहीं भी यह नहीं आया कि अलगाववाद क्यों जरूरी है। असम एक स्वाधीन देश था, लेकिन भारतवर्ष की रचना ऐसे भूतपूर्व स्वाधीन देशों के संघ के रूप में ही तो हुई है। इस संघ से बाहर निकलने की इच्छा के पीछे क्या है या यह क्यों होना चाहिए इस विषय में ठोस तर्कों की उम्मीद कोई भी अल्फा से कर सकता है, क्योंकि इस संघर्ष ने अब तक दसियों हजार लोगों की जान ले ली। ऐसा कुछ इन पुस्तकों में नहीं मिलता। श्रीमती राजखोवा की पुस्तक अल्फा अध्यक्ष अरविंद राजखोवा के परेश बरुवा के साथ मतभेदों पर अच्छा प्रकाश डालती है। लेकिन ये मतभेद सांगठनिक मुद्दों या काम करने के तरीकों को लेकर ज्यादा थे, और असम को भारतीय संघ से क्यों बाहर निकलना चाहिए, या क्या ऐसा करना आज की परिस्थिति में व्यावहारिक होगा या संभव होगा - इस पर बिल्कुल नहीं। इसी तरह परेश बरुवा के साथ राजीव भट्टाचार्य की मुलाकातों के बारे में पढ़ने पर यह बात सामने आती है कि बरुवा के मन में किशोर वय से ही तिनसुकिया के बंगाली और बिहारी व्यवसायियों के प्रति एक विद्वेष भाव था। उन्होने एक बंगाली व्यवसायी को किसी से मांग कर लाई बंदूक चलाकर जान से मार डाला था। आश्चर्य होता है कि किसी व्यक्ति के किसी समुदाय के प्रति बचपन में जम गए विद्वेष की कितनी भयानक परिणति हो सकती है।

दोनों पुस्तकें अलगाववादियों के मनोजगत में उतरने के लिए हमारे पास रक्षा जैकेट स्वरूप रहेंगी। दोनों पुस्तकें पढ़ते हुए एक बार फिर अखिलेश यादव की यह बात याद आती है- लोगों को बहकाना आसान है, समझाना कठिन।

सभी पाठकों को नए साल की शुभकामनाएं। अभी आगे साल भर बातचीत होती रहेगी।

शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

सिंगापुर में है एक छोटा बांग्लादेश

सिंगापुर के बारे में भारत में लोग यह तो जानते हैं कि वहां की आबादी में अच्छा खासा हिस्सा भारतीयों का है। भारतीयों के अलावा वहां मलय और चीनी मूल के लोग रहते हैं। लेकिन ज्यादातर लोगों को यह नहीं पता कि वहां बांग्लादेशी लोग काफी संख्या में रहने लगे हैं। सिंगापुर का एक इलाका लिटिल इंडिया कहलाता है। यहां ज्यादातर दुकानें और होटलें भारतीय मूल के लोगों की हैं। कई दुकानें और होटलें काफी पुरानी हैं चौथे और पांचवे दशक की। जैसे कोमल विलास नामक रेस्तरां की कई शाखाएं सिंगापुर में हैं जहां शाकाहारी भोजन मिलता है। सिंगापुर में शाकाहारी भोजन का अच्छा खासा प्रचलन हैक्योंकि यहां भारतीय मूल के जो लोग रहते हैं वे अधिकतर शाकाहारी ही हैं। कोमल विलास की तरह ही आनंद भवन के रेस्तरां की शृंखला है जिसके अंदर शाकाहार का प्रचार करने वाली इबारतें भी लिखी रहती हैं।

कुल 54 लाख की आबादी वाले सिंगापुर में इस समय करीब सत्तर हजार बांग्लादेशी रहते हैं जो वर्क परमिट के आधार पर यहां आए हैं। ये लोग ज्यादातर निर्माण या साफ-सफाई के कामों में नियुक्त हैं। लिटिल इंडिया में जो मुख्य पथ है उसका नाम है सेरंगुन रोड। यहां आप कभी रविवार को जाएं तो आपको भीड़ के कारण रास्ते पर चलने में भी दिक्कत होगी। क्योंकि रविवार को सेरंगुन रोड पर समूचे सिंगापुर में रहने वाले बांग्लादेशी इकट्ठा होते हैं। यह उनके मिलने-जुलने की तय जगह है। एक जानकार बताते हैं कि रविवार को तकरीबन तीस हजार लोग यहां इकट्ठा होते हैं। सभी के हाथों में मोबाइल फोन होते हैं और सभी अपने किसी साथी-रिश्तेदार को फोन मिलाने में व्यस्त रहते हैं। उतनी भीड़ में वे चाहते हैं कि जिससे मिलने की इच्छा लेकर सेरंगुन रोड पर आए हैं वह यह जान ले कि ठीक किस जगह वह खड़े हैं। मिलने के स्थान अक्सर पार्क होते हैं। यहां ये लोग जमीन पर ही बैठ जाते हैं, या फिर पीछे की गली में किसी फुटपाथिया रेस्तरां के सामने जमीन पर।

साफ-सफाई के काम में नियुक्त एक बांग्लादेशी युवक को अमूमन 650 सिंगापुरी डालर की पगार मिलती है जो भारतीय रुपयों में लगभग 32,000 है। शनिवार को आधा दिन और रविवार को पूरी छुट्टी होती है। लेकिन सिंगापुर में जीवन निर्वाह का खर्च भी बहुत है। डालर मिलते हैं तो खर्च भी डालर ही होते हैं। इसमें से यदि कोई कामगार 200 डालर भी बचा ले तो वह उसके घर में करीब 14,000 मासिक बांग्लादेशी टाका के समान हो जाता है। बांग्लादेश में इस समय चल रहे औसत वेतन के लिहाज से यह अच्छी रकम है। ढाका के गारमेंट्‌स उद्योग में काम करने वाले एक औसत कामगार को तीन से चार हजार टाका के बीच वेतन मिलता है।

सिंगापुर में जहां भारतीय सैलानी खर्च करने के लिए जाते हैं वहीं बांग्लादेशी कमाने के लिए जाते हैं। इसीलिए मनी ट्रांसफर करने वाली एजेंसियां अपने पोस्टर और नामपट्ट तथा सूचना पत्र आदि बांग्ला में भी लिखवाने को काफी महत्व देती हैं। दुनिया भर से बांग्लादेशी अपने देश में धन भेजते हैं। इसलिए बांग्लादेश में कभी भी विदेशी मुद्रा की कमी नहीं होती। लिटिल इंडिया में कुछ इलाकों में बांग्लादेशियों का काफी आवागमन है। यह इलाका हालांकि पड़ता लिटिल इंडिया में ही है लेकिन इसे आप लिटिल बांग्लादेश भी कह सकते हैं। यहां की दुकानों में वह सामान आसानी से मिल जाता है जिसे बांग्लादेशी पसंद करते हैं। बांग्लादेशियों की पहली पसंद मोबाइल फोन होती है। मोबाइल की कीमत यहां बांग्लादेश से कम पड़ती है। इसके बाद टीवी का नंबर आता है। एक युवक अपने साथी के साथ काफी समय से एक टीवी को निहार रहा था। शायद वह सोच रहा होगा कि घर जाते समय यह टीवी खरीद कर ले जाऊंगा। बांग्लादेशी इलाके में आकर एक दो पान दुकानें दिखाई देती हैं, पान दुकानें हैं तो साथ में दीवारों पर चूने के दाग तो होने ही हैं। चमकती साफ-सफाई वाले सिंगापुरी बाजारों में वे धब्बे आंखों में चुभते हैं। एक रेस्तरां अपने ग्राहकों को बांग्ला भाषा में सूचना देता है कि यहां हंस का मांस मिलता है।

सिंगापुर की 54 लाख आबादी में से सिर्फ 34-35 लाख ही नागरिक हैं। नागरिकों के बाद स्थायी बासिंदों का नंबर आता है। इनके अधिकार नागरिकों से कम हैं। स्थायी बाशिंदों के बाद अस्थायी रूप से वर्क परमिट पर आने वाले लोगों का नंबर आता है। नागरिकता प्राप्त करने के लिए कुछ शर्तें पूरी करनी पड़ती हैं। हमारे सिंगापुरी मित्र बताते हैं कि हम समरसता या एसिमिलेशन पर जोर नहीं देते। एसिमिलेशन की बजाय हमारा जोर इंटीग्रेशन पर रहता है। यानी आप किसी भी जातीय समुदाय या धर्म से हों लेकिन कुछ साझा सिद्धांतों के प्रति आपकी प्रतिबद्धता होनी ही होगी। देश के प्रति आपके कुछ साझा कर्तव्य हैं जिनका आपको पालन करना ही होगा। एयरपोर्ट तथा अन्य स्थानों पर भारतीय समुदाय के लोग भी अपने अनुपात के अनुसार नौकरियों में दिखाई दे जाते हैं। सचमुच विभिन्न जातीय समुदायों के लोगों का शांतिपूर्ण ढंग से एक देश में रहना और उसे यूरोप के लोगों के लिए भी ईर्ष्या का विषय बना देना आश्चर्य जगाता है,खासकर भारत से गए लोगों के लिए।

सिंगापुर में काम करने वाले लोगों की कमी है। कम वेतन वाले काम करने के लिए लोग नहीं मिलते। जिस रेस्तरां में भारत में चार वेटर होते हैं वैसे ही रेस्तरां में वहां एक ही वेटर होता है। कई स्थानों पर ग्राहक को खुद ही प्लेट को सिंक में रखना पड़ता है। छोटी दुकानों में एक ही व्यक्ति होता है, मैनेजर और सेल्समैन सबकुछ वही। इसीलिए यहां बांग्लादेश से काम करने वाले युवकों को आमंत्रित किया जाता है। वर्क परमिट खत्म होने पर इनके नियोक्ता इनके परमिट की अवधि बढ़वा देते हैं। अवधि न बढ़ने पर इन्हें वापस अपने देश लौट जाना पड़ता है।

लोग बताते हैं कि सिंगापुर से जुड़े मलेशिया में भी बांग्लादेशी कामगार काफी बड़ी संख्या में हैं। करीब छह-सात लाख होंगे। इनमें से कई वहां अवैध रूप से भी पहुंच गए हैं। इन्हें नियमित करने के लिए मलेशिया सरकार काफी कोशिश कर रही है। इसके लिए बांग्लादेश सरकार से भी बातचीत की गई थी। एक बार मामूली-सी फीस लेकर इन्हें अपना नाम पंजीकरण कराने के लिए कहा गया था। इसके बाद बिना पंजीकरण वाले आप्रवासियों के खिलाफ अभियान चलाया गया।

बांग्लादेशियों की बात चली तो संतोसा टापू की एक घटना याद आ गई। वहां एक बांग्लादेशी मिल गए। दाढ़ी और टोपी वाले। उनकी पत्नी पूरी तरह बुर्के से ढकी थीं। मैंने पूछा ढाका में सबकुछ ठीकठाक है न। उन्होंने कहा - जी हां, हम काफी ठीकठाक हैं, मेरा छह माले का मकान है। जब मैंने पूछा कि शांति तो है न, तब वे मेरा आशय समझे। जो भी हो, आपके पास कितना मंजिला मकान है, या कितनी कारें हैं इससे भारत और दक्षिण एशिया में परिवार की समृद्धि मापी जाती है। यूरोपीय लोग इस पर आश्चर्य करते हैं।

बुधवार, 14 अगस्त 2013

झंडा फहराएं

पुस्ताक्यल
1979 तक असम में स्वाधीनता दिवस और गणतंत्र दिवस पर कुछ न कुछ कार्यक्रम अवश्य होते थे। कम-से-कम लोग अपने घरों पर झंडा तो अवश्य फहराते थे। बाद में विदेशियों के विरुद्ध हुए आंदोलन का पहला शिकार राष्ट्रीय पर्व हुए। लोगों की झंडा फहराने की आदत एक बार छूटी तो फिर छूटी ही रह गई। 1982 में एक बार उत्तर प्रदेश के एक छोटे शहर में जाना हुआ। वहां 15 अगस्त को ही हमारा बाहर कुछ छोटे-छोटे कस्बों में घूमने का कार्यक्रम था। मुझे यह देखकर धक्का लगा कि देश के इस हृदय स्थल में भी स्कूल, पुलिस थाना और स्टेशन आदि सार्वजनिक इमारतों को छोड़कर निजी भवनों पर किसी ने झंडा फहराने की जहमत नहीं उठाई थी। राष्ट्रीय पर्व के उल्लास का क्षय वहां असम से पहले ही शुरू हो गया होगा।

इसलिए असम में अपने घर पर झंडा नहीं फहराने का कारण जब कोई उग्रवादियों का काल्पनिक डर बताता है तो मुझे उत्तर प्रदेश की वह घटना याद आ जाती है। वे उत्तर प्रदेशवासी क्या तर्क देते होंगे - टीवी पर धुआंधार बहस के जरिए किसी ने इसके लिए हमें उकसाया ही नहीं, झंडा फहराने से हमें क्या लाभ होने वाला है, झंडा नहीं फहराने से हमें कौन-सा जुर्माना लगने वाला है, या फिर यह कि झंडा फहराने का हमारे धर्म, भाषा, जाति से कोई संबंध तो है नहीं फिर हम क्यों झंडा फहराएं।

जब भाषा, जाति, समुदाय या क्षेत्र के नाम पर राष्ट्र को कमजोर करने वाली भावनाओं का इजहार इतना खुलेआम होता है तो हम अपने राष्ट्रप्रेम का प्रदर्शन करने के मौके को क्यों गवां देते हैं। इसके लिए हम न्यूनतम अपने घर की छत पर, अपनी गाड़ी पर आज के दिन राष्ट्रीय पताका तो लगा ही सकते हैं। यह न्यूनतमम है। जो पर्वत का बोझ नहीं उठा सकते वे सर के दो बोझे तो कम कर ही सकते हैं। सागर नहीं उलीच सकते तो आंखों के दो आंसू तो हर ही सकते हैं।

जो ज्यादा करना चाहते हैं वे बहुत कुछ कर सकते हैं। स्कलों-कालेजों में रात को रोशनी करनी चाहिए, डीनर पार्टी करनी चाहिएष राजनीतिक दलों को सेमीनार करने चाहिए, सामाजिक संस्थाओं को बच्चों के लिए क्वीज करनी चाहिए, शाम को नाटक आयोजित करने चाहिए, आतिशबाजी करनी चाहिएष सार्वजनिक मैदान या भवन में प्रदर्शनी करनी चाहिए, महत्वपूर्ण आयोजनों की शुरुआत जैसे पुस्तक मेला, नाट्य समारोह, स्कूल या कालेज सप्ताह की शुरुआत 15 अगस्त या 26 जनवरी से ही करनी चाहिए।

किसलिए हम इन दो दिनों को अलसाए-से, मरे-मरे, उदास-उदास, पड़े-पड़े, ताश खेलकर, टीवी से चिपककर बिताएं! आखिर ये दो दिन उस घटना की याद दिलाते हैं जब विश्व में एक नए तरह के राष्ट्र का उदय हुआ। विद्वानों ने कहा था कि भाषा या धर्म या इतिहास का सहारा नहीं होने के कारण यह राष्ट्र बन नहीं सकता। हमने बनाया। विद्वानों ने कहा कि यह टिक नहीं सकता। हमने टिकाया। 


हमारा राष्ट्र एक ऐसा पौधा है जिसके बारे में अनुभवी बागवानों का कहना है कि यह पौधा इस मिट्टी में पनप नहीं सकता। इसलिए हमारा और भी यह कर्तव्य हो जाता है कि हर 15 अगस्त और 26 जनवरी को इसे श्रद्धा से सींचें और बागवानों को गलत साबित कर दें। आखिर बहुत-सी फसलों को नए भूगोल में पहुंचाने के प्रयोग इस दुनिया में होते ही रहे हैं।

शनिवार, 20 जुलाई 2013

क्षेत्रीयतावाद की प्रासंगिकता


पिछले दिनों नगर निगम चुनाव में असम गण परिषद की हार के बाद यह चर्चा चली कि क्या असम में क्षेत्रीयतावाद प्रासंगिक रह गया है? असम में क्षेत्रीयतावाद पर जब चर्चा करते हैं तो हमें ट्रेड यूनियन आंदोलन के साथ इसकी समानता दिखाई देने लगती है। जैसे किसी उद्योग में कर्मचारी या मजदूर यूनियन का ध्यान उद्योग की सामग्रिक सफलता पर न होकर सिर्फ अपने वेतन-भत्तों पर होती है। उनके पास न तो उद्योग के वित्तीय आंकड़ों तक पहुंच होती है और न ही उन आंकड़ों का विश्लेषण करने लायक समझ। प्रबंधन के साथ एक तरह के विरोधात्मक संबंध को हर श्रमिक संघ स्वाभाविक मानकर चलता है। ठीक इसी तरह का संबंध असम की असम गण परिषद ने केंद्र सरकार के साथ बनाकर रखा। यहां केंद्र सरकार उनके लिए प्रबंधन थी और राज्य को योजना या अन्य मदों में मिलने वाली राशि वेतन-भत्ते हो गई। किसी भी क्षेत्रीयतावादी पार्टी के लिए केंद्र सरकार के पक्ष में एक शब्द भी बोलना भयानक राजनीतिक भूल मानी जाती है। उसी तरह जिस तरह जिस तरह श्रमिक संघ का नेता यदि प्रबंधन के पक्ष में एक शब्द कह दे तो उसे बिका हुआ मान लिया जाता है। ट्रेड यूनियन वालों के पास जिस तरह हमेशा मांगों की लंबी फेहरिश्त तैयार रहती है, उसी तरह क्षेत्रीयतावादी पार्टियां भी अपना मांगपत्र हमेशा तैयार रखती हैं।


जिस तरह ट्रेड यूनियनें छोटी-छोटी बातों पर हड़ताल करने पर उतारू हो जाती हैं, उसी तरह आंचलिक हितों के ये स्वघोषित मसीहा बात-बात पर "बंद' का आह्वान कर बैठते हैं। जिस तरह रोज-रोज की हड़ताल से कोई अच्छा-खासा उद्योग भी घाटे में चला जाता है, उसी तरह इन क्षेत्रीयतावादियों के रोज-रोज के "बंद' से किसी राज्य की आर्थिक स्थिति बदतर होती चली जाती है। जिस तरह अच्छा-खासा लाभ कमाने वाला कोई उद्योग अपने कर्मचारियों को मोटी तनख्वाह देकर ट्रेड यूनियन को अप्रासंगिक बना देता है, उसी तरह इस समय केंद्र सरकार ने असम तथा पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों को अधिक से अधिक केंद्रीय राशि देकर क्षेत्रीयतावाद को अप्रासंगिक बना दिया है। अब वे पुराने दिन नहीं रहे कि किसी एक पुल या रिफाइनरी या विश्वविद्यालय के लिए लोगों को मांगपत्र सौंपना पड़े। लेकिन इसके बावजूद असम में परियोजनाएं आगे नहीं बढ़ रहीं तो इसके तीन कारण हैं। एक, दिसपुर का विरोध करने वाले गरमपंथी क्षेत्रीयतावादियों यानी उग्रवादियों द्वारा निर्माण परियोजनाओं के ठेकेदारों-इंजीनियरों को परेशान करना, उनका अपहरण करना, जान से मार देना। दो, लाहे-लाहे यानी धीरे काम करने की प्रवृत्ति। तीन, दिसपुर में बैठे राजनीतिक नेतृत्व की काम के प्रति अनिच्छा, लापरवाही तथा अधीनस्थ कर्मचारियों से काम करवा पाने की योग्यता न होना।

अब यदि हमारे क्षेत्रीयतावादी राजनेता इन तीन कारणों पर बोले तो यह उनकी क्षेत्रीयतावादी विचारधारा में फिट नहीं बैठता। क्षेत्रीयतावाद में अपने ही राज्य के नेतृत्व को-भले वह प्रतिद्वंद्वी पार्टी का ही हो-दोषी ठहराना राजनीतिक रूप से गलत होता है। जिस तरह ट्रेड यूनियन आंदोलन में प्रमाण होने के बावजूद अपने सहकर्मी को या देर से आने वाले या काम नहीं करने वाले कर्मचारियों को किसी भी सूरत में गलत नहीं माना जाता।

जब तक लच्छेदार भाषणों और काल्पनिक शत्रुओं के खिलाफ नारेबाजी से आम जनता प्रभावित होती रहेगी, तब तक क्षेत्रीयतावाद और श्रमिक संघ दोनों ही प्रासंगिक बने रहेंगे। लेकिन व्यावहारिक राजनीति में सिर्फ एक ही कारक काम नहीं करता। सार-संक्षेप में कहें तो असम की राजनीति में मुसलमानों की बढ़ती जनसंख्या और एआईयूडीएफ के बढ़ते प्रभाव ने स्थिति को बदल दिया है। अब जनता को तुरंत एक ऐसी पार्टी चाहिए जो एआईयूडीएफ के खिलाफ एंटी-डोट का काम कर सके। ऐसे समय में लोगों को भारतीय जनता पार्टी अचानक भाने लगी है, जिसके यहां मुसलमानों के सवाल पर साफ-साफ बोलने की मनाही नहीं है।

असम गण परिषद के दिन पर दिन घटते कद के बावजूद उसकी ओर से जैसे बयान आ रहे हैं उससे साफ है कि उसने दीवार का लेखन पढ़ा नहीं है। दीवार पर साफ-साफ लिखा है कि असम में आने वाले कम-से-कम दो दशकों तक राजनीति मुस्लिम सवाल के इर्द-गिर्द घूमती रहेगी। मजेदार बात यह है कि भारत में कहीं भी मुसलमानों का समर्थन और विरोध करने वाले दोनों ही साफ शब्दों में कुछ नहीं कहते, लेकिन यही कारक सबसे निर्णायक साबित होता है।

राजनीति में अच्छे लोग और ट्यूलिप

बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना की एक बहन लंदन में रहती हैं। उनका नाम है शेख रेहाना। जब मुजीबुर्रहमान की हत्या हुई थी तब वे जर्मनी में थीं। उसके बाद उनका जीवन काफी कष्ट और संघर्ष से होकर गुजरा। वे बाद में लंदन आ गईं और वहां किल्बर्न नामक इलाके में दो जून के खाने तक का इंतजाम करने के लिए काफी कष्ट किया। बाद में उनका वहीं के एक डाक्टर सिद्दिक से विवाह हो गया। उनके एक बेटी ट्यूलिप है। ट्यूलिप उच्च शिक्षित और आत्मविश्वास से लबरेज युवती है। लेबर पार्टी ने 2015 में होने वाले हाउस आफ कामन्स के चुनाव के लिए किल्बर्न इलाके से ट्यूलिप को मनोनीत किया है। किल्बर्न में बांग्लादेशी मूल के लोगों की अच्छी आबादी है और ट्यूलिप को अपनी जीत का पूरा विश्वास है। वह अपनी मां के साथ अभी से जनसंपर्क अभियान पर निकल पड़ी है।

जिस बात की ओर हम ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं वह यह है कि ब्रिटेन में किस तरह राजनीतिक दल दो साल पहले ही अपने उम्मीदवार तय कर देते हैं ताकि वे अपने चुनाव क्षेत्र में जीत हासिल करने के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम कर सकें। हमारे यहां अक्सर शिकायत सुनाई देती है कि राजनीति में अच्छे लोग नहीं आते। इसके जायज कारण हैं। हमारे यहां किस चुनाव क्षेत्र से कौन चुनाव लड़ेगा इसका फैसला ऐन वक्त पर किया जाता है। इसमें कोई निर्धारित तरीका नहीं होता। पार्टी के नेता अक्सर मनमानी करते हैं। कम्युनिस्टों को छोड़कर यह बात हर पार्टी पर लागू होती है। ऐन चुनाव के वक्त पर कुछ लोग थैली लेकर मैदान में कूद पड़ते हैं और जो बेचारा कार्यकर्ता टिकट की आस में पांच साल से काम कर रहा था उसे परे धकेल कर खुद टिकट झटक ले जाते हैं। ऐसे अनिश्चित माहौल में अपवादस्वरूप ही अच्छे लोग राजनीति में आएंगे। अनिश्चित परिस्थितियों में वही लोग संघर्ष करना स्वीकार करते हैं जिनका और कहीं कुछ हो नहीं पाता है। अपने स्तर से नीचे उतर कर चमचागिरी भी ऐसे ही लोग कर पाते हैं। अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने लीक से हटकर कुछ करने का वादा किया था। लेकिन उसने भी लोकसभा चुनावों के लिए अपने उम्मीदवार घोषित नहीं किए हैं। यानी वहां भी फैसला अंतिम समय में होने वाला है।

लंदन में ट्यूलिप बड़े आत्मविश्वास से कहती है कि मैंने अपने दम पर आज लेबर पार्टी का मनोनयन हासिल किया है। आज बांग्लादेश में मुझे पार्टी का उम्मीदवार का बनाया जाता तो लोग सोचते कि उनकी प्रधानमंत्री मौसी परिवार राज चला रही हैं। लेकिन अच्छा है कि यहां लंदन में ऐसा आरोप नहीं लग पाएगा।

टिप्पणी Posted by MK (mmoohit@rediffmail.com)

अरविन्द केजरीवाल ने उम्मेदवार तय केरने की प्रक्रिया बहुत पेहले ही शुरु कर दी थी और अभी तक वो 30 नाम घोषित कर चुके है. बाकी भी हो जायेगे. पेहली बार नाम चुनने में टाइम तो लगता ही है. और सबसे बड़ी बात की लोग ही उम्मेदवार चुन रहे है.

टिप्पणी Posted by Anandakrishnan Sethuraman (sanantha.50@gmail.com)

भारत में चुनाव के उम्मेदवार रुपये और बदमाशी के आधार पर .एक ही दल में मतभेद. हर दल में कई लोग पदवी के लिये दल को तोड़ना चाहते हैं;मोदी के चुनाव में मत भेद,एडीयूरप्पा के कारण हार'.तमिलनाडु में विजयकांत के एम एल. ए. अलग हो गये; कांग्रेस में कितने विरोध है वासन,चिदंबरम ,तँगबालू;अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी डाल लेते हैं. आज कांग्रेस का समर्थन,कल जेयलाइता का ,फिर करुणानिधि का कम्युनिस्ट पार्त्य सभी नेताओं का विरोध ;सभी का समर्थन. ऐसे ही कयी दल लोगों को परेशान में डाल देते हैं; देश की और आम जनता की चिंता णाःएएण. जातीय दल,धार्मिक दल ,उसमें उपा दल ,देशी मूसलाब,सच्चा मुसलमान,भारतीय लाणगूगे स्पीकिंग मुसलमान,परिवर्तित ईसाई; हम भारतीय हैं ;भारत की उन्नति में हमारी उन्नति ऐसा विचार जब होगा,तभी भारत विश्व का सरताज होगा. ऐसे भारत की कामना खाऱेण्घे.ज़ाY हिन्द; जय भारत भक्ति.

रविवार, 16 जून 2013

पै अंग्रेजी ज्ञान बिन रहत हीन के हीन



हालांकि हम पर कभी लोहिया के अंग्रेजी हटाओ आंदोलन का प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ा, लेकिन आज मैं एक स्कूली बच्चे की मानसिकता की सहज ही कल्पना कर सकता हूं जो अपने पाठ्‌यक्रम में से कोई एक विषय कम होने पर कितना उत्फुल्लित होता होगा। आज भी जब कोई हिंदीवादी या असमियावादी, या बोड़ोवादी अपनी भाषा के पक्ष में दलील देते हुए अपने से बड़ी भाषा-अंग्रेजी, हिंदी या असमिया- को कोसता है तो एक स्कूली बच्चा उनका सबसे बड़ा समर्थक होता होगा। उसे मातृभाषा के आंदोलन में अपना स्कूली बोझ कम होता दिखाई देता है। जब लोहिया ने "अंग्रेजी हटाओ' का नारा दिया तो भले उनका आशय अंग्रेजी को प्रशासन से, न्यायालय से और शिक्षा के माध्यम से हटाने का रहा होगा, लेकिन स्कूली विद्यार्थियों ने इससे एक ही बात समझी होगी कि अब हमें अंग्रेजी भाषा का भारी-भरकम ज्ञान निगलना नहीं होगा।

आज स्थिति काफी बदल चुकी है। आज अंग्रेजी हटाओ के लिए कोई जगह नहीं है। इसके उलट अंग्रेजी पल्प लिटरेचर का एक हस्ताक्षर आज के युवाओं के लिए सेलेब्रिटी है। पता नहीं राजनीतिक पार्टियों को यह बात समझ में आई है या नहीं कि हमारे देश के बहुभाषी होने की कीमत हम अंग्रेजी के रूप में चुका रहे हैं। जो भी हो, एक राजनीतिक कार्यक्रम के रूप में "अंग्रेजी हटाओ' या "हिंदी लाओ' जैसे नारों की उपयोगिता बिल्कुल समाप्त हो चुकी है।

अपनी भाषा को विकसित करने की इच्छा होना एक सहज स्वाभाविक इच्छा है। जिस तरह अपने देश को विकसित करने की इच्छा। लेकिन यह काम जिद भरे राजनीतिक आंदोलनों से नहीं हो सकता। इसके लिए कितने अध्यवसाय की जरूरत होती है, कैसी प्रतिबद्धता चाहिए, किस तरह एक-एक शब्द विकसित करना पड़ता है इस विषय में न जाकर हम इस विरोधाभास जैसी लगने वाली बात को रेखांकित करना चाहेंगे कि अपनी भाषा को विकसित करने की पहली शर्त होती है अपने से बड़ी भाषा का अच्छा ज्ञान होना। हिंदी के लिए यह बड़ी भाषा अंग्रेजी हो सकती है, असमिया के लिए हिंदी हो सकती है, इसी तरह बोड़ो के लिए असमिया हो सकती है। भाषणों में भाषाओं को बहनें कहा जाता है, जबकि व्यवहार में भाषाओं के बीच आपस में सौतनों जैसी ईर्ष्या होती है। अक्सर एक भाषा दूसरी भाषा से कुछ भी सीखने से साफ इनकार कर देती है। क्योंकि दूसरी भाषा से सीखना उसे अपने आत्मसम्मान के विरुद्ध लगता है। और किसी भाषा को अपने से बड़ी समझना? आप क्या बात करते हैं? भाषा के नाम पर हमारे देश में दंगे हुए हैं और आप कहते हैं किसी दूसरी भाषा को अपने से बड़ी भाषा मान लें!

जो भी हो, यदि आप हिंदी की स्थिति देखें तो पाएंगे कि यह भाषा पत्रकारिता, साहित्य, मनोरंजन, विज्ञापन और बोलचाल की भाषा बनकर रह गई है। आज जो ज्ञान का विस्फोट हो रहा है उससे हिंदी का दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है। इस बात को जांचने का एक आसान सा तरीका है गूगल का सर्च इंजन। मान लीजिए आप किसी साधारण से प्रश्न का जवाब खोजना चाहते हैं, उदाहरण के लिए आप यह जानना चाहते हैं कि शिमला में ठहरने के लिए कौन-सी अच्छी जगह है। यह जानकारी यदि आप हिंदी में खोजना चाहें तो आपको हो सकता है निराश होना पड़े। लेकिन अंग्रेजी में यदि खोजें तो तुरंत आपके सामने सूचनाओं की थाली सज जाएगी। ऐसी स्थिति में जो लोग अंग्रेजी नहीं जानते वे इंटरनेट का समुचित लाभ नहीं उठा पाते। उनके लिए सूचना क्रांति का आना और नहीं आना बराबर है। उसी तरह जिस तरह अंग्रेजी नहीं जानने वालों के लिए अमरीका में किसी नई धांसू किताब का निकलना और नहीं निकलना बराबर है।

एक राजनेता हाल ही में एक हिंदी संस्था के कार्यक्रम में गए। उनके भाषण का सार यह था कि हिंदी जरूर सीखनी चाहिए क्योंकि जितनी ज्यादा भाषाएं सीखी जा सकें उतना अच्छा है। यह वक्तव्य साफ दिखाता है कि उन्हें भाषाओं के आंतरिक विज्ञान के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। क्योंकि अधिक से अधिक भाषाएं सीखना एक बात है, और एक ऐसी भाषा सीखना जिसमें विश्व का ज्यादा से ज्यादा ज्ञान एकत्र है बिल्कुल दूसरी बात है। कोई सीख सके तो अच्छी बात है, लेकिन आज जरूरत ज्यादा से ज्यादा भाषाओं के सीखने की नहीं बल्कि ज्यादा से ज्यादा ऐसी भाषा को सीखने की है जो समर्थ है, जिसमें विश्व का ज्ञान समाहित है। जो अपनी भाषा को अत्यधिक प्यार करता है उसके लिए भी अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान अनिवार्य है। क्योंकि ऐसा नहीं होने पर वह स्वयं बहुत सारे ज्ञान से अछूता रह जाएगा, और दूसरे वह इस ज्ञान को अपनी भाषा में नहीं ला पाएगा।



बीटीएडी बनने के ठीक बाद एक बोड़ो सभा में जाना हुआ। श्रोताओं में से अधिकतर लोग बोड़ो और असमिया दोनों भाषाएं जानते थे क्योंकि वहां की आबादी मिश्रित आबादी थी। लेकिन बीटीएडी की कमान संभालने वाले नए-नए लोकतांत्रिक राजनीति में आए पूर्व उग्रवादी हाग्रामा मोहिलारी ने कहा कि बचपन से उन्होंने सिर्फ बोड़ो भाषा के माध्यम से पढ़ाई की है, इसलिए वे दूसरी भाषा नहीं जानते। उन्होंने अपना भाषण बोड़ो भाषा में ही दिया। यहां सवाल यह नहीं है कि हम उस भाषण को कितना समझ पाए। सवाल यह है कि उग्र मातृभाषा प्रेम ने हाग्रामा मोहिलारी जैसों की एक पूरी पीढ़ी को अपने आसपास की दुनिया से काट दिया। बोड़ो भाषा अपने विकास के शैशव काल में है। उसमें अभी दुनिया भर का ज्ञान और विद्याएं इकट्ठा नहीं हुए हैं। लेकिन यदि बोड़ो जानने वाले अच्छी असमिया, हिंदी या अंग्रेजी नहीं जानेंगे तो यह ज्ञान बोड़ो भाषा में कौन लाएगा? यह बात हर भारतीय भाषा पर लागू होती है। आज के दिन किसी भी भारतीय भाषा का प्रेमी यदि यह कहता है कि हमें अंग्रेजी की कोई जरूरत नहीं, तो वह अपनी भाषा का प्रेमी नहीं दुश्मन है।

देखें आलेख - अंग्रेजी मैया की जय (नीचे क्लिक करें)
http://binodringania.blogspot.in/2010/11/blog-post.html

मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

मीडिया की औकात




असम के मीडिया के बारे में कहा जाने लगा है कि यहां जरूरत से अधिक मीडिया हो गया। जरूरत से अधिक अखबार छप रहे हैं, कई ऐसे हैं जो जीवन रक्षक दवाओं के सहारे चल रहे हैं लेकिन फिर भी चल रहे हैं। यही हाल चैनलों का है। कई ने ठीक से चलना भी नहीं सीखा कि उनके सामने अपने जनम-मरण का सवाल आ गया। कुछ लोगों को इनकी अधिक संख्या को लेकर आपत्ति है। कहते हैं इतने ज्यादा अखबारों और चैनलों की क्या जरूरत है। लेकिन हमारा मानना है कि बीस अखबार होना कोई बुरी बात नहीं है। क्योंकि भारत की तरह असम में भी विभिन्न समुदायों के लोग रहते हैं। उनके विभिन्न दृष्टिकोण हैं। जिस तरह राजनीति में विभिन्न राजनीतिक पार्टियां अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं उसी तरह मीडिया में विभिन्न अखबार भी बने रहें तो क्या आपत्ति है। लेकिन सवाल है कि ये बीस अखबार क्या बीस दृष्टिकोण लेकर चल रहे हैं? क्या किसी एक सवाल पर इन अखबारों में बीस अलग-अलग पहलू निकलकर आते हैं? 

अफसोस की बात यही है कि ये बीस अखबार मिलकर एक अखबार का ही काम कर रहे हैं। असम में ऐसे लोग कम ही हैं जो किसी एक विषय पर अपनी सुचिंतित राय रखते हों। इसलिए अधिकांश अखबारों के संपादकीय पृष्ठों तक जाने की जरूरत ही नहीं होती। ये बीस अखबार मिलकर किसी एक भीड़ की तरह काम करते हैं। बातचीत के दौरान एक मित्र ने आरोप लगाया कि हाल ही में उभर कर आया एक "मसीहा' मीडिया की ही उपज है। हमने मित्र को समझाया कि हमारे यहां मीडिया कोई ऐसी चीज नहीं है जो अपने विवेक से निर्णय लेता हो। या जिसके कामों के पीछे कोई पूर्व परिकल्पना हो। यह एक भीड़ की तरह काम करता है। मान लीजिए किसी चौराहे पर कोई एक व्यक्ति कोई हंगामा कर रहा है या कोई हैरतअंगेज हरकत कर रहा है। वहां हमारे जैसे आते-जाने लोग उत्सुकतावश खड़े हो जाएंगे। यदि हंगामा दिलचस्प हुआ तो वहां काफी देर तक रहेंगे। और न हुआ तो आगे अपने काम के लिए निकल जाएंगे। अब हो सकता है कोई आरोप लगाए कि रास्ते पर आने-जाने वाले इन लोगों ने इस हंगामा खड़ा करने वाले की औकात इतनी बढ़ा दी है। लेकिन रास्ते पर गुजरने वाले लोगों ने सिर्फ अपने स्वभाव के अनुकूूल काम किया है। उसके काम के पीछे कोई योजना नहीं है।

यही बात हमारे आज के मीडिया पर लागू होती है। कहीं भी कोई हंगामा खड़ा हो जाए तो वहां मीडिया पहुंचकर उस घटना के महत्व को बढ़ाने में अनजाने में लग जाता है। इसके पीछे कोई योजना नहीं होती। वह एक भीड़ की मानसिकता से काम करता है। भीड़ किसी भी घटना की तह में जाने की कोशिश नहीं करती। यदि मारो-मारो कहकर किसी व्यक्ति को दो-चार लोग पीटने लग जाएं तो बाकी भीड़ भी उसे पीटने पर उतारू हो जाती है। वह उन शुरू में पीटने वाले लोगों की बात पर विश्वास कर लेती है कि पिटने वाला व्यक्ति चोर है।

मीडिया की इस मानसिकता का लाभ कई शातिर दिमाग वालों ने उठाया है। अपने प्रतिद्वंद्वी को फंसाने के लिए उसके विरुद्ध किसी तरह का आपराधिक मामला दायर कीजिए और इसके बाद मीडिया के अपने मित्रों को बुला लीजिए। अपने प्रतिद्वंद्वी को आप बदनाम तो कर ही देंगे साथ ही भविष्य में उसे तंग न करने की एवज में मोटी राशि भी ऐंठ सकते हैं। अधिकांश संवाददाता आज भी यह सोचते हैं कि थाने में रपट का होना ही किसी के विरुद्ध कुछ भी लिखने की पूरी आजादी दे देता है। इसका एक दूसरा रूप भी है। मान लीजिए किसी अस्पताल में किसी की अस्वाभाविक मौत हो गई। आप उस अस्पताल पर इलाज में लापरवाही बरतने का आरोप लगाते हुए वहां जाकर हंगामा कीजिए, साथ ही मीडिया के अपने मित्रों को बुला लीजिए, कैमरों के सामने कुछ तोड़-फोड़ कीजिए। मीडिया वालों के जाने के बाद आप अस्पताल के मालिकों के साथ मोटी रकम का लेन-देन कर सकते हैं। हमारे राज्य में यह एक अचूक नुस्खा है और मीडिया के सहयोग से भयादोहन एक कुटीर उद्योग का रूप लेता जा रहा है।

रोज एक "मसीहा' बनाने का आरोप लगाने वाले मित्र के सामने हमने अरविंद केजड़ीवाल का उदाहरण रखा। कल तक उसे मीडिया की उपज कहा जा रहा था। लेकिन अब जब वे दो सप्ताह तक अनशन पर बैठे रहे तो वही मीडिया कहां गायब हो गया। क्या मीडिया ने आपस में कोई मंत्रणा कर ली कि अब इस "मसीहा' को आगे नहीं दिखाना है। दरअसल इसका कारण है मीडिया की भीड़ मनोवृत्ति। कल तक केजड़ीवाल के तमाशे में रस मिल रहा था। इसे मीडिया वाले न्यूज वैल्यू कहते हैं। आज वह रस खत्म हो गया तो मीडिया भी मोदी बनाम राहुल के बेमतलब विमर्श में व्यस्त हो गया। दो सप्ताह तक अन्न-जल छोड़ने वाले केजड़ीवाल की ओर उसने झांका तक नहीं।

असम में इतने अखबार निकलते हैं लेकिन किसी भी राजनीतिक या सामाजिक प्रश्न पर किन्हीं दो अखबारों की राय में रत्ती भर भी फर्क नहीं मिलता। मीडिया राह चलतों की भीड़ की तरह उसकी ही ओर आकर्षित हो जाता है जिसके फेफड़े ज्यादा मजबूत होते हैं। जो अधिक ऊंची आवाज में चिल्ला सकते हैं। चीख-पुकार बंद होते ही वह भीड़ के लोगों की तरह अपने दूसरे काम पर निकल पड़ता है।

जहां तक असम के मीडिया की बात है, उसने तो सौ प्रतिशत अपने आपको राजनीतिक रूप से सही-सही कहने की सुरक्षित सीमाओं के बीच कैद कर रखा है। अखबारों पर कोई प्रत्यक्ष दबाव नहीं है लेकिन मीडिया का कुल वातावरण इतनी बौद्धिक धार वाला नहीं है कि वह किसी भी मुद्दे की विभिन्न कोणों से चीरफाड़ कर सके। उसकी इतनी औकात कहां कि वह मसीहा बना सके। वह खुद ही लोगों की नजरों से तेजी से गिर रहा है।
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रविवार, 10 मार्च 2013

क्या है पूर्वोत्तर के 'शोषण' की असली कहानी




 पूर्वोत्तर राज्यों के बारे में यह एक आम धारणा है कि ये राज्य पिछड़े हुए हैं और यदि केंद्र सरकार अधिक आर्थिक सहायता दे तो ये भी अन्य भारतीय राज्यों के समकक्ष पहुंच सकते हैं। पूर्वोत्तर राज्यों के आर्थिक विकास के लक्ष्य को ध्यान में रखकर पिछली केंद्रीय सरकार के समय बनाए गए विजन डाक्यूमेंट 2020 में कहा गया है कि स्वाधीनता के समय ये राज्य काफी समृद्ध थे और बाद में धीरे-धीरे विकास की दौड़ में पिछड़ते गए। 

पूर्वोत्तर के राज्यों की आज जो स्थिति है उसे देखते हुए इन्हें पिछड़ा कहना उचित है और नहीं भी। ये दोनों ही बातें इसलिए सही हैं कि पूर्वोत्तर राज्यों की औसत प्रति व्यक्ति आय 5070 रुपए राष्ट्रीय औसत प्रति व्यक्ति आय 4485 रुपए से अधिक है कम नहीं। इन राज्यों में गरीबी रेखा से नीचे की आबादी का प्रतिशत (33 फीसदी) राष्ट्रीय प्रतिशत 39 से कम ही है। इसके अलावा विकास को मापने के कई पैमानों पर जैसे साक्षरता या प्रति व्यक्ति बिजली की उपलब्धता जैसे पैमानों पर भी पूर्वोत्तर के राज्य बिहार, झारखंड जैसे राज्यों से आगे हैं पीछे नहीं। 
लेकिन साथ ही इसमें यह भी जोड़ना जरूरी है कि सड़कों की स्थिति, औद्योगिक विकास के लिए जरूरी बुनियादी ढांचे आदि को देखा जाए तो पूर्वोत्तर के राज्य अन्य भारतीय राज्यों की अपेक्षा काफी पीछे हैं। इसके लिए इस इलाके का भूगोल भी जिम्मेवार है। असम और त्रिपुरा का ज्यादातर हिस्सा समतल है, जबकि बाकी पांचों राज्यों (मणिपुर की इंफाल घाटी को छोड़कर) में सिर्फ पहाड़ी इलाका है जहां परंपरागत रूप से आवागमन के कोई साधन नहीं थे। बुनियादी ढांचे के अभाव के कारण यहां निजी पूंजी आकर्षित नहीं हुई और यह इलाका मूलतः कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाला इलाका बनकर रह गया। जाहिर है कृषि में रोजगार उपलब्ध कराने की क्षमता की एक सीमा है। 
पूर्वोत्तर राज्यों के राजनीतिक विमर्श में केंद्र सरकार को गाली देने और भेदभाव का आरोप लगाने का फैशन कभी पुराना नहीं पड़ा। पूर्वोत्तर के राजनेता अपनी जनता के लिए भले कुछ खास नहीं कर पाए हों लेकिन केंद्र पर यह आरोप लगाने में वे कभी पीछे नहीं रहे कि वह इन राज्यों को विकास के लिए समुचित राशि उपलब्ध नहीं कराता। ये आरोप अक्सर वस्तुस्थिति के विपरीत हैं। पांच दशकों से पूर्वोत्तर राज्यों को मिलने वाली प्रति व्यक्ति केंद्रीय सहायता राशि बिहार जैसे गरीब और पिछड़े राज्यों की अपेक्षा काफी अधिक रही है। राष्ट्रीय विकास परिषद ने अपने कुल योजना व्यय की 30 फीसदी राशि इन राज्यों के योजना व्यय में केंद्रीय सहायता के रूप में देने का फैसला कर रखा है। यह राशि अन्य राज्यों को 30 प्रतिशत सहायता और 70 प्रतिशत ऋण के रूप में दी जाती है। जबकि ‘विशेष राज्य’ का दर्जा होने के कारण पूर्वोत्तर राज्यों को 90 प्रतिशत सहायता और 10 प्रतिशत ऋण के रूप में दी जाती है। नब्बे के दशक के आंकड़ों पर नजर डालें तो इस दौरान 60,000 करोड़ रुपए पूर्वोत्तर में ग्रोस फंड ट्रांसफर के रूप में आए जोकि इन राज्यों का आकार और आबादी देखते हुए एक बड़ी राशि है। सवाल है कि इतनी बड़ी राशि आखिर जाती कहां है? पूर्वोत्तर राज्यों के मुख्यमंत्री राज्य की योजना की राशि बढ़वाने के लिए नई दिल्ली का चक्कर लगाने में जरा भी आलस्य नहीं करते, लेकिन दूसरी ओर वे यह सुनिश्चित नहीं करते कि इस राशि का उपयोग अपने-अपने राज्य में सड़क यातायात, बिजली संयंत्र आदि बुनियादी सुविधाओं के निर्माण में हो। नगालैंड और मणिपुर में तो इस राशि का एक बड़ा हिस्सा उग्रवादियों के खजाने में भी चला जाता है। असम के पहाड़ी जिले कार्बी आंग्लोंग और डिमा हासाउ का भी यही हाल है, जहां स्वायत्तशासन की व्यवस्था है। लेकिन यह अलग किस्सा है और कोशिश करने पर इसमें स्थिति सुधर सकती है।

जो बात ज्यादा चिंताजनक है और जहां सुधार के आसार बिल्कुल नजर नहीं आते वह है सभी पहाड़ी राज्यों में सरकारी तंत्र पर अनाप-शनाप खर्च होना। असम को छोड़कर पूर्वोत्तर के अन्य सभी राज्यों की आबादी 8 लाख से तकरीबन 25-30 लाख के बीच है। लेकिन इतनी कम आबादी पर शासन (या कल्याण योजनाएं?) चलाने के लिए इतने अधिक सरकारी कर्मचारी रखे गए हैं कि अन्य राज्य कल्पना भी नहीं कर सकते। यदि एक औसत परिवार पांच लोगों का माना जाए तो हम कह सकते हैं कि नगालैंड में हर तीन परिवारों पर एक सरकारी कर्मचारी नियुक्त है। असम को छोड़कर सभी पूर्वोत्तर राज्यों का यही हाल है। नगालैंड में 17 लोगों पर 1 सरकारी कर्मचारी है, मिजोरम में 20 पर, त्रिपुरा में 29 पर, मणिपुर में 31 पर और अरुणाचल प्रदेश में 37 पर एक सरकारी कर्मचारी है। जबकि करीब तीन करोड़ की आबादी वाले असम में 105 लोगों में से कोई एक ही इतना भाग्यवान है जिसे सरकारी नौकरी मिल पाई है।

असम के दो पहाड़ी जिलों का भी यही हाल है जहां स्वायत्तशासन की व्यवस्था है। यही कारण है कि इन पहाड़ी राज्यों में कोई उद्योग धंधा, व्यवसाय-वाणिज्य नहीं होने के बावजूद जबर्दस्त समृद्धि आई है। क्षेत्र के सबसे बड़े शहर गुवाहाटी के महंगे माल, होटलों, अस्पतालों और स्कूलों में इस धनाढ्य सरकारी अमले की अनुपात से अधिक उपस्थिति सहज ही नजर आ सकती है। यह भारी-भरकम सरकारी अमला संख्या में जितना आगे है, कार्यकुशलता में उतना ही पीछे है। अनावश्यक रूप से सरकार का आकार बढ़ाते जाने का नतीजा यह हुआ है कि नौकरशाही बिल्कुल निकम्मी हो गई है और विकास योजनाओं का पैसा काम में नहीं लग पा रहा है। 

पूर्वोत्तर के पहाड़ी राज्यों के राजनेताओं ने इसे एक सिद्धांत के तौर पर अपना लिया है कि सारी आबादी को रोजगार देने का दायित्व सरकार का है और इसका एकमात्र तरीका सरकारी नौकरियां देना है। बुनियादी ढांचे का विकास कर निजी पूंजी के निवेश का वातावरण बनाना ताकि यहां की अर्थव्यवस्था आगे बढ़े और नए उत्पादक रोजगार उत्पन्न हों – इसे एक फिजूल का विचार मानकर अस्वीकार कर दिया जाता है। आंकड़े दिखाते हैं कि राष्ट्रीय औसत से अधिक केंद्रीय राशि पाने वाले पूर्वोत्तर के राज्यों की वृद्धि दर औसत से कितनी पीछे है। पिछले पांच दशकों में असम का प्रति व्यक्ति शुद्ध राज्य घरेलू उत्पाद (एनएसडीपी) 6288 रुपए था, जबकि राष्ट्रीय औसत 9725 रुपए था। मणिपुर, मेघालय और त्रिपुरा का भी यही हाल था। सिर्फ नगालैंड, अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम के आंकड़े राष्ट्रीय औसत को छूते हुए कुछ आगे निकले हुए हैं। 

पूर्वोत्तर के पहाड़ी राज्यों की अर्थव्य़वस्था सरकारी बजट के इर्द-गिर्द घूमती है। किसी परियोजना के समय पर क्रियान्वयन के द्वारा क्षेत्र के स्थायी विकास को सुनिश्चित करने की बजाय यहां ऐसी परियोजना को एक दुधारू गाय समझा जाता है और उसके चार थनों को ठेकेदार, नौकरशाही, राजनेता और उग्रवादी आपस में बांट लेते हैं।

‘विजन 2020’ में कहा गया है कि पूर्वोत्तर राज्यों में विकास के लाभ को निम्नतम स्तर तक पहुंचाने के लिए ‘कोई एक हरित क्रांति’ की जरूरत होगी। हजारों गहरे नलकूप बैठाकर धान की खेती का नवीकरण, छोटे चाय के खेत, रबर की खेती जैसे अभिनव कदमों से उपजाऊ जमीन वाले असम प्रदेश में जहां इस तरह की हरित क्रांति के लाने के कुछ प्रयत्न हुए हैं, वहीं पूर्वोत्तर के पहाड़ी प्रदेश अब तक इस तरह के कृषि आधारित विकास से कोसों दूर हैं।

शुक्रवार, 1 मार्च 2013

थाईलैंड यात्रा : कुछ बिखरे विचार


किसी भी चीज को देखने के लिए एक निश्चित दूरी का होना बहुत जरूरी है| मान लीजिए आपको मैं एक कलम दिखाता हूं और आपकी आंखों के बिल्कुल पास ले जाकर पूछता हूं कि बताएं कि यह किसी कंपनी का कलम है| निश्चित है कि आप कंपनी का नाम पढ़ नहीं पाएंगे| यही बात देश पर भी लागू होती है| जब आप देश के अंदर होते हैं तो बहुत सारी बातें आपकी नजरों में नहीं आतीं| आप उन्हें रोजमर्रा की बातें मानकर उनकी ओर ध्यान नहीं देते| लेकिन जब आप देश से थोड़ी दूर चले जाते हैं तो विभिन्न देशों के लोगों के बीच भारतवासियों को देखकर उनकी खूबियों और खामियों का आपको पता चलता है| मसलन, भारतीय हर कहीं कतार को तोड़ता हुआ और दूसरों को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की तिकड़म करता हुआ मिलेगा| इस बात से भारतीय हर कहीं सहज ही पहचान में आ जाता है| यह बात भारत में रहते हुए जितनी नहीं कचोटती विदेश जाने पर विभिन्न देशों के नागरिकों के बीच सिर्फ भारतीयों को ऐसा करते हुए देखकर ज्यादा कचोटती है| 

थाइलैंड में वैसे तो हमारी त्वचा का रंग देखकर ही वहां के लोगों को समझ में आ जाता है कि हम भारत से हैं| उनकी भाषा के दूसरे शब्द भले समझ में न आए लेकिन इंडिया शब्द समझ में आ ही जाता है और हम समझ जाते हैं कि वे हमारे बारे में ही बात कर रहे हैं| भारतवासी को थाई भाषा में साओ इंडिया कहते हैं| जापानियों का समय अनुशासन काफी प्रसिद्ध है| लेकिन थाइलैंड में देखा कि थाई लोग समय के अनुशासन में किसी से पीछे नहीं हैं| पिछली बार जब मेरे कारण एक मिनी बस वाले को विलंब हो गया तो वह अपनी कंपनी के मैनेजर से थाई भाषा में बात कर देर होने की कैफियत दे रहा था| बार-बार इंडिया शब्द आने के कारण हमने अनुमान लगाया कि वह यह कह रहा होगा इन दो इंडियनों के कारण देर हो गई - आप तो जानते ही हैं ये लोग लेट करते ही हैं| मिनी बस में सिर्फ मैं और मेरा मित्र भी भारत से थे| हमारे कारण सभी को आधा घंटे की देर हो गई थी|

वहां जब कोई पूछता है कि आप कहां से हैं और हम कहते हैं इंडिया से तो उसकी प्रतिक्रिया आम तौर यही होती ‘ओ, इंडिया इज ए बिग कंट्री’| शुरू में अच्छा लगता है लेकिन जब बाद में देखते हैं कि सभी यही बात कहते हैं और कोई भी भारत की दूसरी किसी खूबी की प्रशंसा नहीं करता तो लगता है उनके दिल में भारत के लिए कोई खास सम्मान नहीं है| जबकि हम उम्मीद करते हैं कि एक बौद्ध धर्मावलंबी देश होने के नाते भारत के प्रति उनका विशेष लगाव होना चाहिए था| लेकिन वैसा कोई लगाव उनकी देहभाषा से से प्रकट नहीं होता| भारत की बनिस्पत कोरियन पर्यटकों का थाई दुकानदारों की नजर में विशेष सम्मान होता है| कोरिया एक बौद्ध धर्मावलंबी धनी देश है और वहां की मुद्रा थाई मुद्रा बाट की तुलना में काफी मजबूत है| इसलिए हवाई अड्डे पर लौट रही कोरियाई युवतियों के बैग थाई सामानों से पटे रहते हैं| भारतीयों की रुचि सिर्फ उन्हीं चीजों में रहती है जिनकी कीमत भारत की बनिस्पत वहां काफी कम है| मसलन फ्लैट टीवी और लैपटाप|

थाईलैंड की आर्थिक प्रगति को कोई भी नजरंदाज नहीं कर सकता| माना कि थाईलैंड को कभी उपनिवेश नहीं बनना पड़ा जबकि इसके पड़ोसी बर्मा, मलेशिया और सिंगापुर सभी विदेशी शासन के अधीन रहे| लेकिन फिर भी भारत के असम की तरह ही थाईलैंड को भी कई बार बर्मी हमलावरों ने तहस-नहस किया| आर्थिक प्रगति का अनुमान लगाने के लिए यह उल्लेखनीय है कि सड़कों पर खोमचे वाले भी बड़ी शान से अपना व्यवसाय करते हैं और उनके वहां रहने के नियम बने हुए हैं| एक निश्‍चित समय पर वे आते हैं और रात को निश्‍चित समय पर अपना सामान छोटी ट्रकों में लादकर चले जाते हैं| पुलिस के साथ आंखमिचौली का खेल वहां देखने को नहीं मिला| हर दो में से एक खोमचा किसी महिला का है| हर खोमचा एक मोटरसाइकिल से जुड़ा है जिसकी सीट पर बैठकर उसका मालिक व्यवसाय करता है और काम हो जाने के बाद मोटरसाइकिल को चलाकर अपने घर चला जाता है| इन खोमचों पर जूस, समुद्री खाद्य, ड्रिंक्स या काफी मिलती हैजो एक अनुमान के अनुसार शाम तक अच्छा-खासा व्यवसाय कर लेते हैं| कहने का तात्पर्य यह कि कम-से-कम शहरों में वहां भारत की तरह घोर गरीबी देखने को नहीं मिलती|

एक शहर से दूसरे शहर जाएं तो राजमार्ग के दोनों ओर भूमि के बड़े-बड़े खंडों पर कोरियाई और जापानी कंपनियों के कारखाने दिखाई देते हैं| लगता है थाई सरकार ने इन कंपनियों को उद्योग लगाने के लिए ये भूखंड उपलब्ध कराए हैं| बिजली की आपूर्ति को भी कभी ठप होते नहीं देखा| थाईलैंड का आर्थिक विकास मात्र पिछले तीन दशकों की कहानी है| विदेशी पूंजी और आधुनिक तकनीक - ये दो ही कारक इसके पीछे समझ में आए| आधुनिक विकास की कुंजी पूंजी, बिजली और आधुनिक तकनीक है - इस मंत्र को हृदयंगम करके थाईलैंड ने ऊंची विकास दर हासिल की जिसके नतीजे अब किसी सैलानी की आंखों से भी छुपे नहीं छुपते| 


पर्यटक कैसे-कैसे

थाईलैंड ने पर्यटन के क्षेत्र में चौंकाने वाले नतीजे हासिल किए हैं| इसकी सकल विकास दर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा आज पर्यटन से आता है| आज सारे विश्‍व का पर्यटक थाईलैंड आता है और इसकी आर्थिक उन्नति में अपना योगदान देता है| अलग-अलग देशों के पर्यटकों को देखना मुझे किसी प्राकृतिक दृश्य की छटा को देखने से ज्यादा मजेदार लगा| यूरोपियन देशों के पर्यटक मुख्यतः सेक्स, सस्ती शराब और खाने के लिए थाईलैंड का रुख करते हैं| चीनी पर्यटक बड़े-बड़े झुंड में पर्यटन के लिए निकलते हैं| ऐसे समूह में बड़े-बूढ़े भी होते हैं, युवक-युवतियां होते हैं और बच्चे भी होते हैं| इनकी रुचि यूरोपियन पर्यटकों से भिन्न होती है| बहुत कुछ भारतीयों से मिलती-जुलती| ये लोग प्राकृतिक दृश्यों का मजा लेते हैं और तस्वीरें खींचते हैं| भाषा की समस्या चीनी पर्यटकों के लिए एक बड़ी समस्या होती है इसीलिए वे कदाचित ही अपने समूह से बाहर निकलते हैं| वैसे भी थाईलैंड में अंग्रेजी के ज्ञान के स्तर की यदि भारत से तुलना करें तो वह काफी नीचे है| विदेशी लोग जिन इलाकों में रहते हैं वहां से यदि आप बाहर निकल आएं तो भाषा आपके लिए एक बड़ी समस्या बन जाती है| फिर भी लगभग हर थाई नागरिक अंग्रेजी के बुनियादी शब्दों से परिचित होता है इसलिए काम चल जाता है| ऐसा इसलिए है कि अंग्रेजों का उपनिवेश नहीं होने के बावजूद थाईलैंड में अंग्रेजी एक विषय के रूप में पढ़ाई जाती है| 


साफ-सफाई 

थाई लोगों का सफाई प्रेम सहज ही आंखों को आकर्षित करता है| भारत के सार्वजनिक स्थानों से थाईलैंड की साफ-सफाई की तुलना ही नहीं है| साफ-सफाई के प्रति एक तरह से पूरा थाई राष्ट्र समर्पित है| वहां के सार्वजनिक स्थल भी इतने साफ-सुथरे रहते हैं कि भारत में बहुतों के घर और दफ्तर भी नहीं रहते| सार्वजनिक स्थलों की सफाई के बारे में एक घटना का उल्लेक करना चाहूंगा| मेरे होटल की खिड़की से पास के स्काईट्रेन (खंभों के ऊपर से होते हुए शहर के बीच से गुजरने वाली ट्रेन) का स्टेशन साफ नजर आता था| सुबह-सुबह देखा कि एक महिला स्टेशन की सीढ़ियों और रैलिंग पर रगड़-रगड़ कर हाथ से पोंछा लगा रही है| इस तरह हाथ से एक सार्वजनिक स्थल पर पोंछा लगाना देखना एक भारतीय के लिए हैरत में डालने वाली घटना थी| क्योंकि हमारे यहां भी सफाई कर्मचारी पोंछा लगाते हैं लेकिन स्टेशनों की रैलिंग आदि को हाथ से साफ करते कभी नहीं देखा| सफाई के प्रति प्रेम के कारण ही वहां कई तरह के झाड़ू मिलते हैं जिनसे आप कम मेहनत और समय खर्च कर ज्यादा सफाई कर सकते हैं| इन तरह-तरह के झाड़ुओं तथा सफाई करने के अन्य उपकरणों को अपनी ट्राली पर लादकर बेचने वाले आपको बैंकोक शहर में आसानी से नजर आ जाएंगे| ये लोग अपने सामान बेचने के लिए छोटे लाउड स्पीकर का इस्तेमाल करते हैं| लाउडस्पीकर की बात चली तो यह भी बता दें कि बैंकोक में कई भिखारियों को भी लाउड स्पीकर पर गाना गाकर भीख मांगते देखा था| हालांकि वहां भिखारियों की संख्या नगण्य थी|