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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

शनिवार, 25 अगस्त 2012

असम की चिट्ठी

 असम में ईद ठीकठाक ढंग से बीत जाने पर देश भर में लोगों ने राहत की सांस ली है। लेकिन असम से ज्यादा दक्षिण भारत और महाराष्ट्र को लेकर ज्यादा चिंता थी क्योंकि धमकी भरे असएमएस बेंगलुरू और पुणे में ही दिए गए थे। पूर्वोत्तर से वहां गए प्रवासी इसीलिए वहां से भाग आए थे। पहले ही इस बात का अहसास था कि यह एक हौवा है, ईद आएगी और चली जाएगी और कुछ होगी नहीं। क्योंकि भारत में हिंसा पहले से कहकर नहीं आती। वह जब आती है तो बिना किसी पूर्व सूचना के आती है। लेकिन पूर्वोत्तर के लोगों के भागने की घटना ने असम को देश के एजेंडा में सबसे ऊपर रख दिया है। दो साल बाद होने वाले लोकसभा चुनावों पर भी असम की घटनाओं का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहेगा। इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है जब असम और पूर्वोत्तर पर देश का इतना ज्यादा ध्यान गया है। यदि यह ध्यान सुचिंतित समाधानों की ओर बढ़ता है तो इसे एक सकारात्मक घटना माना जाएगा। लेकिन देखा जा रहा है कि राजनीतिक दल चीजों को सिर्फ सतही ढंग से देखने में व्यस्त हैं, इसलिए आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि असम की समस्या पहले की अपेक्षा ज्यादा उलझ जाए। इससे पहले भी हमने लिखा था कि असम आंदोलन के दौरान आसू तथा असम गण संग्राम परिषद ने कुछ समूहों को भारत की विभिन्न दिशाओं में यह बताने के लिए भेजा था कि असम की वास्तविक समस्या क्या है। क्यों देश को असम की समस्या पर ध्यान देना चाहिए और किस तरह यह समस्या आने वाले कल को सारे देश को अपने आगोश में ले लेगी। 1980 में जो भविष्यवाणी की गई थी वह आज सच साबित हो रही है। विश्लेषण हमेशा गलत साबित नहीं होते, यह अलग बात है कि कई बार वे उससे ज्यादा वक्त ले लेते हैं जितने का अनुमान किया जाता है। अब एक बार फिर समय आ गया है कि असम की समस्या के बारे में ठीक-ठीक और बिना राजनीतिक रंग वाली जानकारी देने के लिए बुद्धिजीवी देश के दूसरे हिस्सों में जाएं और बताएं कि असम की समस्या का हल क्यों बाकी देश के भी हित में है। 

1980 में इंटरनेट नहीं था, आज इंटरनेट है। अखिल असम छात्र संघ और पूर्वोत्तर छात्र संगठन अपनी एक वेबसाइट खोलकर समस्या पर अपने नजरिए को इस पर डाल सकते हैं। 1980 में असम और पूर्वोत्तर के बारे में अंग्रेजी में भी नगण्य सामग्री उपलब्ध थी। किसी पत्रिका में कुछ निकलता था तो हम उसे चाट जाते थे। आज अंग्रेजी में काफी सामग्री और पुस्तकें उपलब्ध हैं। लेकिन हिंदी तथा अन्य भाषाओं में आज भी स्थिति दरिद्रता की है। आश्चर्य ही क्या कि हिंदी पट्टी के पत्रकारों-बुद्धिजीवियों का असम-विवेचन कई बार हास्तास्पदता की सामाएं छूता है।

कर्नाटक और महाराष्ट्र सरकार ने पूर्वोत्तर वासियों को वहां से भागने से रोकने के लिए जो प्रयास किए वे आंखें खोलने वाले हैं। खासकर पूर्वोत्तर के राजनीतिज्ञ तो इस जन्म में कभी वह सब नहीं कर सकते जो कर्नाटक सरकार ने किया है। पूर्वोत्तर में बाहरी राज्यों से काफी लोग आकर बसे हुए हैं, जबकि दो दशक पहले तक पूर्वोत्तर से कोई इक्का-दुक्का लोग ही बाहर जाते थे। स्थायी रूप से बसने के लिए तो कोई नहीं जाता था। अब दो दशकों से पढ़ाई के लिए जो लोग जाते हैं उनमें से बहुतेरे वहीं नौकरी करने लग जाते हैं। बाहरी राज्यों से पूर्वोत्तर में बसे लोगों को कभी अच्छी नजर से नहीं देखा गया। हो सकता है व्यक्तिगत स्तर पर किसी को कोई असुविधा नहीं हुई हो, लेकिन एक समूह के रूप में बाहरी राज्यों से आए लोगों के लिए समाचारपत्रों में खुले रूप में आज भी तिरस्कारपूर्ण शब्दों के इस्तेमाल को एक सामान्य बात माना जाता है। कई जगह इस तरह की पंक्तियां पढ़ने को मिल जाती हैं कि "असम एक चरागाह है जहां ये लोग चरने आ जाते हैं।'

आज जब हम देखते हैं कि एक राज्य का उप-मुख्यमंत्री असम सिर्फ इसलिए आता है कि उनके राज्य की राजधानी से भागकर आए लोगों को सुरक्षा का आश्वासन दिया जा सके। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रियायती दर पर हवाई जहाज उपलब्ध कराने की पेशकश करते हैं। घटनाएं घटती हैं और दिन गुजरने के साथ भुला दी जाती हैं या लोग सोचते हैं कि भुला दी जाती होंगी। लेकिन क्या सचमुच घटनाएं भुला दी जाती हैं। एक-एक घटना एक-एक समुदाय की विश्व दृष्टि यानी चीजों के प्रति नजरिए को बदलने वाली होती है। सिर्फ उन लोगों के लिए नहीं जिन्होंने उन घटनाओं को देखा और भोगा है। बल्कि उनकी आने वाली पीढ़ियां भी उन घटनाओं की छोटी से छोटी तफसील, उन घटनाओं से पैदा हुए "ज्ञान' को ग्रहण करते हुए बड़ी होती हैं। ऐसी घटनाओं के समय विभिन्न लोगों - पड़ोसियों, शहरवासियों, सरकारों - द्वारा दिखाए गए आचरण को वे भविष्य में एक कसौटी के रूप में इस्तेमाल करते हैं। तभी तो असमवासी 1962 के ीचन युद्ध के समय पंडित नेहरू के कहे शब्दों को आज भी याद करते हैं। नगा युवा अपने बुजुर्गों से खोनोमा गांव के कत्लेआम की कहानियां सुनकर बड़ा होता है।

कर्नाटक और महाराष्ट्र की सरकारों ने अपने शहरों में रहने वाले प्रवासियों के प्रति जो संवेदनशीलता दिखाई है वह भविष्य के लिए एक नजीर बन जाएगी। "हिंदुस्तान एक है यहां हर कहीं हर किसी को रहने का हक है।' बेंगलुरु स्टेशन पर खड़े एक पूर्वोत्तरवासी को टीवी कैमरा के सामने यह नारा लगाते सुनना सुखद लगा था। इस नारे की प्रतिध्वनि हो सकता है भविष्य में पूर्वोत्तर में भी सुनाई दे। हो सकता है कभी यह भाव भी जाग्रत हो कि जब समय की मांग हुई थी तब हमने इस वाक्य के मर्म को अपने राज्य में लागू नहीं किया था।

शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

असम को लेकर अज्ञान

शुक्र है कि असम में ईद का त्योहार ठीक-ठाक गुजर गया, लेकिन वहां की हिंसा के संदर्भ में जो चीज सबसे ज्यादा आश्चर्य में डालने वाली है, वह है राज्य से बाहर के लोगों में असम के बारे में कुछ भी न सीखने की जिद। अब भले ही वह लालकृष्ण आडवाणी जैसे पूर्व उप प्रधानमंत्री हों, या चौबीसों घंटे चलने वाले खबरिया चैनल, हिंदी के राष्ट्रीय अखबार हों या देश का उर्दू मीडिया। ऐसा लगता है कि किसी की भी मामले की तह तक पहुंचने में कोई रुचि नहीं है, लेकिन हर कोई इस हिंसा में से अपनी पसंद का कोई एक पहलू छांट कर उसकी ढोल पीटना चाहता है।

भारतीय बनाम बांग्लादेशी

श्री आडवाणी ने कोकराझाड़ की हिंसा को 'भारतीय बनाम बांग्लादेशी' की लड़ाई के फारमूले में ढाल कर इसका पॉलिटिकल माइलेज लेने की कोशिश की। लेकिन उन्होंने यह सोचने की कोशिश नहीं की कि उन्हीं के गृह मंत्री रहते 2003 में हुए बोड़ो समझौते के तहत उग्रवादियों से सारे हथियार वापस क्यों नहीं लिए गए थे। और यह इलाका आज भी अपराधियों का स्वर्ग क्यों बना हुआ है कि पुलिस भी कोई कार्रवाई करने में हिचकती है।

उर्दू अखबारों और मुस्लिम संगठनों को मुख्यमंत्री पद की बलि चाहिए, इससे कम कुछ नहीं। उनके लिए एक बिकाऊ फार्मूला है -तरुण गोगोई की तुलना नरेंद्र मोदी से करना। वे कहते हैं कि चूंकि बोड़ो स्वायत्त इलाके में राज कर रहे बोड़ो पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) के साथ प्रदेश में कांग्रेस ने गठजोड़ कर रखा है, इसलिए राज्य सरकार अपनी भागीदार पार्टी के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं कर सकती। उर्दू मीडिया के ये विश्लेषक इस तथ्य पर गौर नहीं करना चाहते कि असम में कांग्रेस का बीपीएफ के साथ गठजोड़ तो है, लेकिन सत्ता में बने रहने के लिए कांग्रेस किसी भी अन्य पार्टी पर निर्भर नहीं है। इसके अलावा, कांग्रेस और बीपीएफ के इस गठजोड़ के बावजूद बीपीएफ अपने प्रभाव वाले इलाके में कांग्रेस के लिए एक भी सीट नहीं छोड़ती।

राज्य की मांग का विरोध


असम की घटनाओं को सतही ढंग से देखने वालों को मालूम नहीं है कि बोड़ो स्वायत्त इलाके में तीन-चार महीने पहले से ही गैर बोड़ो समुदायों ने अपना एक संगठन बनाकर आंदोलन छेड़ रखा था। यह आंदोलन बोड़ो स्वायत्त इलाके में बढ़ रहे अपहरण और धन वसूली जैसे अपराधों के विरुद्ध था। इन समुदायों की सम्मिलित आबादी बोड़ो स्वायत्त इलाके में 70 फीसदी तक है। ये समुदाय अलग बोड़ोलैंड राज्य की मांग का भी विरोध करते रहे हैं। पिछली जुलाई में इन लोगों ने अपनी इन मांगों को ले कर गुवाहाटी में राजभवन के सामने प्रदर्शन भी किया था। लेकिन अलग बोड़ोलैंड राज्य की मांग का विरोध किसी भी बोड़ो संगठन या राजनीतिक पार्टी को रास नहीं आया और इसने गैर बोड़ो आबादी के लिए उनके मन में बसी नफरत के लिए आग में घी का काम किया।

बोड़ो स्वायत्त क्षेत्र के गैर बोड़ो समुदायों की आबादी में अच्छा-खासा हिस्सा मुसलमानों का है। इन मुसलमानों कोआम बोलचाल में बांग्लादेशी कह दिया जाता है। यह बात इस मायने में सही है कि ये सभी मूल रूप से वहां के हैंजिसे आज बांग्लादेश कहा जाता है। और यह इस मायने में गलत है कि ये सभी बांग्लादेशी घुसपैठिए नहीं हैं।इनका असम में आना उस समय से जारी है, जब आज का बांग्लादेश अविभाजित भारत का हिस्सा था। वे पश्चिमबंगाल और त्रिपुरा में भी इसी तरह आते रहे हैं। इस संबंध में असम के लोगों का केंद्र सरकार के साथ यह समझौताहुआ है कि मार्च 1971 तक आए लोगों को भारतीय नागरिक मान लिया जाएगा। आज असम की आबादी में 30फीसदी से अधिक मुसलमान हैं। इनमें बहुत छोटा-सा हिस्सा असमिया भाषी मुसलमानों का है, बाकी सभीबांग्लाभाषी मुसलमान हैं। इन बांग्लाभाषी मुसलमानों में अवैध घुसपैठिए नहीं होंगे, यह नहीं कहा जा सकता।

जब बोड़ो स्वायत्त क्षेत्र में रहने वाले गैर बोड़ो लोगों की ओर से यह चुनौती मिलने लगी कि सिर्फ 30 फीसदी बोड़ोआबादी 70 फीसदी आबादी पर अपना राज कैसे चला सकती है, तो बोड़ो समुदाय ने इसका आसान-सा उत्तरखोजा। 21 जुलाई से मुसलमानों को उनके गांवों से खदेड़ना ही वह उत्तर था जो बोड़ो समुदाय ने उनके वर्चस्व कोचुनौती देने वाले मुसलमानों को दिया है। हालांकि सरकारी दस्तावेजों में 2003 के बाद से बीएलटी नामक संगठनका कोई अस्तित्व नहीं है और इसके सदस्य रहे लोगों के पास कोई हथियार भी नहीं है। लेकिन सचाई यह है किहथियारबंद पूर्व बीएलटी के सदस्य इस बोड़ो स्वायत्त क्षेत्र में आतंक का पर्याय बने हुए हैं। बोड़ो स्वायत्त क्षेत्र में जोकुछ हुआ है, उसके छोटे-छोटे संस्करण असम के पड़ोसी राज्यों में भी यदा-कदा घटित होते रहे हैं। इन राज्यों केबाशिंदों को हमेशा यह खतरा दिखाई देता है कि अस्थायी रूप से आए ये मजदूर यहां-वहां खाली पड़ी जमीन परअपना बसेरा बना लेंगे और बाद में इन्हें वापस करना मुश्किल हो जाएगा।

नागरिकों की पहचान

असम में नागरिकों की पहचान का कोई सर्वमान्य तरीका नहीं होने के कारण सारे बांग्लाभाषी मुसलमानों कोइसका खामियाजा उठाना पड़ता है। इसका एकमात्र हल यह है कि नागरिकों का एक राष्ट्रीय रजिस्टर बनाया जाए,जिसमें सभी भारतीय नागरिकों के नाम हों। किसे भारतीय नागरिक माना जाएगा और यह रजिस्टर कैसे बनेगा,इस पर काफी वाद-विवाद के बाद सभी पक्षों के बीच सहमति बन चुकी है। लेकिन फिर भी यह रजिस्टर सिर्फप्रशासनिक बहानेबाजियों के कारण नहीं बन पा रहा है। नकारात्मक भविष्यवाणी करना अच्छा नहीं लगता, फिरभी कहना पड़ता है कि जब तक यह रजिस्टर नहीं बन जाता, तब तक यह हिंसा बार-बार सिर उठाती रहेगी।

 (22 अगस्त को नवभारत टाइम्स में प्रकाशित)

बुधवार, 8 अगस्त 2012

बांग्लादेशी घुसपैठियों की समस्या का समाधान संभव है

असम अब दिल्ली से दूर नहीं रहा। अब तक जो मानसिक दूरी थी वह लगता है खत्म होती जा रही है। यह बात पिछली दो घटनाओं से प्रमाणित हो गई। एक तो जीएस रोड कांड की अनुगूंज जिस तरह सारे देश में सुनाई दी उससे एक बार तो असम के लोग भौचक्के रह गए। आदत से मजबूर कुछ लोगों ने इसमें भी साजिश खोजने की कोशिश की। ऐसे लोगों ने अब तक सोशल नेटवर्किंग, यू ट्यूब और इलेक्ट्रानिक मीडिया के द्वारा लाए गए परिवर्तन को आत्मसात नहीं किया है। दिल्ली का पत्रकार जब असम के बारे में बोलता है तो ऐसे लोगों को अटपटा लगता है। अभी आदत नहीं हुई है। दूसरी घटना है - कोकराझाड़ की हिंसा। यह घटना तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गूंजी है। कोई यह सोचता है कि मरने वालों की संख्या के कारण मीडिया का ध्यान आकृष्ट हुआ है तो वह गलत है। क्योंकि बोड़ो इलाके में समय-समय पर हिंसा भड़कती रहती है। सबसे ताजा हिंसा 2008 में भड़की थी, तब अभी की तुलना में कहीं ज्यादा लोग मारे गए थे। लेकिन राष्ट्रीय मीडिया ने इसका नोटिस ही नहीं लिया था। इन चार सालों में ऐसा क्या बदल गया है कि असम की घटनाओं पर मीडिया का पयाप्तर् ध्यान जाने लगा है। हमें लगता है कि यह इंटरनेट के प्रभाव के कारण है, हालांकि इस पर और अधिक चिंतन की गुंजाइश है।

जब बांग्लादेशी घुसपैठियों के खिलाफ आंदोलन चला था (1979 से 1985 तक, इसे असम आंदोलन कहा गया), तो आंदोलन के नेताओं को इस बात पर कोफ्त होती थी कि इतने बड़े-व्यापक आंदोलन के बारे में, असम के बाहर कोई जानता तक नहीं। पिछले साल अन्ना के आंदोलन को जो जनसमर्थन मिला था उससे कई गुना ज्यादा समर्थन उस आंदोलन को मिला था। तब आंदोलन के नेताओं ने छोटी-छोटी टीमें बनाईं जिनमें हिंदी और अंग्रेजी जानने वाले लोगों को रखा गया। इन टीमों का काम था राज्य के बाहर जाकर पत्रकारों से बातचीत कर उन्हें असम में होने वाली बांग्लादेशी घुसपैठ के बारे में बताना, तथा यह भी साफ करना कि असम आंदोलन अन्य राज्यों से आए भारतवासियों के खिलाफ नहीं है। एक तरह से असम से बाहर असम के बारे में फैले अज्ञान के कारण भी असम के लोगों में यह भावना भर गई कि हमें तो कोई पूछता ही नहीं। जो भी हो, हम इस तथ्य पर ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं कि जिस बांग्लादेशी घुसपैठ पर असमवासियों ने बाकी देशवासियों का ध्यान आकर्षित करने के लिए इतनी ज्यादा मेहनत की थी, वह मुद्दा इस बार कोकराझाड़ की हिंसा के बाद एकाएक चर्चा का विषय बन गया।

राष्ट्रीय मीडिया पर बांग्लादेशी घुसपैठ के मुद्दे पर आज भी चर्चा हो रही है, लेकिन इस चर्चा में गहराई नहीं है। ज्यादातर यह चर्चा मुस्लिम विद्वेष से ग्रसित है। कहीं अति सरलीकरण की शिकार है। बोड़ो नेता काफी हद तक मीडिया से इस मायने में फायदा उठाने में कामयाब रहे कि उन्होंने ताजा हिंसा को बांग्लादेशी बनाम बोड़ो हिंसा का जामा पहना दिया और ज्यादातर लोग इसे इसी नजरिए से देखने लग गए। राज्य से बाहर के लोग सोचते हैं कि बांग्लादेश से लोग सीमा पार कर आ रहे हैं और बोड़ो इलाकों में बस रहे हैं, इसके कारण वहां लोगों में गुस्सा और असंतोष फैल रहा था, जो 21 जुलाई से शुरू हुई हिंसा का कारण बना। जबकि उन लोगों को पता नहीं है कि इससे पहले संथाल लोगों को भी इसी तरह बोड़ो इलाकों से भगाया गया था। उन पर तो बांग्लादेशी घुसपैठिया होने का ठप्पा नहीं लगा था। कोकराझाड़ की हिंसा को बोड़ो बनाम बांग्लादेशी का रूप देकर बोड़ो नेतृत्व एक तरह से हिंसा को वैधता प्रदान करने में कामयाब हो गया है। 


कोकराझाड़ हिंसा के कारण ही सही जब बांग्लादेशी घुसपैठ की समस्या राष्ट्रीय चर्चा के केंद्र में आ गई है तो हमें इस अवसर का लाभ उठाते हुए इस पर सुचिंतित तरीके से विचार-विमर्श करना चाहिए और देखना चाहिए कि इसके क्या-क्या संभावित समाधान हो सकते हैं।

1. विदेशी घुसपैठियों की पहचान की जाए, उन्हें वापस सीमा के पार भेजा जाए, इससे भी ज्यादा जरूरी यह है कि नए आने वाले घुसपैठियों को रोका जाए। इसके लिए कोई नया चिंतन, नई बातचीत करने की जरूरत नहीं है। सभी पक्षों के बीच सहमति है कि सीमा पर बाड़ का काम पूरा होना चाहिए। बाड़ लगाने का ज्यादातर काम पूरा हो चुका है और थोड़ा-सा ही काम बचा है। भारत में सरकारी काम किस तरह होता है, उसका एक नमूना है सीमा को सील करने का यह काम। कुछ मित्र बाड़ लगाने के काम के महत्व को यह कहकर कम करना चाहते हैं कि एक दस रुपए के कटर से आप बाड़ काटकर अंदर प्रवेश कर सकते हैं। लेकिन यह सही तर्क नहीं है। हर बाड़ को काटा जा सकता है, हर दीवार में सेंध लगाई जा सकती है, लेकिन फिर भी बाड़ और दीवार के बिना किसी इलाके की चौकीदारी करना और बाड़ या दीवार से घिरे इलाके की चौकीदारी करने में अंतर है।

नए घुसपैठियों को रोकने की दिशा में दूसरा महत्वपूर्ण काम है नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) को अद्यतन करना यानी नए जन्मे नागरिकों के नाम इसमें डालकर इसे एक जीवंत दस्तावेज बनाना। असम में वोटर पहचान पत्र नहीं दिए गए हैं, क्योंकि शक है कि मतदाता सूचियों में काफी विदेशियों के नाम भरे हुए हैं। इसलिए अभी तक कोई ऐसा दस्तावेज नहीं है जिसकी प्रामाणिकता प्रश्नातीत हो। एनआरसी को अद्यतन करने पर भी सभी पक्षों के बीच सहमति है। राज्य के दो राजस्व सर्किल में प्रयोग के तौर पर यह काम शुरू भी किया गया था। लेकिन अल्पसंख्यक समुदाय को इसकी प्रक्रिया पर कुछ आपत्तियां थीं, उन आपत्तियों को दूर नहीं किया गया, उसके विरुद्ध प्रदर्शन हुआ, गोलियां चलीं, कई लोग मारे गए और काम रोक दिया गया। उसके बाद फिर से सभी पक्षों के बीच बैठकों के दौर चले और अब सहमति बन चुकी है कि एनआरसी बनाने का काम फिर से शुरू करना चाहिए। एनआरसी को अद्यतन करना इसलिए जरूरी है कि यह एक आधार बन जाएगा किसी की नागरिकता को प्रमाणित करने के लिए। एनआरसी बनने के बाद किसी भी नए आए विदेशी को पहचानना आसान हो जाएगा। एनआरसी नए आने वाले घुसपैठियों को रोकने का कारगर हथियार बन जाएगा। 

2. असम में इस समय दो तरह के लोग हैं। एक वे हैं जो सोचते हैं कि विदेशियों की पहचान हो जाने के बाद एक न एक दिन उन्हें वापस उनके मूल देश में भेजना संभव हो पाएगा। दूसरा वर्ग ऐसे लोगों का है जो अब तक के घटनाक्रम से निराश हो चुका है और उसे उम्मीद नहीं है कि विदेशियों को कभी वापस भेजना संभव हो पाएगा। दोनों ही नजरिए सही नहीं हैं क्योंकि दोनों ही इस बात को ज्यादा महत्व देते हैं कि जो घुसपैठिए आ गए वे कब वापस बांग्लादेश भेजे जाएंगे।

इक्का-दुक्का लोगों को पकड़ लेना और अदालत की लंबी प्रक्रिया से गुजार कर उन्हें बांग्लादेश के बार्डर गार्ड्‌स की नजरों से बचाकर रात के अंधरे में पुश बैक करना अलग बात है, लेकिन बड़े स्तर पर घुसपैठियों को वापस भेजना दिवास्वप्न के अलावा कुछ नहीं है। इसमें दो बाधाएं हैं - एक तोे लंबी चलने वाली भारतीय न्याय प्रक्रिया और दो, बांग्लादेश सरकार द्वारा भारत से भेजे जाने वाले लोगों को अपने नागरिक के रूप में स्वीकार न किए जाने की संभावना। रोहिंगा मुसलमानों को म्यांमार से अपने देश में घुसने न देने के लिए बांग्लादेश ने जिस कड़ाई का प्रदर्शन किया उससे हमारी इस धारणा को बल मिलता है।

यदि एनआरसी का काम ठीकठाक चलता है और काफी संख्या में बांग्लादेशी घुसपैठियों की पहचान कर ली जाती है तो ज्यादा संभावना है कि वे राज्यविहीन नागरिकों के रूप में हमारे ही देश में रह जाएंगे। ये लोग भारत के नागरिक नहीं होंगे इसलिए नागरिक अधिकारों से वंचित होंगे और चुनाव प्रक्रिया को किसी भी तरह प्रभावित नहीं कर पाएंगे। लेकिन यह भी संभव हो पाएगा क्या इस पर एक बहुत बड़ा प्रश्न चिह्न है। क्योंकि जब दो-तीन लाख लोग एक साथ खड़े हो जाते हैं तो वे अपने-आप में एक बहुत बड़ी राजनीतिक ताकत बन जाते हैं। तब उनकी बात न्यायपूर्ण है या नहीं इससे ज्यादा महत्त्व उनकी संख्या और बाहर से उनको मिलने वाले समर्थन का हो जाता है।

3. असम में पूर्व बंगीय मूल के लोगों से सबसे ज्यादा राजनीतिक रूप से खतरा महसूस किया जा रहा है। स्वाधीनता के बाद से असम में असमिया भाषी समुदाय का राजनीतिक वर्चस्व रहा है। अब इन पूर्व बंगीय मूल के लोगों (जिन्हें लोग बांग्लादेशी कह देते हैं, लेकिन सभी बांग्लादेशी नहीं हैं) के कारण यह वर्चस्व अब टूटा, तब टूटा की स्थिति है। लेकिन इस वर्चस्व को बचाने का बहुत ही आसान-सा उपाय है। 15 अगस्त 1985 को हुए समझौते में केंद्र सरकार ने असम आंदोलन के नेतृत्व को यह आश्वासन दिया था कि असमिया समुदाय की अलग पहचान की रक्षा के लिए संविधान में विशेष व्यवस्था की जाएगी। इस विशेष व्यवस्था का सीधा मतलब है अन्य चीजों के अलावा विधानसभा में असमिया समुदाय के लिए आरक्षण की व्यवस्था। जब यह समझौता हुआ था तब की परिस्थिति में "असमिया' शब्द पर कोई विवाद नहीं था। लेकिन बाद के वर्षों में असम के बोड़ो, कार्बी आदि बहुत से जनजातीय समुदायों ने अपने आपको असमिया मानने से इनकार कर दिया। इसलिए अब मामला यहां अटक गया है कि "असमिया' किसे मानें। केंद्र सरकार ने यह निर्णय करने का दायित्व असम सरकार को सौंप दिया है। यहां फिर उसी भारतीय कार्यपद्धति का रोड़ा सामने आ जाता है। कमेटी पर कमेटी बैठ रही है, असम समझौते पर दस्तखत करने वाले प्रफुल्ल महंत बूढ़े हो गए हैं, भृगु फूकन इस दुनिया में नहीं रहे लेकिन असमिया समुदाय के लिए एक अति महत्वपूर्ण विषय का निपटारा आज तक नहीं हो पाया है। असमिया की परिभाषा में कौन-कौन लोग शामिल होंगे यह आज तक तय नहीं हो पाया है।

शनिवार, 4 अगस्त 2012

इस तरह हुआ जातीय सफाया

"दिन में करीब तीन बजे का समय होगा, वे लोग एक तरफ से आए, उनमें से कुछ के मुंह काले कपड़े से ढंके हुए थे, वे मिलिट्री जैसी पोशाक पहने हुए थे, हाथों में बंदूकें थीं, जिनसे वे गोलियां छोड़ते जा रहे थे। क्या कहा आपने, गोली किसी को लगी क्या...जी मेरे ही पैर के पास से गोली पार हो गई। वे लोग हमारे मवेशियों को मारते जा रहे थे।''

यह कहना है 55 वर्षीय नूर इस्लाम का। नूर इस्लाम धुबड़ी जिले के बिलासीपाड़ा कस्बे के रोकाखाटा हाई स्कूल में लगे राहत शिविर में अपने परिवार तथा अन्य करीब चार हजार लोगों के साथ रुका हुआ है। यह घटना मंगलवार (24 जुलाई) की है। तब तक सेना को नियुक्त नहीं किया गया था। यह बातचीत हम शुक्रवार को कर रहे हैं। चार दिन में ही शिविर में हाल बेहाल है। डिसेंट्री और बुखार की शिकायतें आम हैं। कुछ महिलाएं गर्भवती हैं, तो कुछ की गोद में एक महीने से भी छोटा बच्चा है। सरकार ने चावल, दाल और सरसों तेल भेज दियाहै। बाकी चीजें जैसे जलावन और बच्चों के लिए दूध कहां से आएगा। बिलासीपाड़ा के स्वयंसेवी संगठन, मारवाड़ी व्यवसायियों का संघ ये लोग राहत शिविर वासियों के लिए आगे आए हैं। इस संवाददाता के सामने ही एक आटो से आवश्यक वस्तुएं उतारी जा रही हैं।

""सरकार की ओर सिर्फ एक दिन एक मोबाइल डिस्पेंसरी आई थी। उनके पास सिर्फ नोरफ्लोक्सेसिन टैबलेटें (डिसेंट्री में काम आने वाली दवा) थीं। उनके साथ स्वास्थ्य विभाग के ज्वाइंट डाइरेक्टर थे। हमने कहा कि इस मरीज को सेलाइन चढ़ाने की जरूरत है, तो डाइरेक्टर महोदय ने हमें बुरी तरह डांट दिया और चलते बने। उसके बाद से शिविर की सुध लेने कोई सरकारी नुमाइंदा नहीं आया।''
 


चिरांग जिले के पुरान बिजनी के स्कूल में स्थापित शिविर के बाहर रास्ते पर ही मरीजों को सेलाइन चढ़ाने में मदद करने में व्यस्त जाकिर ये बातें क्षोभ के साथ बताता है। वहां एक पेड़ के नीचे करीब सात-आठ मरीजों का इलाज चल रहा है। एक को छोड़कर बाकी सभी महिलाएं हैं। स्थानीय लोग यहां भी मदद कर रहे हैं। एक निजी प्रैक्टिस करने वाले चिकित्सक अपनी सेवाएं दे रहे हैं। तब तक हमारे पीछे से एक करीब साठ वर्षीय पुरुष को सहारा देकर वहां लाया जाता है। क्या हुआ? ""यहां लगभग सभी को डायरिया हो रहा है। इसमें सेलाइन ही चढ़ानी पड़ती है। टेबलेट से काम नहीं होता। स्थानीय स्वयंसेवी संगठन ने कुछ सेलाइनें खरीद दी हैं,'' इलाज में व्यस्त डाक्टर पेड़ की टहनी से सेलाइन की बोतल लटकाने का प्रयत्न करते हुए धीरज के साथ बताते हैं। ""जल्दी ही बड़े रूप में मदद नहीं आई तो डायरिया कमजोर बच्चों की जान लेने लग जाएगा।''

चिरांग जिले में हिंसा देर से फैली है। ये लोग 25 तारीख से शिविर में हैं। आज 28 है। सरकार के यहां "जल्दी' जैसा कोई शब्द नहीं है। सब कुछ अपनी मस्त सरकारी चाल से होता है। मौतें होंगी और उन पर मीडिया में हो-हल्ला होगा, उसके बाद इलाके में चिकित्सा पहुंचेगी। यह हाल अंदरुनी गांव का नहीं, बिजनी सब-डिवीजन के एसडीओ के दफ्तर से महज तीन किलोमीटर दूरी का है। (4 अगस्त तक शिविरों में कम-से-कम तेरह बच्चों के मारे जाने के समाचार आते हैं। हमें हमारी आशंका सच साबित होने का दुख है।)

बिजनी में आल बीटीसी मुस्लिम छात्र संघ का कार्यकारी अध्यक्ष शाहनवाज प्रामानिक मिल जाता है। यह संगठन इस बार इस फसाद के केंद्र में है। कल तक शाहनवाज नामक यह युवक गैर-बोड़ो समुदायों के साथ भेदभाव का विरोध करने में आगे-आगे चलता था। आज वह खुद अपना घर-खेत छोड़कर एक शिविर में टिका हुआ है। क्या लोग अपने घरों को लौट जाएंगे? शाहनवाज निश्चित तौर पर कुछ नहीं कह पाता। यही सवाल जब कोकराझाड़ जिले से भाग कर आए एक शरणार्थी से बिलासीपाड़ा में किया गया तो वह सिहर उठा। बोला- नहीं, हमें जोर-जबर्दस्ती भेजने पर भी हम नहीं जाएंगे।

हमले में आग्नेयास्त्रों का इस्तेमाल

कोकराझाड़, धुबड़ी और चिरांग जिलों के कई शिविरों में ठहरे भुक्तभोगियों से बात करने के बाद यह कामन पैटर्न उभर कर सामने आता है-(क) हमला लगभग हर जगह दोपहर के बाद किया गया (ख) हमलावर कोई मुंह ढंके हुए था और कोई खुले मुंह (ग) हमलावर बंदूक आदि से लैस थे और बैटल फेटीग पहने थे, (घ) हमलावर लोगों पर सीधे गोलियां चलाने की बजाय दीवारों, मवेशियों पर ज्यादा गोलियां चला रहे थे, (ङ) हमलावरों ने गांववासियों को घेर कर नहीं मारा। हमला लगभग हर जगह एक तरफ से हुआ ताकि दूसरी ओर से गांव वालों के भागने का रास्ता खुला रहे, (च) हमला करने वाले सिर्फ मुसलमानों के घरों को छांट कर उनमें आग लगा रहे थे। किसी भी अन्य समुदाय के गांव या घर पर हमला नहीं हुआ, (छ) लगभग हर जगह यह आरोप सामने आया कि हमला करने वाले पूर्व उग्रवादी संगठन बीएलटी के सदस्य थे। यह उग्रवादी संगठन स्वायत्त बोड़ो क्षेत्र के आंदोलन के नेतृत्व में था और स्वायत्त क्षेत्र के 2003 में गठन के बाद इसका विघटन कर दिया गया। अब बीएलटी के कैडरों को एक्स-बीएलटी कहकर पुकारा जाता है। आरोप लगते रहे हैं कि इन पूर्व उग्रवादियों के पास अब भी हथियार हैं तथा वे इलाके में आतंक का पर्याय हैं।

एक्स-बीएलटी और अलग बोड़ोलैंड की मांग करने वाले उग्रवादी संगठन एनडीएफबी के दोनों गुटों का मुस्लिम समुदाय से नाराज होने का कारण भी समझ में आता है, क्योंकि इन पूर्व तथा वर्तमान उग्रवादियों के आतंक के विरुद्ध आवाज उठाने वालों में मुस्लिम समुदाय ही आगे-आगे रहा है। यह घटनाक्रम पिछले लगभग तीन-चार महीनों से चल रहा था, जो तेज नजर वाले पत्रकारों, राजनीतिज्ञों, अधिकारियों से छिपा हुआ भी नहीं था।

टीवी पर निठल्ला चिंतन और मुद्दे से भटकाव

हिंसाग्रस्त क्षेत्र का दौरा करके लौटने के बाद जब स्थानीय और राष्ट्रीय टीवी पर चलने वाली चर्चाओं को सुनते हैं तो एक तरह से उन पर दया आती है। टीवी पर होने वाला चिंतन किन बिंदुओं के इर्द-गिर्द घूमता है? एक, इस बाल की खाल निकालने में खासा समय जाया किया जाता हैकि सेना भेजने में देर किस कारण हुई। कुछ राजनीतिज्ञों को इसमें मुख्यमंत्री को परेशानी में डालने का अच्छा मौका नजर आ रहा है। दो, अचानक बांग्लादेश से होने वाली अवैध घुसपैठ एक मुद्दा बन गई है। अवैध घुसपैठ को हिंसा का कारण बताना प्रकारांतर से वर्तमान हिंसा को जायज ठहराना है। सवाल है कि क्या अब अवैध घुसपैठियों से निपटने का यही तरीका रह गया है, जो बीटीएडी के पूर्व और वर्तमान उग्रवादियों ने अपनाया है?

वर्तमान हिंसा का असली कारण है बीटीएडी इलाके में पूर्व और वर्तमान उग्रवादियों पर प्रशासन का कोई नियंत्रण नहीं होना। कानून और व्यवस्था लागू करने वाली मशीनरी वहां इस मामले में अपने आपको असहाय पाती है। सेना बीटीएडी इलाके में नियुक्त है, लेकिन सिर्फ उग्रवाद विरोधी अभियान के लिए। इसका व्यावहारिक अर्थ है सिर्फ एनडीएफबी के वार्ता विरोधी गुट के विरुद्ध अभियान के लिए।

पूर्व बीएलटी कैडर या एनडीएफबी का वार्तापंथी गुट यदि आपराधिक गतिविधि में लिप्त पाया जाता है, तो उससे निपटने का दायित्व सेना का नहीं, राज्य पुलिस का है। कई संगठनों को लेकर बना गैर-बोड़ो सुरक्षा मंच पिछले तीन-चार महीनों से इसी मुद्दे पर राज्यवासियों का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास कर रहा था। लेकिन मुद्दा चूंकि भटककर अवैध घुसपैठ पर केंद्रित हो गया है, तो इसका लाभ भी उन्हीं लोगों को मिलेगा जो वर्तमान हिंसा के लिए जिम्मेवार रहे हैं।