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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

सोमवार, 31 दिसंबर 2012

फेसबुक जिंदाबाद


कोई अपना हमें कितना ही बुरा कहे, जब पड़ोसी हमें ताना मारता है तो हृदय के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। दिल्ली गैंग रेप कांड की जिस बात ने दिल के टुकड़े कर दिए वह है ग्लोबल टाइम्स में चीन की यह टिप्पणी कि भारत सामाजिक विकास में अभी चीन से 30 साल पीछे चल रहा है। कोई अमरीका, कोई इंग्लैंड, कोई यूरोप हमें पिछड़ा कहे तो चलता है, लेकिन चीन, जिसने 1948 में हमारे साथ ही यात्रा शुरू की थी, उसकी आज यह मजाल कि हमें इस तरह ताना मारे!

पिछले एक दशक से भारत पश्चिम का दुलारा रहा है। हमारी आर्थिक प्रगति की दर को देखकर इसे आशा जगी थी कि चीन के बढ़ते कदमों को रोकने के लिए भारत का ही उत्साह बढ़ाना होगा। भारत एशिया में नई ताकत बनकर उभरे तो हमारे लिए ज्यादा अच्छा है, भारत हमारी भाषा समझता है, हम भारत की भाषा समझते हैं। चीन तो दुर्बोध्य है। वहां की लिपि एक रहस्य है। लेकिन यह क्या! चीन के इस सच का हम क्या उत्तर दें। 2012 के अंतिम दिन इसने यह क्या कह दिया। भारत में 40 सालों में रेप सात गुना बढ़ गए!

रेप जब सात गुना की रफ्तार से बढ़ रहे थे तो भारत के लोग 2012 के दिसंबर महीने तक का क्यों इंतजार कर रहे थे। क्या वे सचमुच उस बेहूदा भविष्यवाणी में विश्वास रखते थे जिसके अनुसार दुनिया 2012 के दिसंबर में खत्म होने वाली थी? दरअसल भारत इंतजार कर रहा था एक ऐसे माध्यम का जो सचमुच जनता का माध्यम हो। सोशल मीडिया, यानी फेसबुक, ट्विटर, यू ट्यूब आदि के रूप में वह माध्यम 2012 तक भारत में भी अपनी पूरी रवानी पर आ गया। मध्य वर्ग की युवा पीढ़ी के हाथों में स्मार्टफोन आ गए, 120 करोड़ की आबादी का छोटा सा फीसद ही अभी फेसबुक पर आया है कि इसका प्रभाव हुक्मरानों के लिए दुःस्वप्न बन गया है। यहां तक कि हरियाणा की खाप पंचायतों को फतवा जारी करना पड़ रहा है कि लड़कियां मोबाइल फोन नहीं रख सकतीं। जनता की नब्ज पर हाथ रखने वाली ममता बनर्जी भांप लेती हैं कि इस जिन्न को शुरू में ही बोतल में बंद कर देना जरूरी है। वे फेसबुक पर कार्टून लगाने वाले प्रोफेसर को जेल भेज देती हैं। बाल ठाकरे पर टिप्पणी करने वाली मासूम सी किशोरी दंगे करवा सकती है, सो महाराष्ट्र का एक पुलिस अफसर उसे जेल में डालने में देर नहीं करता।

पाठक जानते होंगे जंतर मंतर पर 25 दिसंबर को जब संभवी सक्सेना नामक एक 19 साल की बाला को गिरफ्तार कर पुलिस स्टेशन ले जाया गया तो उसने पुलिस की वैन से ही लोगों को अपनी अवैध गिरफ्तारी पर ट्विट करना शुरू कर दिया। थोड़ी ही देर में उसके ट्विट को 1700 लोगों ने रिट्विट किया। थोड़ी ही देर में यह संदेश दो लाख लोगों तक पहुंच गया। इंटरनेट पर हंगामा मच गया। पार्लियामेंट स्ट्रीट पर वकीलों, कार्यकर्ताओं, मीडिया की भीड़ लग गई। पुलिस को झुकना पड़ा।

गुवाहाटी में एक मित्र ने पूछा- घटनाएं तो बहुत सारी घटती हैं लेकिन जीएस रोड कांड पर देश भर में क्यों हंगामा खड़ा हो गया? उत्तर है यू-ट्यूब। हमारे प्रश्नकर्ता यू-ट्यूब नहीं देखते, सो उन्हें यू-ट्यूब की ताकत का अहसास नहीं। लेकिन कब तक कोई सोशल मीडिया से अछूता रहेगा। दशकों से सैनिकों की संगीनों के साए में महफूज रही मध्य-पूर्व की सल्तनतें एकाएक अवाम के भय से कांपने लगीं। एक के बाद एक तानाशाही हुकूमतें ताश के पत्तों की तरह ढहने लगीं तो भारत तो पहले से लोकतंत्र है। सोशल मीडिया क्या गुल खिला सकता है यह तो भारत में ही पता चलने वाला है। 2012 सिर्फ एक शुरुआत था। इंडिया गेट, जंतर-मंतर, गेट वे आफ इंडिया या गुवाहाटी के लास्ट गेट पर एकाएक मध्य वर्ग के शिक्षित युवाओं की गैर-राजनीतिक भीड़ के एकत्र होने और दशकों से उपेक्षित समस्याओं का समाधान मांगने जैसे और अधिक वाकये देखने के लिए सत्ताधीशों को तैयार रहना चाहिए।

वर्ष 2012 भारतीय गणतंत्र के इतिहास में मध्य वर्ग के आगाज का वर्ष कहलाएगा। जाति, धर्म, क्षेत्र और भाषा के भेदों की दीवारों को फांदकर बना यह अखिल भारतीय मध्य वर्ग हर राजनीतिक दल से उपेक्षित रहा है। अभी तक इसका अपना कोई राजनीतिक दल नहीं है। राजनीतिक दल मध्य वर्ग की समस्याओं को उठाना फिजूल का काम समझते हैं। जब दिल्ली गैंग रेप की घटना पर आवाज उठाई जाती है तब कोई काटजू सलाह देता है गांवों में दलित आदिवासी महिलाओं पर इतने अत्याचार होते हैं उन पर आप लोग क्यों नहीं बोलते। गुवाहाटी में दो घंटे की बारिश के बाद नाले में गिरने से मौत हो जाना एक साधारण बात हो गई है। आप आवाज उठाइए तो कहा जाएगा धेमाजी में इतनी भयंकर बाढ़ आती है आप उस पर कुछ क्यों नहीं बोलते?

वर्ष 2012 हुक्मरानों को सावधान कर गया है। मध्य वर्ग अब अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर उतरने लगा है। अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी और समाजवाद के बड़े-बड़े शब्दों के पीछे की असलियत वह जानता है। उसे इन शब्दों में नहीं उलझना है। उसे आज की अभी की समस्या का हल चाहिए। उसे मुफ्त का राशन और सब्सिडी की यूरिया नहीं चाहिए। उसे शाम के बाद सुरक्षा चाहिए, अच्छे कालेज-संस्थान में एडमिशन चाहिए, रेल में आरक्षण चाहिए, घर में बिजली चाहिए, जलजमाव, भ्रष्टाचार से मुक्ति चाहिए। उसके पास सोशल मीडिया है, वह इन्हें हासिल करने के लिए निकल पड़ा है।

शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012

गैंग रेप पर संता बंता



संता - रेप के लिए लड़कियां दोषी हैं जो भड़काऊ कपड़े पहनती हैं। उन्हें तन ढकने वाले कपड़े पहनने चाहिए।

बंता - क्या उन दिनों रेप नहीं होते थे जब औरतें घूंघट में रहती थी। क्या बुर्का पहनने वाले देश औरतों के प्रति आदर के लिए जाने जाते हैं।

संता - कुछ भी हो, सिनेमा और टीवी और भड़काऊ विज्ञापन रात-दिन लोगों की (मर्दों की) भावनाएं भड़काता रहता है। इन पर अंकुश लगना चाहिए।

बंता - क्या रेप इतनी आधुनिक चीज है कि यह सिनेमा और टीवी के आने के बाद ही आई है। एक बात बताओ जिन देशों में आधुनिक सभ्यता यानी तुम्हारी भाषा में तन उघाड़ू सभ्यता हमसे पहले ही आ गई थी वहां तो बलात्कार की घटनाएं इतनी ज्यादा नहीं सुनाई देतीं। हमारे देश में, पाकिस्तान में, बांग्लादेश में, नेपाल में ही क्यों ऐसी घटनाएं ज्यादा घटती हैं।

संता - तुम्हें पता होना चाहिए बंता, आजकल एक और बीमारी आ गई है। इंटरनेट नाम है इस बीमारी का। इसमें लोग घर बैठे ही पोर्न देखते हैं। ऐसे मानसिक प्रदूषण के बाद रेप जैसे कांड नहीं होंगे तो क्या होंगे।

बंता - दिल्ली में बस में गैंग रेप करने वाले अशिक्षित और गरीब श्रेणी के छोकरे थे, उनसे यह उम्मीद नहीं है कि वे इंटरनेट पर पोर्न फिल्में देखते होंगे। पोर्न ज्यादातर मध्यवर्ग के छोकरे देखते हैं और देश में रेप की ज्यादातर घटनाओं के पीछे मध्यवर्ग के लड़के नहीं पाए जाते। यही बात अमरीका पर लागू है। वहां रेप की ज्यादातर घटनाओं के पीछे काले गरीब अशिक्षित लड़के पाए जाते हैं, गोरे लड़कों का नाम बलात्कार की घटनाओं में कम ही आता है।

संता - तो क्या तू कहता है कि लड़कियां इसी तरह बेहयाओं के से कपड़े पहनकर घूमें, कुछ अपराधी किस्म के लोग अपनी भावनाओं पर काबू खो दे और दिल्ली जैसी घटनाएं होती रहें।

बंता - पहली बात तो यह है कि दिल्ली हो या पूना हो या बंगलोर - हाल में रेप की जितनी भी घटनाएं सामने आई हैं उनमें कहीं भी लड़की की पोशाक पर दोषारोपण नहीं किया जा सकता।

संता - आखिर वे अंधेरा होने के बाद बाहर तो घूम रही थीं।

बंता - यानी तुम यह कहना चाहते हो कि औरतें अंधेरा होने के बाद घर से न निकलें, दिन में भी निकलें तो सूनसान रास्तों पर न जाएं, अपनी ही यूनिवर्सिटी के परिसर में सूनसान जगह पर न जाएं, घर में ही देखभाल कर दरवाजा खोलें।

संता - हां और जहां तक हो सके दिन में भी घर के बाहर अकेली न जाए, किसी पुरुष के साथ ही बाहर निकले। हमारी माताजी को हमने कभी नहीं देखा अकेली घर से बाहर निकलते हुए।

बंता - यानी तुम्हारे जैसे लोग चाहते हैं कि महिलाएं कोई काम धंधा न करे, रात को घर के बाहर न जाए, पढ़ाई के लिए भी सिर्फ दिन में ही बाहर निकले, वो भी किसी के साथ। क्योंकि किसी मनचले का दिल मचल सकता है और मौका मिलते ही उसे अपना शिकार बना सकता है।

संता - और कपड़े भी ढंग के पहने..

बंता - नारी के कपड़ों के बारे में भी तुम पुरुष लोग ही निर्णय करना चाहते हो, क्योंकि क्या पता किसी बस में किसी बेचारे पुरुष को रेप करने की इच्छा हो जाए..तब वह किसी अल्पवसना नारी को ही तो अपनी हवश का शिकार बनाएगा। आखिर हम कैसे समाज में रह रहे हैं। हम बीमारी का इलाज करने की बजाय बीमारी के शिकार को ही दोषी ठहरा रहे हैं। उसे ही नसीहत दे रहे हैं।

संता - आखिर तुम कहना क्या चाहते हो। बात को उलझाओ मत..

बंता - बात सीधी सी है कि अपराध करने वाले को जब सजा मिलने लगेगी तभी अपराध कम होंगे। दंड और पुरस्कार - यह किसी भी समाज में अनुशासन बनाए रखने के लिए समय सिद्ध मंत्र है। ज्यादा बौद्धिक विमर्श में जाने की आवश्यकता नहीं है। हमारे देश की औरतों की पोशाक काफी शालीन है। जिन देशों में कम से कम वस्त्र पहनने का चलन चल पड़ा है, जहां बड़ी मात्रा में पोर्न फिल्में बनाई जाती हैं, पोर्न साहित्य छापा जाता है, और ये सारे पश्चिमी देश ही नहीं हैं, वहां क्या हमारे यहां की तरह कोई भी इस तरह की दरिंदगी करने का साहस कर सकता है। वहां कानून का भय है, वहां के एक पुलिस वाले का रौबदार चेहरा देखते ही अच्छों अच्छों को पसीना आ जाता है। सीधी सी बात है, पुलिस और कानून का भय एक आधुनिक समाज में व्यवस्था बनाए रखने के लिए बहुत जरूरी है। जो मामले अदालतों में जाते हैं उनमें जल्दी फैसला आए इसकी व्यवस्था करनी होगी। यह सब एक दिन में नहीं होगा।

संता - इसके लिए क्या करना होगा।

बंता - दरअसल पुलिस व्यवस्था को सुधारने और अदालतों में मामले जल्दी निपटे इसे हाल के वर्षों में किसी भी सरकार ने वरीयता नहीं दी। जबकि यह किसी भी सरकार का प्राथमिक काम है। हाल के वर्षों में सरकारों का ज्यादा ध्यान जनकल्याण के कामों में - जैसे ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, गरीबों के रोजगार योजाना, गरीबों के लिए आवास योजना, सर्वशिक्षा अभियान आदि - लगा है।

संता - तो क्या ये सब काम फिजूल हैं।

बंता - मैं नहीं कहता कि ये काम फिजूल हैं। लेकिन जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ी है उसी अनुपात में पुलिस और न्याय व्यवस्था बनाए रखने के लिए भी तो खर्च करना जरूरी है। उदाहरण के लिए, सभी राज्यों में पुलिस वालों के पद खाली पड़े हैं, पुलिस आधुनिकीकरण का काम तेजी से नहीं हो रहा है, फोन करते ही पुलिस हाजिर हो जाए ऐसी व्यवस्था अभी भी नहीं हो पाई है जैसी आधुनिक देशों में है...

संता - तभी तो मैं कह रहा हूं जब तक ऐसी व्यवस्था नहीं हो जाती, हमारी युवतियों को संयत पोशाक पहनना चाहिए और रात को घर से बाहर....

बंता - यानी तू अपनी जिद पर कायम है।

संता - अच्छा बंता, एक बात बता, बलात्कारी को फांसी देने की मांग पर तेरा क्या कहना है।

बंता - देखो बलात्कार हत्या या आतंकवादी हमले जैसे अपराध इस मायने में भिन्न है कि यह कोई आदत से मजबूर होकर नहीं करता, बल्कि पाशविक भावनाओं के वशीभूत होकर किसी खास क्षण में कर बैठता है। इसलिए यदि बलात्कार की सजा फांसी कर दी जाए, या फांसी से भी बड़ी सजा जैसा कि कुछ लोग कह रहे हैं (लेकिन मेरी समझ में नहीं आता ऐसी सजा क्या हो सकती है) दे दी जाए तो इससे रेपिस्टों में भय का संचार होगा और ऐसी घटनाओं में कमी आएगी मुझे नहीं लगता। क्योंकि आप सजा कुछ भी दे लीजिए, यदि कानून की वर्तमान धीमी चाल बरकरार रही और सौ में से सिर्फ एक प्रतिशत को सजा दी गई तो इससे किसी भी किस्म के अपराधियों में भय का संचार नहीं होगा। भय का संचार तभी होगा जब सौ में से निन्यानबे को सजा मिले और गलती से एक छूट जाए। हमारे यहां होता यह है कि जो एक प्रतिशत पकड़े भी जाते हैं वे भी कानून के विभिन्न सूराखों से होकर बरी हो जाते हैं।

संता - तो क्या इस समय देश भर में भावनाओं का जो उबाल आया हुआ है वह यूं ही जाया हो जाएगा।

बंता - इस देशव्यापी गुस्से को चैनलाइज करके इस ऊर्जा को काम में लगाया जाना चाहिए। हमें छेड़छाड़ के विरुद्ध एक वातावरण बनाना होगा, क्योंकि जो समाज महिलाओं के साथ छेड़छाड़ को बर्दाश्त करता है उसी समाज में दिल्ली गैंग रेप जैसी घटनाएं होती हैं।

संता - यह तो भाषणबाजी हो गई, ठोस काम क्या होना चाहिए।

बंता - ठोस काम के रूप में आंसू गैस छोड़ने वाले मिनी कैनिस्टर के व्यवहार के बारे में सोचा जा सकता है जो महिलाओं को उपलब्ध हों। जैसे ही किसी महिला को लगे कि उसके साथ बदसलूकी हो सकती है वह इस कैनिस्टर का व्यवहार कर सकती है जिससे निकलने वाली गैस संभावित अपराधियों को कुछ समय के लिए अंधा कर देगी। महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों को जघन्य अपराध की श्रेणी में डाला जाए। ऐसा करने से नियमों के अंतर्गत यह जरूरी हो जाएगा कि ऐसे अपराध की तहकीकात और उसकी प्रगति की कोई वरिष्ठ अधिकारी निगरानी करेगा।

संता - बात तो सोचने लायक है, बंता।

रविवार, 23 सितंबर 2012

सुनो गौर से हिंदी वालों

हिंदी दिवस मनाने का प्रचलन करने वालों ने भले और कुछ भी सोचा होगा, लेकिन निश्चित तौर पर उनलोगों ने इस दिन की कल्पना इस रूप में नहीं की होगी कि इस दिन हिंदी की दुर्दशा (वास्तविक या काल्पनिक) पर सामूहिक विलाप किया जाए। कहीं हिंदी की स्थिति कहानी के उस भिखारी जैसी तो नहीं हो गई जो कभी बिना गद्दे और चादर के ही आराम से गहरी नींद सो लेता था। लेकिन कुछ दिनों के राजमहल के ऐश के बाद एक दिन उसे राजसी पलंग पर भी रात भर नींद नहीं आई। कारण यह पाया गया कि बिस्तर पर कपास का एक बीज रह गया था, जो उसे चुभ रहा था और नींद में बाधक बना हुआ था। कुछ यही हाल हमारी हिंदी का है। अनुकूल ऐतिहासिक परिस्थितियों में हिंदी अपने खड़ी बोली के छोटे से भौगोलिक दायरे से बाहर निकली और एक समय जब यह प्रश्न सामने आया कि भारत की एक अपनी राष्ट्रभाषा होनी चाहिए, वह भाषा कौन-सी हो सकती है, तब हिंदी को छोड़कर दूसरा कोई विकल्प ही नहीं था। जिन ऐतिहासिक परिस्थितियों की हम बात कर रहे हैं उनमें मुख्य है मुगल साम्राज्य का फैलाव और उसकी स्थिरता तथा बाद में चला स्वाधीनता संग्राम। खड़ी बोली का विकास और फैलाव स्वाधीनता संग्राम के साथ-साथ होता गया, इस पर शायद ही दो मत हों।

हिंदी के विकास में उन भाषाओं के बलिदान पर बहुत ही कम लिखा और कहा गया है जिन्हें आज हिंदी की बोलियां या उपभाषाएं मान लिया गया है। समृद्ध साहित्यिक विरासत वाली अवधी, भोजपुरी, राजस्थानी, मैथिली जैसी भाषाओं को यदि बोली मान लिया गया, तो सिर्फ इस वजह से कि इन भाषाओं के बोलने वालों ने हिंदी के विकास के हित में इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया था। वरना ज्यादा नहीं पांच सौ साल पीछे भी जाएं तो खड़ी बोली आपको कहीं दिखाई नहीं देगी, जबकि (उदाहरण के लिए) अवधी, राजस्थानी, मैथिली जैसी भाषाएं उस समय साहित्यिक ऊंचाइयां छू रही थीं। दरअसल आज जिसे हिंदी प्रदेश कहा जाता है विकास की विभिन्न पायदानों पर खड़ी उस प्रदेश की भाषाओं-बोलियों ने हिंदी के अबाध विकास को अपनी सहमति दी थी और इस सहमति का मतलब यदि इन भाषाओं-बोलियों की अपनी मृत्यु था, तो वह भी उन्हें स्वीकार था।

हमारे परिवार में एक समय तीन पीढ़ियां तीन भाषाओं का व्यवहार करती थीं। हमारी दादी राजस्थानी के अलावा दूसरी भाषा नहीं बोल पाती थीं। उनकी स्कूली शिक्षा नहीं हुई थी। वे हिंदी, बांग्ला और असमिया समझ लेती थीं, लेकिन राजस्थानी के अलावा दूसरी किसी भाषा में जवाब नहीं दे पाती थीं। हमारे माता-पिता राजस्थानी और हिंदी दोनों भाषाओं का व्यवहार कर पाते थे। हम तक आते-आते राजस्थानी सिर्फ बोलचाल की भाषा बनकर रह गई। मां या बहन जैसे अंतरंग संबंध वालों, जिनके साथ हम हिंदी में बात करने की कल्पना भी नहीं कर सकते थे, को भी यदि पत्र लिखना होता तो हमारे पास हिंदी में लिखने के सिवाय कोई चारा नहीं था। कहने का तात्पर्य यह है कि जो कुछ भी औपचारिक था वह हिंदी में होने लगा। किसी सभा में श्रोता बनकर हम राजस्थानी में बात कर सकते थे, लेकिन माइक पर राजस्थानी का प्रयोग कल्पनातीत था।

यह वह समय था, जब हिंदी पट्टी की तथाकथित उपभाषाएं निश्चित मृत्यु की ओर सरक रही थीं। और यह सब इन भाषाओं के बोलने वालों की सहर्ष सहमति से हो रहा था। एक राष्ट्रभाषा के निर्माण में अपने योगदान को लेकर हिंदी पट्टी के लोग गर्वित थे। हम हिंदी की नवीनता की बात कर रहे थे। क्या आप ऐसे किसी बंगाली की कल्पना कर सकते हैं जो यह कहेगा कि मेरे दादा बांग्ला नहीं जानते। या कोई तमिल भाषी यह कहेगा कि मेरी दादी तमिल नहीं बोल सकतीं। लेकिन हम हिंदीभाषियों के अधिकांश परिवारों का सच कमोबेश यही है कि दो पीढ़ियों पहले हिंदी कहीं थी ही नहीं।

जितनी आसानी और स्वाभाविक प्रक्रिया के तहत हिंदी पट्टी की तथाकथित उपभाषाओं को हिंदी ने हटाया, उतनी आसानी हिंदी पट्टी के बाहर होना तो दूर, उल्टे वहां हिंदी को चुनौतियों का सामना भी करना पड़ा। खड़ी बोली हिंदी विकास की जिस पायदान पर खड़ी थी, बांग्ला, असमिया और तमिल जैसी भाषाएं उससे कहीं ऊंची पायदानों पर थीं। उनसे अपने व्यवहार के दायरे को संकुचित कर लेने की उम्मीद करना अव्यावहारिक था और ऐसा किया भी नहीं गया। इन हिंदीतर भाषाओं से सिर्फ यह अपेक्षा थी कि वे अपनी भाषा केे साथ-साथ हिंदी को अपना लें और इस तरह इसे भारत की निर्विवाद राष्ट्रभाषा बनाने का रास्ता सुगम बना दे। हिंदी पट्टी की मातृभाषा बनने के बाद अब हिंदी का सामना पूर्णतः विकसित भाषाओं से हुआ था। इन भाषाओं का लंबे समय से आधुनिक व्यवहार की भाषा के रूप में उपयोग हो रहा था। उनसे यह अपेक्षा नहीं की जा सकती थी कि वे राजस्थानी, अवधी, मैथिली, भोजपुरी आदि की तरह अपने आपको सिर्फ बोलचाल की भाषा तक महदूद कर दे। फिर भी स्वाधीनता मिलने तक और उसके बाद भी लगभग एक दशक तक हिंदीतर क्षेत्रों में हिंदी सीखने की ललक थी और इस पर कोई विवाद नहीं था।

स्वाधीनता के पहले तक हिंदी सीखने के साथ स्वेच्छा का तत्व जुड़ा था। लेकिन स्वाधीनता के बाद हिंदी सीखने और इसके प्रयोग के साथ शासन द्वारा मिलने वाली सुविधा-असुविधा के मसले जुड़ गए। मसलन हिंदी प्रदेश आज भी अहिंदीभाषी प्रदेशों की कुछ शंकाओं के जवाब नहीं दे पाए हैं। ये शंकाएं हैं ः यदि केंद्र सरकार की भाषा सिर्फ हिंदी बन गई तो केंद्र की नौकरियों, राजनीति, शिक्षा आदि हर क्षेत्र में हिंदी वाले अहिंदी वालों की अपेक्षा एक लाभ की स्थिति में रहेंगे। इस तरह क्या हिंदी प्रदेश के लोग इन क्षेत्रों में (नौकरी, राजनीति, शिक्षा) छा नहीं जाएंगे! दूसरा प्रश्न है कि अहिंदी क्षेत्र वाले अपनी मातृभाषा के अलावा अंग्रेजी और हिंदी पढ़ते हैं, जबकि हिंदी वालों को सिर्फ हिंदी और अंग्रेजी पढ़नी पड़ती है। इस तरह अहिंदी क्षेत्र पर हिंदी क्षेत्र की बनिस्पत ज्यादा यानी तीन भाषाओं का बोझ पड़ जाता है। इसका हल अहिंदी क्षेत्र के लोग यह बताते हैं कि आप हिंदी और अंग्रेजी पढ़ें, हम भी हमारी मातृभाषा और अंग्रेजी पढ़ेंगे। यहां यह नोट करने वाली बात है कि इस तरह के प्रस्ताव हिंदी को हिंदी पट्टी की क्षेत्रीय भाषा के रूप में सीमित करके देखते हैं। जबकि अब तक हिंदी की महत्वाकांक्षाएं इतनी बढ़ चुकी हैं कि ऐसे प्रस्ताव उसे अपमानजनक लगते हैं।

बहरहाल, आज का सच यह है कि हिंदी भारत में एक बड़े भूभाग की मातृभाषा बन गई है। 40 करोड़ लोग इसे अपनी मातृभाषा बताते हैं। दूसरी ओर, अहिंदीभाषी राज्यों ने हिंदी को आज की हिंदी पट्टी तक ही सीमित कर दिया है। हिंदी के अश्वमेध का घोड़ा इन सीमाओं से बाहर नहीं निकल सका। हिंदी अपने क्षेत्र के बाहर उतनी ही फैल रही है जितनी इतने विशाल क्षेत्र और बोलने वालों की इतनी बड़ी संख्या से उत्पन्न दबाव के कारण अपरिहार्य है। मसलन, जो तमिल भाषी उत्तर भारत में रोजगार की संभावनाएं तलाशना चाहता है, वह हिंदी सीखने को फायदे का सौदा समझता है। इसी तरह चालीस करोड़ की मातृभाषा होने के नाते सेना में हिंदी वालों की बड़ी संख्या होना स्वाभाविक है और उनके संपर्क में आकर अहिंदीभाषी सैनिक भी हिंदी सीख जाते हैं, या उन्हें सीखनी पड़ जाती है। और अंततः हिंदी ऐसे लोगों के बीच फैलती है जो इसके फैलाव को रोकना चाहते हैं।

हिंदी का यह जो फैलाव हो रहा है, वह उसके संख्या बल से उत्पन्न दबाव के कारण स्वाभाविक रूप से हो रहा है। कदाचित ही हिंदी वालों को हिंदी को एक समर्थ भाषा बनाने के लिए सायास प्रयास करते देखा जाता है। उदाहरण के लिए हिंदी प्रदेश का क्या एक भी विश्वविद्यालय इतना समर्थ नहीं हो सका कि दक्षिण या पूर्वी भारत में अपना कैम्पस स्थापित कर वहां हिंदी विषय या हिंदी माध्यम से अन्य विषयों की शिक्षा का अवसर प्रदान करता? हिंदी प्रदेशों ने हिंदी को आगे बढ़ाने की सारी जिम्मेवारी केंद्र सरकार को सौंप दी और खुद गहरी नींद सोते रहे। हिंदी प्रदेशों से तो यह भी नहीं हो सका कि आपस में बैठकर सरकारी कामकाज में इस्तेमाल होने वाले विभिन्न पारिभाषिक शब्दों में एकरूपता लाए। आज हिंदी में साहित्य के अलावा ऐसी एक दर्जन पुस्तकों के नाम भी अनायास याद नहीं आते, जिन्हें पढ़ने की ललक के कारण कोई अहिंदीभाषी हिंदी सीखने को उद्यत हो।

किसी भाषा के विकास के लिए जरूरी नहीं कि वह सरकारी भाषा ही बने। फारसी भारत के कई प्रतापी राजदरबारों की भाषा थी, लेकिन आज वह भारत में कहां है? ज्यादा जरूरी है किसी भाषा को ज्ञान की भाषा बनाना। हमारी पीढ़ी ने बड़े चाव से हिंदी सीखी। इसके बाद शायद हम अंग्रेजी नहीं सीख पाते, यदि हिंदी बातचीत, शिक्षा का माध्यम और साहित्य की भाषा होने के साथ-साथ ज्ञान की भाषा भी होती। हिंदी को ज्ञान की भाषा बनाने का काम हुआ ही नहीं और अंततः हमारे बाद की पीढ़ी को सिर्फ साहित्य पढ़ने के लिए हिंदी सीखना फालतू का काम लगने लगा। जिस गाड़ी में हमारे जैसे लोग बैठे थे, वह गाड़ी स्टार्ट ही नहीं हुई और अब बाद वाली पीढ़ी के लोग दूसरी तेज गाड़ी में बैठ रहे हैंतो उन्हें दोष देकर सही नहीं। पहली गाड़ी वाला ड्राइवर शायद इंतजार कर रहा था कि सारे यात्री इसमें आ जाएं तब वह गाड़ी चलाएगा। इसका नतीजा यह हुआ कि जो पहले से बैठे थे वे भी उतरने लग गए।

रविवार, 16 सितंबर 2012

किसे बेहतर मालूम है बढ़ती मुस्लिम आबादी का सच

हम अपनी बात को आगे बढ़ाने से पहले यह बता देना चाहते हैं कि हमारा उद्देश्य असम में बांग्लादेशियों के अवैध प्रव्रजन की समस्या को कम करके आंकना नहीं है, न ही हम चाहते हैं कि अवैध विदेशी नागरिकों की शिनाख्त के काम में ढिलाई बरती जाए। बल्कि हम तो यह भी चाहते हैं कि सभी सीमांत प्रांतों के भारतीय नागरिकों को फोटो पहचान-पत्र दे दिए जाने चाहिए ताकि नए आने वाले किसी भी घुसपैठिए की शिनाख्त करना आसान हो जाए।

हम असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के उस बयान पर चर्चा करना चाहते हैं, जिसमें उन्होंने कहा है कि असम में मुसलमानों की संख्या में इजाफा होने का कारण उस समुदाय में जन्म दर ज्यादा होना है। मुख्यमंत्री के इस बयान पर तूफान तो नहीं मचा लेकिन विरोध की प्रबल हवाएं जरूर बहना शुरू हो गईं। विरोधियों का कहना है कि ऐसा कहकर मुख्यमंत्री यह साबित करना चाहते हैं कि असम में बांग्लादेशियों का अवैध आगमन नहीं हुआ है। विरोध के स्वर एक बार फिर हमें 1979-85 की याद दिलाते हैं जब असम में चले जबर्दस्त विदेशी भगाओ आंदोलन के नेतृत्व का आचरण इस तरह का था कि सत्य क्या है यह सिर्फ उन्हें ही मालूम है? चूंकि असम में मुसलमान अपने खुद के कारणों से काफी संख्या में (लेकिन शत-प्रतिशत नहीं, क्योंकि तब बदरुद्दीन अजमल का एआईयूडीएफ राज्य विधानसभा में प्रमुख विपक्षी दल कैसे बनता!) कांग्रेस को वोट देता है, इसलिए यह मान लिया गया है कांग्रेस का कोई भी नेता जो कुछ भी कहेगा वह बांग्लादेशियों के बचाव के लिए ही कहेगा। बहुत से लोग यह नहीं देख पा रहे हैं कि तरुण गोगोई एक ही साथ मुस्लिम कार्ड और हिंदू कार्ड खेल लेते हैं। मुसलमान के अलावा हिंदू, खासकर आहोम समुदाय, के समर्थन पर भी आज की प्रदेश कांग्रेस काफी हद तक निर्भर है।

असम में 1971 के पहले या बाद कितने बांग्लादेशी आए हैं, इसका हिसाब किसी के पास नहीं है। लेकिन हर कोई कह रहा है कि बांग्लादेशी जरूर आए होंगे क्योंकि इस दौरान सूबे में मुसलमानों की आबादी में इजाफा हुआ है। 1971 में असम में मुस्लिम आबादी 24.56 प्रतिशत थी, जो 2001 में बढ़कर 30.92 प्रतिशत हो गई। इसी तरह राज्य के मुस्लिम बहुल जिलों में मुसलमानों के बढ़ते अनुपात पर चिंता व्यक्त की जाती है। धुबड़ी जिला बांग्लादेश से सटा हुआ है और वहां नदी के रास्ते बांग्लादेश आना-जाना बिल्कुल आसान है। वहां की मुस्लिम आबादी का फीसद 1971 के 64.46 से बढ़कर 2001 में 74.29 हो गया। बांग्लादेशियों के मुद्दे पर फिर से आंदोलन छेड़ने वाले संगठन इस जनसंख्या वृद्धि को अवैध प्रव्रजन का अकाट्य प्रमाण मानते हैं।

बिना इस प्रश्न का उत्तर दिए कि क्या असम में 1971 के बाद भी बड़ी संख्या में बांग्लादेशी प्रव्रजन हुआ है, हम सिर्फ इस बात की पड़ताल करेंगे कि क्या 1971 से 2001 तक के जनगणना के आंकड़े बड़ी संख्या में अवैध घुसपैठ का संकेत देते हैं? धुबड़ी में मुस्लिम आबादी 1971 की 64.46 फीसदी से बढ़कर 2001 में 74.29 हो गई। यानी 30 सालों में इस जिले में मुसलमानों की संख्या में 119 फीसदी बढ़ोतरी हुई। समूचे असम राज्य में इन 30 सालों के दौरान मुसलमानों की आबादी में 129.5 फीसदी वृद्धि दर्ज की गई और देश भर की मुस्लिम जनसंख्या में इस दौरान 133.3 फीसदी इजाफा हुआ।

हो सकता है धुबड़ी जिले में और असम में 1971 के बाद भी बड़ी संख्या में अवैध रूप से लोग बांग्लादेश से आए हों। लेकिन कम-से-कम जनगणना के आंकड़ों से यह सिद्ध नहीं होता। जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि इन 30 सालों में असम में यदि मुसलमानों की संख्या 129.5 फसदी बढ़ी है, तो सारे भारत में इस समुदाय की आबादी इससे भी अधिक यानी 133.3 फीसदी बढ़ी है। जाहिर है हमें देश के स्तर पर मुस्लिम आबादी में इतनी अधिक बढ़ोतरी की व्याख्या करने के लिए दूसरे कारण खोजने होंगे, क्योंकि यह तो नहीं कहा जा सकता कि इन 30 सालों में मुस्लिम समुदाय में जो आठ करोड़ के लगभग नए सदस्य शामिल हुए हैं, वे बांग्लादेश से आए हैं।

जनगणना के आंकड़े साफ बताते हैं कि 1971 से 2001 तक की अवधि में भारत में मुसलमानों की संख्या में वृद्धि 133.3 फीसदी हुई, जबकि सभी समुदायों के लिए यह आंकड़ा 87.37 फीसदी था। इस तरह मुस्लिम और गैर-मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर में काफी फर्क है और यह देश में राजनीतिक तनाव का एक अहम कारण रहा है। असम में आलोच्य अवधि में सभी समुदायों की जनसंख्या वृद्धि दर अखिल भारतीय औसत से कम यानी 82 फीसदी रही। हम इन आंकड़ों को जानने के लिए इसलिए भी विशेष तौर पर उत्सुक थे, क्योंकि विदेशी भगाओ आंदोलन के दौरान असम में बाकी भारत की तुलना में असामान्य रूप से अधिक जनसंख्या वृद्धि को अवैध बांग्लादेशी प्रव्रजन के अकाट्य तर्क के रूप में पेश किया गया था और चिंतित होने तथा समस्या का समाधान खोजने के लिए उद्यत होने का यह एक सही कारण था भी।

2011 के आंकड़े साफ दिखाते हैं कि भारत की कुल उर्वरता दर (टोटल फर्टिलिटी रेट या टीएफआर) 2.6 रही, जबकि इसी वर्ष मुसलमानों के लिए यह दर 3.1 थी। टीएफआर का मतलब है एक महिला उम्र भर में कितने बच्चों को जन्म देती है। जब तक यह दर सभी समुदायों के लिए 2.0 के नजदीक नहीं आती, तब तक भारत में यह सामाजिक और राजनीतिक तनाव का कारण बना रहेगा। यह 2.0 के आसपास आने पर इसे स्थिरता लाने वाली दर कहा जाता है यानी तब उस समुदाय की कुल आबादी लगभग स्थिर हो जाती है। यहां इस बात का उल्लेख किए बिना बात अधूरी रह जाएगी कि "औसत भारतीय' और मुसलमान - दोनों ही मामलों में कुल उर्वरता दर में लगातार कमी आ रही है। 1998-99 में मुसलमानों में यह दर 3.6 थी और "औसत भारतीय' में 2.85। मुसलमानों में टीएफआर का 3.6 से घटकर 3.1 तक आना एक अच्छा संकेत है - समुदाय और देश दोनों के लिए। औसत भारतीय के मामले में गत 50 सालों में यह दर लगभग आधी हो गई है। यहां यह भी उल्लेख करना जरूरी है कि बांग्लादेश में परिवार नियोजन कार्यक्रम को इस तरह लोकप्रिय किया गया कि वहां कुल उर्वरता दर 2011 में सिर्फ 2.2 रह गई। यह आंकड़ा भारत को मुंह चिढ़ाने वाला है, जिसके तथाकथित विकसित राज्य गुजरात में यह दर अब भी 2.5 और हरियाणा में 2.3 है।

मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने असम में मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि का कारण अशिक्षा बताया था। ऐसा कहते हुए उन्हें भान होगा कि आखिर यह बात उलटकर उन्हीं पर आएगी कि तब आपकी सरकार ने अशिक्षा खत्म करने के लिए कुछ किया क्यों नहीं। लेकिन फिर भी उन्होंने मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि जैसे मसले को उठाने का साहस किया। हो सकता है मुख्यमंत्री ने जो कारण बताया है वही कारण सही नहीं हो या एकमात्र कारण नहीं हो। लेकिन इस पर कोई विवाद की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए कि जनसंख्या नियंत्रण के मामले में बांग्लादेश ने सीमित संसाधनों और हमारी तुलना में कम प्रति व्यक्ति आय के बावजूद जो उपलब्धि हासिल की है, भारत और असम को भी उस दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिए। कहीं भी आबादी का ढांचा गड़बड़ाने से रोकने की दिशा में यही कदम अंततः कारगर साबित होगा।

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

क्या बांग्लादेश वापस लेगा घुसपैठियों को?

क्या इतिहास अपने आपको दोहराएगा? इस बात का अंदेशा इस कारण हो रहा है कि १९७९ से १९८५ तक चले विदेशी भगाओ आंदोलन की तर्ज पर फिर से लोग सड़कों पर निकल पड़े हैं| १९८५ में इस बात पर सहमति हो गई थी कि २४ मार्च १९७१ के बाद आए बांग्लादेशियों को अवैध माना जाएगा और उन्हें वापस उनके देश भेजने की व्यवस्था सरकार करेगी| यदि बांग्लादेशी प्रव‘जन के विरुद्ध लोगों की भावनाएं फिर से एक बार आंदोलन का रूप लेती है (इसकी उम्मीद कम है), तो क्या इस बार लोग इस संबंध में पहले की अपेक्षा ज्यादा शिक्षित हैं कि क्यों इस दो दशकों से ज्यादा की अवधि में एक भी अवैध बांग्लादेशी को वापस उसके देश नहीं भेजा जा सका | (हम यहां ‘एक भी’ शब्दों का इस्तेमाल इसलिए कर रहे हैं क्योंकि हमारे पास इस बात की सूचना नहीं है कि इस अवधि में बांग्लादेश सरकार ने भारत द्वारा बांग्लादेशी करार दिए गए किसी व्यक्ति को अपना नागरिक मानकर स्वीकार किया है|)

यदि कोई व्यक्ति सचमुच यह जानना चाहता है कि किन कारणों से बांग्लादेशी घुसपैठियों को निकाला नहीं जा सका, तो वह तथ्यों को जानने की कोशिश करेगा और यदि वह जानने का परिश्रम नहीं करना चाहता तो वह कहेगा कि राजनीतिज्ञों की वोट लोलुपता के कारण ऐसा नहीं हो सका| यह सच है कि राजनीतिज्ञों ने कभी नहीं चाहा कि बांग्लादेशी घुसपैठियों के मामले को गंभीरता से लिया जाए| क्योंकि पुलिस और सरकारी एजेंसियां जिस तरह काम करती हैं, उसमें यह नितांत संभव है कि निर्दोष नागरिकों को परेशान किया जाए| कोई भी सरकार बैठे-बिठाए बंग्ला भाषा बोलने वाले हिंदुओं और मुसलमानों को अपना दुश्मन नहीं बनाना चाहेगी| और इस तरह किसी भी अधिकारी को अवैध बांग्लादेशी को खोज निकालने के लिए कुछ भी न करने का संकेत दे दिया जाता है| यह वैसे ही है, जैसे सत्ताधारी दल के गुंडे-बदमाशों पर पुलिस जल्दी से हाथ नहीं डालती| अभी हाईकोर्ट के आदेश पर जब पुलिस ने डी-वोटरों को खोज निकालना शुरू किया, तो खासकर हिंदू बंगालियों में हड़कंप मच गया| आज भी असम के बंग्ला अखबार हिंदू बंगालियों को होने वाली परेशानियों से भरे पड़े रहते हैं| डिटेंशन कैम्पों में कैद कई हिंदू बंगालियों की गाथा आए दिन बंग्ला अखबारों में छपती रहती है| कोर्ट के आदेशों के कारण मु‘यमंत्री डी-वोटर के मुद्दे पर कोई कार्रवाई तो क्या, आश्‍वासन तक देने की स्थिति में नहीं थे| लेकिन फिर भी उन्होंने चुनाव से पहले हिंदू बंगाली समुदाय को गोल-मोल भाषा में आश्‍वासन दे डाला और चुनाव में वोटों की अच्छी फसल काट ली|

अवैध बांग्लादेशियों की समस्या पर आने से पहले यह भी देख लें कि बीटीएडी में हुई हिंसा का लोकसभा चुनावों पर क्या असर पड़ेगा? असम से बाहर क्या होता है, यह अभी देखने वाली बात होगी, लेकिन असम का मुसलमान वोटर एक बार फिर से कांग‘ेस की ओर झुक जाए तो आश्‍चर्य नहीं होना चाहिए| जो मुसलमान वोटर बदरुद्दीन अजमल की पार्टी की ओर झुकने लगा था, वह इस बार तो अवश्य देख रहा होगा कि किस तरह मौलाना अजमल चुप्पी साध गए हैं| या किस तरह वे संकट के समय भी मुंबई-दुबई के चक्कर लगा रहे हैं|

किसी अन्य देश के नागरिक के बारे में तभी यह प्रमाणित किया जा सकता है कि वह अन्य देश का नागरिक है, जब या तो उसके पास ऐसे दस्तावेज पाए जाएं, जैसे पासपोर्ट या फोटो पहचान पत्र, जो उसे उस देश का नागरिक साबित कर सके, या फिर वह स्वयं स्वीकार करे कि वह अमुक देश में अमुक गांव का नागरिक है| जिन लोगों को अब तक न्यायालय के आदेश पर वापस खदेड़ने के लिए सीमा पर ले जाया गया है, उनके बारे में यह तो प्रमाण है कि वह भारत का नागरिक नहीं है, लेकिन क्या हमारी अदालतों ने यह भी प्रमाणित किया है कि वह बांग्लादेश का ही नागरिक है? ऐसा नहीं होने तक हम बांग्लादेश सरकार से इस मुद्दे पर अपनी बात नहीं मनवा पाएंगे और न ही अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अपनी बात को तर्कपूर्ण ढंग से रख पाएंगे।

अवैध बांग्लादेशियों की समस्या के जिस पहलु पर सबसे कम ध्यान दिया गया, वह है अवैध बांग्लादेशी प्रमाणित हो चुके व्यक्ति को वापस उसके देश किस तरह भेजा जाएगा| बांग्लादेशियों के मुद्दे पर जो लोग भावनाओं में बहते हैं और सोचते हैं कि सरकार कड़ाई बरते तो उन्हें उनके देश वापस भेजा जा सकता है, उन्हें यदि यह बताया जाए कि ऐसा होना लगभग असंभव है तो उनके उत्साह पर पानी फिर सकता है| बांग्लादेशियों के मुद्दे पर अति उत्साही लोगों को यदि यह बताया जाए कि घुसपैठिया प्रमाणित होने के बाद भी ऐसे लोगों के भारत में ही रह जाने की संभावना है, भले उनके नागरिक अधिकार न रहें - तो उनमें से अधिकांश मानेंगे कि उनकी ऊर्जा एक निरर्थक काम में जाया हो गई| लेकिन ऐसा होने की संभावना ही अधिक है।

किसी अन्य देश के नागरिक के बारे में तभी यह प्रमाणित किया जा सकता है कि वह अन्य देश का नागरिक है, जब या तो उसके पास ऐसे दस्तावेज पाए जाएं, जैसे पासपोर्ट या फोटो पहचान पत्र, जो उसे उस देश का नागरिक साबित कर सके, या फिर वह स्वयं स्वीकार करे कि वह अमुक देश में अमुक गांव का नागरिक है| जिन लोगों को अब तक न्यायालय के आदेश पर वापस खदेड़ने के लिए सीमा पर ले जाया गया है, उनके बारे में यह तो प्रमाण है कि वह भारत का नागरिक नहीं है, लेकिन क्या हमारी अदालतों ने यह भी प्रमाणित किया है कि वह बांग्लादेश का ही नागरिक है? ऐसा नहीं होने तक हम बांग्लादेश सरकार से इस मुद्दे पर अपनी बात नहीं मनवा पाएंगे और न ही अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अपनी बात को तर्कपूर्ण ढंग से रख पाएंगे| इसलिए यह तय है कि जिन लोगों को अवैध घुसपैठिया करार दिया जाएगा, वह अंततः भारत में ही राज्यविहीन व्यक्ति के रूप में रह जाएगा| बहुत कम लोगों को मालूम है कि रोहिंग्या मुसलमानों की तरह दो लाख से ऊपर हिंदुओं को बर्मा में राज्यविहीन व्यक्ति करार दे रखा गया है| बर्मा के ब्रिटिश शासन से स्वाधीन होने के बाद ये भारतीय मूल के लोग वहीं रह गए थे| आज उन हिंदुओं को भारत सरकार स्वीकार नहीं कर रही और बर्मा सरकार उन्हें किसी भी तरह का नागरिक अधिकार दे नहीं रही| कुल मिलाकर यही समझ में आता है कि अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं की क्रूरता के बारे में आम आदमी को कितनी कम समझ है।

शनिवार, 25 अगस्त 2012

असम की चिट्ठी

 असम में ईद ठीकठाक ढंग से बीत जाने पर देश भर में लोगों ने राहत की सांस ली है। लेकिन असम से ज्यादा दक्षिण भारत और महाराष्ट्र को लेकर ज्यादा चिंता थी क्योंकि धमकी भरे असएमएस बेंगलुरू और पुणे में ही दिए गए थे। पूर्वोत्तर से वहां गए प्रवासी इसीलिए वहां से भाग आए थे। पहले ही इस बात का अहसास था कि यह एक हौवा है, ईद आएगी और चली जाएगी और कुछ होगी नहीं। क्योंकि भारत में हिंसा पहले से कहकर नहीं आती। वह जब आती है तो बिना किसी पूर्व सूचना के आती है। लेकिन पूर्वोत्तर के लोगों के भागने की घटना ने असम को देश के एजेंडा में सबसे ऊपर रख दिया है। दो साल बाद होने वाले लोकसभा चुनावों पर भी असम की घटनाओं का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहेगा। इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है जब असम और पूर्वोत्तर पर देश का इतना ज्यादा ध्यान गया है। यदि यह ध्यान सुचिंतित समाधानों की ओर बढ़ता है तो इसे एक सकारात्मक घटना माना जाएगा। लेकिन देखा जा रहा है कि राजनीतिक दल चीजों को सिर्फ सतही ढंग से देखने में व्यस्त हैं, इसलिए आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि असम की समस्या पहले की अपेक्षा ज्यादा उलझ जाए। इससे पहले भी हमने लिखा था कि असम आंदोलन के दौरान आसू तथा असम गण संग्राम परिषद ने कुछ समूहों को भारत की विभिन्न दिशाओं में यह बताने के लिए भेजा था कि असम की वास्तविक समस्या क्या है। क्यों देश को असम की समस्या पर ध्यान देना चाहिए और किस तरह यह समस्या आने वाले कल को सारे देश को अपने आगोश में ले लेगी। 1980 में जो भविष्यवाणी की गई थी वह आज सच साबित हो रही है। विश्लेषण हमेशा गलत साबित नहीं होते, यह अलग बात है कि कई बार वे उससे ज्यादा वक्त ले लेते हैं जितने का अनुमान किया जाता है। अब एक बार फिर समय आ गया है कि असम की समस्या के बारे में ठीक-ठीक और बिना राजनीतिक रंग वाली जानकारी देने के लिए बुद्धिजीवी देश के दूसरे हिस्सों में जाएं और बताएं कि असम की समस्या का हल क्यों बाकी देश के भी हित में है। 

1980 में इंटरनेट नहीं था, आज इंटरनेट है। अखिल असम छात्र संघ और पूर्वोत्तर छात्र संगठन अपनी एक वेबसाइट खोलकर समस्या पर अपने नजरिए को इस पर डाल सकते हैं। 1980 में असम और पूर्वोत्तर के बारे में अंग्रेजी में भी नगण्य सामग्री उपलब्ध थी। किसी पत्रिका में कुछ निकलता था तो हम उसे चाट जाते थे। आज अंग्रेजी में काफी सामग्री और पुस्तकें उपलब्ध हैं। लेकिन हिंदी तथा अन्य भाषाओं में आज भी स्थिति दरिद्रता की है। आश्चर्य ही क्या कि हिंदी पट्टी के पत्रकारों-बुद्धिजीवियों का असम-विवेचन कई बार हास्तास्पदता की सामाएं छूता है।

कर्नाटक और महाराष्ट्र सरकार ने पूर्वोत्तर वासियों को वहां से भागने से रोकने के लिए जो प्रयास किए वे आंखें खोलने वाले हैं। खासकर पूर्वोत्तर के राजनीतिज्ञ तो इस जन्म में कभी वह सब नहीं कर सकते जो कर्नाटक सरकार ने किया है। पूर्वोत्तर में बाहरी राज्यों से काफी लोग आकर बसे हुए हैं, जबकि दो दशक पहले तक पूर्वोत्तर से कोई इक्का-दुक्का लोग ही बाहर जाते थे। स्थायी रूप से बसने के लिए तो कोई नहीं जाता था। अब दो दशकों से पढ़ाई के लिए जो लोग जाते हैं उनमें से बहुतेरे वहीं नौकरी करने लग जाते हैं। बाहरी राज्यों से पूर्वोत्तर में बसे लोगों को कभी अच्छी नजर से नहीं देखा गया। हो सकता है व्यक्तिगत स्तर पर किसी को कोई असुविधा नहीं हुई हो, लेकिन एक समूह के रूप में बाहरी राज्यों से आए लोगों के लिए समाचारपत्रों में खुले रूप में आज भी तिरस्कारपूर्ण शब्दों के इस्तेमाल को एक सामान्य बात माना जाता है। कई जगह इस तरह की पंक्तियां पढ़ने को मिल जाती हैं कि "असम एक चरागाह है जहां ये लोग चरने आ जाते हैं।'

आज जब हम देखते हैं कि एक राज्य का उप-मुख्यमंत्री असम सिर्फ इसलिए आता है कि उनके राज्य की राजधानी से भागकर आए लोगों को सुरक्षा का आश्वासन दिया जा सके। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रियायती दर पर हवाई जहाज उपलब्ध कराने की पेशकश करते हैं। घटनाएं घटती हैं और दिन गुजरने के साथ भुला दी जाती हैं या लोग सोचते हैं कि भुला दी जाती होंगी। लेकिन क्या सचमुच घटनाएं भुला दी जाती हैं। एक-एक घटना एक-एक समुदाय की विश्व दृष्टि यानी चीजों के प्रति नजरिए को बदलने वाली होती है। सिर्फ उन लोगों के लिए नहीं जिन्होंने उन घटनाओं को देखा और भोगा है। बल्कि उनकी आने वाली पीढ़ियां भी उन घटनाओं की छोटी से छोटी तफसील, उन घटनाओं से पैदा हुए "ज्ञान' को ग्रहण करते हुए बड़ी होती हैं। ऐसी घटनाओं के समय विभिन्न लोगों - पड़ोसियों, शहरवासियों, सरकारों - द्वारा दिखाए गए आचरण को वे भविष्य में एक कसौटी के रूप में इस्तेमाल करते हैं। तभी तो असमवासी 1962 के ीचन युद्ध के समय पंडित नेहरू के कहे शब्दों को आज भी याद करते हैं। नगा युवा अपने बुजुर्गों से खोनोमा गांव के कत्लेआम की कहानियां सुनकर बड़ा होता है।

कर्नाटक और महाराष्ट्र की सरकारों ने अपने शहरों में रहने वाले प्रवासियों के प्रति जो संवेदनशीलता दिखाई है वह भविष्य के लिए एक नजीर बन जाएगी। "हिंदुस्तान एक है यहां हर कहीं हर किसी को रहने का हक है।' बेंगलुरु स्टेशन पर खड़े एक पूर्वोत्तरवासी को टीवी कैमरा के सामने यह नारा लगाते सुनना सुखद लगा था। इस नारे की प्रतिध्वनि हो सकता है भविष्य में पूर्वोत्तर में भी सुनाई दे। हो सकता है कभी यह भाव भी जाग्रत हो कि जब समय की मांग हुई थी तब हमने इस वाक्य के मर्म को अपने राज्य में लागू नहीं किया था।

शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

असम को लेकर अज्ञान

शुक्र है कि असम में ईद का त्योहार ठीक-ठाक गुजर गया, लेकिन वहां की हिंसा के संदर्भ में जो चीज सबसे ज्यादा आश्चर्य में डालने वाली है, वह है राज्य से बाहर के लोगों में असम के बारे में कुछ भी न सीखने की जिद। अब भले ही वह लालकृष्ण आडवाणी जैसे पूर्व उप प्रधानमंत्री हों, या चौबीसों घंटे चलने वाले खबरिया चैनल, हिंदी के राष्ट्रीय अखबार हों या देश का उर्दू मीडिया। ऐसा लगता है कि किसी की भी मामले की तह तक पहुंचने में कोई रुचि नहीं है, लेकिन हर कोई इस हिंसा में से अपनी पसंद का कोई एक पहलू छांट कर उसकी ढोल पीटना चाहता है।

भारतीय बनाम बांग्लादेशी

श्री आडवाणी ने कोकराझाड़ की हिंसा को 'भारतीय बनाम बांग्लादेशी' की लड़ाई के फारमूले में ढाल कर इसका पॉलिटिकल माइलेज लेने की कोशिश की। लेकिन उन्होंने यह सोचने की कोशिश नहीं की कि उन्हीं के गृह मंत्री रहते 2003 में हुए बोड़ो समझौते के तहत उग्रवादियों से सारे हथियार वापस क्यों नहीं लिए गए थे। और यह इलाका आज भी अपराधियों का स्वर्ग क्यों बना हुआ है कि पुलिस भी कोई कार्रवाई करने में हिचकती है।

उर्दू अखबारों और मुस्लिम संगठनों को मुख्यमंत्री पद की बलि चाहिए, इससे कम कुछ नहीं। उनके लिए एक बिकाऊ फार्मूला है -तरुण गोगोई की तुलना नरेंद्र मोदी से करना। वे कहते हैं कि चूंकि बोड़ो स्वायत्त इलाके में राज कर रहे बोड़ो पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) के साथ प्रदेश में कांग्रेस ने गठजोड़ कर रखा है, इसलिए राज्य सरकार अपनी भागीदार पार्टी के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं कर सकती। उर्दू मीडिया के ये विश्लेषक इस तथ्य पर गौर नहीं करना चाहते कि असम में कांग्रेस का बीपीएफ के साथ गठजोड़ तो है, लेकिन सत्ता में बने रहने के लिए कांग्रेस किसी भी अन्य पार्टी पर निर्भर नहीं है। इसके अलावा, कांग्रेस और बीपीएफ के इस गठजोड़ के बावजूद बीपीएफ अपने प्रभाव वाले इलाके में कांग्रेस के लिए एक भी सीट नहीं छोड़ती।

राज्य की मांग का विरोध


असम की घटनाओं को सतही ढंग से देखने वालों को मालूम नहीं है कि बोड़ो स्वायत्त इलाके में तीन-चार महीने पहले से ही गैर बोड़ो समुदायों ने अपना एक संगठन बनाकर आंदोलन छेड़ रखा था। यह आंदोलन बोड़ो स्वायत्त इलाके में बढ़ रहे अपहरण और धन वसूली जैसे अपराधों के विरुद्ध था। इन समुदायों की सम्मिलित आबादी बोड़ो स्वायत्त इलाके में 70 फीसदी तक है। ये समुदाय अलग बोड़ोलैंड राज्य की मांग का भी विरोध करते रहे हैं। पिछली जुलाई में इन लोगों ने अपनी इन मांगों को ले कर गुवाहाटी में राजभवन के सामने प्रदर्शन भी किया था। लेकिन अलग बोड़ोलैंड राज्य की मांग का विरोध किसी भी बोड़ो संगठन या राजनीतिक पार्टी को रास नहीं आया और इसने गैर बोड़ो आबादी के लिए उनके मन में बसी नफरत के लिए आग में घी का काम किया।

बोड़ो स्वायत्त क्षेत्र के गैर बोड़ो समुदायों की आबादी में अच्छा-खासा हिस्सा मुसलमानों का है। इन मुसलमानों कोआम बोलचाल में बांग्लादेशी कह दिया जाता है। यह बात इस मायने में सही है कि ये सभी मूल रूप से वहां के हैंजिसे आज बांग्लादेश कहा जाता है। और यह इस मायने में गलत है कि ये सभी बांग्लादेशी घुसपैठिए नहीं हैं।इनका असम में आना उस समय से जारी है, जब आज का बांग्लादेश अविभाजित भारत का हिस्सा था। वे पश्चिमबंगाल और त्रिपुरा में भी इसी तरह आते रहे हैं। इस संबंध में असम के लोगों का केंद्र सरकार के साथ यह समझौताहुआ है कि मार्च 1971 तक आए लोगों को भारतीय नागरिक मान लिया जाएगा। आज असम की आबादी में 30फीसदी से अधिक मुसलमान हैं। इनमें बहुत छोटा-सा हिस्सा असमिया भाषी मुसलमानों का है, बाकी सभीबांग्लाभाषी मुसलमान हैं। इन बांग्लाभाषी मुसलमानों में अवैध घुसपैठिए नहीं होंगे, यह नहीं कहा जा सकता।

जब बोड़ो स्वायत्त क्षेत्र में रहने वाले गैर बोड़ो लोगों की ओर से यह चुनौती मिलने लगी कि सिर्फ 30 फीसदी बोड़ोआबादी 70 फीसदी आबादी पर अपना राज कैसे चला सकती है, तो बोड़ो समुदाय ने इसका आसान-सा उत्तरखोजा। 21 जुलाई से मुसलमानों को उनके गांवों से खदेड़ना ही वह उत्तर था जो बोड़ो समुदाय ने उनके वर्चस्व कोचुनौती देने वाले मुसलमानों को दिया है। हालांकि सरकारी दस्तावेजों में 2003 के बाद से बीएलटी नामक संगठनका कोई अस्तित्व नहीं है और इसके सदस्य रहे लोगों के पास कोई हथियार भी नहीं है। लेकिन सचाई यह है किहथियारबंद पूर्व बीएलटी के सदस्य इस बोड़ो स्वायत्त क्षेत्र में आतंक का पर्याय बने हुए हैं। बोड़ो स्वायत्त क्षेत्र में जोकुछ हुआ है, उसके छोटे-छोटे संस्करण असम के पड़ोसी राज्यों में भी यदा-कदा घटित होते रहे हैं। इन राज्यों केबाशिंदों को हमेशा यह खतरा दिखाई देता है कि अस्थायी रूप से आए ये मजदूर यहां-वहां खाली पड़ी जमीन परअपना बसेरा बना लेंगे और बाद में इन्हें वापस करना मुश्किल हो जाएगा।

नागरिकों की पहचान

असम में नागरिकों की पहचान का कोई सर्वमान्य तरीका नहीं होने के कारण सारे बांग्लाभाषी मुसलमानों कोइसका खामियाजा उठाना पड़ता है। इसका एकमात्र हल यह है कि नागरिकों का एक राष्ट्रीय रजिस्टर बनाया जाए,जिसमें सभी भारतीय नागरिकों के नाम हों। किसे भारतीय नागरिक माना जाएगा और यह रजिस्टर कैसे बनेगा,इस पर काफी वाद-विवाद के बाद सभी पक्षों के बीच सहमति बन चुकी है। लेकिन फिर भी यह रजिस्टर सिर्फप्रशासनिक बहानेबाजियों के कारण नहीं बन पा रहा है। नकारात्मक भविष्यवाणी करना अच्छा नहीं लगता, फिरभी कहना पड़ता है कि जब तक यह रजिस्टर नहीं बन जाता, तब तक यह हिंसा बार-बार सिर उठाती रहेगी।

 (22 अगस्त को नवभारत टाइम्स में प्रकाशित)

बुधवार, 8 अगस्त 2012

बांग्लादेशी घुसपैठियों की समस्या का समाधान संभव है

असम अब दिल्ली से दूर नहीं रहा। अब तक जो मानसिक दूरी थी वह लगता है खत्म होती जा रही है। यह बात पिछली दो घटनाओं से प्रमाणित हो गई। एक तो जीएस रोड कांड की अनुगूंज जिस तरह सारे देश में सुनाई दी उससे एक बार तो असम के लोग भौचक्के रह गए। आदत से मजबूर कुछ लोगों ने इसमें भी साजिश खोजने की कोशिश की। ऐसे लोगों ने अब तक सोशल नेटवर्किंग, यू ट्यूब और इलेक्ट्रानिक मीडिया के द्वारा लाए गए परिवर्तन को आत्मसात नहीं किया है। दिल्ली का पत्रकार जब असम के बारे में बोलता है तो ऐसे लोगों को अटपटा लगता है। अभी आदत नहीं हुई है। दूसरी घटना है - कोकराझाड़ की हिंसा। यह घटना तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गूंजी है। कोई यह सोचता है कि मरने वालों की संख्या के कारण मीडिया का ध्यान आकृष्ट हुआ है तो वह गलत है। क्योंकि बोड़ो इलाके में समय-समय पर हिंसा भड़कती रहती है। सबसे ताजा हिंसा 2008 में भड़की थी, तब अभी की तुलना में कहीं ज्यादा लोग मारे गए थे। लेकिन राष्ट्रीय मीडिया ने इसका नोटिस ही नहीं लिया था। इन चार सालों में ऐसा क्या बदल गया है कि असम की घटनाओं पर मीडिया का पयाप्तर् ध्यान जाने लगा है। हमें लगता है कि यह इंटरनेट के प्रभाव के कारण है, हालांकि इस पर और अधिक चिंतन की गुंजाइश है।

जब बांग्लादेशी घुसपैठियों के खिलाफ आंदोलन चला था (1979 से 1985 तक, इसे असम आंदोलन कहा गया), तो आंदोलन के नेताओं को इस बात पर कोफ्त होती थी कि इतने बड़े-व्यापक आंदोलन के बारे में, असम के बाहर कोई जानता तक नहीं। पिछले साल अन्ना के आंदोलन को जो जनसमर्थन मिला था उससे कई गुना ज्यादा समर्थन उस आंदोलन को मिला था। तब आंदोलन के नेताओं ने छोटी-छोटी टीमें बनाईं जिनमें हिंदी और अंग्रेजी जानने वाले लोगों को रखा गया। इन टीमों का काम था राज्य के बाहर जाकर पत्रकारों से बातचीत कर उन्हें असम में होने वाली बांग्लादेशी घुसपैठ के बारे में बताना, तथा यह भी साफ करना कि असम आंदोलन अन्य राज्यों से आए भारतवासियों के खिलाफ नहीं है। एक तरह से असम से बाहर असम के बारे में फैले अज्ञान के कारण भी असम के लोगों में यह भावना भर गई कि हमें तो कोई पूछता ही नहीं। जो भी हो, हम इस तथ्य पर ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं कि जिस बांग्लादेशी घुसपैठ पर असमवासियों ने बाकी देशवासियों का ध्यान आकर्षित करने के लिए इतनी ज्यादा मेहनत की थी, वह मुद्दा इस बार कोकराझाड़ की हिंसा के बाद एकाएक चर्चा का विषय बन गया।

राष्ट्रीय मीडिया पर बांग्लादेशी घुसपैठ के मुद्दे पर आज भी चर्चा हो रही है, लेकिन इस चर्चा में गहराई नहीं है। ज्यादातर यह चर्चा मुस्लिम विद्वेष से ग्रसित है। कहीं अति सरलीकरण की शिकार है। बोड़ो नेता काफी हद तक मीडिया से इस मायने में फायदा उठाने में कामयाब रहे कि उन्होंने ताजा हिंसा को बांग्लादेशी बनाम बोड़ो हिंसा का जामा पहना दिया और ज्यादातर लोग इसे इसी नजरिए से देखने लग गए। राज्य से बाहर के लोग सोचते हैं कि बांग्लादेश से लोग सीमा पार कर आ रहे हैं और बोड़ो इलाकों में बस रहे हैं, इसके कारण वहां लोगों में गुस्सा और असंतोष फैल रहा था, जो 21 जुलाई से शुरू हुई हिंसा का कारण बना। जबकि उन लोगों को पता नहीं है कि इससे पहले संथाल लोगों को भी इसी तरह बोड़ो इलाकों से भगाया गया था। उन पर तो बांग्लादेशी घुसपैठिया होने का ठप्पा नहीं लगा था। कोकराझाड़ की हिंसा को बोड़ो बनाम बांग्लादेशी का रूप देकर बोड़ो नेतृत्व एक तरह से हिंसा को वैधता प्रदान करने में कामयाब हो गया है। 


कोकराझाड़ हिंसा के कारण ही सही जब बांग्लादेशी घुसपैठ की समस्या राष्ट्रीय चर्चा के केंद्र में आ गई है तो हमें इस अवसर का लाभ उठाते हुए इस पर सुचिंतित तरीके से विचार-विमर्श करना चाहिए और देखना चाहिए कि इसके क्या-क्या संभावित समाधान हो सकते हैं।

1. विदेशी घुसपैठियों की पहचान की जाए, उन्हें वापस सीमा के पार भेजा जाए, इससे भी ज्यादा जरूरी यह है कि नए आने वाले घुसपैठियों को रोका जाए। इसके लिए कोई नया चिंतन, नई बातचीत करने की जरूरत नहीं है। सभी पक्षों के बीच सहमति है कि सीमा पर बाड़ का काम पूरा होना चाहिए। बाड़ लगाने का ज्यादातर काम पूरा हो चुका है और थोड़ा-सा ही काम बचा है। भारत में सरकारी काम किस तरह होता है, उसका एक नमूना है सीमा को सील करने का यह काम। कुछ मित्र बाड़ लगाने के काम के महत्व को यह कहकर कम करना चाहते हैं कि एक दस रुपए के कटर से आप बाड़ काटकर अंदर प्रवेश कर सकते हैं। लेकिन यह सही तर्क नहीं है। हर बाड़ को काटा जा सकता है, हर दीवार में सेंध लगाई जा सकती है, लेकिन फिर भी बाड़ और दीवार के बिना किसी इलाके की चौकीदारी करना और बाड़ या दीवार से घिरे इलाके की चौकीदारी करने में अंतर है।

नए घुसपैठियों को रोकने की दिशा में दूसरा महत्वपूर्ण काम है नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) को अद्यतन करना यानी नए जन्मे नागरिकों के नाम इसमें डालकर इसे एक जीवंत दस्तावेज बनाना। असम में वोटर पहचान पत्र नहीं दिए गए हैं, क्योंकि शक है कि मतदाता सूचियों में काफी विदेशियों के नाम भरे हुए हैं। इसलिए अभी तक कोई ऐसा दस्तावेज नहीं है जिसकी प्रामाणिकता प्रश्नातीत हो। एनआरसी को अद्यतन करने पर भी सभी पक्षों के बीच सहमति है। राज्य के दो राजस्व सर्किल में प्रयोग के तौर पर यह काम शुरू भी किया गया था। लेकिन अल्पसंख्यक समुदाय को इसकी प्रक्रिया पर कुछ आपत्तियां थीं, उन आपत्तियों को दूर नहीं किया गया, उसके विरुद्ध प्रदर्शन हुआ, गोलियां चलीं, कई लोग मारे गए और काम रोक दिया गया। उसके बाद फिर से सभी पक्षों के बीच बैठकों के दौर चले और अब सहमति बन चुकी है कि एनआरसी बनाने का काम फिर से शुरू करना चाहिए। एनआरसी को अद्यतन करना इसलिए जरूरी है कि यह एक आधार बन जाएगा किसी की नागरिकता को प्रमाणित करने के लिए। एनआरसी बनने के बाद किसी भी नए आए विदेशी को पहचानना आसान हो जाएगा। एनआरसी नए आने वाले घुसपैठियों को रोकने का कारगर हथियार बन जाएगा। 

2. असम में इस समय दो तरह के लोग हैं। एक वे हैं जो सोचते हैं कि विदेशियों की पहचान हो जाने के बाद एक न एक दिन उन्हें वापस उनके मूल देश में भेजना संभव हो पाएगा। दूसरा वर्ग ऐसे लोगों का है जो अब तक के घटनाक्रम से निराश हो चुका है और उसे उम्मीद नहीं है कि विदेशियों को कभी वापस भेजना संभव हो पाएगा। दोनों ही नजरिए सही नहीं हैं क्योंकि दोनों ही इस बात को ज्यादा महत्व देते हैं कि जो घुसपैठिए आ गए वे कब वापस बांग्लादेश भेजे जाएंगे।

इक्का-दुक्का लोगों को पकड़ लेना और अदालत की लंबी प्रक्रिया से गुजार कर उन्हें बांग्लादेश के बार्डर गार्ड्‌स की नजरों से बचाकर रात के अंधरे में पुश बैक करना अलग बात है, लेकिन बड़े स्तर पर घुसपैठियों को वापस भेजना दिवास्वप्न के अलावा कुछ नहीं है। इसमें दो बाधाएं हैं - एक तोे लंबी चलने वाली भारतीय न्याय प्रक्रिया और दो, बांग्लादेश सरकार द्वारा भारत से भेजे जाने वाले लोगों को अपने नागरिक के रूप में स्वीकार न किए जाने की संभावना। रोहिंगा मुसलमानों को म्यांमार से अपने देश में घुसने न देने के लिए बांग्लादेश ने जिस कड़ाई का प्रदर्शन किया उससे हमारी इस धारणा को बल मिलता है।

यदि एनआरसी का काम ठीकठाक चलता है और काफी संख्या में बांग्लादेशी घुसपैठियों की पहचान कर ली जाती है तो ज्यादा संभावना है कि वे राज्यविहीन नागरिकों के रूप में हमारे ही देश में रह जाएंगे। ये लोग भारत के नागरिक नहीं होंगे इसलिए नागरिक अधिकारों से वंचित होंगे और चुनाव प्रक्रिया को किसी भी तरह प्रभावित नहीं कर पाएंगे। लेकिन यह भी संभव हो पाएगा क्या इस पर एक बहुत बड़ा प्रश्न चिह्न है। क्योंकि जब दो-तीन लाख लोग एक साथ खड़े हो जाते हैं तो वे अपने-आप में एक बहुत बड़ी राजनीतिक ताकत बन जाते हैं। तब उनकी बात न्यायपूर्ण है या नहीं इससे ज्यादा महत्त्व उनकी संख्या और बाहर से उनको मिलने वाले समर्थन का हो जाता है।

3. असम में पूर्व बंगीय मूल के लोगों से सबसे ज्यादा राजनीतिक रूप से खतरा महसूस किया जा रहा है। स्वाधीनता के बाद से असम में असमिया भाषी समुदाय का राजनीतिक वर्चस्व रहा है। अब इन पूर्व बंगीय मूल के लोगों (जिन्हें लोग बांग्लादेशी कह देते हैं, लेकिन सभी बांग्लादेशी नहीं हैं) के कारण यह वर्चस्व अब टूटा, तब टूटा की स्थिति है। लेकिन इस वर्चस्व को बचाने का बहुत ही आसान-सा उपाय है। 15 अगस्त 1985 को हुए समझौते में केंद्र सरकार ने असम आंदोलन के नेतृत्व को यह आश्वासन दिया था कि असमिया समुदाय की अलग पहचान की रक्षा के लिए संविधान में विशेष व्यवस्था की जाएगी। इस विशेष व्यवस्था का सीधा मतलब है अन्य चीजों के अलावा विधानसभा में असमिया समुदाय के लिए आरक्षण की व्यवस्था। जब यह समझौता हुआ था तब की परिस्थिति में "असमिया' शब्द पर कोई विवाद नहीं था। लेकिन बाद के वर्षों में असम के बोड़ो, कार्बी आदि बहुत से जनजातीय समुदायों ने अपने आपको असमिया मानने से इनकार कर दिया। इसलिए अब मामला यहां अटक गया है कि "असमिया' किसे मानें। केंद्र सरकार ने यह निर्णय करने का दायित्व असम सरकार को सौंप दिया है। यहां फिर उसी भारतीय कार्यपद्धति का रोड़ा सामने आ जाता है। कमेटी पर कमेटी बैठ रही है, असम समझौते पर दस्तखत करने वाले प्रफुल्ल महंत बूढ़े हो गए हैं, भृगु फूकन इस दुनिया में नहीं रहे लेकिन असमिया समुदाय के लिए एक अति महत्वपूर्ण विषय का निपटारा आज तक नहीं हो पाया है। असमिया की परिभाषा में कौन-कौन लोग शामिल होंगे यह आज तक तय नहीं हो पाया है।

शनिवार, 4 अगस्त 2012

इस तरह हुआ जातीय सफाया

"दिन में करीब तीन बजे का समय होगा, वे लोग एक तरफ से आए, उनमें से कुछ के मुंह काले कपड़े से ढंके हुए थे, वे मिलिट्री जैसी पोशाक पहने हुए थे, हाथों में बंदूकें थीं, जिनसे वे गोलियां छोड़ते जा रहे थे। क्या कहा आपने, गोली किसी को लगी क्या...जी मेरे ही पैर के पास से गोली पार हो गई। वे लोग हमारे मवेशियों को मारते जा रहे थे।''

यह कहना है 55 वर्षीय नूर इस्लाम का। नूर इस्लाम धुबड़ी जिले के बिलासीपाड़ा कस्बे के रोकाखाटा हाई स्कूल में लगे राहत शिविर में अपने परिवार तथा अन्य करीब चार हजार लोगों के साथ रुका हुआ है। यह घटना मंगलवार (24 जुलाई) की है। तब तक सेना को नियुक्त नहीं किया गया था। यह बातचीत हम शुक्रवार को कर रहे हैं। चार दिन में ही शिविर में हाल बेहाल है। डिसेंट्री और बुखार की शिकायतें आम हैं। कुछ महिलाएं गर्भवती हैं, तो कुछ की गोद में एक महीने से भी छोटा बच्चा है। सरकार ने चावल, दाल और सरसों तेल भेज दियाहै। बाकी चीजें जैसे जलावन और बच्चों के लिए दूध कहां से आएगा। बिलासीपाड़ा के स्वयंसेवी संगठन, मारवाड़ी व्यवसायियों का संघ ये लोग राहत शिविर वासियों के लिए आगे आए हैं। इस संवाददाता के सामने ही एक आटो से आवश्यक वस्तुएं उतारी जा रही हैं।

""सरकार की ओर सिर्फ एक दिन एक मोबाइल डिस्पेंसरी आई थी। उनके पास सिर्फ नोरफ्लोक्सेसिन टैबलेटें (डिसेंट्री में काम आने वाली दवा) थीं। उनके साथ स्वास्थ्य विभाग के ज्वाइंट डाइरेक्टर थे। हमने कहा कि इस मरीज को सेलाइन चढ़ाने की जरूरत है, तो डाइरेक्टर महोदय ने हमें बुरी तरह डांट दिया और चलते बने। उसके बाद से शिविर की सुध लेने कोई सरकारी नुमाइंदा नहीं आया।''
 


चिरांग जिले के पुरान बिजनी के स्कूल में स्थापित शिविर के बाहर रास्ते पर ही मरीजों को सेलाइन चढ़ाने में मदद करने में व्यस्त जाकिर ये बातें क्षोभ के साथ बताता है। वहां एक पेड़ के नीचे करीब सात-आठ मरीजों का इलाज चल रहा है। एक को छोड़कर बाकी सभी महिलाएं हैं। स्थानीय लोग यहां भी मदद कर रहे हैं। एक निजी प्रैक्टिस करने वाले चिकित्सक अपनी सेवाएं दे रहे हैं। तब तक हमारे पीछे से एक करीब साठ वर्षीय पुरुष को सहारा देकर वहां लाया जाता है। क्या हुआ? ""यहां लगभग सभी को डायरिया हो रहा है। इसमें सेलाइन ही चढ़ानी पड़ती है। टेबलेट से काम नहीं होता। स्थानीय स्वयंसेवी संगठन ने कुछ सेलाइनें खरीद दी हैं,'' इलाज में व्यस्त डाक्टर पेड़ की टहनी से सेलाइन की बोतल लटकाने का प्रयत्न करते हुए धीरज के साथ बताते हैं। ""जल्दी ही बड़े रूप में मदद नहीं आई तो डायरिया कमजोर बच्चों की जान लेने लग जाएगा।''

चिरांग जिले में हिंसा देर से फैली है। ये लोग 25 तारीख से शिविर में हैं। आज 28 है। सरकार के यहां "जल्दी' जैसा कोई शब्द नहीं है। सब कुछ अपनी मस्त सरकारी चाल से होता है। मौतें होंगी और उन पर मीडिया में हो-हल्ला होगा, उसके बाद इलाके में चिकित्सा पहुंचेगी। यह हाल अंदरुनी गांव का नहीं, बिजनी सब-डिवीजन के एसडीओ के दफ्तर से महज तीन किलोमीटर दूरी का है। (4 अगस्त तक शिविरों में कम-से-कम तेरह बच्चों के मारे जाने के समाचार आते हैं। हमें हमारी आशंका सच साबित होने का दुख है।)

बिजनी में आल बीटीसी मुस्लिम छात्र संघ का कार्यकारी अध्यक्ष शाहनवाज प्रामानिक मिल जाता है। यह संगठन इस बार इस फसाद के केंद्र में है। कल तक शाहनवाज नामक यह युवक गैर-बोड़ो समुदायों के साथ भेदभाव का विरोध करने में आगे-आगे चलता था। आज वह खुद अपना घर-खेत छोड़कर एक शिविर में टिका हुआ है। क्या लोग अपने घरों को लौट जाएंगे? शाहनवाज निश्चित तौर पर कुछ नहीं कह पाता। यही सवाल जब कोकराझाड़ जिले से भाग कर आए एक शरणार्थी से बिलासीपाड़ा में किया गया तो वह सिहर उठा। बोला- नहीं, हमें जोर-जबर्दस्ती भेजने पर भी हम नहीं जाएंगे।

हमले में आग्नेयास्त्रों का इस्तेमाल

कोकराझाड़, धुबड़ी और चिरांग जिलों के कई शिविरों में ठहरे भुक्तभोगियों से बात करने के बाद यह कामन पैटर्न उभर कर सामने आता है-(क) हमला लगभग हर जगह दोपहर के बाद किया गया (ख) हमलावर कोई मुंह ढंके हुए था और कोई खुले मुंह (ग) हमलावर बंदूक आदि से लैस थे और बैटल फेटीग पहने थे, (घ) हमलावर लोगों पर सीधे गोलियां चलाने की बजाय दीवारों, मवेशियों पर ज्यादा गोलियां चला रहे थे, (ङ) हमलावरों ने गांववासियों को घेर कर नहीं मारा। हमला लगभग हर जगह एक तरफ से हुआ ताकि दूसरी ओर से गांव वालों के भागने का रास्ता खुला रहे, (च) हमला करने वाले सिर्फ मुसलमानों के घरों को छांट कर उनमें आग लगा रहे थे। किसी भी अन्य समुदाय के गांव या घर पर हमला नहीं हुआ, (छ) लगभग हर जगह यह आरोप सामने आया कि हमला करने वाले पूर्व उग्रवादी संगठन बीएलटी के सदस्य थे। यह उग्रवादी संगठन स्वायत्त बोड़ो क्षेत्र के आंदोलन के नेतृत्व में था और स्वायत्त क्षेत्र के 2003 में गठन के बाद इसका विघटन कर दिया गया। अब बीएलटी के कैडरों को एक्स-बीएलटी कहकर पुकारा जाता है। आरोप लगते रहे हैं कि इन पूर्व उग्रवादियों के पास अब भी हथियार हैं तथा वे इलाके में आतंक का पर्याय हैं।

एक्स-बीएलटी और अलग बोड़ोलैंड की मांग करने वाले उग्रवादी संगठन एनडीएफबी के दोनों गुटों का मुस्लिम समुदाय से नाराज होने का कारण भी समझ में आता है, क्योंकि इन पूर्व तथा वर्तमान उग्रवादियों के आतंक के विरुद्ध आवाज उठाने वालों में मुस्लिम समुदाय ही आगे-आगे रहा है। यह घटनाक्रम पिछले लगभग तीन-चार महीनों से चल रहा था, जो तेज नजर वाले पत्रकारों, राजनीतिज्ञों, अधिकारियों से छिपा हुआ भी नहीं था।

टीवी पर निठल्ला चिंतन और मुद्दे से भटकाव

हिंसाग्रस्त क्षेत्र का दौरा करके लौटने के बाद जब स्थानीय और राष्ट्रीय टीवी पर चलने वाली चर्चाओं को सुनते हैं तो एक तरह से उन पर दया आती है। टीवी पर होने वाला चिंतन किन बिंदुओं के इर्द-गिर्द घूमता है? एक, इस बाल की खाल निकालने में खासा समय जाया किया जाता हैकि सेना भेजने में देर किस कारण हुई। कुछ राजनीतिज्ञों को इसमें मुख्यमंत्री को परेशानी में डालने का अच्छा मौका नजर आ रहा है। दो, अचानक बांग्लादेश से होने वाली अवैध घुसपैठ एक मुद्दा बन गई है। अवैध घुसपैठ को हिंसा का कारण बताना प्रकारांतर से वर्तमान हिंसा को जायज ठहराना है। सवाल है कि क्या अब अवैध घुसपैठियों से निपटने का यही तरीका रह गया है, जो बीटीएडी के पूर्व और वर्तमान उग्रवादियों ने अपनाया है?

वर्तमान हिंसा का असली कारण है बीटीएडी इलाके में पूर्व और वर्तमान उग्रवादियों पर प्रशासन का कोई नियंत्रण नहीं होना। कानून और व्यवस्था लागू करने वाली मशीनरी वहां इस मामले में अपने आपको असहाय पाती है। सेना बीटीएडी इलाके में नियुक्त है, लेकिन सिर्फ उग्रवाद विरोधी अभियान के लिए। इसका व्यावहारिक अर्थ है सिर्फ एनडीएफबी के वार्ता विरोधी गुट के विरुद्ध अभियान के लिए।

पूर्व बीएलटी कैडर या एनडीएफबी का वार्तापंथी गुट यदि आपराधिक गतिविधि में लिप्त पाया जाता है, तो उससे निपटने का दायित्व सेना का नहीं, राज्य पुलिस का है। कई संगठनों को लेकर बना गैर-बोड़ो सुरक्षा मंच पिछले तीन-चार महीनों से इसी मुद्दे पर राज्यवासियों का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास कर रहा था। लेकिन मुद्दा चूंकि भटककर अवैध घुसपैठ पर केंद्रित हो गया है, तो इसका लाभ भी उन्हीं लोगों को मिलेगा जो वर्तमान हिंसा के लिए जिम्मेवार रहे हैं।

मंगलवार, 31 जुलाई 2012

कोकराझार से पूर्वोत्तर को समझें

अचानक असम के कोकराझार में हिंसा का दावानल क्यों फैल गया? पिछली 19 जुलाई को दो मुसलिम छात्र नेताओं पर गोलियां चलाकर हमला किया गया, लेकिन वे बच गए। शायद इसकी प्रतिक्रिया के रूप में ही दूसरे दिन पूर्व उग्रवादी गुट बीएलटी (बोडो लिबरेशन टाइगर्स) के चार कैडरों को मार डाला गया। इलाके में सांप्रदायिक हिंसा फैलाने के लिए इतना ही काफी था। जबकि राज्य सरकार को अच्छी तरह मालूम था कि बोडो स्वायत्त इलाके में सुरक्षा बलों की भारी कमी है और यदि कैसी भी हिंसा फैल जाए, तो उसे रोकना वहां उपलब्ध सुरक्षा बलों के लिए असंभव है। यही हुआ भी।

सवाल है कि यह तनाव कितने दिनों से वहां पनप रहा था। मौजूदा तनाव अलग बोडो राज्य की मांग के इर्द-गिर्द सिमटा हुआ है, जिसे लेकर 2003 में अस्तित्व में आए स्वायत्तशासी बीटीएडी (बोडो क्षेत्रीय स्वायत्तशासी जिले) इलाके में विभिन्न समुदाय गुटों में बंटे हुए हैं। सभी बोडो संगठन और राजनीतिक पार्टियां जहां बोडोलैंड के नाम से अलग राज्य की मांग कर रही हैं, वहीं विभिन्न गैर-बोडो समुदाय गैर-बोडो सुरक्षा मंच के बैनर तले संगठित होकर हाल के करीब तीन महीनों से बोडोलैंड की मांग का विरोध करने लगे हैं।

असम के जनजाति बहुल इलाकों में ऐसा बहुत कम देखा गया है कि वर्चस्व वाली जनजाति के खिलाफ कोई दूसरा समुदाय इस तरह मुखर रूप से उठ खड़ा हो। इससे पहले हमने राभा हासंग नामक स्वायत्तशासी इलाके की मांग करने वाले राभा समुदाय के खिलाफ भी लोगों को एकजुट होते देखा है। अलग डिमाराजी राज्य की मांग करने वाले डिमासा समुदाय के खिलाफ भी विभिन्न गैर-डिमासा समुदायों का आंदोलन डिमा हासाउ जिले में हो चुका है। मगर इस तरह का घटनाक्रम नई परिघटना है।

बोडो क्षेत्रीय प्रशासनिक जिलों में गैर-बोडो समुदायों द्वारा स्वायत्तशासी प्रशासन के विरुद्ध भेदभाव का आरोप लगाना, और बोडोलैंड की मांग का विरोध करना, वहां विभिन्न बोडो संगठनों को नागवार गुजरा है। और इसके कारण विगत कुछ दिनों से वहां बोडो और मुसलिम आबादी के बीच तनाव बढ़ रहा था।

कहा जा रहा है कि बीटीएडी इलाके में फैली हिंसा दो समुदायों के बीच फैली हिंसा है। यह बात सच है और नहीं भी। सच इस मायने में है कि ताजा हिंसा मुख्यतः बोडो और मुसलमान समुदायों के बीच ही है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि बाकी समुदायों के साथ बोडो समुदाय के रिश्ते पर्याप्त रूप से मधुर हैं। इस समय कोच राजवंशी और आदिवासी समुदायों के गांवों पर हमला नहीं किया गया। इसके कई कारण हो सकते हैं।

लेकिन इतना दावे के साथ कहा जा सकता है कि बीटीएडी में कोई भी गैर बोडो समुदाय अपने आपको सुरक्षित महसूस नहीं करता। बीटीएडी में पड़ने वाले एक अन्य जिले उदालगुड़ी में ही 2008 में इसी तरह की हिंसा फैली थी, जिसमें अल्पसंख्यक और बोडो समुदाय आमने-सामने थे। लेकिन वहां अन्य समुदाय भी आज तक भय के माहौल में जी रहे हैं। इसका प्रमाण है विभिन्न समुदायों का धीरे-धीरे आसपास के शोणितपुर, दरंग, कामरूप आदि जिलों में जाकर बस जाना।

बोडो स्वायत्तशासी क्षेत्र में इस समय जो समस्या दिखाई दे रही है, वह सिर्फ वहां की समस्या नहीं है। बल्कि इस समस्या में पूर्वोत्तर के अधिकतर हिंसाग्रस्त इलाकों को दर्पण की तरह देखा जा सकता है। यह समस्या है, एक-एक समुदाय द्वारा यह सोचना कि उनके लिए अलग प्रशासनिक इकाई नहीं होने पर उनका विकास संभव नहीं है। साथ ही यह भी कि किसी प्रशासनिक इकाई में, भले वह राज्य हो या स्वायत्तशासी क्षेत्र, वहां के बहुसंख्यक समुदाय को ही रहने का अधिकार है और सरकारी संसाधन सिर्फ उसी समुदाय के विकास के लिए खर्च किए जाने चाहिए। समान अधिकार मांगने को तो बिलकुल बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।

2003 में बीटीएडी के गठन के लिए हुई संधि में साफ कहा गया है कि स्वायत्तशासी इकाई का गठन बोडो समुदाय के सामाजिक तथा सर्वांगीण विकास के लिए किया जा रहा है। इस तरह इस बात को मान्यता दे दी गई कि किसी एक प्रशासनिक इकाई का गठन किसी एक खास समुदाय के विकास के लिए किया जा सकता है। यह भारतीय संविधान के उस सिद्धांत के खिलाफ है, जो शासन द्वारा किसी भी समुदाय के खिलाफ भेदभाव किए जाने का विरोध करता है। पूर्वोत्तर भारत के विभिन्न समुदाय जब तक इस भाव को नहीं त्यागते कि किसी दूसरे समुदाय के साथ मिल-जुलकर रहना संभव नहीं है, तब तक बोडो आबादी वाले इलाकों में ही नहीं, बल्कि पूर्वोत्तर के अधिकतर हिंसा जर्जर इलाकों में स्थायी शांति संभव नहीं है।

रविवार, 22 जुलाई 2012

मेरी मातृभाषा क्यों भिखारिन बनी घूम रही है


26 जनवरी, 2010 को अंडमान निकोबार में बोआ सीनियर की 85 वर्ष की उम्र में मृत्यु हो गई और उनकी मृत्यु के साथ ही इस पृथ्वी से मर गई एक और भाषा। एक भाषा की मृत्यु के साथ ही खत्म हो जाता है उनके साथ जुड़ा इतिहास, उसके साथ जुड़ी परंपरा, एक पूरी संस्कृति। हम क्यों किसी भाषा के मरने पर दुख मनाते हैं, वह इसलिए कि लाख विज्ञान ने प्रगति कर ली हो, लेकिन कुछ चीजें वह नहीं बना सकता। जैसे वह एक भाषा नहीं बना सकता। वह प्रकृति प्रदत्त जीव या वनस्पति को फिर से नहीं बना सकता। कल को बाघ इस पृथ्वी से विलुप्त हो जाएंगे तो वह फिर से बाघ नहीं बना पाएगा। गैंडा इस पृथ्वी से विदा हो जाएगा तो वह फिर से गैंडा नहीं बना पाएगा। यहीं आकर मनुष्य की सीमाएं दिखाई देने लगती हैं। जो चीज प्रकृति ने हमें दी है, हमारी नासमझी से यदि वे खत्म हो जाती हैं, तो हम उन्हें दोबारा नहीं बना सकते।

पृथ्वी पर सैकड़ों भाषाएं विलुप्ति के कगार पर हैं, उनमें से 53 भाषाएं भारत में हैं। अभी हमने दो दिन पहले छापा कि त्रिपुरा की साइमर भाषा बोलने वाले चार ही लोग बचे हैं। इसी तरह ग्रेट अंडमानिज भाषा बोलने वाले बस पांच ही लोग रह गए हैं। दक्षिण अंडमान की जारवा भाषा बोलने वाले 31 लोग रह गए हैं। पूर्वोत्तर में बोली जाने वाली रुगा, ताई नोरा, ताई रोंग और तांगाम भाषा बोलने वालों की संख्या प्रत्येक की सौ से ऊपर नहीं है।

भाषा कैसे मरती है? भाषा तब नहीं मरती जब उसके बोलने वाले सभी लोग मर जाते हैं। भाषा तब मरती है जब उसके बोलने वालों की नई पीढ़ियां अपनी भाषा का इस्तेमाल बंद कर देती हैं। मैं अपने सामने एक भाषा को मरते हुए देख रहा हूं। और अफसोस यह है कि यह भाषा मेरी अपनी मातृभाषा राजस्थानी है। राजस्थान या सारे भारत के बारे में नहीं कह सकता लेकिन असम, बिहार और प. बंगाल में हमने देखा है कि राजस्थानी परिवारों में नई पीढ़ी ने राजस्थानी बोलना छोड़ दिया है। राजस्थानी बोलना छोड़ने का नई पीढ़ी का यह निर्णय उसका अपना नहीं है। यह निर्णय उस पर थोपा गया है। उससे पहले की पीढ़ी यानी हमारी पीढ़ी ने नई पीढ़ी के साथ राजस्थानी भाषा में बात करना बंद कर हिंदी को अपना लिया। इस तरह नई पीढ़ी राजस्थानी से बिल्कुल अनजान रह गई।

दैनंदिन की दिनचर्या में इस बात की ओर ध्यान नहीं जाता कि राजस्थानी के बहुत सारे शब्द खुद हमारे जेहन से खत्म होते जा रहे हैं। जब मैं मां से बात करता हूं तब उनसे बात करते समय अचानक यह आभास होता है कि अरे इस शब्द का व्यवहार तो हमने बंद ही कर दिया है। जैसे मां कहती है- "बींटी कठै गई'। अरे बींटी की जगह तो हमने अंगुठी कहना शुरू कर दिया था, लेकिन ध्यान ही नहीं रहा कि बींटी भी एक शब्द है। इसी तरह राजस्थानी बोलते हुए भी हम "बारी' की जगह खिड़की, "धोळा' की जगह सफेद, "बाणच' की जगह फल बोलने लग गए। बो सीनियर की उस पीड़ा को मैं कभी-कभी महसूस करने की कोशिश करता हूं कि आप अपनी भाषा बोलने वाले अकेले व्यक्ति हैं, आप चाहकर भी अपनी भाषा में किसी से बात हीं कर सकते। क्या राजस्थानी जैसी जनभाषाओं का भी एक दिन यही हश्र होना है?

मैथिली और भोजपुरी से यदि तुलना करें तो मुझे लगता है कि सबसे कम काम राजस्थानी को आगे बढ़ने के लिए हुआ है। राजस्थानी को साहित्य अकादमी ने काफी पहले से मान्यता दे रखी है, लेकिन इसे संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान प्रप्त नहीं है। राजस्थानी भाषा को जो भी चाहने वाले हैं, वे बैठकों-सभाओं- व्यक्तिगत बातचीत में इस बात पर आक्षेप करते हैं कि भारत सरकार ने राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल न करके भारी अन्याय किया है। लेकिन मैं सोचता हूं कि संविधान के अंतर्गत मान्यता नहीं मिली ठीक है, लेकिन क्या हमने अपने दिल में अपनी भाषा को मान्यता दे रखी है? मैं कुछ बिंदुओं पर ध्यान दिलाना चाहूंगा।

(1) संविधान की मान्यता से राजस्थानी को अपने आप किसी भी प्रांत की मान्यता प्राप्त भाषा का दर्जा नहीं मिल जाएगा। राजस्थानी की बात कहने वाले जान-बूझकर इस तथ्य से आंखें मूंदे रहते हैं कि राजस्थान में राजस्थानी को लेकर आम सहमति नहीं है। राजस्थान में शेखावाटी अंचल की मातृभाषा राजस्थानी है। एक-दो और भी इलाके होंगे, जो राजस्थानी को मान्यता देने के पक्ष में हो सकते हैं। लेकिन उन्हें छोड़कर राजस्थान के बाकी इलाके में राजस्थानी को लेकर कोई उत्साह दिखाई नहीं देता। 
(2) जहां तक मेरी जानकारी है राजस्थान मेंं कहीं भी राजस्थानी भाषा शिक्षा का माध्यम नहीं है। क्या कभी इसकी मांग की गई? मेरी जानकारी में कभी ऐसी मांग गंभीरतापूर्वक नहीं उठाई गई। इसकी हम यहां असम या पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में दिखाई देने वाले भाषा प्रेम से तुलना करते हैं, तो हमें साफ दिखाई देने लगता है कि राजस्थानी को सबसे पहले उसके बेटों ने ही घर से निकाला है, तभी वह केंद्र सरकार की गलियों में भिखारिन बनी घूम रही हैऔर आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने के लिए याचना कर रही है। 
उदाहरण के लिए हम मेघालय के एक इलाके में बोले जाने वाली खासी भाषा की बात लें। आप शिलोंग जाएं तो आपको सार्वजनिक स्थानों पर लगे नामपट्टों पर खासी भाषा का वर्चस्व दिखाई देगा। खासी भाषा के कई-कई अखबार निकलते हैं, यह भाषा स्कूलों में पढ़ाई का माध्यम भी है, विधानसभा और सरकारी कामकाज में इसे मान्य प्राप्त है। यह संविधान की आठवीं अनुसूची में नहीं है, लेकिन इससे इसकी प्रगति में कहीं रुकावट नहीं आ रही है। दूसरी ओर राजस्थानी भाषा है, जो आठवीं अनुसूची के लिए तो लड़ रही है लेकिन राजस्थान की राजधानी में कहीं भी उसका अस्तित्व महसूस नहीं होता है। भाषा आपकी जबान पर ही नहीं रहेगी तो आठवीं अनुसूची में स्थान दिलाकर क्या होगा। यह वैसे ही होगा जैसे कोई अपनी मां को घर से निकाल दे और सरकार से उसे पदमश्री देने की मांग करे।

बुधवार, 18 जुलाई 2012

नारी को उपदेश

गुवाहाटी कांड में प्याज के छिलकों की तरह एक के एक बाद परतें उतर रही हैं। इस घटना का एक पहलू है पुरुष प्रधान समाज में आम लोगों की मानसिकता का उजागर होना। जब से यह घटना हुई है कुछ लोगों की जबान पर एक सवाल बार-बार सुनने को मिल रहा है कि वह लड़की या औरत कौन थी? उसका नाम क्या था? राष्ट्रीय मीडिया पर पीड़ित लड़की का नाम उजागर होने के बाद जांच के लिए असम आई अलका लांबा नामक सामाजिक कार्यकर्ता की काफी किरकिरी हुई है। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर लोगों को पता नहीं कि असम में पीड़ित लड़की का नाम न केवल एकाधिक मीडिया हाउसों में आया है बल्कि प्रिंट मीडिया के कई तथाकथित खोजी पत्रकारों ने उस लड़की के बारे में सूचनाएं खोद निकालने में इतनी मेहनत की जितनी उन लोगों ने अपने कैरियर में इससे पहले अन्य किसी समाचार के लिए नहीं की होगी।


इन खोजी पत्रकारों ने उक्त लड़की के मां-बाप, उसके रोजगार, उसके पति, वह किसलिए बार में गई थी, उसका चरित्र कैसा है - ये सारी बातें सविस्तार प्रकाशित की है। केवल इसी लड़की के बारे में ही नहीं, देखा गया है कि राज्य में कई समाचार पत्र यौन उत्पीड़न या बलात्कार आदि की पीड़ित स्त्री की पहचान को गुप्त रखने को महत्वपूर्ण नहीं मानते। किसी भी तरह के नियम और नैतिकता को नहीं मानने की प्रवृत्ति की पराकाष्ठा 9 जुलाई को जीएस रोड कांड का टीवी पर प्रदर्शन था।


इन दिनों देखा गया है कि स्थानीय मीडिया पर - जिसमें प्रिंट और इलेक्ट्रानिक दोनों ही शामिल हैं - नैतिकतावादी बहस और भाषणों की झड़ी-सी लग गई है। लोग राज्य में शराब के अधिक प्रचलन, स्त्रियों के पहनावे और रात में लड़कियों के बाहर निकलने आदि पर ज्यादा ही नैतिकतावादी भाषण देने लग गए हैं, जिसका लब्बोलुवाब यह होता है कि हाय अपना परम नैतिक समाज आज किधर जा रहा है। ऊपर जिन विषयों का उल्लेख किया गया है उन पर बहस और चर्चा हो इस पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती। लेकिन चूंकि इस चर्चा के लिए विचारोत्तेजना का कारण बना है जीएस रोड कांड, इसलिए यह मानने का कारण है कि ऐसी चर्चाएं शुरू करने वालों की मानसिकता अमूमन इस तरह की होती है - ऐसे परिधान पहनेगी तो ऐसे कांड करने वालों का क्या दोष, रात को ये लड़कियां क्या करने को बार में जाती हैं, हमारा समाज आधुनिकता की दौड़ में जिस तरह भाग रहा है उसका यही परिणाम होना था, आदि। हम फिर कहते हैं कि ऐसी चर्चा गलत नहीं है, लेकिन इस विशेष समय में इस दिशा में चिंतन करना उसी तरह गलत है जिस तरह किसी व्यापारी के यहां डकैती हो जाए और उसी समय कहा जाए कि सारी तो ब्लैक मनी है थोड़ी-सी डकैती में चली गई तो क्या हुआ। यह एक तरह से डकैतों का पक्ष लेने के समान है। नैतिकतावादी दिशा में चिंतन करने वाले इस लिहाज से समाज का बहुत बड़ा अहित करते हैं कि वे समाज में हर हालत में कानून और व्यवस्था के बने रहने के महत्त्व को कम करते हैं।


रात को महिलाओं के घूमने और उपयुक्त रूप से वस्त्र पहनने की बात चली तो बताते चलें कि (उदाहरण के तौर पर) दुबई शहर की स्थानीय अरब महिलाएं बुरका पहनकर ही बाहर निकलती हैं लेकिन वहां विदेशियों की संख्या 90 फीसदी है जो लोग बहुत ही कम कपड़ों में दिन और रात किसी भी समय सड़कों पर घूमते हैं। लेकिन मजाल है कि कोई भी उन्हें हाथ भी लगा ले। आप अपनी संस्कृति का पालन करें लेकिन यह नहीं भूलें कि जिस देश में महिलाएं डर के मारे रात को घर से नहीं निकल पाती हों वहां संस्कृति, परंपरा और नैतिकता की बड़ी-बड़ी बातें करना मिथ्याचार के अलावा और कुछ नहीं। जो लोग नारी के वस्त्रों और उसके रात को बार में जाने के औचित्य पर चर्चा कर रहे हैं क्या वे इस बात की गारंटी देते हैं कि अधिक वस्त्र पहनने और रात को घर से बाहर नहीं निकलने पर इस देश में गुवाहाटी कांड जैसा कांड फिर से नहीं घटेगा?

शनिवार, 14 जुलाई 2012

गुवाहाटी कांड पत्रकार की करतूत थी, शर्म



                               
घटना सोमवार रात की थी। सभी अखबार छप चुके थे, चैनलों का प्राइम टाइम खत्म हो चुका था इसलिए कोई खास नोटिस नहीं लिया गया। बुधवार के स्थानीय अखबारों में घटना के बारे में छपा, कोई खास नोटिस नहीं लिया गया। शुक्रवार तक घटना के वीडियो क्लिपिंग्स यू ट्यूब पर आ गए और सारा देश जैसे अचानक नींद से जागा। अमिताभ से लेकर सोनिया तक सबने घटना पर थू-थू की। पुलिस ने बुधवार से ही कार्रवाई शुरू कर दी थी। एक के बाद एक आरोपियों को पकड़ने का सिलसिला शुरू हो गया था और शुक्रवार तक चार आरोपी पुलिस की गिरफ्त में थे। लेकिन वह युवक अब भी पुलिस की गिरफ्त से बाहर है, जो बढ़-चढ़कर घटना के वक्त बोल रहा था, यहां तक कि उसने मीडिया को बाइट्‌स भी दिए। कहीं छपा है कि उसे बचाने में युवक कांग्रेस के एक नेता का हाथ है। सबसे शर्मनाक बात है इस घटना में एक पत्रकार का हाथ होना जिसने आरोपों के अनुसार सारी घटना की साजिश रची।
मीडिया की थू-थू

जब सारे देश के लोग इस बात पर आश्चर्य व्यक्त कर रहे थे कि आखिर जीएस रोड कांड के घटनास्थल पर एक टीवी चैनल की टीम इतनी जल्दी कैसे पहुंच गई, उन लोगों ने लड़की को बचाने की कोशिश क्यों नहीं की और उस टीवी टीम का सारा प्रयास लड़की का चेहरा दिखाने पर केंद्रित क्यों था, तब उस टीवी कैमरा टीम का वह संवाददाता मन ही मन देश भर के लोगों की मूर्खता पर हंस रहा होगा। क्योंकि सारा कांड तो उसी संवाददाता के कारण घटित हुआ, इसलिए उस पत्रकार से लड़की को बचाने की उम्मीद करना सरासर बेवकूफी नहीं तो और क्या है।

                                

अन्ना टीम के सदस्य अखिल गोगोई ने शनिवार को मीडिया के सामने जो फुटेज दिखाए, उसमें जो आवाजें आ रही थीं- उन्हें देखने-सुनने के बाद इस बात में संदेह नहीं रह जाता कि इस कांड को शुरू करने में तरुण गोगोई सरकार के एक मंत्री द्वारा चलाए जा रहे चैनल के संवाददाता का ही हाथ था। उक्त संवाददाता द्वारा कहे गए गंदे शब्दों को यहां उद्धृत करना संभव नहीं है। उस संवाददाता को सरकार गिरफ्तार करती है या बहानेबाजियां करती है, इस पर बहुत हद तक मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के बयानों की विश्वसनीयता निर्भर करेगी।

हमने वृहस्पतिवार के ही हमारे अंक में इस बात को लेकर शंका व्यक्त की थी कि आखिर कैमरामैन बदमाशों के चेहरों को कैमरे में कैद करने की बजाए लड़की के चेहरे का फुटेज लेने को इतना लालायित क्यों था? हमने सोचा था कि ऐसा कैमरामैनों के गलत प्रशिक्षण के कारण हुआ होगा। हम वृहस्पतिवार के संपादकीय लेख की कुछ पंक्तियां यहां उद्धृत कर रहे हैं- ""इलेक्ट्रानिक मीडिया या प्रिंट मीडिया के जो फोटोग्राफर हैं, उनकी प्रवृत्ति वैसे लोगों की तस्वीर लेने की होती है, जो अपना चेहरा छुपाना चाहते हैं, यह व्यक्ति के प्राइवेसी या निजत्व के अधिकार का स्पष्ट उल्लंघन है। यदि कोई व्यक्ति अपनी तस्वीर लिए जाने की अनुमति नहीं देता है तो आप उसकी तस्वीर नहीं ले सकते। लेकिन मीडिया ऐसे व्यक्तियों के फोटोग्राफ लेने के लिए अतिरिक्त मेहनत करने को अपने पेशे का एक हिस्सा समझता है।'' अखिल गोगोई द्वारा किए गए खुलासे के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि क्यों भीड़ में शामिल शोहदे लड़की के चेहरे पर से बाल हटाने का प्रयास कर रहे थे और कैमरामेन उसके चेहरे को कैमरे में कैद करने के लिए अतिरिक्त मेहनत कर रहा था। सोमवार की घटना ने पीपली लाइव में किए कए व्यंग्य को काफी पीछे छोड़ दिया है और एक संवाददाता के जघन्य अपराध की यह घटना इलेक्ट्रानिक मीडिया के इतिहास में हमेशा शर्म के साथ याद की जाएगी।

क्या यह घटना भी भुला दी जाएगी

इस घटना पर जिस तरह देशभर में थू-थू हो रही है, उससे एक उम्मीद बंधती है। बड़े-बड़े लोग- महिला आयोग की अध्यक्ष, साधारण लोग- इंटरनेट पर टिप्पणियां करने वाले - सभी कह रहे हैं कि सोमवार की रात के दरिंदों को फांसी देनी चाहिए, उम्र कैद होनी चाहिए, नंगा करके उल्टा लटका देना चाहिए। इस पर पुलिस के एक आईजी साहब की बात याद आती है। जब वे कोकराझाड़ में थे, तब एक कथित बलात्कार कांड को लेकर खूब हो-हल्ला मचा। महिलाओं का समूह उनसे मिलने आया और आग्रह किया कि दोषियों को फांसी पर लटका देना चाहिए। मजाकिया आईजी साहब ने कहा कि हां हम कोई मजबूत पेड़ खोज रहे हैं जिसकी डाल पर अपराधी को फांसी दी जा सके। जब पेड़ मिल जाएगा तो फांसी दे दी जाएगी। पुलिस अधिकारी का मजाक अर्थपूर्ण था। इसलिए कि भारत में न्यायिक प्रक्रिया इतनी लंबी, थकाऊ और उबाऊ है कि दोष सिद्ध हो जाने पर भी किसी को सजा दिलवा पाना मामूली बात नहीं है। इसलिए भारत में अपराधी लोग अदालत की सजा से नहीं डरते, वे डरते हैं गिरफ्तारी और पुलिस की मार से। पुलिस वाले और व्यावहारिक बुद्धि वाले नागरिक जानते हैं कि एक बार किसी को गिरफ्तार कर लो और जब तक संभव हो उसकी जमानत मत होने दो बस यही उसकी सजा है। अदालत में उसका अपराध सिद्ध करना और उसे सजा भुगतने के लिए जेल भेजना या फांसी पर लटकाना यह सब भारत में नहीं होता। रोजाना हम अखबारों में औसतन एक बलात्कार कांड की खबर पढ़ते हैं, लेकिन बलात्कार के मामले में सजा सुनाए जाने की खबर कितनी बार पढ़ते हैं?

24 नवंबर, 2007 को लक्ष्मी उरांव नामक महिला को निर्वस्त्र करके गुवाहाटी की एक सड़क पर दौड़ाया गया। घटना पर खूब शोरगुल मचा, देशभर में भर्त्सना का ज्वार उठा। चार युवकों को गिरफ्तार कर अखबारों में उनकी तस्वीर छाप दी गई। लेकिन बाद में क्या हुआ क्या किसी ने कभी इसकी खबर ली? तब ऐसा लगा था कि इस मामले में तो दोषियों का बच पाना मुश्किल ही होगा। लेकिन एक साल बाद यानी नवंबर 2008 में जब हमने इस मामले के बारे में जानकारी लेने की कोशिश की तो हमें बताया गया कि कुल सात मामले इस संबंध में दर्ज किए गए थे, उनमें से सिर्फ एक मामले में चार्जशीट दाखिल की गई। बाकी मामले लटके हुए थे। जिस मामले में चार्ज शीट दाखिल की गई थी, उसमें भी अदालती कार्रवाई कुछ खास आगे नहीं बढ़ पाई थी। (देखें मेरी पहले की पोस्ट 
http://binodringania.blogspot.in/2008/11/blog-post_8666.html )

हमारे देश में एक विचित्र चीज है जांच आयोग। जब किसी मामले पर जनता शोरगुल मचाती है तो जांच आयोग बैठा दिया जाता है, जनता को ऐसा लगता है मानो न्याय हो गया। जांच आयोग को आम तौर पर 15 दिन, 30 दिन, दो महीने का समय अपनी रिपोर्ट सौंपने के लिए दिया जाता है। लेकिन जनता की स्मृति इतनी तेज नहीं होती कि वह 15 दिन पुरानी बात को याद रख सके। तब तक कोई दूसरा मुद्दा सामने आ चुका होता है। जब ऐसे जांच आयोगों की रपट विधानसभाओं में रखी जाती है, तब उस पर होने वाली ठंडी प्रतिक्रिया से आश्चर्य होता है कि क्या यह उसी घटना की जांच रिपोर्ट है, जिसे लेकर लगा था कि यह मुख्यमंत्री की गद्दी लेकर ही छोड़ेगी।

क्या होता है ऐसी जांच रिपोर्टों का? लक्ष्मी उरांव के मामले की रिपोर्ट चार महीने बाद 1 अप्रैल को असम विधानसभा के पटल पर रखी गई और उसके आधार पर राज्य सरकार ने सीबीआई से घटना की जांच करवाने की अनुशंसा की थी। राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी अपनी अलग जांच के बाद राज्य सरकार से अनुरोध किया था कि वह मामला सीबीआई को सौंप दे। राज्य सरकार का कहना था कि उसने सीबीआई से मामले की जांच का अनुरोध किया है। बस यहां तक आकर सभी के कर्तव्यों की इतिश्री हो गई। लक्ष्मी उरांव को आज भी न्याय नहीं मिला।

पुलिस का देर से पहुंचना

घटनास्थल पर पुलिस का देर से पहुंचना आज कोई नई बात नहीं है। चिनिया-मंजू का एक चुटकुला याद आता है जिसमें चिनिया थाने में चोरों के आने की सूचना देता है। लेकिन थाने वाले कहते हैं कि अभी कोई सिपाही खाली नहीं है। चिनिया एक मिनट बाद फिर से फोन लगाता है कि अब आने की जरूरत नहीं मैंने सभी चोरों को गोली मार दी है। पांच मिनट में पुलिस की साइरन बजाती गाड़ियां हाजिर हो गईं। लेकिन असम में ऐसे थाने भी हैं, जहां एक दर्जन हत्याओं की घटना की सूचना मिलने के बाद थाने से जवाब मिलता है- ठीक है कल किसी को भेजेंगे। यह घटना चार थानों में बंटे देश के दूसरे सबसे बड़े जिले कार्बी आंग्लोंग की है। वहां डोलामारा नामक स्थान पर उग्रवादियोंे द्वारा सामूहिक हत्याकांड करने के बाद जब थाने पर फोन किया गया तो थाने से यही जवाब मिला। पुलिस बेचारी करे भी क्या। वहां थाने से घटनास्थल तक पहुंचने के लिए कई जिलों से होकर गुजरना पड़ता है।

शनिवार, 7 जुलाई 2012

हीरू दा का निधन और असमिया के आईने में हिंदी





हीरू दा से सबसे पहले कब कहां मिला याद नहीं, लेकिन उनका जिक्र सबसे पहले कांकरोली, राजस्थान में संबोधन के संपादक कमर मेवाड़ी ने किया था। उन्होंने एक साहित्य सम्मेलन का जिक्र करते हुए कहा था कि आपके यहां से वो आए थे, बिल्कुल दुबले, बिल्कुल साधारण, एक साधारण-सी शर्ट पहने। मैं तुरंत समझ गया कि वे हीरू दा ही होंगे। मैंने कहा- वे हीरेन भट्टाचार्य होंगे। मेवाड़ी जी को भी नाम याद आ गया और वे उनकी साधारणता की असाधारणता के गीत गाने लगे। कोई व्यक्ति अपनी साधारणता को भी चर्चा का विषय कैसे बना सकता है, इसका उदाहरण थे हीरू दा।

एक बार मैं और किशोर जैन उनके घर गए। शायद कोई इंटरव्यू लेने का इरादा था। किशोर जैन ने उनके विषय में कुछ लिखा था, उसे भी वे दिखाना चाहते थे। लिखा हुआ देखकर वे कहने लगे- नाटक करने की क्या जरूरत है। नाटक करिबो ना लागे। जीवन में और साहित्य में वे नाटकीयता और गिमिक्स के सख्त विरोधी थे। चश्मा लाने अंदर गए तो चश्मे का प्रसंग याद आ गया। कहने लगे कि शिवसागर में चश्मा भूल गया था। फिर पीछे-पीछे गाड़ी दौड़ाकर लड़कों ने (कवि सम्मेलन के आयोजकों ने) मोरान में मुझे चश्मा दिया। बुरा भी लगता है लड़कों को लेकर। वे अपने भुलक्कड़ स्वभाव को कोसने लगे।

हमने कहा कि वे अपनी एक-दो कविताएं दे दें हिंदी में अनुवाद कर उनके साक्षात्कार के साथ लगा देंगे। उन्होंने एक कविता निकाल कर दी और कहा-कीजिए, इसका अनुवाद मेरे सामने ही कीजिए। हम दोनों भिड़ गए। हीरू दा की कविताएं छोटी-छोटी होती हैं, भाव भी स्पष्ट होता है, बोधगम्य होती हैं, लेकिन शब्दों के चुनाव में वे काफी सावधान रहते हैं। शब्दों की बात चली तो वे कहने लगे- दिल्ली में एक साइन बोर्ड पर लिखा था ""आम लोगों के लिए नहीं''। तब तक मैं आम का अर्थ एक फल के रूप में ही जानता था। काफी सोचा। आम लोगों के लिए नहीं-क्यों नहीं। फिर आम किसके लिए है। बाद में किसी ने बताया कि आम का मतलब साधारण भी होता है तब बड़ी हंसी आई। उनकी कविताओं में असमिया लोकजीवन से शब्द आते हैं। संस्कृत, तत्सम शब्दों से वे परहेज करते हैं। उन्हें यही डर रहता था कि अनुवादक संस्कृतनिष्ठ और तत्सम शब्दों से भरकर उनकी कविता का रंग-रूप बिगाड़ देंगे। गांव की गोरी अनगढ़ ढंग से लिपिस्टिक लगाएगी तो उसका चेहरा बिगड़ेगा या निखरेगा। एक-एक शब्द पर वे चर्चा करते रहे। - कोई दूसरा शब्द सोचिए- ठीक है बांग्ला का शब्दकोश देख लेते हैं। एक शब्द था ""गोमा आकाश''। बादल छाए आसमान के लिए ये शब्द प्रयुक्त होते हैं। ""गोमा'' के लिए कोई उचित शब्द उस समय नहीं मिला। "मेघाच्छादित' जैसा शब्द देने का तो सवाल ही नहीं था। शाम का वक्त था हमने कवि से विदा मांग ली। बाहर बरामदे में निकले तो देखा कि बादल छाए हुए हैं, मैंने कहा, ""आकाश गोमा हो रखा है।'' कवि हंस दिए।

पिछले साल प्रेस में मिल गए। अपने नए संकलन को लेकर व्यस्त थे। आमुख की सज्जा स्वयं ही डिजायनर के पास बैठकर करवा रहे थे। भाषा, शब्द और वर्तनी को लेकर इतने सजग कि प्रकाशक मित्र दबी जबान में मेरे सामने अपनी खीझ व्यक्त किए बिना नहीं रह सके। काफी कमजोर हो चुके थे। फिर कहा, "चलिए, यह कविता अनुवाद कीजिए जरा।'' उनके साथ बैठकर अनुवाद करना एक अनूठा अनुभव होता था। लेकिन वे यह नहीं पूछते थे कि कहां छपवाएंगे, छपने पर दिखाइएगा। बस एक साथ बैठकर अनुवाद करने का आनंद लेते थे। बाद में कुरेदना उनकी आदत नहीं थी।

प्रकाशक मित्र ने कहा कि अभी चांदमारी में हम काफी पीने गए तो वहां बैयरे ने पहचान लिया। यह सुनकर हाल ही में अस्पताल से निकले कवि हंसने लगे, कहने लगे कि अस्पताल की नर्स भी कह रही थी आपको पहचानती हूं सर। हीरू दा की लोकप्रियता की बात ही अलग है। लेकिन कहीं न कहीं यह असमिया संस्कृति की महानता है जहां जनता अपने साहित्यकारों को अथाह प्यार देती है। भूपेन दा की बात छोड़ भी दें, तो अभी मामोनी रायसम गोस्वामी के निधन पर सारा असम रो पड़ा था। पिछले सप्ताह ही तो एक मंत्री का इंटरव्यू आया था कि वे मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहते, हां एक बार असम साहित्य सभा का अध्यक्ष बनने की हसरत जरूर है।
  
साहित्य की समाज में जगह का प्रसंग चला तो ""कभी-कभार'' में अशोक वाजपेयी की लिखी ये पंक्तियां याद आ गईं- ""क्या थे वे सपने? एक तो यही था कि हमारे समय और समाज में साहित्य की जगह और जरूरत बढ़ेगी। हम जानते थे कि हिंदी समाज, जो भी कारण हो, साहित्यप्रेमी समाज नहीं है, पर हमने उम्मीद लगाई थी कि शिक्षा और साक्षरता के विस्तार से साहित्य के पाठक बढ़ेंगे। ऐसा नहीं हुआ ः पढ़ा-लिखा मध्यम वर्ग समृद्धि की अपनी निर्लज्ज चाहत में अपनी मातृभाषा और साहित्य से दूर होता चला गया, जा रहा है। हमारे विश्वविद्यालयों में और अन्यत्र भी हिंदी साहित्य की प्रतिष्ठा कम होती गई है। हालत यह है कि हिंदी अखबारों में ही हिंदी भ्रष्ट हो रही है और उनमें साहित्य के लिए जगह सिकुड़ती जा रही है।''

ऐसा नहीं है कि असमिया समाज में असमिया भाषा के भविष्य को लेकर कम चिंता है और सभी आश्वस्त हैं। यहां भी नई पीढ़ी के असमिया लिखना-पढ़ना नहीं जानने को लेकर गंभीर विमर्श जारी है। लेकिन असमिया में जो स्थिति है उसकी हिंदी से तुलना ही नहीं है। टीवी पर जब दसवीं और बारहवीं के टापर्स के बाइट्‌स आते हैं तो ऐसे बहुतेरे होते हैं जो यह कहते हैं कि हम खाली समय में होमेन बरगोहाईं या रीता चौधरी के उपन्यास या नवकांत बरुवा की कविताएं पढ़कर तरोताजा होते हैं। हिंदी में तो ज्ञानपीठ प्राप्त साहित्यकार को भी टीवी वाले पहचानने से इनकार कर देते हैं। हिंदी की युवा पीढ़ी में दोयम दर्जे के अंग्रेजी उपन्यास मूल अंग्रेजी में या हिंदी अनुवाद के रूप में लोकप्रिय हैं।

मैंने हीरू दा के साथ बैठकर उनकी दो कविताओं में प्रयुक्त असमिया शब्दों के लिए ठीक-ठाक हिंदी प्रतिशब्द खोज लिए। आज भी शाम हो रही थी। हवा में खुनकी बढ़ रही थी। तभी कवि का मोबाइल बज उठा। घर से फोन आया था-दवा समय पर ले ली या नहीं। और हां शाम हो रही है, साथ में भेजी गरम चादर ओढ़ लें। कवि ने झोले से गरम चादर निकाल ली। हंसकर मुझसे कहने लगे- घर वाले चिंता करते हैं। सोचते हैं मैं चादर ओढ़ना भी भूल जाऊंगा। आप ठीक कहते हैं हीरू दा आप भुलक्कड़ नहीं हैं। आप हमारी भावनाओं को पंख लगाना भूल थोड़े जाएंगे।   

(गत 4 जुलाई को कवि हीरू दा का निधन हो गया। वे 80 वर्ष के थे।)