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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

शनिवार, 23 जून 2012

शादियों में आडंबर पर सामाजिक नियंत्रण जरूरी









शादियों में फिजूलखर्ची, दिखावा और आडंबर एक ऐसा विषय है जो उस समय से ही मेरे अंतर्मन को कचोटता रहा है जब से मैंने सामाजिक जीवन में थोड़ी-बहुत रुचि लेनी शुरू की। उस जमाने में हम मारवाड़ी युवा मंच के बैनर तले सक्रिय हुआ करते थे। उन दिनों खुद इन पंक्तियों के लेखक ने, मुरलीधर तोसनीवाल, प्रमोद जैन आदि साथियों ने अपनी-अपनी शादियों में किसी न किसी हद तक कुछ परंपराओं को तोड़ा। तब ऐसा लगने लगा था कि ये उदाहरण एक आंदोलन की चिनगारी बनेंगे और आगे आने वाला आंदोलन समाज में शादी-ब्याह के मौकों को कर्ज लेकर घी पीने के मौके बनने से रोकेगा।

उन दिनों हमारे संकीर्ण मस्तिष्कों को यह लगता था कि सिर्फ मारवाड़ी समाज में ही शादियों के मौकों पर इतना आडंबर, तामझाम और भदेसपन की सीमाएं छूने वाली फिजूलखर्ची होती है। इसका कारण शायद यह होगा कि असमिया समाज में उन दिनों और आज भी तुलनात्मक रूप से शादियां सादगीपूर्ण होती हैं। हमें पता नहीं था कि असम के बाहर सारा भारत आज इस सामाजिक व्याधि के नीचे दबा हुआ कराह रहा है।

आप अध्ययन करके देखें तो पाएंगे कि भारत के हर समाज में अपनी क्षमता से अधिक पैसे शादी पर खर्च करने की प्रवृत्ति काम करती है। इसके कई कारण होते हैं। अपने दैनंदिन जीवन में सीमित संसाधनों से अपना काम चलाने वाले व्यक्ति के लिए शादी सिर्फ एक सामाजिक समारोह न होकर यह दिखाने का अवसर होता है कि उसने पिछले 25 सालों में क्या किया? आर्थिक सीढ़ियों पर कितनी पायदानें इस बीच वह चढ़ चुका है यह दिखाने के लिए शादी के अलावा यदि उसके पास कोई दूसरा मौका होता है तो वह होता है आलीशान घर बनवाने का।

समाज के क्रियाकलाप पर जब सोचते हैं तो कई अजीब चीजें देखने को मिलती हैं। एक मित्र ने ठीक ही प्रश्न किया कि मोबाइल तो बात करने के लिए होता है। फिर लोग इतने महंगे मोबाइल क्यों खरीदते हैं। इसी तरह प्रश्न किया जा सकता है कि शादी तो दो युवाओं के आपसी बंधन को सामाजिक मान्यता देने के लिए होती है, फिर इसमें बेतहाशा खर्च क्यों? यह प्रश्न किसी भी चीज के बारे में पूछा जा सकता है। साधारण शर्ट पहनने से काम चल सकता है तो इतनी कीमती शर्ट क्यों पहनते हैं। इन सवालों का जवाब यह है कि समाज में कोई चीज वही नहीं रह जाती जिससे उसकी शुरुआत हुई थी। विकसित समाज जटिल भी होता है। एक विकसित समाज में मोबाइल सिर्फ बात करने के लिए नहीं होता, यह आपकी हैसियत प्रदर्शित करने का एक माध्यम भी है। एक शर्ट सिर्फ तन ही नहीं ढकती, यह सामाजिक पायदान पर आपका स्थान भी निर्णय करती है। इसी तरह शादी सिर्फ शादी नहीं है, यह समाज में आपका स्थान निर्णय करती है, उसका पुनर्निर्धारण करती है।

हमारे स्कूल के दिनों में वार्षिक परीक्षा हो जाने के बाद नई कक्षा में हमारे बैठने के क्रम का फिर से निर्धारण होता था। उसी तरह शायद एक मध्यवर्गीय या उच्च-मध्यवर्गीय व्यक्ति चाहता है कि शादी में उसके द्वारा किए गए खर्च, उसके समारोह में आए अतिथियों के प्रोफाइल को देखकर समाज उस स्थान पर पुनर्विचार करे, जो शायद उसे 25 साल पहले दिया गया था। क्या समाज शादी में पकवानों की प्रदर्शनी लगाने और अतिथियों की भव्य भीड़ प्रस्तुत करने के माध्यम से उसके द्वारा की गई अपील पर विचार करता है?

इसका उत्तर शायद हां और शायद ना दोनों हैं। महंगे मोबाइल, महंगी कार, महंगे फ्लैट और महंगी शादी को देखकर समाज का एक हिस्सा जल्दी ही प्रभाव में आ जाता है। ऐसे लोग यह फैसला सुनाने की हड़बड़ी में रहते हैं कि श्रीमान क अब पहले वाले श्रीमान क नहीं रहे। उनकी सामाजिक रेटिंग में सुधार होना चाहिए। लेकिन गनीमत है कि समाज के ज्यादातर हिस्से में धन के इस तरह के भद्दे प्रदर्शन के खिलाफ गुस्सा उपजता है। जो लोग आडंबरपूर्ण शादियों में शरीक होते हैं, वे अपने व्यक्तिगत संबंधों के कारण शरीक होते हैं। कई बार जो मेजबान होता है वह उनके शरीक होने को आडंबर और अपव्यय के पक्ष में मतदान समझने की भूल कर बैठता है।

समाज का ज्यादातर हिस्सा चाहता है कि शादियों का खर्च उनकी हैसियत के अंदर रहे। वे शादियों के खर्च को प्रतियोगिता से अलग रखना चाहते हैं। इसका प्रमाण यह है कि हर उस समाज में जहां आज भी परंपराएं मजबूत हैं शादियों के खर्च को सीमाओं में बांधने की जद्‌दोजहद जारी है। हाल ही में हमने पढ़ा कि किसी उत्तरी भारत के राज्य में गुर्जरों की पंचायत ने शादियों के समारोह पर कुछ प्रतिबंध लगाए हैं। समस्या यह है कि हर समाज में पंचायतें मजबूत नहीं हैं। शहरी समाज में तो वे हैं ही नहीं। ऐसे में सामाजिक संगठनों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। उदाहरण के लिए राजस्थान से निकल कर भारत के विभिन्न हिस्सों में बसे लोगों के कई मजबूत सामाजिक संगठन हैं। ये संगठन पंचायत नहीं हैं, लेकिन चाहें तो पंचायतों जैसा महत्व हासिल कर सकते हैं। ऐसे संगठन अपने समाज में शादी विवाह पर होने वाले खर्च की सीमाएं बांध सकते हैं। हालांकि यह कहना जितना आसान है करना उतना ही मुश्किल है।

यह लेख लिखने की प्रक्रिया के दौरान ही कुछ मित्रों से इस विषय पर बहस हुई। एक मित्र का कहना था कि आप उपभोक्तावाद का विरोध कर रहे हैं, और यह विरोध आज के युग में ज्यादा आगे तक चलने वाला नहीं है। आज लोग एक करोड़ की कार लेकर अपनी हैसियत में आए परिवर्तन के बारे में लोगों को सूचना देना चाहते हैं। उन्हें आप किस तरह रोकेंगे। इस पर हमारा कहना यह है कि जब हम शादियों में आडंबर और धन के भद्दे प्रदर्शन पर रोक लगाने की वकालत करते हैं तो हमारा उद्देश्य वहीं तक सीमित होता है। इसे बाकी उपभोक्तावाद के साथ गड्डमड्ड नहीं करना चाहते। क्योंकि शादी एक सामाजिक समारोह है, जो हर परिवार को एक न एक दिन आयोजित करना है। जब कोई धनाढ्‌य व्यक्ति शादी में होने वाले खर्च की सीमा को ऊंचा उठा देता है तो उसके वर्ग के समकक्ष व्यक्तियों पर एक तरह का दबाव पैदा हो जाता है कि उन्हें भी अपनी सामाजिक स्थिति को बचाए रखने के लिए इसी तरह का खर्च करना होगा। इस तरह शादियों में खर्च अपव्यय और भौंडे दिखावे की सीमाएं छूने लग जाता है। लेकिन जहां तक महंगी कार, या महलनुमा घर की बात है- इस तरह का उपभोक्तावाद भले ईर्ष्या और आतंक पैदा करे लेकिन इससे समाज का आम व्यक्ति यह दबाव महसूस नहीं करता कि उसे भी इस तरह का खर्च करना होगा। एक सामाजिक एक्टिविस्ट ने ठीक ही कहा िक "जनम-वरण और मरण' के अवसर पर होने वाले अनुष्ठान सामाजिक निगरानी के तहत होने चाहिए। ये अवसर व्यक्तिगत होते हुए भी नितांत व्यक्तिगत नहीं हैं। इन तीनों अवसरों के लिए बनाए गए विधान सामाजिक पंचायतें और संगठन लागू भी कर सकते हैं, क्योंकि कोई कितना ही धनी क्यों न हो वह इस बात को स्वीकार करता है कि इन अवसरों के बारे में समाज को बोलने का अधिकार है। 
 
 
हाल ही में अहमदाबाद के बहुत ही सम्मानित तथा धनाढ्‌य व्यक्ति गिरीश दानी ने एक उदाहरण पेश किया। वे अपने बेटे और होने वाली बहू (अहमदाबाद के विख्यात डाक्टर की बेटी) को लेकर अपने गुरु आसाराम बापू के आश्रम में गए। वहां मंदिर में साधारण रूप से शादी संपन्न करने के बाद उन्होंने आसाराम बापू को एक करोड़ का चेक भेंट किया तथा कहा कि इस राशि से वे एक सौ जरूरतमंद जोड़ों की शादी करवा दें। मध्यवर्ग में शादियों में होने वाले अपव्यय को रोकने के लिए उच्च-मध्यवर्ग द्वारा पेश किए जाने वाले ऐसे उदाहरणों की एक बहुत बड़ी भूमिका हो सकती है।

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छे विचार बिनोद जी ! वास्तव में समाज की सोच और भावनाएं ही हम सबके कर्मों का आधार होती है. हर बड़े परिवर्तन के लिए हमें समाज के सोचने व स्वीकार करने के तरीकों में आवश्यक सुधार करना होगा.

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  2. विषय की सार्थकता में कोई संदेह नहीं होना चाहिए. समझने की बात यह है की क्या शादियों में फिजूल खर्ची वाकई एक सामाजिक समस्या है? धनाढ्य परिवारों द्वारा की गयी फिजूल खर्ची, समाज के अन्य वर्गों को फिजूल खर्ची हेतु क्यों उकसाता है, इस पर भी चिंतन किया जाये तो बुरा नहीं रहेगा. असमिया, बंगाली समाजों में मैंने पाया है कि वहां शादी के आयोजन के वक़्त लोग सिर्फ अपनी हैसियत देखते हैं. ऐसा क्या कारण है कि अन्धानुरण का यह रोग हमारे समाज में ही ज्यादा पाया जा रहा है? सवाल यह भी उठता है क्या शादी वास्तव में एक सामाजिक आयोजन है? क्या इसे पारिवारिक आयोजन नहीं माना जा सकता? समस्या की जड़ ज्यादा खर्च करना है या आयोजन में ज्यादा से ज्यादा लोगो को बुला कर अपना strenght show करना? खर्च करने वालों को रोक पाना वर्तमान परिस्थितियों में कहाँ तक संभव है?

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  3. विनोद, आज अचानक तुम्हारा लेख विवाह शादियों मे सामाजिक नियंत्रण पढ़ कर लागा कि विचारोत्तेजक लेखन से समाज मे सुधार की क्रान्ति लूत्रपात हो सकता है। लेकिन उम्मीद की किरण दिखलाई नहीं देती।
    मै अपनी जानपहचान की कपड़े की दुकान पर एक शर्ट खरीदने गया। एम आर पी 850 रु.। लेकिन जान पहचान की वजह से दुकानदार ने 375 मे दे दिया । लेकिन मुझे हैरत तो तब हुई जब उसी क्वालिटी के शर्ट को यह कह कर बेचा कि यह शर्ट हमारे 825 मे आया है। यदि 25 रु. आपसे नहीं कमायेगे हम अपना परिवार कैसे पालेगे। जब धन ऐसे कमाया जायेगा तो नियंत्रण कैसे होगा। उपर से तुर्रा यह कि हमे मारवाड़ी असमीया समझो। वहीं बैठे दिल्ली के एजेंट यह कहने से नहीं रोक पाया आप इस तगह लूटते इसी लिए आप दूजी श्रेणी के नागिक हो। नागेन्द्र 13 जुलाई

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  4. श्रीमंत बिनोद जी ,
    यह ब्लॉग प्रकाशित होने के बहुत दिन बाद मेरी नज़र में आया। इतनी सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए आपको साधुवाद। मारवाड़ी समाज की इस त्रासदी के लिए मैं भी बहुत प्रताड़ित महसूस करता हूँ। इस समाज की विभिन्न संस्थाओं को अपने अधिकारों का चाबुक इस्तेमाल करना बहुत प्रयोजनीय हो गया है। "भय बिनु होई ना प्रीती " वर्तमान में और भी वांछनीय है। इस सन्दर्भ में मैं आपकी लेखनी की बाट देखता रहूंगा।
    विजय कयाल।

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