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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

रविवार, 10 जून 2012

ब्लैकमेलिंग ने पत्रकारिता का अधिक नुकसान किया है


आठ साल का बालक। हठात्‌ दोनों पांवों से लकवा आ गया। स्थानीय डाक्टर को दिखाया। लकवा ऊपर की ओर बढ़ता गया, दोनों हाथ चपेट में आ गए। प्राइवेट अस्पताल में भर्ती कराया। लकवा और ऊपर बढ़ा, सांस बन्द होने लगी। आई.सी.यू. में शिफ्ट किया गया और श्वास की नली में छेद कर वेंटीलेटर लगा दिया। डाक्टर ने बताया कोई बीमारी है, ग्यूलेन बारी सिंड्रोम नामक असेंडिंग पैरालिसिस। कोई पुख्ता इलाज नहीं है। लकवा और ऊपर बढ़ना तो बन्द हो गया है स्वतः ही उलटेगा, लेकिन कब तक, कोई कुछ नहीं कह सकता। तब तक वेंटीलेटर से श्वास पर जिन्दा रखना है। बच्चा चैतन्य, खाता-पीता, मुस्कराता, बस हिलडुल नहीं सकता, सांस नहीं ले सकता।


आई.सी.यू में महंगा इलाज, प्रतिदिन हजारों का खर्च। कर्ज लेकर किसी तरह चुकाया, आखिर असमर्थ होने पर बच्चे के पिता ने हाथ जोड़ दिए। साप्ताहिक बिल बढ़ता गया। तकाजा। अस्पताल के फाइनेंस डायरेक्टर ने चिकित्सक के नाम मेमो भेजा कि उनके मरीज का बकाया काफी बढ़ गया है, सेवा शुल्क देने में असमर्थ है और चूंकि यह अस्पताल सशुल्क सेवा ही देता है अतः निश्चयात्मक कारवाई करें। कोशिश की गई बच्चे को सरकारी अस्पताल भेजने की, पर असफल रहे। चिकित्सक ने फाइनेंस डायरेक्टर का मेमो आई.सी.यू. नर्स इंचार्ज को दिखाया और वेंटीलेटर हटाने को कहा। वेंटीलेटर हटाने का मतलब था जीते जागते चैतन्य बच्चे को जैसे गला घोंट कर मार देना। आंखों के सामने नीला पड़े दमघुट मरते देखना। नर्स ने मना कर दिया कहा, वे सब बाहर चली जाएंगी यह कार्य चिकित्सक खुद करें। चिकित्सक कैसे करता। वह नहीं कर सकता तो उसने कैसे सोचा कि नर्सें जिन्होंने दिन-रात बच्चे को खिलाया-पिलाया, नहलाया, बहलाया, वे करेंगी। गला घोंट कर मारेंगी। आखिर फाइनेंस डायरेक्टर को लिखा गया कि न तो वेंटीलेटर हटाया जा सकता है और न ही चिकित्सा बन्द की जा सकती है। सेवा करने वाले यह क्रूरकर्म नहीं कर सकते। शुल्क वसूल करने वालों को क्या करना है वे जाने, उनका काम जाने। वे मालिक हैं।
"एक डाक्टर की डायरी' में श्रीगोपाल काबरा, जयपुर


ऊपर हमने एक डाक्टर की डायरी से यह दृष्टांत उद्धृत किया है ताकि पाठकों को एक पेशेवर की दुविधा का अनुमान हो सके। पत्रकारों को भी ऐसे वाकयों से दो-चार होना पड़ता है, खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया में, जब संचालक आदेश देता है कि किसी नेता, पूंजीपति या सेलेब्रिटी के कपड़े उतार लिए जाएं। छोटे-मोटे घाटे में चलने वाले चैनलों के संचालक तर्क देते होंगे कि ब्लैकमेल नहीं करेंगे तो चैनल चलेगा कैसे? चैनल के संपादक तर्क देते होंगे कि मालिक की आज्ञा का पालन नहीं करेंगे तो बच्चों का पालन कैसे होगा। अक्सर पचास-पचपन के हो रहे संपादकों का यही रोना रहता है कि "बच्चे बड़े हो रहे हैं।' विद्रोह करने के लिए उपरोक्त डाक्टर की तरह बचे रहते हैं सिर्फ ट्रेनी रिपोर्टर जो जब तक शादी नहीं कर लेते तब तक एक चैनल से दूसरे चैनल में आवागमन करते रहते हैं। आखिर एक दिन उनके अंदर के इलेक्ट्रान भी शांत हो जाते हैं और वे भारतीय मीडिया प्रतिष्ठान की जमीनी हकीकत के साथ समझौता कर लेते हैं। तब उनके अंदर का विद्रोह सिर्फ संपादक के साथ बहस करने और भारतीय मीडिया की सारी बुराइयों की जड़ संपादक नामक पद में निहित होना साबित करने तक सीमित हो जाता है।


स्वाधीनता


यह प्रश्न अक्सर उठाया जाता है कि भारतीय मीडिया में पत्रकार को कितनी स्वाधीनता प्राप्त है। जिन दिनों वामपंथ का एक विचारधारा के रूप में बोलबाला था, वामपंथी बुद्धिजीवी गला फाड़कर चिल्लाते थे कि यह बुर्जुवा मीडिया है, इससे आप गरीब और आम जनता की हिमायत की अपेक्षा कैसे रख सकते हैं। वामपंथ का जमाना बीत गया (हालांकि अरुंधती राय को उसका भूत अब भी सता रहा है), लेकिन स्वयं मीडिया के अंदर से ही यह रोना-धोना कम नहीं हुआ है कि उसकी स्वाधीनता पर प्रहार किया जा रहा है।


कौन कर रहा है प्रहार? मीडिया के कुछ लोग नवउदारवादी पूंजीवाद या बाजारवाद की ओर इशारा करते हैं। बाजार ने पत्रकारिता के लिए संसाधन उपलब्ध कराए हैं। उत्पादों के लिए कहीं भीतरी पन्नों पर थोड़ा-बहुत भले लिख दिया जाता होगा, लेकिन आज के युग में सिर्फ विज्ञापनों के बल पर समूचे मीडिया को कोई नियंत्रण में कर लेता होगा, यह सिर्फ एक भ्रम है। बिना संसाधन के कोई अखबार या चैनल कहां होगा इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है- या तो वह किसी राजनीतिक नेता की शरण में जाएगा, या किसी स्थानीय पूंजीपति के पास जो अपनी जेब के पैसे से उसे चलाएगा लेकिन बदले में उससे अपने लिए फायदा भी बटोरेगा, या ब्लैक मेलिंग का रास्ता अपनाएगा, या असमय मौत का शिकार हो जाएगा।


भारतीय मीडिया स्वतंत्र है या नहीं, क्या राजनीतिक दल और पूंजीपति या बाजार इसका गला घोंट रहे हैं- यह देखने के लिए हमें कुछ उदाहरणों को देखना चाहिए। (क) पिछले साल अन्ना हजारे का जबर्दस्त आंदोलन चला। लगभग समूचा मीडिया इस आंदोलन के समर्थन में उतर आया। इस आंदोलन का समर्थन करने से मीडिया हाउसों के किन निहित स्वार्थों की पूर्ति हो रही थी हमें नहीं पता। (ख) आज भारत के अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग पार्टियों की सरकारें हैं। केंद्र में मिलीजुली सरकारें आ रही हैं, आगे भी उसी तरह की सरकारों के आने के आसार हैं। ऐसे में किसी एक पार्टी का समर्थन करने या उसकी कठपुतली बनने पर किसी राष्ट्रीय मीडिया हाउस को फायदे की जगह नुकसान ही ज्यादा होने की संभावना है। (ग) जिन मीडिया हाउसों का खुलेआम किसी विशेष राजनीतिक पार्टी से संबंध रहा है, उन्हें घटती लोकप्रियता के रूप में इसका खामियाजा उठाना पड़ा है।


भारतीय मीडिया की अपनी समस्याएं हैं। ये समस्याएं पश्चिमी देशों या दक्षिण अमरीका के देशों या चीन से भिन्न हैं। भारत में हर संस्था ने अपने मानकों को नीचा किया है। हर संस्था की इज्जत जनता की नजरों में कम हुई है। एक डाक्टर को पहले जैसी इज्जत नहीं मिलती, एक वकील, जज, इंजीनियर, प्राध्यापक- हर पेशेवर धंधे के मानकों में कमी आई है। इसी तरह पत्रकारिता के पेशे में भी मूल्यों का क्षरण हुआ है।


जिस तरह कोई व्यक्ति सिगरेट, शराब और फास्ट फूड के सेवन से स्वयं अपना स्वास्थ्य खराब कर लेता है लेकिन इसका दोष मिलावटी खाद्य सामग्री और प्रदूषित हवा-पानी पर थोपना चाहता है, उसी तरह भारतीय मीडिया की ज्यादातर बीमारियों के कारण स्वयं उसके अंदर हैं। बाहर से यदि उस पर प्रभाव पड़ा भी है तो वह उतना ही है जितना किसी का स्वास्थ्य प्रदूषित हवा-पानी से खराब हो सकता है।


ब्लैक मेलिंग


भारतीय मीडिया की सबसे बड़ी बीमारी है ब्लैक मेलिंग की। ब्लैक मेलिंग ने मीडिया को सबसे ज्यादा बदनाम किया है। इस बीमारी का दोष मीडिया को छोड़कर और किसको दिया जा सकता है? ब्लैक मेलिंग की सबसे खास बात यह है कि एक मीडिया हाउस आपका भयादोहन कर रहा है तो आप अपना स्पष्टीकरण लेकर दूसरे मीडिया हाउस में नहीं जा सकते। क्योंकि हर मीडिया हाउस मीडिया युद्ध थोपे जाने से बचना चाहता है। आखिर किस सरकार, राजनीतिक पार्टी या कारपोरेट हाउस ने कहा है कि मीडिया हाउस या प्रकाशन संस्थान अपने यहां निष्पक्ष अंबुड्‌समान (वह संस्था जो प्रकाशन संस्थान के विरुद्ध शिकायतों की सुनवाई करे) की स्थापना न करे। आज इंटरनेट आने के बाद यह करना बिल्कुल आसान भी हो गया है। शिकायतकर्ता अपनी पहचान छुपाते हुए ई-मेल के जरिए अपनी शिकायत भेज सकता है। लेकिन देश के एक-दो को छोड़कर किसी भी मीडिया संस्थान में ब्लैक मेल की व्याधि से लड़ने की कोई इच्छा दिखाई नहीं देती। चैनलों और अखबारों के स्थानीय संवाददाता लगभग स्वतंत्र रूप से काम करते हैं। कम पारिश्रमिक पर कड़ी मेहनत करने वाले ईमानदार संवाददाताओं की कमी नहीं है। लेकिन कई संवाददाता ऐसे भी होते हैं जो स्थानीय उद्यमियों, सरकारी अधिकारियों से पैसे ऐंठने की जुगत भिड़ाने में ही ज्यादा समय बिताते हैं। लेकिन फिर भी इनके विरुद्ध औपचारिक शिकायत उनके संस्थान के संपादक या प्रबंधन को कभी नहीं की जाती। इसका एक ही कारण समझ में आता है कि आम लोगों को इन संस्थानों के संपादक या प्रबंधन की निष्पक्षता या कार्रवाई करने की इच्छाशक्ति पर शायद भरोसा नहीं है।


नियामक संस्था



हर पेशे के निर्धारित मानकों की रक्षा के लिए उससे संबंधित नियामक संस्थाएं होती हैं। जैसे एलोपैथी चिकित्सकों के लिए मेडिकल कौंसिल आफ इंडिया, वकीलों के लिए बार कौंसिल आदि। इन पेशों में जाने के लिए एक न्यूनतम योग्यता की आवश्यकता होती है और ये नियामक संस्थाएं यह योग्यता देखकर ही उन्हें अपना काम करने का लाइसेंस देती हैं। लेकिन पत्रकारिता एक ऐसा पेशा है जिसमें प्रवेश करने के लिए किसी न्यूनतम योग्यता की आवश्यकता नहीं होती। तभी तो हम देखते हैं कि सिर्फ कंपनी का प्रबंध निदेशक होने के कारण कोई अपने अंग्रेजी अखबार का संपादक बन जाता है जबकि उसे अंग्रेजी का एक वाक्य लिखना भी नहीं आता। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि किसी अस्पताल का मालिक उसका मुख्य चिकित्सक भी बन जाए।

हम केवल यह सोच सकते हैं कि काश पत्रकारों की भी अपनी कोई नियामक संस्था होती, जिसे पत्रकार ही गठित करते और पत्रकार ही संचालित करते। जो पत्रकार बनने के लिए मानक तय करती, जिसकी मान्यता प्राप्त करना किसी भी पत्रकार के लिए सम्मान का कारण होता, जिसके मान्यताप्राप्त संपादक को ही कोई संपादक मानता। लेकिन यह विचार मात्र है जिसके हकीकत बनने की दूर-दूर तक उम्मीद नहीं है। तब तक हम सब मिलकर पत्रकारिता पर हमले के लिए पूंजीवाद, बाजारवाद और कारपोरेट्‌स को दोषी ठहराकर समय व्यतीत कर सकते हैं।


गुणवत्ता


हम हिंदी वाले इस बात की शिकायत करते नहीं थकते कि 56 करोड़ लोगों की भाषा होने के बावजूद हिंदी के अखबारों को राष्ट्रीय अखबार नहीं माना जाता, न ही उन्हें वह सम्मान प्राप्त होता है जो एक प्रादेशिक अंग्रेजी अखबार को भी प्राप्त हो जाता है। इसके लिए हिंदी अखबारों का प्रबंधन और उसके संपादक दोनों ही दोषी हैं। दैनिक भास्कर और दैनिक जागरण जैसे विशाल प्रसार संख्या वाले अखबार आज पर्याप्त धन कमा रहे हैं। इनकी गिनती विश्व के बड़े अखबारों में होती है। लेकिन जहां तक इनकी दृष्टि का सवाल है वह वैश्विक तो क्या राष्ट्रीय भी नहीं हो पाई है।


आज हर बड़े अंग्रेजी अखबार के संवाददाता मध्य पूर्व, न्यूयार्क, वाशिंगटन, लंदन आदि विश्व के प्रमुख शहरों में हैं। लेकिन बड़े हिंदी अखबारों के संवाददाता विदेशों में तो क्या भारत के ही चेन्नई, बंगलुरु, पूना, मुंबई, कोलकाता, हैदराबाद जैसे प्रमुख शहरों में नहीं हैं। आर्थिक गतिविधियों के केंद्र बंगलुरु और मुंबई में संवाददाता रखे बिना ये अखबार आर्थिक जगत की खबरों के लिए किस पर निर्भर रहते होंगे आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं। अंग्रेजी एजेंसियों पर।


गुवाहाटी के हिंदी दैनिकों की ही बात करें तो मुझे याद नहीं आता किसी भी हिंदी दैनिक ने अपने पत्रकारों के लिए आज तक कोई प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किया हो। शायद ही किसी संपादक ने अपने संस्थान के प्रबंधन से इसकी आवश्यकता के बारे में चर्चा की होगी। फिर इसमें आश्चर्य क्या कि आज हमारे अपराध संवाददाता एफआईआर और जीडी इंट्री के अंतर को नहीं जानते, संज्ञेय और असंज्ञेय अपराध के अंतर को नहीं जानते। हमारे पूर्वोत्तर के पत्रकारों को संविधान के अनुच्छेद 371 तथा छठी अनुसूची के बारे में विशेष ज्ञान होना चाहिए। इसके लिए संविधान विशेषज्ञों द्वारा एक दिन का प्रशिक्षण कार्यक्रम किया जा सकता है। इनर लाइन परमिट के इतिहास और प्रावधानों की जानकारी होनी चाहिए, जिसके अभाव में हम उन्हें अक्सर कहते सुनते हैं- ""हाय! भारत के ही एक हिस्से में जाने के लिए अनुमति लेनी पड़ती है।''


शायद ही कोई प्रबंधन होगा जो अपने पत्रकारों से कहेगा कि आप अपनी गुणवत्ता बढ़ाने के लिए व्यक्तिगत तौर पर प्रयास न करें। लेकिन ऐसा प्रयास कदाचित ही देखने में आता है। इसके विपरीत देखने को मिलती है भाषा के प्रति लापरवाही, न सीखने की जिद, शब्दकोश न खोलने की जिद, अपना ही अखबार न पढ़ने की जिद।


इस अंधकार और निराशामय वातावरण के लिए प्रबंधन या बाहरी ताकतों को कैसे जिम्मेवार ठहराया जा सकता है।

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