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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

शनिवार, 21 फ़रवरी 2015

मातृभाषा दिवस और इंगलिशफोबिया

शनिवार यानी 21 फरवरी को विश्व मातृभाषा दिवस था। इसी दिन 1952 में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में उर्दू थोपे जाने के खिलाफ आंदोलन शुरू हुआ। पश्चिमी पाकिस्तान ने पूर्वी पाकिस्तान की बांग्ला अस्मिता को ठेस पहुंचाकर अच्छा नहीं किया और इसका परिणाम उसे 1971 में नए राष्ट्र बांग्लादेश के उदय के रूप में भुगतना पड़ा। इतिहास से सबक लेना चाहें तो बहुत सारे सबक हैं। हमारे लिए एक सबक यह है कि एक राष्ट्र एक भाषा का सिद्धांत सही नहीं है और यदि कोई इसे लेकर जिद ठानता है तो उसे अपने राष्ट्र के टुकड़े होने का परिणाम भी भुगतना पड़ सकता है। हमारे यहां बहुत सारे लोग केंद्र सरकार के कामकाज की एकमात्र भाषा हिंदी नहीं होने को लेकर समय-समय पर दुखड़ा रोते हैं और अब तक शासन में रह चुके सभी प्रधानमंत्रियों को गालियां देते हैं। लेकिन कोई भी यह नहीं देखता कि भाषाएं थोपने के दुष्परिणाम किसी राष्ट्र के लिए कितने गंभीर हो सकते हैं। लोगों का क्या है, वे फिर उन्हीं प्रधानमंत्रियों को इसलिए गाली देंगे कि उन्होंने सारे देश पर एक ही भाषा थोपने का प्रयास किया। फैसला हो जाने के बाद ज्ञान देना इस दुनिया में सबसे आसान काम है।

पिछले सप्ताह रूस से मेरे पास एक जन्म प्रमाणपत्र अनुवाद के लिए आया जो असमिया भाषा में था। इस प्रमाणपत्र को हाथ से भरा गया था और बहुत सारी लिखावटें स्पष्ट नहीं थीं क्योंकि वे घसीट कर लिखी गई थीं। ऐसे प्रमाणपत्र अनुवाद के लिए मेरे पास आते रहते हैं। ये अक्सर हाथ से लिखे रहते हैं और इनकी लिखाई स्पष्ट नहीं हुआ करतीं। इसी तरह शिक्षा संस्थानों के प्रमाणपत्र और शादी का प्रमाणपत्र या निकाहनामा हाथ से लिखा होता है और विदेश जाने वाले या वहां बस चुके भारतीयों को विभिन्न सरकारी कामों के लिए उनका अंग्रेजी में अनुवाद और प्रमाणीकरण करवाना होता है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि किसी के भी जीवन के लिए अति महत्वपूर्ण इन प्रमाणपत्रों को हम अंग्रेजी में ही जारी करें और उनमें हाथ से कुछ न लिखकर सबकुछ प्रिंट ही किया हुआ रहे। किसी को लगता हो कि इससे उसकी मातृभाषा पिछड़ रही है तो साथ में मातृभाषा को भी रखा जा सकता है।

प्रमाणपत्रों का अलग-अलग क्षेत्रीय भाषाओं में जारी किया जाना हमारे यहां चलने वाले मिथ्याचार को उजागर करता है। जब भाषाओं के गौरव को पुनःस्थापित करने की बात चलती है तब पहला हमला अंग्रेजी पर होता है। जो काम अंग्रेजी में हो रहा है उसे मातृभाषा में करने पर जोर दिया जाता है। अब जो निजी क्षेत्र है वहां तो कोई परिवर्तन आता नहीं, लेकिन सरकारें लोगों को झूठी दिलासा देने और अपने आपको मातृभाषा की सबसे बड़ी पुजारिन साबित करने के लिए अपने यहां से जारी होने वाले जन्म प्रमाणपत्र, शादी के प्रमाणपत्र और सरकारी शिक्षा संस्थानों से अंग्रेजी हटा देती है।

इस तथ्य से क्यों आंख चुराई जाती है कि आज विश्व के ज्ञान का अधिकतर हिस्सा अंग्रेजी में उपलब्ध है। यदि हमें अपनी मातृभाषा की सेवा करनी है तो सबसे पहले यह होना चाहिए कि इस उपलब्ध ज्ञान को अपनी मातृभाषा में लाया जाए। अंग्रेजी में उपलब्ध ज्ञान को आप मातृभाषा में ला देंगे तो कोई भी औसत बच्चा स्वाभाविक रूप से उस ज्ञान को अंग्रेजी की बजाय अपनी मातृभाषा में ही पढ़ना चाहेगा। इस काम को किए बिना सिर्फ अंग्रेजी को हटाने पर जोर देने का मतलब है अपने बच्चों को विश्व में उपलब्ध ज्ञान से वंचित करना। फिर हम देखते हैं कि कुछ बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं और कुछ अंग्रेजी बिलकुल नहीं जानते। इस तरह अंग्रेजी को हटाने को ही जो लोग समता लाने का एक प्रमुख उपाय मानते थे, उनलोगों ने एक नई तरह की और ज्यादा गंभीर विषमता पैदा कर दी।

इस बात को इस तरह समझा जा सकता हैः वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण दुनिया में सुख-सुविधा के जो साधन आज उपलब्ध हैं उनका फायदा सारे विश्व को मिल रहा है। मान लीजिए मोटर गाड़ी और बिजली का बल्ब यदि आज भी भारत में नहीं आया होता तो हम भौतिक प्रगति के मामले में आज कहां होते। अमेरिका जाकर कोई भी भारतीय आश्चर्य से कहता, अच्छा यहां इस तरह रोशनी होती है, यहां लोग इस तरह यात्रा करते हैं – यहां लालटेन कोई नहीं जलाता, यहां बैलगाड़ी किसी के पास नहीं है।

सौभाग्य से भौतिक साधनों के मामले में ऐसा नहीं है। दुनिया में कहीं भी कोई नई चीज निकली तो उसका लाभ सारी दुनिया को मिला। लेकिन ज्ञान के मामले में ऐसा नहीं है। क्योंकि बल्ब या मोटरगाड़ी का इस्तेमाल करने के लिए कुछ सीखना नहीं पड़ता लेकिन पुस्तकों में पड़े ज्ञान को पाने के लिए वह भाषा सीखना जरूरी है। जो बच्चा या युवक अंग्रेजी नहीं जानने के कारण नए-नए विचारों से वाकिफ नहीं है वह विचारों के मामले में बैलगाड़ी और लालटेन युग में ही है। कोई विचारवान बच्चा किसी विषय पर हो सकता है रात-दिन चिंतन कर रहा हो और अच्छी पुस्तकों की तलाश में हो। लेकिन उसे उसकी भाषा में उस विषय पर पुस्तकें मिलती नहीं। आज के युग के सर्वज्ञानी बाबा गूगल की सहायता भी उसके लिए व्यर्थ है क्योंकि उसे खास अंग्रेजी नहीं आती। लेकिन हो सकता है जिस विषय पर वह चिंतन कर रहा है उस विषय पर पहले ही काफी चिंतन हो चुका हो। यह ऐसे ही है जैसे कोई बैलगाड़ी में सुधार करने या लालटेन को ज्यादा रोशनी देने वाला साधन बनाने में जुटा हो और उसे मालूम ही नहीं हो कि दुनिया के किसी हिस्से में मोटरगाड़ी आ चुकी है, और बिजली का बल्ब बन चुका है।



अब से कोई भी राजनीतिक नेता या समाज सुधारक या बुद्धिजीवी मातृभाषा के पक्ष में बोलते-बोलते अंग्रेजी के खिलाफ विषवमन करने लगे तो श्रोताओं को एक ही काम करना चाहिए। वे उनसे यह पूछें कि क्या उन्होंने अपनी संतान को ऐसे स्कूल में भर्ती करा रखा है जहां अंग्रेजी बिलकुल नहीं सिखाई जाती। आप देखेंगे कि निन्यानवे फीसदी लोगों के बच्चे ऐसी स्कूलों में पढ़ते हैं जहां अच्छी अंग्रेजी भी सिखाई जाती है।

रविवार, 15 फ़रवरी 2015

आईआईटी खड़गपुर का टैंपो हाई है

अंततः केजरीवाल फिर से दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गए। यह दिल्ली या देश के लिए अच्छा होगा या बुरा। कुछ भी हो केजरीवाल जुनूनी तो हैं ही। एक समय उन्हें लगता था राइट टु इंफार्मेशन ही सबकुछ है। इससे भ्रष्टाचार दूर हो जाएगा। फिर उन्हें लगा कि लोकपाल आने पर सबकुछ ठीक हो जाएगा। फिर लगने लगा कि सत्ता हासिल किए बिना कुछ भी संभव नहीं है। वे किसी भी चीज के पीछे जुनूनी बनकर लग जाते हैं। जब तक उन्हें नहीं लगता कि लक्ष्य हासिल करने के लिए यह सही औजार नहीं है तब तक वे उसे छोड़ते नहीं हैं। इसी तरह नया करने की उनमें बुद्धि और सामर्थ्य है। टीएन शेषन के मुख्य चुनाव आयुक्त बनने के पहले किसी को इस पद की ताकत का पता नहीं था। हमें लगता है मुख्यमंत्री पद की ताकत का भी अभी तक किसी ने पूरी तरह इस्तेमाल नहीं किया है। एक धारणा बन गई है कि भारत में सरकारी कर्मचारियों से काम करवाना आसान नहीं है, न ही यहां घूसखोरी को खत्म करना आसान है। हो सकता है केजरीवाल हमें मुख्यमंत्री की असली ताकत का एहसास करवा दे। आप समर्थन करें या विरोध - आईआईटी खड़गपुर का यह पूर्व छात्र बुद्धिमान तो है ही। आईआईटी के.गी.पी. का टेंपो हाई है।

मीडिया का अहंकार



पिछले सप्ताह राष्ट्रीय विमर्श में जिस शब्द का सबसे अधिक उपयोग किया गया वह था अहंकार। दिल्ली में बीजेपी की हार के बाद लोगों ने एक स्वर में कहना शुरू कर दिया कि यह हार अहंकार की वजह से हुई है। इन दिनों तरह-तरह का मीडिया बाजार में आ गया है। एक तरफ से कोई आवाज निकालता है तो सब उसकी नकल करने लगते हैं। और एक-दो दिन में ही किसी विचार को बिना पूरी जांच के स्वीकार कर लिया जाता है। इस तरह दिल्ली में हार की वजह को बीजेपी का अहंकार मान लिया गया। कल को किसी राज्य में बीजेपी फिर से जीत गई तो ये लोग उसका विश्लेषण कैसे करेंगे पता नहीं।

बीजेपी में कितना अहंकार आया है यह तो सोचने वाली बात है, लेकिन यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है आज इलेक्ट्रानिक मीडिया (आगे सिर्फ मीडिया लिखेंगे) का एक हिस्सा पूरी तरह अहंकार में डूबा हुआ है। आप यदि ऊंचे पद पर हैं तो उसके विरुद्ध कुछ बोल भी नहीं सकते। पिछली बार केजरीवाल को जब दिल्ली में जीत हासिल हुई थी तब मीडिया को मुगालता हो गया था कि यह जीत उसी की वजह से हुई है। इसलिए जब केजरीवाल ने मीडिया वालों को जेल भिजवाने की बात कही तो मीडिया बुरी तरह भड़क गया। केजरीवाल की खबरों पर एक तरह से बैन लग गया और मीडिया का आचरण ऐसा हो गया कि देखें अब कैसे जीतते हो। लेकिन केजरीवाल फिर से जीत गए।

मीडिया पर कोई-कोई एंकर तो इतना बुरा आचरण करता है कि आप शो को पूरा देख ही नहीं सकते। एक अंग्रेजी राष्ट्रीय चैनल के एंकर का नाम इसमें सबसे ऊपर आता है। यह अपने अतिथियों पर जमकर चिल्लाता है, उन्हें बोलने नहीं देता, उनकी ऐसी ग्रिलिंग करता है जैसी शायद सीबीआई वाले भी नहीं करते होंगे। जो शब्द उसके मुंह से बार-बार निकलते हैं वे होते हैं माय शो, माय शो। यानी मेरा कार्यक्रम, मेरा कार्यक्रम। कोई अहंकार में कितना डूबा हुआ है इसे मापने का एक तरीका यह है कि वह कितनी बार हम की बजाय मैं शब्द का इस्तेमाल करता है। चुनाव प्रचार के दौरान मोदी भी हमारे गुजरात की बजाय मेरे गुजरात बोला करते थे। यह अलग बात है कि तब देश उनके रंग में पूरी तरह डूबा हुआ था और इन सब बातों पर ध्यान देने का किसी के पास वक्त नहीं था।

आप सबके खिलाफ बोल सकते हैं। बस कोर्ट और मीडिया के विरुद्ध नहीं बोल सकते। लेकिन अब मीडिया को भी औकात दिखाने वाला सुपर मीडिया बाजार में आ चुका है। यह सुपर मीडिया है इंटरनेट पर यूट्यूब। इस सप्ताह एक वीडियो शो यूट्यूब पर वायरल बुखार की तरह फैला और लाखों लोगों ने इसे देखा। इसमें एक नकली और और साथ में असली केजरीवाल का नकली इंटरव्यू लिया गया था। इंटरव्यू लेने वाला उस अंग्रेजी चैनल के अहंकारी एंकर की नकल कर रहा था जिससे उसके दर्शक आजिज आ चुके हैं। वह केजरीवाल को बोलने नहीं दे रहा था, हर पांच सेकंड पर उनकी बात काट रहा था, दिस इस माय शो, कहकर चिल्ला रहा था।

सोचने वाली बात है कि जब 24 घंटे के चैनल उपलब्ध हैं, तब क्यों लाखों लोगों ने यूट्यूब पर इस वीडियो को देखा। इसका मतलब है कि लोग इस एंकर के आचरण से बुरी तरह नाराज हैं। एक तरह से लोग मीडिया के कुल आचरण से ही नाराज हैं। जो युवा पीढ़ी है वह इस तरह के मीडिया को सहन करने के मूड में बिल्कुल नहीं है। और हो सकता है कि आने वाले दिनों में युवा पीढ़ी ही मुख्यधारा के मीडिया को अपना आचरण बदलने के लिए बाध्य कर दे।

गुवाहाटी में हमारे मित्र अतनु भुयां ने एक किताब लिखी है टीआरपी। दो महीनों के अंदर ही इसके कई संस्करण निकालने पड़ गए। असम की पुस्तक इंडस्ट्री में यह एक अभूतपूर्व बात है। भुयां ने अपनी पुस्तक में बताया है कि टीआरपी क्या होती है। दरअसल टीआरपी मापने वाली कंपनी एक शहर के कुछ चुने हुए घरों में टीवी के साथ टीआरपी मशीन फिट कर देती है। उसके बाद उस घर के लोग किस समय कौन सा कार्यक्रम देखते हैं वह सबकुछ रिकार्ड होता रहता है। उदाहरण के लिए गुवाहाटी के चालीस या पचास घरों में ये मशीनें लगी हुई हैं। इन चालीस या पचास घरों में टीवी पर जो कुछ देखा जाता है उसी पर गुवाहाटी की टीआरपी निर्भर करती है। अतनु लिखते हैं कि होमेन बरगोहाईं की टीआरपी बिल्कुल कम आती है, जबिक शाम के समय दिखाई जाने वाली गुवाहाटी की क्राइम न्यूज की टीआरपी काफी अधिक होती है। किसी चोर-उचक्के को पकड़कर उसकी पिटाई (जो कि कानूनन जुर्म है) करने के दृश्य की टीआरपी भी बहुत अधिक होती है। चैनलों का ध्यान इस बात पर रहता है कि इन चालीस-पचास परिवारों की रुचि क्या है। उन्हें इस बात की परवाह नहीं होती कि राज्य भर के लोग कौन से कार्यक्रम देखना चाहते हैं। इस तरह चालीस-पचास परिवार (ये परिवार कौन से हैं कोई नहीं जानता) ही असम राज्य के सभी चैनलों पर क्या दिखाया जाएगा इसे तय करते हैं। यह हाल सारे देश का है। ऐसे में मीडिया के कार्यक्रमों का स्तर क्या रह जाएगा सोचने वाली बात है।

रविवार, 8 फ़रवरी 2015

ट्रेन टू बांग्लादेश (4)

हम बांग्लादेश सवालों का पुलिंदा लेकर गए थे। एक सवाल काफी दिनों से मुझे परेशान किए हुए था। असम के लोग अच्छी बंग्ला नहीं बोल पाते। ऐसे में हमारे उल्फा के नेता कैसे इतने सालों तक ढाका में रह पाए। उन्हें आखिर लोगों के बीच बांग्लादेशी नागिरक बनकर छुपकर भी रहना था। इसका जवाब पाने के लिए हमें किसी को पूछना नहीं पड़ा। जवाब अपने आप मिल गया। ढाका में कम-से-कम छह तरह बंग्ला चलती है। हम जो टूटी-फूटी बंग्ला बोल रहे थे उसके बावजूद किसी ने हमसे यह नहीं पूछा कि आप किस देश से आए हैं। जबकि असम में आपकी असमिया में थोड़ा भी हेरफेर हो तो यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि आपकी मातृभाषा क्या है। इसी तरह कोलकाता में भी आपकी बंग्ला के उच्चारण में थोड़ा भी अंतर है तो बातचीत करने वाले के सामने आप कम-से-कम बंग्लाभाषी बनकर नहीं रह सकते। लेकिन बांग्लादेश में ऐसा नहीं है। हम धड़ल्ले से बंग्ला बोलते रहे और किसी ने हमसे कोई सवाल नहीं पूछा। दरअसल बंग्ला के कई रूप, जैसे सिल्हट और चट्टग्राम की बंग्ला, मानक बंग्ला से इतने भिन्न हैं कि कई बार कुछ समझ पाना भी मुश्किल हो जाता है। इसलिए ढाका में यदि कोई आपकी बंग्ला समझ नहीं पाता है तो सोचता है कि यह किसी ऐसे इलाके से आया होगा जहां इसी तरह की बंग्ला बोली जाती होगी। वह आपसे आपके गांव या जिले के बारे में पूछ सकता है। गांव को वहां देशेर बाड़ी कहा जाता है।

देशेर बाड़ी को लेकर ढाका में उल्फा के कार्यकर्ता के साथ एक मजेदार वाकया हुआ। एक बार जब उल्फा का एक कार्यकर्ता ऑटो में कहीं गया तो ऑटो वाले ने कहा, भाइया – आप तो बीबीसी की बंग्ला बोल रहे हैं। आप किस देश के हैं। इस पर उल्फा का कार्यकर्ता चौंक गया। चोर की दाढ़ी में तिनका। उसने कहा, अरे मियां मैं तो बांग्लादेश का ही हूं, तुम किस देश के हो। दरअसल देश से ऑटो वाले का तात्पर्य उसकी देशेर बाड़ी से था। यानी तुम किसी गांव या जिले के हो। बाद में उल्फा कार्यकर्ता को इसके बारे में पता चला तो वह अपनी नासमझी और अपने मन के अंदर के डर पर काफी हंसा। उल्फा के अध्यक्ष शुरुआत में अपने आपको श्रीमंगला जिले का बताते रहे और ढाका में ईसाई बनकर रहे। त्रिपुरा के पास के श्रीमंगला जिले में गारो जनजाति के काफी ईसाई लोग रहते हैं और वहां की बंग्ला भी अलग तरह की है इसलिए उनकी बंग्ला के उच्चारण को लेकर किसी को कोई संदेह नहीं होता था। बाद में चट्टग्राम जाने पर उन्होंने अपना नाम-पता सबकुछ बदल लिया और मुसलमान बनकर रहने लगे। क्योंकि चट्टग्राम में ईसाई आबादी नहीं के बराबर है, लिहाजा उनके पहचाने जाने का खतरा था। चट्टग्राम में उल्फा के अध्यक्ष अरविंद राजखोवा का नाम मिजानुर रहमान खान था।

प्रथम आलो के दफ्तर में कई पत्रकारों से फटाफट दोस्ती हो गई। तौफिक ने तुरंत फेसबुक पर मुझे फ्रेंडशिप रिक्वेस्ट भेज दी। पूर्व छात्र नेता तौफिक अब मंजे हुए पत्रकार हैं और अपने देश की स्थिति को लेकर उनकी चिंताएं फेसबुक के पृष्ठों पर विचारोत्तेजक बहस पैदा करती हैं। एक अन्य पत्रकार ने जब अपना नाम बताया तो मैंने कहा – पता है उल्फा के अध्यक्ष जब ढाका में छिपकर रहते थे तब उनका भी यही नाम था। दरअसल इस पत्रकार मित्र का नाम भी मिजानुर रहमान खान था। यह सुनकर उन्हें काफी मजा आया। मिजानुर कानूनी मामलों पर विशेष रूप से लिखते हैं। उल्फा के बांग्लादेश में कैद महासचिव अनूप चेतिया की वापसी के बारे में उनका मत था कि सरकार चाहे तो बिना प्रत्यावर्तन संधि के भी उन्हें भारत वापस भेज सकती है। मिजानुर अफसोस करते रहे कि बांग्लादेश और असम इतने पास होकर भी इतने दूर हैं। वे जनता के स्तर पर आपस में नजदीकियां लाने के तौर-तरीकों के बारे में बातचीत करते रहे। एक अन्य मित्र मशीरुल ने अपने रूस प्रवास के दौरान वहां साथ-साथ रहे गुवाहाटी के असमिया मित्र के संस्मरण सुनाए।

विपक्षी दलों के अवरोध के खत्म होने के आसार नहीं थे। ढाका में हालांकि किसी ने हमें डराया नहीं लेकिन शाम को जब टीवी के सामने बैठते तो अपने-आप डर हम पर हावी हो जाता। मोहाखाली में एक बस को जला दिया गया। अरे यहीं से तो हम दिन में गुजरे थे। यानी एक पल में कुछ भी हो सकता है। एक महीने बाद इन पंक्तियों के लिखे जाने तक भी बांग्लादेश में अवरोध खत्म नहीं हुआ है। बल्कि बीएनपी और जमाते इस्लामी की नृशंसता नए-नए रूपों में सामने आ रही है। त्रिपुरा बार्डर के पास कुमिल्ला में एक बस पर पेट्रोल बम फेंकने से उसमें सवार आठ यात्री जिंदा जल गए। इस घटना से खालिदा जिया को छोड़कर बाकी देश को झकझोर दिया है। विडंबना यह कि एक बीएनपी के पिता भी ऐसे ही एक हमले में अन्यत्र मारे गए। लेकिन बीएनपी सुप्रीमो खालिदा जिया टस से मस होने के लिए तैयार नहीं है। बोर्ड की परीक्षाओं के लिए भी उन्होंने अवरोध खत्म करने से इनकार कर दिया। इससे 14 लाख परीक्षार्थियों के लिए भी वे खलनायिका में परिणत हो गईं।



हमारे वहां रहने के दौरान बसें बंद थीं लेकिन ट्रेनें चल रही थीं। हमने तय किया कि अब घर चलने में ही भलाई है। अल्ल सुबह उठकर हम वापस विमानबंदर रेल स्टेशन पर आ गए। वहां की भीड़ देखकर दिल बैठने लगा। ट्रेनों के अंदर जितने लोग थे बाहर छतों पर भी उससे कम नहीं थे। टिकट तो जैसे-तैसे ले ली लेकिन ट्रेन आने पर उसमें चढ़ेंगे कैसे। फिर एक कुली दुलाल मियां की मदद ली। दुलाल मियां ने एक टीटी से बात की, “मामा, ये लोग इंडिया से आए हैं। इन्हें सीट दिलवा दें, ये आपको खुश कर देंगे।“ हमने दुलाल मियां के साथ फोटो सेशन किया। वापस वही कैंटीन में बैठकर यात्रा। एक पुलिस वाला जो गारो जनजाति का लगता था, बंग्ला के अपने विशेष लहजे में चिल्ला चिल्ला कर कुछ कह रहा था। सिराज मियां रेलवे कांट्रेक्टर के इस कैंटीन में तब तक तीन पुलिस वाले भी आ गए। घबराओ मत मियां बस तीन सीट लेंगे। उनकी पोस्टिंग चट्टग्राम कर दी गई थी। उनमें से एक अभी पिछले सप्ताह ही भारत और श्रीलंका की यात्रा करके लौटा था। अपने साथी को बता रहा था कि भारत की ट्रेनों में इस तरह पांच-छह फुट लंबी सीटें होती हैं और उनमें धुलाई किए बेडशीट और कंबल मिल जाते हैं। बस आप सोते-सोते यात्रा करते रहें। रास्ते में खबर आई कि आगे कहीं दुर्घटना हो गई है। लेकिन वह स्थान हमारी मंजिल अखौड़ा से आगे पड़ता था। चलो बच गए। शाम होने के पहले ही हम अखौड़ा उतर गए। प्लेटफार्म पर वही तीन किन्नर छलांगें लगाते, एक-दूसरे से होड़ करते जा रहे थे। पता नहीं ये लोग इतने बेफिक्र कैसे रह पाते हैं। और यह भी पता नहीं कि इन्हें कहां जाने की इतना जल्दी होती है कि वे एक दूसरे से होड़ करते हुए चलते हैं। हालांकि हमें शाम होने से पहले बार्डर पार करने की जल्दी थी। स्टेशन के बाहर ऑटो और रिक्शा वाले चिल्ला रहे थे – बार्डर – बार्डर।