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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

शनिवार, 17 जून 2017

थाईलैंड 4 - नया धर्म पुरानी मान्यताएं


जब हम पहाड़ पर चढ़ाई चढ़ रहे थे तो अचानक कहीं से किसी चीज के तेजी से गिरने की आवाज आई। मुझे लगा कहीं पटाखे फूट रहे हैं। लेकिन जंगल में पटाखों का क्या काम। आवाज की दिशा में देखा तो एक करीब 50 फुट का पेड़ हरहराकर गिर रहा था। मैंने जीवन में पहली बार किसी पेड़ को इस तरह अपने-आप स्वाभाविक रूप से मरते देखा। गाइड बताता है कि यह पेड़ वहीं पड़ा सड़ जाएगा। इसे इतने घने जंगल से बाहर लाना संभव नहीं है।

चियांग माई के इस राष्ट्रीय पार्क की वनस्पति की विविधता अति समृद्ध है। रास्ते में गाइड हमें दिखाते चलता है देखिए इस छाल का प्रयोग खाने में होता है। हम खाकर देखते हैं, अरे यह तो दालचीनी है। क्या इस पेड़ की छाल को ही हम इतनी कीमत देकर बाजार में खरीदते हैं। 


ज्यादातर दालचीनी बाहर निर्यात होती है, थाई खाने में तीखे मसालों की उतनी प्रधानता नहीं है। हाँ तीखी मिर्च ये लोग जरूर खाते हैं। अलग-अलग मिर्च अलग-अलग तरह से खाने के लिए उपयुक्त होती है। कोई मिर्च कच्ची खाने के लिए, कोई चटनी बनाकर भात के साथ, तो कोई खाने में तीखेपन के लिए मिलाने के लिए।

एक घास जैसी वनस्पति का अंदर का कोमल हिस्सा निकालकर वासे हमें देता है। कहता है इससे पेट में मरोड़े उठे तो ठीक हो जाते हैं। पेट के लिए अच्छी है। एक जगह एक बड़े पाइन पेड़ का तना जला हुआ है। शायद अपने आप आग लग गई होगी। पाइन का मोम जैसा तेल तने से बाहर निकल रहा है। गाइड बताता है कि बचपन में वे लोग इस तरह पाइन से मोम निकालकर उसकी रोशनी में पढ़ा करते थे। आगे बढ़ते हुए कहीं-कहीं गाइड एकाएक रुक जाता है। दिखाता है देखिए ये सांप के यहां से जाने के निशान हैं। सांप लहराती हुई गति से जाता है, कोमल मिट्टी पर अपने निशान छोड़ता हुआ। एक स्थान पर एक छोटी चिड़िया के पंख मिलते हैं। कुंग अंदाजा लगाता है कि किसी चील जैसे शिकारी पक्षी ने किसी छोटी चिड़िया का शिकार किया होगा और उसी के पंख यहां बचे पड़े हैं।

यहां के जंगल में असम के जंगलों की तरह बड़े जानवर बहुतायत में नहीं हैं। बड़े जानवरों में बाघ और भालू हैं। बाकी जंगली मुर्गा, जंगली मोर, जंगली सूअर आदि हैं। जंगल पर निर्भर रहने वाली जनजातियां जंगली सूअर आदि का शिकार करना पंसद करती हैं।

कंचनार के बड़े-बड़े सफेद फूलों से जंगल भरा पड़ा है और इसे एक अनुपम सौंदर्य प्रदान करता है। साथ ही झिंगुरों की अलग-अलग तरह की आवाज का संगीत लगातार हमारे साथ चलता रहता है। एक लीची के पेड़ के पास हम रुकते हैं। वासे इस बात की तहकीकात करता है कि लीची का पेड़ मर क्यों रहा है। ध्यान से देखने पर दिखाई देता है कि पूरे पेड़ को चिंटियों ने अपना बसेरा बना लिया है। 

अब यह पेड़ अपने अंतिम दिन गिन रहा है। इसी तरह एक और पेड़ की ओर दिखाते हुए कुंग बताता है कि इसके पत्तों से भयानक खुजली हो जाती है और वह करीब एक सप्ताह बाद ही जाती है। वह थाई, कारेन और मोंग भाषा में उसका नाम बताता है। थाई भाषा में उसे वान चांग हाइ कहते हैं। वान यानी वनौषध, चांग यानी हाथी और हाइ अर्थात आंसू। यानी हाथी को भी आंसू ला देने वाली वनौषध।

एक समय हम पहाड़ की चोटी पर पहुंच जाते हैं। आदत नहीं होने के कारण सांस फूलती है, और घुटने लगभग जवाब दे चुके होते हैं लेकिन कुंग बताता है कि अब और चढ़ाई नहीं है। यहां से नीचे के कई छोटे-छोटे शहरों की धुंधली-सी आकृति दिखाई देती है। चियांग माई शहर कहीं दिखाई नहीं दे रहा। वह उस पहाड़ी के उस पार छिप गया है। 

यानी हम एक पहाड़ी को पार कर उसके इधर आ गए हैं। मुझे नगा पहाड़ियां पारकर बर्मा में छुपे अलगाववादी नेता परेश बरुवा से मिलने जाने वाले पत्रकार का वह ब्योरा याद आ गया जिसमें वह बताता है कि किस तरह वे लोग सुबह चार-पांच बजे से नौ-दस बजे तक एक-एक चढाई पार कर परेश बरुवा से मिलने बर्मा पहुंचे थे। 

चोटी पर बोर्ड लगा है – यह स्थान समुद्र तल से करीब 1500 मीटर ऊपर है। यहां की वनस्पति भी अब एकरस हो गई है। ज्यादातर बर्च और चीड़ के पेड़ हैं। वहीं एक चिकने को पत्थर को दिखाकर कुंग बताता है यहीं थाईलैंड के राजा ने भोजन किया था। हम भी उस स्थान पर बैठकर फोटो खिंचवाते हैं।

सरकार ने एक जगह बैठने और दोपहर का भोजन करने के लिए लोहे का पुल जैसा बना दिया है। पुल पर एक छोटी-सी बुद्ध प्रतिमा रखी है। हमारे खाने के लिए भात गाइड के झोले में थे। धर्म से ईसाई वासे बुद्ध को भोग लगाने की तैयारी कर रहा है। मैं कनखियों से यह सब देख रहा था और हेनिंग को इशारा कर दिया कि वह भोग लगने से पहले खाना न खाए। वासे मोंग भाषा में गीत गाता है, भगवान को भोग ग्रहण करने की प्रार्थना करता हुआ सा। 

उसके बाद हम थाई शैली में बनाए हुए भात, स्ट्राबेरी और केले का भोजन करते हैं। यहां की तरह फिलीपीन्स में भी मैंने देखा कि लोग अपने पुराने रीति-रिवाजों और मान्यताओं को अब भी छोड़ नहीं पाए हैं। फिलीपीन्स में तो धर्म से कैथोलिक होते हुए भी लोग एक पुराने ऐतिहासिक क्रास के टुकड़ों को ही चाकू से खुरच लाते हैं और उसका ताबीज बनाकर गले में पहन लेते हैं। है न एशिया और यूरोप का अनोखा मेल।

पहाड़ से उतरकर गाड़ी में वापस चियांग माई शहर आने में लगभग दो घंटे समय लगता है। कुंग ने कहा कि आपलोग थोड़ी देर सो सकते हैं। लेकिन दुखते पैरों के साथ नींद किसे आने वाली थी। रास्ते में कुंग ड्राइवर के साथ काफी गंभीरता से बतिया रहा था। फिर उसे लगा कि हमें भी बातचीत में शामिल करना चाहिए। उसने बताया कि उसकी एक लड़की के साथ सगाई लगभग तय हो गई थी, लेकिन फिर पता चला कि लड़की का किसी के साथ प्रेम प्रसंग चल रहा है। 

उसने कहा कि अब मुझे यह सगाई नहीं करनी। सारे रास्ते वह इस प्रकरण की महीन से महीन बातें हमें बताता रहा और हमारी सलाह लेता रहा। मैंने हेनिंग से कहा कि थोड़ी सी संख्या वाले (कारेन लोग मुख्य रूप से बर्मा में रहते हैं, थाईलैंड में इनकी संख्या अधिक नहीं है) जनसमूहों में ऐसी दिक्कते आती हैं जिनकी हम बड़े जनसमूह अक्सर कल्पना भी नहीं कर पाते। समय पर शादी नहीं हो पाना भी ऐसी ही एक समस्या है।

बैंकाक में चने वाला

इस बार फिर से बैंकाक में रुकना हुआ। इस बार मुख्य बाजार से सात-आठ किलोमीटर रुका। होटल के पास ही एक खुले स्थान में शराब और खाने-पीने की दुकानें लगी हुई थीं जो शाम के बाद ही खुलती थीं और देर रात तक खुली रहती थीं, जैसाकि बैंकाक के टूरिस्ट इलाकों में चलन है। जब हम बैठकर कुछ खा रहे थे तो अचानक आवाज आई क्या भैयाजी कैसे हैं। 

नजर उठाकर देखा तो एक भारतीय युवक था, यूपी या बिहार का रहने वाला लग रहा था और सेंकी हुई मुंगफली और चना वगैरह बेच रहा था। अपने यहां लोग मुंगफली और चना आदि के बारे में अच्छी तरह जानते हैं चाहे वह देश के किसी भी राज्य का निवासी हो। लेकिन वहां विदेशी पर्यटकों को पहले बताना पड़ता है कि यह मुंगफली है, जरा चखकर देखिए। उसने हमें भी चम्मच से मुंगफली चखने के लिए दी। वह बिहार का रहने वाला था और पहले किसी दुकान में काम करने के लिए यहां आया था। 

साल भर के वीसा पर है। बैंकाक में भारतीय व्यापारी, दर्जी और दुकानों में काम करने वाले कर्मचारी तो काफी संख्या में हैं, लेकिन इस तरह घूम-घूमकर चना बेचने वाला व्यक्ति पहली बार मिला। याद आया, इसी तरह रंगून में पार्क के बाहर पकोड़ी तलता एक भोजपुरी भाषी खोमचा वाला मिल गया था, जिसे पुलिस वाला वहां से जबरदस्ती हटा रहा था। इसे क्या कहेंगे, एक यूपी-बिहार वाले का जीवट या यूपी-बिहार की बेरोजगारी पर टिप्पणी।

शुक्रवार, 16 जून 2017

मोंग युवक को गुस्सा क्यों आता है


जंगल में काफी दूर तक गाड़ी और मोटरसाइकिल जा सकती है। हमें पार कर एक मोटरसाइकिल वाला आगे बढ़ गया। उसके झोले में एक मुर्गा था। वासे ने वहां जंगली मुर्गा पकड़ने की विधि के बारे में बताया। ये लोग अपना पालतू मुर्गा जो किसी डोर से बंधा होता है, जंगल में छोड़ देते हैं। मुर्गा जब जंगल में जाकर कुकड़ूकू बोलता है तो जंगली मुर्गे उसके पास आ जाते हैं और उसके साथ झगड़ने लगते हैं। 

इस झगड़े के बीच मुर्गे का मालिक अचानक प्रकट होता है और बड़ी चालाकी से जंगली मुर्गे को अपने झोले में डालकर चलता बनता है। यह भी जंगल के लोगों के रोजगार का एक साधन है।

हम धीरे-धीरे चढ़ाई चढ़ रहे हैं। रास्ते पर ही कटे हुए दो डंडे रखे थे, वासे ने वे डंडे हम दोनों को दे दिए। हेनिंग हमेशा हाइकिंग करता रहता है, उसे सहारे के लिए डंडे की जरूरत नहीं। वृक्षों पर कहीं-कहीं अंकों के बोर्ड लगे हैं। ये सेना वालों के संकेत हैं। वे इस रास्ते पर रोजाना ट्रैकिंग के लिए आते हैं। 

पास ही रास्ते के किनारे काफी दूर-दूर तक बड़े-बड़े पत्थर रखे मिलते हैं। इनकी कहानी इस इलाके में अफीम की खेती से जुड़ी हुई है। यह चियांग माई प्रदेश थाईलैंड के अधीन आने के बाद थाईलैंड के राजा ने अफीम की खेती बंद कराने के लिए काफी मशक्कत की। इसी का एक भाग यह था कि पत्थरों को हटाकर एक जगह कर दिया जाए ताकि जिन स्थानों पर पहले पत्थर थे और आम चीजों की खेती संभव नहीं थी वहां साधारण मोंग लोग साधारण चीजों की खेती कर सके। उत्तरी थाईलैंड, लाओस और बर्मा की सीमाओं का संधिस्थल - यही वह इलाका है जिसे अफीम की खेती और अवैध हथियारों के व्यवसाय के कारण सुनहरा त्रिभुज या गोल्डन ट्रैंगल का नाम दिया गया है।

आगे चलकर देखा एक पहाड़ी झरने को रोककर बांध बनाया गया है। हालांकि अभी पानी नहीं है। बारिश जुलाई से शुरू होती है। इस झरने को रोकने से आसपास की पूरी जमीन की सिंचाई हो जाती है और खेती अच्छी होती है। इन्हें मेओ चेकडेम कहा जाता है। मेओ मोंग जनजाति का ही दूसरा नाम है। 

कुंग बताता है कि मेओ नाम में हिकारत का भाव है। इसलिए मोंग लोग अपने आपको मेओ कहे जाने पर गुस्सा हो जाते हैं। जैसे, कारेन लोगों को थाई लोग हिकारत से कारेयानी कहते हैं। यहां भी वही असम और पूर्वोत्तर की कहानी दोहराती-सी लगती है। कार्बी को मिकिर, मिजो को लुशाई, आदि को अका और आपातानी को आबर कहकर अपने आपको सभ्य मानने वाली असम की मैदानी जातियां इन जनजातियों के प्रति अपना हिकारत का भाव व्यक्त करती थीं। जैसे ही इन जनजातियों में थोड़ी जागृति आई इन लोगों ने सबसे पहले अपने नामकरण को ठीक किया। 

उत्तरी थाईलैंड पर भी यही बात लागू होती है। हालांकि हमने महसूस किया कि चीनी, लाओ, विएतनामी और थाई लोगों के साथ मोंग लोगों का एक शत्रुता का भाव है, जो उन्हें मेओ कहकर उनका अपमान करने में व्यक्ति होता है।

मोंग लोग इस इलाके में चीन से आए। विद्वानों का कहना है कि मोंग दरअसल साइबेरिया, मंगोलिया और तिब्बत के बाशिंदे थे जो वहां से पहले चीन चले गए। बाद में विभिन्न कारणों से वे धीरे-धीरे दक्षिण की ओर जाने लगे। इस तरह दक्षिणी चीन, लाओस और विएतनाम, जोकि आपस में जुड़ा हुआ इलाका है, इनकी निवासभूमि बना। 
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लाओस के कम्युनिस्ट गुरिल्लों ने जब फ्रांस द्वारा समर्थित राजा के खिलाफ विद्रोह की घोषणा कर दी तो 1953 से 1975 तक चले गृहयुद्ध के दौरान मोंग जनजाति के लोगों ने फ्रांस और राजा का साथ दिया था। इस युद्ध में अमरीका की बड़ी भूमिका थी, और इसकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने पैसों का लालच दिखाकर मोंग युवकों का कम्युनिस्टों के खिलाफ युद्ध में भरपूर इस्तेमाल किया। इसी तरह विएतनाम में मोंग लोगों ने अमरीका का साथ दिया। इसलिए जब 1975 में कम्युनिस्टों की जीत हो गई तो बड़ी संख्या में मोंग लोगों को पलायन करके थाईलैंड में शरण लेनी पड़ी।

आज भी आप सोशल मीडिया पर थोड़ी ताकझांक करें तो लाओ, विएतनामी और मोंग लोगों के बीच तकरार होती देखेंगे। एक अमरीकी युवक ने पूछ लिया कि मेओ का अर्थ क्या होता है। इस पर सोशल मीडिया पर क्रोध भरे जवाब आए। अमरीकी युवक ने कहा कि भई मुझे नहीं पता कि मेओ कहने पर आप क्यों भड़क रहे हैं। दरअसल मैं भी एक मोंग हूँ, मेरा जन्म अमरीका में ही हुआ है, और अपनी मातृभूमि के बारे में मैं जरा भी वाकिफ नहीं हूं। 

दरअसल युद्ध के बाद बड़ी संख्या में मोंग लोगों ने अमरीका, फ्रांस, अर्जेन्टिना और आस्ट्रेलिया में शरण ली। मोंग लोग अधिकतर ईसाई होते हैं, कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट। इस कारण भी इनके साथ लाओस और विएतनाम में इनके साथ भेदभाव की घटनाएँ आम हैं। लाओस और विएतनाम के लोग ज्यादातर बौद्ध होते हैं। पूर्वोंत्तर की कई जनजातियों की तरह मोंग लोगों को भी बांसुरी बजाना काफी पसंद है और ये लोग बांस से असम के पेंपा जैसा एक वाद्य भी बनाकर चाव से बजाते हैं।

हमारी यात्रा खत्म होने के बाद हम वासे के घर गए। उसके घर के पास ही उनके समाज का एक कार्यालय बना हुआ है। कार्यालय में एक रजिस्टर रखा हुआ है जिसमें उन लोगों ने अपनी टिप्पणियां लिख छोड़ी है जो वहां मोंग गांव में रहने के लिए आते हैं। दरअसल यह थाई सरकार की एक बहुत ही अच्छी योजना है। वहां कुछ परिवार ऐसे हैं जिनके घर में विदेशी पर्यटकों के रहने लायक सुविधा है। 

इसके लिए उन्हें सरकार से ऋण आदि मिला है। इन परिवारों के पास विदेशी पर्यटक आकर रहते हैं जनजातीय जीवन का जायजा लेने के लिए और प्रकृति की गोद में कुछ दिन बिताने के लिए। हमने रजिस्टर में देखा आने वाले कुछ लोग नृतत्वविद भी थे। 

ये लोग विभिन्न जनजातियों की जीवन शैली पर शोध करते हैं। इस योजना से दोनों ही पक्षों को अच्छा लाभ हो जाता है। शोधार्थियों या पर्यटकों रहने के लिए स्थान मिल जाता है और गांव वालों को कमाई एक जरिया। हेनिंग रजिस्टर में उनलोगों की लिखावट पढ़ रहा था जो उसके देश जर्मनी से आए थे।

गुरुवार, 15 जून 2017

उत्तरी थाईलैंड – जनजातीय जीवन की एक झलक

उत्तरी थाईलैंड कई जनजातियों की निवासभूमि है। भारत के नगालैंड से जो भूमि शुरू होती है वही बर्मा के पहाड़ी हिस्से से होती हुई उत्तरी थाईलैंड तक जुड़ी हुई है। नक्शे में देखें तो नगालैंड, उत्तरी बर्मा, दक्षिणी चीन, लाओस और उत्तरी थाईलैंड बिल्कुल पास-पास दिखाई देंगे। हालांकि यह सारा इलाका पहाड़ियों और घाटियों से भरा हुआ है। 

असम पर 600 साल तक राज करने वाली आहोम जाति के लोग उत्तरी बर्मा, उत्तरी थाईलैंड और दक्षिण चीन के इसी इलाके में रहने वाली किसी शासक जाति के लोग थे और विद्वानों का मानना है कि वे बर्मा की शान जाति से काफी मिलते-जुलते हैं और आहोम लोगों से ही मिलते-जुलते लोगों का इस इलाके में जगह-जगह राज था। ऐसी ही एक जनजाति है मोंग (Hmong)। 

चियांग माई के आसपास के राज्यों में ये लोग बसे हुए हैं। अब इनकी संख्या थाईलैंड में करीब 56 हजार है। उत्तरी थाईलैंड में रहने वाली अन्य जनजातियां हैं – कारेन, काचिन, लाहु, लिसु, मिएन, म्लाब्री, मोकेन, अखा आदि। चियांग में कई म्यूजियम हैं जहां एक-एक जनजाति के बारे में काफी जानकारी संगृहीत करके रखी गई है। थाईलैंड, चीन, लाओस और विएतनाम में विभिन्न जनजातियों के कुनबों को उनकी वेशभूषा के आधार पर पुकारने का रिवाज है। 

जैसा मोंग जनजाति के अलग-अलग कुनबों को सफेद मोंग, काला मोंग, हरा मोंग आदि कहकर पुकारा जाता है। यह उनकी वेशभूषा के रंग और उस पर किए गए कढ़ाई के काम के आधार पर होता है।

हमारा उत्तरी थाईलैंड के जिस राष्ट्रीय पार्क से होकर ट्रैकिंग करने का कार्यक्रम था वह इसी मोंग जनजाति का इलाका है। चियांग माई से हमारे साथ टूरिस्ट कंपनी की ओर से कारेन जनजाति का गाइड आया था। लेकिन सरकारी नीति के अनुसार इस जंगल से होकर जाने के लिए एक मोंग गाइड साथ होना जरूरी है। कारेन गाइड, कुंग ने बताया कि मैं भी सबकुछ जानता हूँ, जिन पेड़ों और फूल-पत्तियों के बारे में वह बताएगा उनके बारे में मुझे भी उतनी ही जानकारी है। लेकिन पॉलिसी तो पॉलिसी है। बस क्या कहें।

हमारा मोंग गाइड वासे बिल्कुल सीधा-सादा इंसान था। हमारे यहां के किसी नगा गांवबुढ़ा (गांव का मुखिया) से बिल्कुल मिलता-जुलता। अंग्रेजी का एक शब्द भी नहीं जानता था। मैंने उससे उसका नाम पूछा तो वह कुछ समझा नहीं। साथ में उसकी अपनी पारंपरिक दाव थी। कारेन गाइड कुंग भी अपनी कारेन दाव से लैस था। दाव इन जंगलों में हमेशा साथ रहने और साथ देने वाली चीज होती है। 

अपने यहां नगालैंड की तरह। बाद में जंगल में चलते वक्त उनलोगों ने दिखाया कि किस तरह प्यास लगने पर यदि साथ में पानी न हो तो एक खास केले के पेड़ को तने से काट लिया जाता है और उसके अंदर के कोमल तने में पानी मिल जाता है। हमने भी वह पानी चखा।

हमें वासे के साथ बातचीत कारेन गाइड कुंग के माध्यम से करनी पड़ती थी। कुंग उसकी बात को हमारे लिए अंग्रेजी में अनुवाद करके बताता था। मैंने पूछा कि क्या यहां भी गावों में गांव बुढ़ा की प्रथा है। वासे ने जो बताया उससे आभास मिला कि नगालैंड, बर्मा, दक्षिणी चीन, लाओस और इस उत्तरी थाईलैंड में प्रथाएँ आपस में काफी मिलती-जुलती हैं। यहां भी गांवबुढ़ा हैं जिन्हें सरकार से मान्यता प्राप्त है। 

मोंग जनजाति के लोग ऊंचे मचान पर नहीं रहते। नीचे जमीन पर ही रहते हैं। लेकिन लाहु, लिसु आदि कई जनजातियां हैं जो लोग जमीन से थोड़ा ऊंचा मचान बनाकर रहती हैं। मचान के नीचे उनके मवेशी रहते हैं और वे ऊपर से मवेशियों की निगरानी करते रह सकते हैं। असम की कई जनजतियों में भी मचान बनाकर रहने की प्रथा है।

जंगल की ट्रैकिंग जहां से शुरू होती है वहां एक छोटा-मोटा बाजार है। कुंग ने बाजार से कुछ स्ट्राबेरी और केले ले लिए। यहां स्ट्राबेरी की खेती नई-नई शुरू हुई है। मैंने सोचा कि कुंग अपने घर ले जाने के लिए खरीदारी कर रहा है, लेकिन बाद में वे स्ट्राबेरी और केले हमें ही जंगल में खाने को मिले। स्ट्राबेरियां देखने में जितनी सुंदर थीं खाने में भी उतनी ही मीठी थीं। चियांग माई हवाई अड्डे पर बाद में देखा कि हर चीनी युवती के हाथ में स्ट्राबेरियों का तीन किलो का एक-एक पैक था। हम चूक गए।

बाजार में एक स्थान पर निशानेबाजी होती है। मोंग जनजाति का पारंपरिक धनुष और तीर था और सामने निशाना लगाने के लिए संतरा, और दूसरे स्थानीय नींबू लटके हुए थे। एक व्यक्ति को तीन बार निशाना लगाने के लिए दिया जाता है। मैंने अपने जर्मन मित्र हेनिंग को चिढ़ाया कि तुम तो काफी बंदूक चला चुके हो, तुम्हारा निशाना सही होना चाहिए। 

उसके तीनों निशाने गलत लगे। इसके बाद मैंने हाथ आजमाया। सोचा कि जब हेनिंग का यह हाल है तो मेरा तीर तो कहां का कहां जाएगा। पहला निशाना कुछ वैसा ही हास्यास्पद प्रयास था। हमारे गाइड ने बताया कि किस तरह तीन बिंदुओं को आपस में मिलाकर निशाना लगाना है। और आश्चर्य, मेरा तीर संतरे के अंदर था। हालांकि यह मामूली सी बात थी लेकिन इससे पहाड़ पर चढ़ने का मेरा उत्साह बढ़ गया।

बुधवार, 14 जून 2017

चियांग माई- जहां कोई बार-बार जाना चाहेगा


चियांग माई जाने के बाद मेरी चीन जाने की इच्छा खत्म हो गई। कारण यह है कि थाईलैंड के इस उत्तरी हिस्से में पड़ने वाले इस शहर में काफी बड़ी संख्या में चीनी सैलानी आते हैं। दक्षिण चीन की सीमा यहाँ से मात्र दो-तीन सौ किलोमीटर दूर है, हालांकि चीन की सीमा सीधे थाईलैंड की सीमा से सटती नहीं। आपको बर्मा या लाओस से होकर चीन जाना होगा। लोग लाओस होकर ही जाते हैं। 

सबसे नजदीकी चीनी कस्बा जिंगहोंग है, जो चार सौ किलोमीटर दूर पड़ता है, और चीनी शहर कुनमिंग, डाली, चेंगडु आदि के लिए चियांग माई से सीधी हवाई सेवा मिलती है। चियांग माई में चीन का कनसुलेट भी है, जहां से वीसा मिलता है। चियांग माई के शांत, सुंदर और हरे-भरे शहर में समय बिताने के लिए आने वाले चीनी यात्रियों की हमेशा भरमार रहती है। हालांकि उतनी ही संख्या में गोरे पर्यटक भी यहां आते हैं। संख्या के लिहाज से चीनी यात्रियों का इतना अधिक प्रभाव है कि यहां के हर गाइड को चीनी भाषा आती है। दुकानों, होटलों और एयरपोर्ट पर तीन भाषाओं का प्रयोग होता है – थाई, अंग्रेजी और चीनी।

चियांग माई में चीनी यात्रियों को देखकर इस बात का काफी अंदाजा हो जाता है कि चीनी लोगों की पसंद क्या है, वे क्या खाते हैं, कैसे खाते हैं और कैसे तफरीह करते हैं। हर जाति का तफरीह करने का अपना अलग तरीका होता है। जैसे गोरे पर्यटकों को किसी शांत स्थान पर बैठकर घंटों बीयर पीना पसंद होता है। यदि समुद्र तट हो तो तैरना उनका एक प्रमुख शौक है। चियांग माई में पश्चिमी पर्यटकों को पसंद आने वाली दूसरी चीज है जंगल में हाइकिंग करना। चियांग माई बहुत ही सुंदर और जैव-विविधता से भरे वर्षावनों से घिरा हुआ है जहां घूमना और वहां की वनस्पतियों की जानकारी लेना जीवन का एक बहुत ही समृद्ध अनुभव हो सकता है। 

चीनी यात्री अकेले या जोड़े में कम और समूह में ज्यादा आते हैं। यदि बड़े समूह न भी हों तो चार या छह के समूह आपको दिखाई दे जाएंगे। अन्य चीजें यदि गोरे लोगों के समान हों तो इनका एक प्रमुख शौक चियांग माई में खरीदारी करना होता है। चियांग माई में खाना और अन्य सामान काफी सस्ता है, हालांकि यहां बैंकाक की तरह बड़े-बड़े मॉल नहीं हैं। वापसी की फ्लाइट में आप पाएँगे कि चीनी युवक और युवतियों के सूटकेश थाईलैंड से खरीदे सामानों से ठसाठस भरे रहते हैं।

जो बड़ी उम्र के चीनी यात्री होते हैं उनकी रुचि बौद्ध मंदिरों में भी होती हैं। वे बड़ी श्रद्धा के साथ इन मंदिरों के दर्शन करते हैं और वहां अगरबत्ती जलाते हैं और मोम के दियों को पानी में तैराते हैं। यह दिया जलाने की चीनी शैली है। उनके हाथ जोड़कर ईश्वर को प्रणाम करने और हमारे प्रणाम करने के तरीके में एक महीन भेद है जिसे देखकर ही अनुभव किया जा सकता है।

दूसरे थाई शहरों की तरह चियांग माई में भी मसाज पार्लरों की भरमार है। हालांकि यह थाई मालिश कितनी कारगर होती है इसे लेकर अभी भी संदेह का निवारण नहीं हुआ है। मेरा अनुभव यही है कि यह प्रचार के बल पर चलती है और बाहर से आया सैलानी एक नया अनुभव लेने के लिए मालिश करवा लेता है। जहां तक पश्चिमी पर्यटकों का सवाल है उनके लिए दो सौ ब्हात यानी चार सौ रुपए का मोल सिर्फ छह डालर के बराबर है। इतने पैसे में पश्चिमी देशों में आप जैसे-तैसे नाश्ता भर कर सकते हैं। इसलिए मसाज पार्लर में गोरों की भीड़ हो तो आश्चर्य ही क्या।

चियांग माई आने वाले चीनियों को देखकर इस बात का सहज अहसास हो जाता है कि चीन की आबादी किस तरह युवा आबादी है। इनकी तुलना में पश्चिम की आबादी में बुजुर्गों का प्रतिशत बढ़ता जा रहा है। इसीलिए पश्चिम से सैर करने आने वालों में बड़ी उम्र के लोग भी बड़ी संख्या में दिखाई दे जाते हैं। कोई-कोई तो अकेला होता है और लगता है अपनी बोरियत मिटाने यहां आया है। हमें जंगल ले जाने वाला गाइड बताता है कि स्कैंडिनेवियाई देशों, अर्थात स्वीडन और डेनमार्क के कई वृद्ध लोग यहां स्थायी रूप से रहने लग गए हैं। वे यहां जमीन नहीं खरीद सकते लेकिन उन्हें फ्लेट खरीदने की इजाजत है। 

सबसे बड़ी बात यह कि यहां यूरोप की तुलना में अपेक्षाकृत सस्ती नर्सें मिल जाती हैं, जो दिन-रात उनके घर में उनके साथ रहकर ही उनकी देखभाल करती हैं। व्यवसाय की दृष्टि से यह थाई लोगों का अच्छा आईडिया है। एक तरफ पैसा है और दूसरी तरफ काम करने की क्षमता, प्राइवेट नर्सों का यह व्यवसाय ऐसी चीज है जिससे दोनों पक्ष काफी खुश हैं। पूर्वोत्तर भारत, बांग्लादेश, बर्मा, थाईलैंड और दक्षिण चीन के विशेषज्ञ माने जाने वाले जाने-माने स्विडिश पत्रकार बर्टिल लिंटनर का घर भी यहीं हैं। वे किसी समय अपनी शान पत्नी के साथ नगालैंड होकर बर्मा गए थे। उनसे वहां मिलना नहीं हो पाया क्योंकि जब मैं वहां था तो वे बैंकाक गए हुए थे।

उत्तरी थाईलैंड में भी बाकी देश की तरह ही जीवन के हर क्षेत्र में महिलाओं का बोलबाला है। इस बात को इसी से समझा जा सकता है कि जब हम वापस आ रहे थे तो गेस्टहाउस की रिसेप्सनिस्ट, हमारा सामान बाहर लाने में मदद करने वाली लड़की और बड़ी सी जापानी एसयूवी कैब को चलाने वाली ड्राइवर सभी युवतियां थीं। एयरपोर्ट पर घुसते समय हमारे सामान की जांच करने वाली और हमारी तलाशी लेने वाली सुरक्षा कर्मचारी भी महिलाएँ थीं। हालांकि चियांग माई में सभी ड्राइवर महिलाएँ नहीं हैं, अधिकतर पुरुष ही हैं। लगता है यही एकमात्र धंधा है जो थाई महिलाओं ने पुरुषों के लिए छोड़ रखा है।

चियांग माई शहर में घुसते ही इसकी सुंदरता मंत्रमुग्ध कर देती है। यहाँ एक पुराना शहर है जहां अधिकतर सैलानी रुकते हैं, और इसके बाहर बाद में विकसित हुआ नया शहर है। पुराने शहर को चारों ओर से घेरने वाली एक खाई है। खाई को बहुत ही सुंदर ढंग से साफ-सुथरा बनाकर रखा गया है। इसके दोनों ओर से सड़कें गुजरती हैं और पैदल चलने के लिए काफी चौड़ा ट्रैक है। ट्रैफिक बढ़ रहा है लेकिन बैंकाक की तरह यहां बाइक टैक्सियों का अत्याचार नहीं है। शायद बाइक टैक्सी लेने वाले भी उतने अधिक लोग नहीं हैं। ऑफिस जाने की शायद उतनी भागमभाग नहीं है। 

बैंकाक में तो स्थानीय लोगों के लिए बाइक टैक्सी यातायात का एक प्रमुख साधन बन गया है। वहां लोग ट्रेन या बस से अपने घर के पास के स्टेशन या स्टाप पर उतरते हैं और इसके बाद वहां से अपने घर तक के लिए बाइक टैक्सी लेते हैं। चियांग माई में ऐसी बात नहीं है। यहां थाई शैली के तीन पहियों वाले आटो मिल जाते हैं या फिर बड़ी-बड़ी जापानी कारें जिन्हें टैक्सी की तरह चलाया जाता है।

पुराना शहर पब, काफी हाउस आदि से भरा पड़ा है। हर काफी हाउस को पुरानी शैली के लकड़ी के मकान की तरह सजाया हुआ है। अधिकतर मकान दो मंजिला हैं और उनका रंग भी बार्निश के रंग का होता है, आंखों को सुकून और एक पुराने शहर का अहसास देने वाला। 

पुराने शहर की हर गली में होटल और गेस्ट हाउस खुले हैं जिनमें लंबी अवधि तक रहने वाले पर्यटक रहते हैं। शहर में घूमने के लिए साइकिल या स्कूटी दिन भर के लिए किराए पर मिल जाती है। आपको हर गली में शहर का जायजा लेते युवा चीनी और गोरे पर्यटक मिल जाएंगे। लोग अपने घरों को गमलों, फूलों और सुंदर कैक्टस से मनमोहक रूप से सजा कर रखते हैं। दुनिया में कुछ शहर होते हैं जहां आप बार-बार जाना पसंद करेंगे। चियांग माई भी ऐसा ही एक शहर है। घर के इतना करीब।

रविवार, 1 जनवरी 2017

वर्ष 2017 में कुछ पहेलियां सुलझाएं

नया साल देखते-देखते बीत गया। देखते-देखते बीत जाना क्या यह सिर्फ एक अहसास है या सचमुच आज की जिंदगी इतनी मसरूफियत भरी हो गई है कि सबकुछ देखते-देखते बीत जाता है और पता ही नहीं चलता। 

कुछ तो बदलाव आया है समाज में कि जिंदगी पहले की अपेक्षा अधिक व्यस्ततापूर्ण हो गई है। ऐसा नहीं है कि हम अपने बुजुर्गों की अपेक्षा कोई अधिक महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं, फिर भी हम अपने-अपने बुजुर्गों की जीवन शैली याद करें तो पाएंगे कि उसमें एक लय थी, जो अब आपाधापी में बदलती जा रही है।

व्यस्तता बढ़ने के दो कारण तो बिल्कुल स्पष्ट हैं। एक, आवागमन और संचार के साधनों का बढ़ जाना। पहले दूर किसी राज्य में कोई आयोजन होता था तो जाने के बारे मे सोचते तक नहीं थे। आजकल सोचते ही नहीं बल्कि अधिकतर मामलों में लोग दूर-दराज के आयोजनों में भाग लेने जाते भी हैं। इसी तरह संचार के माध्यम बढ़ जाने के कारण काफी समय बातचीत में चला जाता है। 

पहले लगता था कि अब फोन नंबर डायल नहीं करना पड़ेगा और बटन दबाते ही मनचाहा नंबर लग जाएगा तो समय बचेगा। लेकिन समय बचा नहीं वह ज्यादा खर्च होने लगा। जैसे ही संचार का कोई नया माध्यम आता है वह आपके पाकिट से थोड़ा समय चुरा कर ले जाता है। फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप – सब पर यह बात लागू होती है।

दूसरा कारण है, आबादी का बढ़ना। साठ और सत्तर के दशकों में आबादी में जो बढ़ोतरी हुई उसका नतीजा आज की आपाधापी में दिखाई देता है। आप अपने माता-पिताओं से तुलना कर देखिए। उनके जितने रिश्तेदार हुआ करते थे, उनकी तुलना में आज की पीढ़ी के रिश्तेदार अधिक मिलेंगे। रिश्तेदारियों का संख्या में बढ़ना भी आज की आपाधापी का एक प्रमुख कारण है। हो सकता है आने वाली पीढ़ी इस अर्थहीन व्यस्तता से बच जाएगी क्योंकि आज जनसंख्या के बढ़ने की गति वापस धीमी हो चुकी है।

अक्सर पूछा जाता है कि ज्ञान प्राप्त करने का सबसे अच्छा तरीका क्या है। मुझे लगता है पहेलियां बुझाना ज्ञान प्राप्त करने का सबसे अच्छा तरीका होता है। उत्तर जानने के पहले आपके दिमाग में प्रश्न आना होगा। कक्षा में शिक्षक आते हैं और पाठ्यक्रम से निकालकर ज्ञान की बौछार करने लगते हैं। 

बहुत कम ही छात्र होते हैं जिन्हें इस अनचाही ज्ञानगंगा में भींगना पसंद होता है। इसकी बजाय यदि छात्र की ओर से ही कोई प्रश्न आए और शिक्षक उनका उत्तर दें तो वैसे उत्तर छात्रों का मस्तिष्क पूरी तरह सोख लेगा और वह जानकारी उनके ज्ञान का हिस्सा बन जाएगी।

वर्ष 2016 इस पहेली का उत्तर खोजने में बीत गया कि भारत की जिस चीज को सारी दुनिया पूजती है उसे भारतवासी क्यों अपने यहां से बहिष्कृत कर देते हैं। पिछले ढाइ हजार सालों में भारत में पैदा हुए जिन दो व्यक्तियों ने दुनिया को मौलिक ज्ञान दिया है वे हैं गौतम बुद्ध और गांधी। 

इन दोनों को भारत के बाहर पूजा जाता है। गौतम बुद्ध ने दुनिया को जो दे दिया उसके बाद एक तरह से और कुछ जानने के लिए बाकी नहीं रह जाता। उस पर अमल करने को छोड़कर। और गांधी ने ऐसे प्रश्नों का सामना किया जिनके उत्तर की अधिक तलाश आने वाली पीढ़ियों को होने वाली है। और पिछले डेढ़ हजार वर्षों में भारत में ऐसा क्या हुआ कि इन दोनों की ही विचारधाराओं को भारत से पूरी तरह बहिष्कृत कर दिया गया। गांधी को तो हमने शारीरिक रूप से ही हमारे बीच से हटा दिया। 

गौतम बुद्ध के बारे में यूनिवर्सिटी के किसी प्रतिभावान छात्र से पूछिए तो ज्यादा संभावना इस बात की है कि वह कहेगा – गौतम बुद्ध बौद्ध धर्म के प्रवर्तक थे, उनकी प्रेरणा से सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। 

लेकिन गौतम बुद्ध के इस धरती पर आने और रहने की घटना सिर्फ एक धर्म प्रवर्तक के जन्म लेने की घटना नहीं है। इसी तरह गांधी के बारे में पूछिए तो लोग आपको बताएंगे कि गांधी हमारे राष्ट्रनायक थे, उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन का नेतृत्व किया। लेकिन स्वाधीनता आंदोलन सभी उपनिवेशों में हुए और सबके अपने-अपने राष्ट्रनायक थे। लेकिन गांधी इस समूची दुनिया के लिए अनूठे क्यों थे।

बौद्ध पर्यटकों के भारत आने पर हमें थोड़ी देर के लिए अहसास होता है कि ओह बौद्ध धर्म का जन्म भारत और नेपाल की धरती पर ही हुआ था। लेकिन रोजमर्रा की जिंदगी का ऐसा कोई जीवंत अहसास नहीं है जो यह दिखाता हो कि हम ही गौतम बुद्ध की परंपरा के वारिस हैं। 

इसी तरह गांधी की तस्वीर और गांधी के नाम की पूजा होती है लेकिन गांधी किसलिए गांधी थे यह बहुत कम लोग जानते हैं। आश्चर्य ही क्या कि उनकी विचारधारा को आगे बढ़ाने का काम भारत में कहीं दिखाई नहीं देता।

हम सौभाग्यशाली पीढ़ी हैं कि गूगल नाम का एक महान शिक्षक हमलोगों के पीसी और मोबाइल फोन पर हमेशा हमारे प्रश्नों के उत्तर देने के लिए तत्पर रहता है। यदि आप अंग्रेजी भाषा जानते हैं तो अपने मन में बेशक हजार प्रश्न उदित होने दीजिए। क्योंकि उनका उत्तर खोजने के लिए गूगल हमेशा तत्पर रहेगा। 

गौतम बुद्ध और गांधी के अलावा हमें वर्ष 2016 में इस प्रश्न ने भी बहुत सताया कि हम भारतवासियों में ऐसा क्या था कि हम हमेशा युद्धों में हारते गए, हम कई सदियों तक गुलाम बने रहे। ऐसा क्या था कि अंग्रेजों ने इतने बड़े देश को इतनी सहजता के साथ गुलाम बना लिया। 

आज जब हमें यह जानकारी मिलती है कि अंग्रेज अफसरों की आवासी बस्तियों, जैसे सिविल लाइन्स, और शिमला जैसे शहरों की माल रोड जैसी सड़कों पर भारतीयों का आना-जाना वर्जित था, तो जैसे प्रश्नों की मधुमक्खियां क्यों, क्यों, क्यों कहकर हमें डंक मारने के लिए दौड़ पड़ती है। 

उनसे बचने के लिए जो उत्तर का मरहम हमें चाहिए गनीमत है कि वह हमारे इंटरनेट पर आज उपलब्ध है। अंत में मैं इस प्रश्न को फिर दोहराता हूं – बुद्ध और गांधी को इस देश ने बहिष्कृत क्यों कर दिया। आइए वर्ष 2017 में हम इन दोनों पहेलियों को सुलझाएं।