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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

रविवार, 13 सितंबर 2009

हिंदी दिवस पर अच्छी बातें

हिंदी मुझे उसी तरह सम्मोहक लगती है जैसे आम, चाकलेट या सुबह की चाय। मैं जानता हूं कि हिंदी मीडिया में अभी भी कूड़ा-करकट रहता है, अंधविश्वास को बढ़ाने वाली खबरें रहती हैं, धर्मभीरुता को भुनाने वाला सामान रहता है, राष्ट्रप्रेम को उन्माद बनाने वाले समाचार रहते हैं - लेकिन कहीं हिंदी अखबार मिल जाए तो उस पर नजरें दौड़ाए बिना जी नहीं मानेगा। डाइबिटीज का मरीज जैसे जानता है कि आम खाते ही उसकी सेहत बिगड़ने वाली है, वैसे ही मैं जानता हूं किहिंदी मीडिया से रूबरू होते ही मूड बिगड़ने वाला है, लेकिन इसका कोई उपाय नहीं है। बच्चे को आप लाख हिदायत दें चाकलेट न खाने की, लेकिन वह नहीं मानेगा। बचपन से हमने भी जिस भाषा में सोचा, जीया, जिस भाषा में सपने देखे उस भाषा से अपने लगाव को परिभाषित नहीं कर सकता।
अच्छी बात यह है कि पूर्वोत्तर में हिंदी बढ़ रही है। अच्छी बात इसलिए नहीं कि हिंदी का साम्राज्य बढ़ रहा है, मैं जिस भाषा से प्यार करता हूं उस भाषा का साम्राज्य बढ़ रहा है। अच्छी बात इसलिए कि देश एक संपर्क भाषा विकसित कर रहा है। संविधान में आप लाख अच्छी-अच्छी बातें लिख लें, लेकिन जब लोग हिंदी के विरोध में आत्मदाह करने पर उतारू हों तो आपको उनकी बात भी सुननी होगी, समझनी होगी। देश ने एक समय ऐसी ही समझदारी दिखाई थी। संपर्क भाषा आज नहीं तो कल आ जाएगी, लेकिन देश एक बार टूट गया तो दोबारा जुड़ पाएगा इसकी कोई गारंटी नहीं। (इतिहास में पहली बार सारा सांस्कृतिक भारत एक राजनीतिक इकाई बना है, इस चीज को हम छोटा करके नहीं आंक सकते।) देश आज एक संपर्क भाषा विकसित कर रहा है। कल का वह कल आज आज बनकर आ गया है। आप गुवाहाटी में चलने वाले कोचिंग सेंटरों का चक्कर लगा लीजिए। सभी विद्यार्थी अंग्रेजी माध्यम से परीक्षा देंगे, लेकिन वहां पढ़ाई हिंदी के माध्यम से हो रही है। शिक्षक हिंदी में समझा रहे हैं, बच्चे हिंदी में सवाल पूछ रहे हैं और पीरक्षाएं अंग्रेजी में दे रहे हैंे। इस तरह देश एक संपर्क भाषा का विकास कर रहा है।
अच्छी बात यह है कि इंटरनेट पर हिंदी की उपस्थिति बढ़ रही है। यूनीकोड के फांट आने के बाद सबकुछ सरल होे गया है। विंडोज एक्सपी पर ये फांट मुफ्त मिलते हैं। इन फांट की मदद से आप गूगल पर हिंदी में सर्च करें। गूगल आपको जागरण, हिंदुस्तान, भास्कर, बीबीसी, बिजनेस स्टैंडर्ड की साइटों से आपका मनपसंद विषय हिंदी में लाकर आपके सामने रख देगा। गूगल की मदद से अनुवाद करें। यह अनुवाद सही नहीं होता, लेकिन किसी शब्द के लिए कई विकल्प सुझा देता है। आपकी मदद करता है। यूनीकोड या मंगल फांट की मदद से सीधे हिंदी में ई-मेल करें, चैट करें - कोई परेशानी नहीं। माइक्रोसाफ्ट अपने वर्ड प्रोग्राम में हिंदी स्पेलचेकर, ग्रामर चेकर विकसित करने में जोर-शोर से लगा है। ढेर सारी पत्रिकाएं इंटरनेट पर हिंदी में उपलब्ध हैं।
हिंदी के साथ अच्छी बात यह है कि हिंदी जानने, बोलने, लिखने और पढ़ने वाले सिर्फ हिंदी पट्टी तक सीमित नहीं हैं। यदि पढ़ने-लिखने वाले हिंदीभाषी सिर्फ भोपाल, लखनऊ, पटना, रांची, रायुपर, जयपुर तक सीमित रहते तो हिंदी का भी इंटरनेट पर वही हाल होता, जो इन शहरों में सूचना प्रौद्योगिकी का है। आज भारत के जो शहर आईटी के मामले में आगे बढ़ रहे हैं वे हैं चेन्नई, बंगलोर, मुंबई, पूना, अहमदाबाद, दिल्ली, चंडीगढ़, हैदराबाद। इन शहरों को आप एक रेखा से मिला दें तो उससे जो नक्शा बनेगा वह आज एक अलग भारत है। यहां आईटी के क्षेत्र में आश्चर्यजनक प्रगति हुई है। आईटी के साथ-साथ यहां से हिंदी के विकास का भी रास्ता खुला है। इन शहरों में बैठे प्रोफेशनल्स वेबसाइटों को, साफ्टवेयरों को हिंदी में तब्दील कर रहे हैं। इंटरनेट पर आकर हिंदी चुपचाप विश्व भाषा बन रही है। जितना काम हो-हल्ले के साथ आयोजित किए जाने वाले विश्व हिंदी सम्मेलन नहीं कर पाए, उससे कई गुना ज्यादा काम पिछले सात-आठ सालों में इंटरनेट के माध्यम से हो गया।
हिंदी के साथ अच्छी बात यह है कि जिस क्षेत्र को आज हिंदी पट्टी कहा जाता है, वहां के लोग कभी भी देश के राजनीतिक, बौद्धिक, प्रशासनिक क्षेत्र में हावी नहीं रहे। यदि रहते तो वे हिंदी को लेकर अपने अति उत्साह को प्रदर्शित करते। स्वाधीनता के ठीक बाद का समय शायद वैसा ही समय था, जब हिंदी को लेकर संविधान सभा में मत-विभाजन की नौबत आ गई थी। (हिंदी को लेकर मत विभाजन हिंदी उत्साहियों का अदूरदर्शितापूर्ण कदम था। किसी भी एक राज्य पर जोेर-जबर्दस्ती हिंदी थोपना गलत होता। लगता है आज इस मामले में भारत के राजनेता काफी परिपक्व हो गए हैं। देखिए किस तरह वैट को समझा-बुझाकर सभी राज्यों में लागू करवाया गया!) हिंदी को सारे देश में फैलाने की यदि हिंदी उत्साही कोशिशें करते तो उसके दुष्परिणाम सामने आते ही आते। वो तो देश के राजनीतिक, बौद्धिक, प्रशासनिक नेतृत्व पर हर भौगोलिक क्षेत्र के लोगों का ऐसा संतुलन बना रहा कि अहिंदीभाषी प्रदेशों के कुछ क्षेत्रीयतावादी नेताओं (और असम में अल्फा जैसे विद्रोही संगठनों) द्वारा लगाए जाने वाले हिंदी साम्राज्यवाद आदि के नारों पर कभी किसी ने गौर ही नहीं किया।
हिंदी के साथ अच्छी बात यह है कि इसका साहित्य आज विश्व के समृद्ध साहित्यों में से एक है। हिंदी साहित्य की परिधि हमेशा विस्तृत रही। (याद कीजिए अज्ञेय की नगालैंड और शिलांग की पृष्ठभूमि वाली कहानियां, उधर गुलेरी जी की "उसने कहा था' पंजाबी कहानी है या हिंदी की कहानी!) भले अज्ञानवश कुछ लोग हिंदी को यूपी-बिहार की भाषा कह देते हों, लेकिन हिंदी साहित्य ने हमेशा भारत की आत्मा की खोज करने की कोशिश की है। आज हिंदी में जितनी लघुपत्रिकाएं निकलती हैं उतनी शायद ही अन्य किसी भारतीय भाषा में निकलती होंगी। साहित्य अकादमी की "समकालीन भारतीय साहित्य' के पाठक सारे भारतवर्ष में फैले हैं। इसमें जब आपकी रचना छपती है तो केरल, तमिलनाडु और उड़ीसा से आपको फोन आते हैं और आप इस पत्रिका (और हिंदी) की पहुंच का लोहा मान लेते हैं।
लेकिन हिंदी के सावन में सबकुछ हरा ही हरा नहीं है। यह सचमुच एक सिक्के की तरह है जिसके दो पहलू हैं। हिंदी का कृष्ण पक्ष यह है कि हिंदी पट्टी के लोगों में अपनी भाषा के साहित्य को लेकर प्रेम की कमी है। हिंदी की पुस्तकों का एक संस्करण शायद ही कभी तीन हजार से ऊपर का होता हो। जबकि असमिया भाषा की एक औसत पुस्तक का एक संस्करण एक हजार का होता है तो हिंदी का तो यह पचीस हजार का होना ही चाहिए। हो सकता है हिंदी पुस्तकों की सरकारी खरीद इसका कारण हो, जिसके कारण प्रकाशक पुस्तकों की कीमत बढ़ाकर रखते हैं।
हर बुरी चीज का एक अच्छा कोण होता है। एक तरह से यह अच्छा है कि हिंदी वालों में भाषा को लेकर भावुकता की कमी है, वे जैसे जाति को लेकर, आरक्षण को लेकर, धर्म को लेकर मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं, उस तरह कभी भाषा को लेकर उत्तेजित नहीं होते। यदि हिंदी के भविष्य को हम हिंदी पट्टी तक सीमित कर देखते तो शायद इस तरह के भावनात्मक ज्वार के अच्छे परिणाम सामने आ सकते थे। लेकिन हम हिंदी को और भी महत्वाकांक्षी भविष्य के संदर्भ में देखते हैं। इसे देश भर की संपर्क भाषा बनना है तो मरने-मारने पर उतारू होना गलत होता। तब तो यह अपने इलाके तक सिमट जाती और इतिहास द्वारा सौंपी गई जिम्मेवारी कोे पूरा नहीं कर पाती। हिंदी भारत की संपर्क भाषा बनेगी हिंदीवालों के भावनात्मक ज्वार से नहीं बनेगी, इसे संपर्क भाषा वही लोग बनाएंगे जिनकी मातृभाषा हिंदी नहीं है। इसके लिए धीरे-धीरे चलने की वर्तमान नीति ही सर्वश्रेष्ठ नीति है।
और अंत में, हिंदी में अच्छी बातें हैं इसका मतलब यह कदापि नहीं कि आप अंग्रेजी पढ़ना छोड़ दें। अभी भी आधुनिकता के साथ कदम मिलाए रखने के लिए अंग्रेजी की बैसाखी की सख्त जरूरत है। हो सकता है आज हिंदी दिवस के अवसर पर यह बात अटपटी लगे लेकिन फिर भी मैं कहूंगा कि हिंदी के पांव जब तक मजबूत नहीं हो जाते, किसी को भी अंग्रेजी की बैसाखी को फेंक देने की भूल नहीं करनी चाहिए।

रविवार, 6 सितंबर 2009

कहाँ से शुरू करूं

लंबा व्यवधान पड़ गया। ब्लॉग भी क्या जुनून की तरह है? केवल जुनूनी होने से कैसे काम चलेगा। क्या कारण होते हैं जब लिखना बिल्कुल रुक जाता है? आंतरिक सूखा पड़ता होगा या फिर आती होगी कोई आंतरिक आर्थिक मंदी।


इन दिनों सीटी बस से यात्रा कम कर दी। अभी-अभी दस किलोमीटर तक धूल और धुआँ खाकर आ रहा हूँ। सीटी बस में कुछ गुण हैं और कुछ अवगुण, उसी तरह स्कूटर के अपने गुण-अवगुण हैं।
हिंदी को लेकर असम में एक वातावरण बनाया जा रहा है। आखिर यह किसका दोष है। शायद ज्यादा मीडिया होने का यह खामियाजा समाज को भुगतना पड़ता है। याद आते हैं वे दिन जब प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई का जहाज ऊपरी असम में किसी गांव में गिर पड़ा था और हमें दूसरे दिन अखबार से पता चला। आज का दिन होता तो क्या होता? चैनल वालों को दो दिनों का काम मिल जाता। मीडिया के प्रति एक अंदरूनी वितृष्णा क्यों जन्म ले रही है?

गुरुवार, 29 जनवरी 2009

योगाभ्यास करने वाले एक धर्मपरायण मुसलमान के मन में यह दुविधा जगती है कि कहीं वह धर्मविरोधी कार्य तो नहीं कर रहा

यह अजीब विडंबना ही है कि योग को एक आम धार्मिक हिंदू अपने नियमित पूजा-पाठ का अंग नहीं मानता जबकि एक आम धार्मिक गैर हिंदू इसे एक हिंदू पद्धति मानकर इससे परहेज करता है। कम-से-कम गैर-हिंदू कट्टर धार्मिक गुरू तो यही चाहते हैं कि उनके अनुयायी इस पद्धति से दूर ही रहें। इसीलिए योग को लेकर जब-तब ऐसे विवाद उठते रहते हैं जो यह दिखाते हैं कि गैर-हिंदुओं में, खासकर मुसलमानों के एक वर्ग में, योग को लेकर कितनी दुविधा है। अभी इंडोनेशिया में फतवा जारी कर कहा गया है कि योग के कौन से हिस्से मुसलमानों के लिए जायज हैं और कौन से हिस्से नहीं। मलेशिया में इससे आगे बढ़कर वहां की राष्ट्रीय फतवा परिषद ने फतवा जारी किया है कि मुसलमानों को योग के हर रूप से दूर ही रहना चाहिए, इसके मंत्रों के उच्चारण की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती। इसके विपरीत भारत में देवबंद के दारुल उलूम ने एक समझौतावादी रुख अपनाते हुए ओम तथा दूसरे मंत्रों के उच्चारण से दूर रहते हुए योग को एक वर्जिश के रूप में ग्रहण करने की सलाह दी है।

योग को भारत का विश्व को अनुपम अवदान तो माना जा सकता है लेकिन इसे किसी भी दृष्टि से हिंदू पद्धति मानने का तुक समझ में नहीं आता। आम तौर पर गैर-हिंदुओं को ओम के उच्चारण पर आपत्ति होती है। शायद यह भारतीयों का ही दोष होगा कि उन्होंने योग के विभिन्न पहलुओं कोे सही तरीके से विश्व के सामने व्याख्यायित करते हुए नहीं रखा। ओम के बारे में सर्वमान्य धारणा यही है कि यह उस अदृश्य शक्ति का प्रतीक है जो इस ब्रह्मांड को संचालित कर रही है। हर धर्म में किसी न किसी रूप में ऐसी शक्ति की कल्पना की गई है। जहां ब्रह्मांड को कार्य-कारण संबंधों की अनंत श्रृंखला के द्वारा संचालित माना गया है वहां भी इसकी आराधना के लिए प्रतीकों का चुनाव किया गया है। जरूरी नहीं कि यह प्रतीक हमेशा ओम ही हो। योग गुरू स्वामी रामदेव अपने शिविरों में ठीक ही कहते हैं कि मुसलमान चाहें तो ओम की जगह अल्लाह शब्द का उच्चारण कर सकते हैं। यह उनलोगों को सही जवाब है जो आध्यात्मिकता के रस को छोड़कर उसके छिलके में ही अपने दिमाग को उलझाए रखते हैं।

इस्रायल में योग को दिन पर दिन लोकप्रियता हासिल हो रही है। अमरीका में करीब डेढ़ करोड़ लोग नियमित योगाभ्यास करते हैं। जाहिर है कि इनमें बहुसंख्यक गैर-हिंदू ही होंगे। योग को लेकर सबसे ज्यादा आपत्ति मुस्लिम धर्मावलंबियों को ही होती है तो इससे यह समझ में आता है कि मुस्लिम धर्म में आज भी व्यक्ति की आजादी को कम महत्त्व दिया जाता है। इस्लाम एक संगठित धर्म है और इसमें उलेमाओं के निर्देशानुसार चलने की परंपरा रही है। इस परंपरा का आज के जीवन मूल्यों के साथ कदम कदम पर टकराव होता है। आज व्यक्ति के पास जानकारी के बहुत सारे स्रोत हैं। उसका अन्य धार्मिक परंपराओं के साथ पहले की तुलना में अधिक आदान-प्रदान होता है।

इंडोनेशिया और मलेशिया में योग को लेकर सवाल उठे ही प्रचार माध्यमों के कारण हैं। पिछली सदी तक इन देशों में ये सवाल इसलिए नहीं उठे क्योंकि वहां के लोग योग के गुणों से परिचति नहीं थे। आज दृश्य-श्रव्य माध्यमों के कारण लोग घर बैठे योग के गुणों से परिचित हो रहे हैं, घर बैठे योगाभ्यास के तरीकों को जानकर उन्हें अपनी दिनचर्या में शामिल कर पा रहे हैं। इसीलिए एक धर्मपरायण मुसलमान के मन में यह सवाल उठ रहा है कि कहीं वह योगाभ्यास कर धर्मविरोधी कार्य तो नहीं कर रहा। कभी-कभी ऐसी दुविधाओं के समाधान का सर्वश्रेष्ठ तरीका उन्हें समय पर छोड़ देना होता है। उलेमा हर बात को बेहतर जानने का दावा नहीं कर सकते, हां वे ऐसा दावा कर स्वतंत्र ज्ञान के मार्ग में बाधा अवश्य बन सकते हैं।