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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

रविवार, 4 दिसंबर 2016

नोटबंदी और हमारी साधारण बुद्धि


कई बार किसी-किसी प्रश्न पर कोई स्टैंड लेना काफी मुश्किल हो जाता है। उदाहरण के लिए नोटबंदी। इस मुद्दे पर पूरा देश दो हिस्सों में बंटा हुआ है। इस तरह बंटा हुआ है कि दोनों खेमें एक दूसरे की बात सुनना तो दूर एक दूसरे के देशप्रेम और नीयत पर भी शक करते हैं। दोनों अपने आपको एक दूसरे से बढ़कर देशप्रेमी और गरीबों का मसीहा सिद्ध करना चाहते हैं।

किसी प्रश्न पर कोई राय बनाने का मेरा तरीका यह है कि इसमें अपनी साधारण बुद्धि का इस्तेमाल करो, और विशेषज्ञ की भी राय सुनो। लेकिन इन सबके बीच जो कोई भी पड़ता है उनकी राय पर बिल्कुल ध्यान मत दो। जैसे राजनीतिक दलों के बड़े नेता, छुटभैया नेता, सरकारी बाबू, किसी न किसी विचारधारा या कारपोरेट स्वार्थ से जुड़े हुए पेशेवर टिप्पणीकार, स्तंभकार, एंकर। जब आपकी साधारण बुद्धि से निकलने वाले निष्कर्ष से विशेषज्ञ की राय भी मिलती हो तो समझ लीजिए कि आपका सोचना पूरी तरह सही है। लेकिन जब यह राय नहीं मिलती तो आपको अपनी राय बनाने के लिए कुछ समय के लिए रुकना चाहिए। यह देखना चाहिए कि विशेषज्ञ निष्पक्ष तो हैं न और वे अपने विश्लेषण के लिए वैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल तो कर रहे हैं न।

कहने का तात्पर्य यह है कि जिस बात को आपकी साधारण बुद्धि स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है वैसी बात को आसानी से मानने के लिये आपको तैयार नहीं होना चाहिए भले ही कहने वाला कितना ही बड़ा व्यक्ति क्यों न हो। मैंने अक्सर पाया है कि अंत में साधारण बुद्धि का फैसला ही सही निकलता है और राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित विचार अंततः गलत साबित हो जाते हैं।

एक उदाहरण लेते हैं कम्यूनिज्म का। मोटी-मोटी किताबों ने इसके पक्ष में बातें कहीं और मार्क्स और एंगेल्स जैसे दार्शनिक इसके पक्ष में खड़े थे। आपने कम्यूनिज्म के बारे में मोटी-मोटी किताबें पढ़ी होंगी और सोचा होगा कि क्या इतनी मोटी-मोटी किताबें भी कभी गलत हो सकती हैं? लेकिन आपकी साधारण बुद्धि ने कभी यह भी सोचा होगा कि बिना पैसों की प्रेरणा के कोई किस तरह बढ़-चढ़ कर काम कर पाएगा। लाभ, फायदा या पैसा सबसे बड़ी प्रेरक शक्ति है और उसी के कारण एक व्यक्ति काम कर पाता है। जब सत्तर साल तक रूस में कम्यूनिज्म चलता रहा तो बहुतों को अपनी साधारण बुद्धि पर शक होने लगा होगा कि कहीं मात्र धन को प्रेरक शक्ति मानना उनकी भूल तो नहीं थी। लेकिन अंततः 1989 में रूस में कम्यूनिज्म का खात्मा हो गया और इस साधारण सी बात पर सत्यता की मोहर लग गई कि बिना फायदा होने के लालच के इस दुनिया में कुछ भी नहीं चलता।

हमने कम्यूनिज्म का सिर्फ उदाहरण दिया है। यही बात नाजीवाद और फासीवाद को लेकर सही है। यूरोप में दुनिया की हर समस्या का कारण यहूदियों को बताया गया लेकिन बहुत से लोगों की साधारण बुद्धि को यह बात स्वीकार नहीं हो सकी। अंततः लाखों लोगों की जान जाने के बाद यह बात समझ में आई कि यहूदी कौम को खत्म करने मात्र से किसी देश का भला हो जाएगा, इससे बेहूदी बात दूसरी कोई नहीं है।

नोटबंदी प्रसंग

इतनी लंबी भूमिका हमने इसलिए लिखी है कि कुछ लोग आज किसी व्यक्तित्व के प्रभाव में आकर अपनी साधारण बुद्धि को कोई महत्व नहीं देना चाहते। नोटबंदी के प्रसंग में तीन बातें मुख्य रूप से कही जा रही हैं और हमारी साधारण बुद्धि को ये तीनों बातें पच नहीं पा रही।

एक, कहा जा रहा है कि इससे काला धन रखने वालों के जमा कर रखे हुए करेंसी नोट बरबाद गए और उन्हें बहुत बड़ा धक्का लगा है। हमारी साधारण बुद्धि कहती है कि राजनेताओं को छोड़कर शायद ही कोई अपना काला धन करेंसी के रूप में रखता है। जो थोड़ा-सा दस-बीस या तीस लाख रूपयों का धन आम मध्यवर्गीय लोगों के पास रखा था उसे बाहर लाने के लिए निश्चित रूप से यह योजना नहीं लाई गई थी। तो फिर किसके लिए लाई गई थी? क्या जिनके लिए लाई गई उनमें आपने कहीं भी अफरा-तफरी का माहौल देखा?

दो, कहा जा रहा है कि इससे भ्रष्टाचार मिट जाएगा, या कम हो जाएगा। हमारी साधारण बुद्धि कहती है कि जब तक किसी बाबू के पास विवेकाधीन अधिकार रहेगा, पैसे खाने की गुंजाइश बची रहेगी और पकड़े जाने का डर नहीं रहेगा, तब तक भ्रष्टाचार पर अंकुश नहीं लग सकता। पुराने पांच सौ और एक हजार के नोट नहीं रहे तो भ्रष्ट अधिकारी को दो हजार के नोट लेने से किसने रोका है।

तीन, कहा जा रहा है कि इससे इकानोमी कैशलेस हो जाएगी और आर्थिक वृद्धि के लिए तथा भ्रष्टाचार मिटाने के लिए कैशलेस इकानोमी का होना बहुत जरूरी है। इस बात को सिद्ध करने के लिए हमारी तुलना की जा रही है ऐसे देशों के साथ जो आज आर्थिक रूप से पूरी दुनिया में सबसे आगे हैं। जैसे, स्वीडन, डेनमार्क, सिंगापुर आदि। हमारी साधारण बुद्धि कहती है कि दुनिया के सबसे अग्रणी देशों के साथ हमारी तुलना करना तर्कसंगत नहीं है। हमें भारत की तुलना ऐसे देशों के साथ करनी चाहिए जो हमारे समकक्ष हैं और उनकी वृद्धि हमारी वृद्धि दर के आसपास हैं।

इस तर्क से हम इंडोनेशिया, थाइलैंड और चीन जैसे देशों के साथ हमारी तुलना करते हैं तो पाते हैं हमारी अर्थव्यवस्था में जो नगदी का चलन है वह कोई इतना अधिक नहीं है कि हमारी प्राथमिकता नगदी को खत्म करना ही हो जाए। तथ्य यह भी है कि जो विकसित देश हैं वहां की अर्थव्यवस्था से नगदी अपने आप कम होती गई और अर्थव्यवस्था कैशलेस होती गई। इसका उल्टा सही नहीं है। यानी ऐसा नहीं हो सकता कि आप अर्थव्यवस्था को कैशलेस कर दें और विकास अपने आप आ जाएगा।

एक साधारण बनिया अपनी साधारण बुद्धि का इस्तेमाल करते हुए हमेशा कोस्ट-बेनिफिट रेसियो यानी लागत और उससे होने वाले लाभ के अनुपात का हिसाब लगाता है। सरकारी बाबू और सरकारी अर्थशास्त्री सरकार के किसी भी कदम के समर्थन में हर तरह के तर्क देने के लिए मजबूर हैं। उन्हें उसी के पैसे मिलते हैं। लेकिन एक साधारण बनिया अपनी साधारण बुद्धि से यह सवाल किए बिना नहीं रह सकता कि एक पूर्ण गति से चल रही अर्थव्यवस्था की गति को रोककर जैसे लाभ होने का अनुमान किया जा रहा है क्या वे लाभ अर्थव्यवस्था को हुए नुकसान से अधिक होंगे?

और अंत में प्रार्थना


हमारे दिल की ख्वाहिश यही है कि हमारी साधारण बुद्धि गलत साबित हो, सरकारी विशेषज्ञों के अनुमान सही हों और हमारी अर्थव्यवस्था पहले से अधिक गति प्राप्त करे।