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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

शनिवार, 20 जुलाई 2013

क्षेत्रीयतावाद की प्रासंगिकता


पिछले दिनों नगर निगम चुनाव में असम गण परिषद की हार के बाद यह चर्चा चली कि क्या असम में क्षेत्रीयतावाद प्रासंगिक रह गया है? असम में क्षेत्रीयतावाद पर जब चर्चा करते हैं तो हमें ट्रेड यूनियन आंदोलन के साथ इसकी समानता दिखाई देने लगती है। जैसे किसी उद्योग में कर्मचारी या मजदूर यूनियन का ध्यान उद्योग की सामग्रिक सफलता पर न होकर सिर्फ अपने वेतन-भत्तों पर होती है। उनके पास न तो उद्योग के वित्तीय आंकड़ों तक पहुंच होती है और न ही उन आंकड़ों का विश्लेषण करने लायक समझ। प्रबंधन के साथ एक तरह के विरोधात्मक संबंध को हर श्रमिक संघ स्वाभाविक मानकर चलता है। ठीक इसी तरह का संबंध असम की असम गण परिषद ने केंद्र सरकार के साथ बनाकर रखा। यहां केंद्र सरकार उनके लिए प्रबंधन थी और राज्य को योजना या अन्य मदों में मिलने वाली राशि वेतन-भत्ते हो गई। किसी भी क्षेत्रीयतावादी पार्टी के लिए केंद्र सरकार के पक्ष में एक शब्द भी बोलना भयानक राजनीतिक भूल मानी जाती है। उसी तरह जिस तरह जिस तरह श्रमिक संघ का नेता यदि प्रबंधन के पक्ष में एक शब्द कह दे तो उसे बिका हुआ मान लिया जाता है। ट्रेड यूनियन वालों के पास जिस तरह हमेशा मांगों की लंबी फेहरिश्त तैयार रहती है, उसी तरह क्षेत्रीयतावादी पार्टियां भी अपना मांगपत्र हमेशा तैयार रखती हैं।


जिस तरह ट्रेड यूनियनें छोटी-छोटी बातों पर हड़ताल करने पर उतारू हो जाती हैं, उसी तरह आंचलिक हितों के ये स्वघोषित मसीहा बात-बात पर "बंद' का आह्वान कर बैठते हैं। जिस तरह रोज-रोज की हड़ताल से कोई अच्छा-खासा उद्योग भी घाटे में चला जाता है, उसी तरह इन क्षेत्रीयतावादियों के रोज-रोज के "बंद' से किसी राज्य की आर्थिक स्थिति बदतर होती चली जाती है। जिस तरह अच्छा-खासा लाभ कमाने वाला कोई उद्योग अपने कर्मचारियों को मोटी तनख्वाह देकर ट्रेड यूनियन को अप्रासंगिक बना देता है, उसी तरह इस समय केंद्र सरकार ने असम तथा पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों को अधिक से अधिक केंद्रीय राशि देकर क्षेत्रीयतावाद को अप्रासंगिक बना दिया है। अब वे पुराने दिन नहीं रहे कि किसी एक पुल या रिफाइनरी या विश्वविद्यालय के लिए लोगों को मांगपत्र सौंपना पड़े। लेकिन इसके बावजूद असम में परियोजनाएं आगे नहीं बढ़ रहीं तो इसके तीन कारण हैं। एक, दिसपुर का विरोध करने वाले गरमपंथी क्षेत्रीयतावादियों यानी उग्रवादियों द्वारा निर्माण परियोजनाओं के ठेकेदारों-इंजीनियरों को परेशान करना, उनका अपहरण करना, जान से मार देना। दो, लाहे-लाहे यानी धीरे काम करने की प्रवृत्ति। तीन, दिसपुर में बैठे राजनीतिक नेतृत्व की काम के प्रति अनिच्छा, लापरवाही तथा अधीनस्थ कर्मचारियों से काम करवा पाने की योग्यता न होना।

अब यदि हमारे क्षेत्रीयतावादी राजनेता इन तीन कारणों पर बोले तो यह उनकी क्षेत्रीयतावादी विचारधारा में फिट नहीं बैठता। क्षेत्रीयतावाद में अपने ही राज्य के नेतृत्व को-भले वह प्रतिद्वंद्वी पार्टी का ही हो-दोषी ठहराना राजनीतिक रूप से गलत होता है। जिस तरह ट्रेड यूनियन आंदोलन में प्रमाण होने के बावजूद अपने सहकर्मी को या देर से आने वाले या काम नहीं करने वाले कर्मचारियों को किसी भी सूरत में गलत नहीं माना जाता।

जब तक लच्छेदार भाषणों और काल्पनिक शत्रुओं के खिलाफ नारेबाजी से आम जनता प्रभावित होती रहेगी, तब तक क्षेत्रीयतावाद और श्रमिक संघ दोनों ही प्रासंगिक बने रहेंगे। लेकिन व्यावहारिक राजनीति में सिर्फ एक ही कारक काम नहीं करता। सार-संक्षेप में कहें तो असम की राजनीति में मुसलमानों की बढ़ती जनसंख्या और एआईयूडीएफ के बढ़ते प्रभाव ने स्थिति को बदल दिया है। अब जनता को तुरंत एक ऐसी पार्टी चाहिए जो एआईयूडीएफ के खिलाफ एंटी-डोट का काम कर सके। ऐसे समय में लोगों को भारतीय जनता पार्टी अचानक भाने लगी है, जिसके यहां मुसलमानों के सवाल पर साफ-साफ बोलने की मनाही नहीं है।

असम गण परिषद के दिन पर दिन घटते कद के बावजूद उसकी ओर से जैसे बयान आ रहे हैं उससे साफ है कि उसने दीवार का लेखन पढ़ा नहीं है। दीवार पर साफ-साफ लिखा है कि असम में आने वाले कम-से-कम दो दशकों तक राजनीति मुस्लिम सवाल के इर्द-गिर्द घूमती रहेगी। मजेदार बात यह है कि भारत में कहीं भी मुसलमानों का समर्थन और विरोध करने वाले दोनों ही साफ शब्दों में कुछ नहीं कहते, लेकिन यही कारक सबसे निर्णायक साबित होता है।

राजनीति में अच्छे लोग और ट्यूलिप

बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना की एक बहन लंदन में रहती हैं। उनका नाम है शेख रेहाना। जब मुजीबुर्रहमान की हत्या हुई थी तब वे जर्मनी में थीं। उसके बाद उनका जीवन काफी कष्ट और संघर्ष से होकर गुजरा। वे बाद में लंदन आ गईं और वहां किल्बर्न नामक इलाके में दो जून के खाने तक का इंतजाम करने के लिए काफी कष्ट किया। बाद में उनका वहीं के एक डाक्टर सिद्दिक से विवाह हो गया। उनके एक बेटी ट्यूलिप है। ट्यूलिप उच्च शिक्षित और आत्मविश्वास से लबरेज युवती है। लेबर पार्टी ने 2015 में होने वाले हाउस आफ कामन्स के चुनाव के लिए किल्बर्न इलाके से ट्यूलिप को मनोनीत किया है। किल्बर्न में बांग्लादेशी मूल के लोगों की अच्छी आबादी है और ट्यूलिप को अपनी जीत का पूरा विश्वास है। वह अपनी मां के साथ अभी से जनसंपर्क अभियान पर निकल पड़ी है।

जिस बात की ओर हम ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं वह यह है कि ब्रिटेन में किस तरह राजनीतिक दल दो साल पहले ही अपने उम्मीदवार तय कर देते हैं ताकि वे अपने चुनाव क्षेत्र में जीत हासिल करने के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम कर सकें। हमारे यहां अक्सर शिकायत सुनाई देती है कि राजनीति में अच्छे लोग नहीं आते। इसके जायज कारण हैं। हमारे यहां किस चुनाव क्षेत्र से कौन चुनाव लड़ेगा इसका फैसला ऐन वक्त पर किया जाता है। इसमें कोई निर्धारित तरीका नहीं होता। पार्टी के नेता अक्सर मनमानी करते हैं। कम्युनिस्टों को छोड़कर यह बात हर पार्टी पर लागू होती है। ऐन चुनाव के वक्त पर कुछ लोग थैली लेकर मैदान में कूद पड़ते हैं और जो बेचारा कार्यकर्ता टिकट की आस में पांच साल से काम कर रहा था उसे परे धकेल कर खुद टिकट झटक ले जाते हैं। ऐसे अनिश्चित माहौल में अपवादस्वरूप ही अच्छे लोग राजनीति में आएंगे। अनिश्चित परिस्थितियों में वही लोग संघर्ष करना स्वीकार करते हैं जिनका और कहीं कुछ हो नहीं पाता है। अपने स्तर से नीचे उतर कर चमचागिरी भी ऐसे ही लोग कर पाते हैं। अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने लीक से हटकर कुछ करने का वादा किया था। लेकिन उसने भी लोकसभा चुनावों के लिए अपने उम्मीदवार घोषित नहीं किए हैं। यानी वहां भी फैसला अंतिम समय में होने वाला है।

लंदन में ट्यूलिप बड़े आत्मविश्वास से कहती है कि मैंने अपने दम पर आज लेबर पार्टी का मनोनयन हासिल किया है। आज बांग्लादेश में मुझे पार्टी का उम्मीदवार का बनाया जाता तो लोग सोचते कि उनकी प्रधानमंत्री मौसी परिवार राज चला रही हैं। लेकिन अच्छा है कि यहां लंदन में ऐसा आरोप नहीं लग पाएगा।

टिप्पणी Posted by MK (mmoohit@rediffmail.com)

अरविन्द केजरीवाल ने उम्मेदवार तय केरने की प्रक्रिया बहुत पेहले ही शुरु कर दी थी और अभी तक वो 30 नाम घोषित कर चुके है. बाकी भी हो जायेगे. पेहली बार नाम चुनने में टाइम तो लगता ही है. और सबसे बड़ी बात की लोग ही उम्मेदवार चुन रहे है.

टिप्पणी Posted by Anandakrishnan Sethuraman (sanantha.50@gmail.com)

भारत में चुनाव के उम्मेदवार रुपये और बदमाशी के आधार पर .एक ही दल में मतभेद. हर दल में कई लोग पदवी के लिये दल को तोड़ना चाहते हैं;मोदी के चुनाव में मत भेद,एडीयूरप्पा के कारण हार'.तमिलनाडु में विजयकांत के एम एल. ए. अलग हो गये; कांग्रेस में कितने विरोध है वासन,चिदंबरम ,तँगबालू;अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी डाल लेते हैं. आज कांग्रेस का समर्थन,कल जेयलाइता का ,फिर करुणानिधि का कम्युनिस्ट पार्त्य सभी नेताओं का विरोध ;सभी का समर्थन. ऐसे ही कयी दल लोगों को परेशान में डाल देते हैं; देश की और आम जनता की चिंता णाःएएण. जातीय दल,धार्मिक दल ,उसमें उपा दल ,देशी मूसलाब,सच्चा मुसलमान,भारतीय लाणगूगे स्पीकिंग मुसलमान,परिवर्तित ईसाई; हम भारतीय हैं ;भारत की उन्नति में हमारी उन्नति ऐसा विचार जब होगा,तभी भारत विश्व का सरताज होगा. ऐसे भारत की कामना खाऱेण्घे.ज़ाY हिन्द; जय भारत भक्ति.