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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

शनिवार, 25 जून 2016

शरणार्थी, भिखारी और हीनता ग्रंथि



जर्मनी में इस समय विमर्श का केंद्र सीरिया का युद्ध है। सीरिया युद्ध इसलिए क्योंकि इसी के कारण वहां से बड़ी संख्या में यूरोप में शरणार्थियों के रेले आने शुरू हो गए हैं। आम बातचीत में शरणार्थी का मुद्दा निकल ही आता है जो यह दर्शाता है यूरोपवासी शरणार्थियों के प्रति अपनी सरकारों की नीति से काफी खफा हैं।

एक बातचीत के दौरान जब मैंने कहा कि पासपोर्ट की जांच करने के दौरान अधिकारी ने मुझसे वापसी का टिकट भी मांगा था तो मेरे मित्र ने व्यंग्य करते हुए कहा कि यदि तुम कहते कि मेरा नाम अली है और मैं सीरिया से आया हूं तो फिर किसी भी चीज की जरूरत नहीं पड़ती। पासपोर्ट भी न होने से चल जाता।

जर्मन सरकार ने तुर्की से समझौता किया है कि यदि वह एक शरणार्थी को लेता है तो उसके बदले बाकी यूरोप भी एक शरणार्थी को लेगा। मित्रों ने बताया कि यूरोप का असली मतलब है जर्मनी। यानी ये शरणार्थी जर्मनी छोड़कर और कहीं नहीं जाएंगे। जर्मनी में शरणार्थियों के विरुद्ध प्रदर्शन शुरू हो गए हैं।

बर्लिन में इसका कोई प्रभाव दिखाई नहीं दिया। मेरा सैक्सनी राज्य की राजधानी ड्रेसडन जाने का इरादा था लेकिन मित्रों ने बताया कि वहां नहीं जाना ही बेहतर होगा क्योंकि वहां शरणार्थियों के विरुद्ध काफी आक्रोश है और ऐसा न हो कि गोरी चमड़ी को न होने के कारण कहीं मैं भी इसका शिकार हो जाऊं। विदेश में सावधानी बरतना ही ठीक है। मैंने ड्रेसडन न जाकर न्यूरमबर्ग जाने का कार्यक्रम बना लिया।

बर्लिन में शरणार्थी कहीं दिखाई नहीं दिए। किसी-किसी सबवे या फ्लाईओवर पर पूरा का पूरा परिवार बैठा दिखाई दिया। पता नहीं ये लोग कौन थे। भीख के लिए कागज का गिलास का इस्तेमाल करते हैं। लगभग हर परिवार के साथ उनका कुत्ता भी साथ में दिखा। 
इसी से मैंने अंदाज लगाया कि ये शरणार्थी भी हो सकते हैं। वैसे बर्लिन में जिप्सी भी मेट्रो में भीख मांगते हैं।

 लेकिन इससे यह छवि नहीं बना लेनी चाहिए कि भारत की तरह वहां बड़ी संख्या में भिखारी हैं। बस थोड़े से भिखारी हैं। स्थानीय यात्री इनसे बचकर रहते हैं क्योंकि पॉकेटमारी जैसे अपराधों के लिए इन्हीं पर संदेह किया जाता है। कोई जिप्सी ट्रेन स्टेशन के बाहर कोई वाद्य यंत्र लेकर बजाता दिखा जाएगा। ट्रेन में भी वाद्य यंत्र बजाकर भीख मांगते हैं। सीधे-सीधे नहीं। 

वियेना में वहां का मुख्य महल शोनब्रून स्लॉस देखने के बाद मैं सुहानी धूप में टहलते हुए पैदल ही फुटपाथ पर चल रहा था कि एक चौराहे पर एक भारतीय युवती दिखाई पड़ गई। स्मार्ट-सी चाल से चौराहे ही तरफ आ रही थी, जैसे कहीं जाना है। लगभग ठीकठाक पोशाक में। पैरों में जूते, जैकेट और कंधे पर एक थैला या बैग।

 मैंने सोचा इनसे बात की जाए क्या, कि यहां क्या काम करती हैं। तब तक चौराहे पर लाल बत्ती हो गई थी। गाड़ियां रुक गईं और मेरे लिए आगे बढ़ने का हरा संकेत आ गया। तब तक मैंने देखा कि वह युवती रुकी हुई कारों से भीख मांगने लगी। हाथ से इशारा करती कि भूख लगी है कुछ खाने के लिए पैसे चाहिए।

 बस एक दो तीन सेकंड के लिए इंतजार करती फिर अगली गाड़ी की ओर बढ़ जाती। यह युवती कैसे वियेना आई और क्या भीख मांगना ही इसका एकमात्र पेशा है, इन सवालों से ज्यादा यह सवाल मुझे परेशान करने लगा कि इससे हम भारतीयों की इन देशों में क्या छवि बनती होगी।

 वियेना में दूसरे दिन भी एक चौराहे पर एक दाढ़ी वाला व्यक्ति उसी तरीके से चौराहे पर गाड़ी के चालकों से भीख मांगता दिखा। शरीर से वह भी उस युवती की तरह चुस्त दिखा। पैरों में जूते पहनना वहां के मौसम की मजबूरी है।

जर्मनी से लौटे हमारे एक मित्र ने बताया था कि वहां हम भारतीयों को उतनी अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता। हालांकि मुझे प्रत्यक्ष रूप से कहीं भी रंगभेद का आभास नहीं हुआ। जर्मनी और आस्ट्रिया दोनों ही गैर-अंग्रेजी भाषी देश होने के कारण सार्वजनिक स्थानों पर लिखी हर बात को समझना संभव नहीं होता था और हमें किसी अनजान व्यक्ति की मदद लेनी ही पड़ती थी।

ऐसे समय सभी का व्यवहार नम्र और भद्रोचित होता था। उन देशों में ज्यादा समय तक रहने पर क्या मेरी यही धारणा बनी रहती इस प्रश्न का जवाब वहां ज्यादा समय रहकर ही पाया जा सकता था। हो सकता है भारतीयों के कुछ जातीय गुणों के कारण उन्हें संदेह का पात्र बनना पड़ता होगा।

 एक बार एक एयरपोर्ट में एक पुस्तकों की दुकान पर एक कागज चिपका देखा जिस पर लिखा था कि आप पर कैमरे की नजर है, चोरी करने की कोशिश की तो पकड़े जाएंगे। इस बात के साथ उस पर एक चित्र लगा था जिसमें एक नीग्रो को पुस्तक चोरी करते दिखाया गया था।

चोर का उदाहरण देने की जरूरत पड़ते ही उस नोटिस बनाने वाले के दिमाग में नीग्रो की तस्वीर देने का खयाल क्यों आया होगा। सोचने वाली बात है। बर्लिन के एक स्टेशन पर देखा कि टिकट इंस्पेक्टर एक भारतीय के साथ बहस कर रहा था।

 जल्दी-जल्दी में मैंने जो अंदाज लगाया वह यह था कि भारतीय बिना टिकट के पकड़ा गया है और जुर्माना देने के पहले बहस कर रहा है। मेरे लिए यह उत्सुकता का विषय बन गया था। इसलिए अपनी ट्रेन की ओर दौड़ते-दौड़ते भी मैं उस पर नजर डालते रहा और देखा कि भारतीय पुलिस का नाम सुनने के बाद जुर्माना देने के लिए अपना बटुआ निकाल रहा है।

पता नहीं कैसे गोरों के देश में घूमते-घूमते अनजाने की एक हीनता ग्रंथि धीरे-धीरे किसी अनजाने रास्ते से होकर मेरे अंदर घुस जाती है। तब किसी अजनबी का व्यवहार सामान्य होने पर भी मुझे लगता है यह कहीं मुझे हिकारत की नजर से तो नहीं देख रहा है। किसलिए? हो सकता है मेरी चमड़ी के रंग के कारण।

 लेकिन चमड़ी के रंग से क्या होता है। देखो ढेर सारे जापानी, कोरियाई, विएतनामी और चीनी लोगों की चमड़ी का रंग भी मेरे ही जैसा है। वे किस तरह सामान्य ढंग से गर्व से मुंह उठाकर चल रहे हैं। मुझे भी दबने की क्या जरूरत है। लेकिन किसी जापानी, कोरियाई, विएतनामी या चीनी को चौराहे पर भीख मांगते तो नहीं देखा। और किसी को बिना टिकट यात्रा कर पकड़े जाते भी नहीं।

रविवार, 19 जून 2016

बर्लिनः दीवार को भूल नहीं पाएगी एक पीढ़ी



जर्मनी की राजधानी बर्लिन में उतरकर वैसा कोई कल्चर शॉक नहीं लगा जैसा कहते हैं पश्चिमी लोगों को एशियाई शहरों, खासकर भारत, में आते ही लगता है। खासकर भारत में आते ही यहां की आबादी उन्हें चौंका देती है। उन्हें सपने में भी यह आभास नहीं होता कि एक देश में इतने लोग हो सकते हैं। हर कहीं कतारें और लाइनें। आपाधापी। यूरोप में ऐसा कुछ नहीं होता। जर्मनी में भी नहीं था।


 इसका हमें पहले से अहसास था। शायद इसीलिए कल्चर शॉक से बच गए। हमारे यहां की तरह आपाधापी नहीं होने के कारण लगता है सबकुछ ठहरा हुआ है। हमारे यहां किसी छुट्टी या हड़ताल के दिन ही इतनी शांति होती है (या उस दिन भी नहीं होती), इसलिए दिमाग में यह बस गया है कि शांति यानी सबकुछ ठहरा हुआ। आपाधापी, धक्कामुक्की, चिल्लपों – यानी सबकुछ तेज गति से चल रहा है। तेज प्रगति।

30 लाख की आबादी वाले बर्लिन में साइकिल वालों की अच्छी खासी तादाद है। साइकिल चलाने के लिए सड़कों के किनारे ही कॉरीडोर बने हुए हैं। ये सड़क से थोड़ा ऊंचे होते हैं, ताकि गाड़ी उस पर न चढ़ पाए, लेकिन इतने भी ऊंचे भी नहीं कि साइकिल से आसानी से सड़क पर नहीं उतरा जा सके। पहली बार पश्चिम जाने वाले किसी भारतीय के लिए हैरत में डाल देने वाली पहली चीज होती है वहां की यातायात व्यवस्था।




 सबकुछ इतना व्यवस्थित कि आप दो-तीन घंटे में ही किसी को भी पूछे बिना वहां अकेले घूमने-फिरने लायक हो जाते हैं। एक ही टिकट से आप मेट्रो, बस और ट्राम में यात्रा कर सकते हैं। मेट्रो से उतरकर बस में चढ़ जाएं, आगे बस नहीं जाती हो तो ट्राम में चढ़ जाएं। बार-बार टिकट कटवाने का झंझट नहीं। पूरे दिन का टिकट कटा लें तो फिर दोनों तरफ जितनी इच्छा यात्रा करें। इसी पैटर्न पर सिंगापुर की यातायात व्यवस्था है।

 इसीलिए उसे पूरब का यूरोपीय शहर कहते हैं। शहर में यातायात के लिए दिन भर के टिकट का 7 यूरो लगता है जबकि महीने भर के पास की कीमत लगभग 80 यूरो है। भारतीय रुपए में बदलें तो यह 6000 रुपए होता है जोकि हमारे लिए बहुत अधिक है।

 लेकिन यदि कीमतों का अंतर समझना है तो एक यूरो को 20 से गुणा करना चाहिए, क्योंकि 20 रुपए में हम जितनी सामग्री खरीद पाते हैं उतनी सामग्री की कीमत वहां लगभग 1 यूरो है। इसे परचेजिंग पॉवर पैरिटी कहते हैं। यह किसी शहर में महंगाई के स्तर को जानने के लिए आसान तरीका है। इस तरह शहर में ट्राम-बस-मेट्रो का संयुक्त मासिक टिकट करीब 1600 रूपयों का हुआ।

 हालांकि पति और पत्नी एक ही पास का इस्तेमाल कर सकते हैं लेकिन फिर भी यह हमारे यहां के लिए बहुत ज्यादा है। क्या इसीलिए हमारे यहां शहरी यातायात व्यवस्था इतने खस्ताहाल में है? क्योंकि व्यवस्था पर जितना खर्च होता है उतना सेवा लेने वालों से वापस नहीं मिलता। अंततः घाटे की भरपाई के लिए सरकार पर निर्भर होना पड़ता है। लेकिन सेवा देने वाली एजेंसी के पक्ष में एक चीज जाती है कि हमारे यहां मेट्रो, बस या ट्रेन किसी भी समय खाली नहीं जाती।

 इसलिए एजेंसी को लागत की पूरी कीमत वापस मिल जाती है। और खड़े होकर, लटक कर यात्रा करने वाले यात्रियों से मिलने वाले पैसे को अतिरिक्त आय समझ लीजिए। वहां कभी भी किसी ट्राम, बस या मेट्रो में मैंने आधी से ज्यादा सीटें भरी हुई नहीं देखी। ट्रेन का टिकट कटवाते समय आपसे पूछा जाएगा कि क्या आप रिजर्वेशन चाहते हैं। यानी ज्यादातर लोगों को रिजर्वेशन की जरूरत नहीं होती।

मुझे लगा कि आप बर्लिन में आंख मूंदकर भी सड़क पर चल सकते हैं। बस सामने ट्रैफिक की हरी और लाल बत्तियों को देखकर चलते रहिए। किसी भारतीय को शुरू शुरू में अजीब लग सकता है कि दूर-दूर तक कोई गाड़ी नहीं होने के बावजूद पैदल लोग बत्ती के हरी होने का इंतजार करते हैं। बत्ती लाल से हरी होने के बाद ही सड़क पार करते हैं।

 एक छोटा बच्चा भी ट्रैफिक की बत्तियों को देखते हुए आसानी से एक जगह से दूसरी जगह जा सकता है। विएना में ट्रैफिक की बत्तियों के ऊपर कैमरे लगे थे। लेकिन हर शहर में औह हर जगह कैमरे नहीं लगे हैं। लोग सिर्फ कैमरों के डर से नियमों का पालन नहीं करते बल्कि वह उनकी आदत में शुमार हो गया है।

म्यूजियमों से भरे बर्लिन में एक म्यूजियम ट्रैफिक की बत्तियों का भी है। ट्रैफिक के सिपाही को वहां एम्पलमैन कहा जाता है। इसलिए इस म्यूजियम का नाम एम्पलमैन्स म्यूजियम है। यहां ट्रैफिक की पुरानी डिजाइन की बत्तियों के अलावा यादगार के लिए संग्रहणीय विभिन्न तरह की सामग्रियों – जैसे कलम, ग्रीटिंग कार्ड, बटुआ, तस्वीरें, टोपियां – को ट्रैफिक की बत्तियों की थीम पर बनाया गया है। सैलानियों के संग्रह के लिए अच्छी चीज है।

एक म्यूजियम का नाम है स्पाई म्यूजियम है। हिटलर और बाद में पूर्वी जर्मनी के कम्यूनिस्ट शासन में चले अत्याचार में खुफिया पुलिस की खास भूमिका रही थी। दरअसल तानाशाही और खुफिया पुलिस का चोली-दामन का साथ है। जहां भी तानाशाही है, राज्यसत्ता का अत्याचार है वहां खुफिया पुलिस की महत्वपूर्ण भूमिका है।

 दरअसल बर्लिन में घूमते हुए आप तीन चीजों को नहीं भूल सकते। हिटलर के समय यहूदियों पर हुआ अत्याचार, 1989 तक जारी रहा जर्मनी और बर्लिन का विभाजन तथा जर्मनी की संसद। जर्मनी की संसद बर्लिन के ठीक बाहर बनी है। जर्मनी में जब पहले पहले लोकतंत्र आया और संसद (रिख्सटाड) बनी तो बर्लिन के राजा ने कहा कि संसद बनाना ही है तो उसे बर्लिन राज्य के बाहर ही बनवाओ। वैसे ही जैसे घर के कूड़े को कोई घर के बाहर पड़ोस में फेंक देता है। बर्लिन का राजा लोकतंत्र को तो रोक नहीं पाया लेकिन संसद को अपने राज्य से बाहर जरूर कर दिया।

हेकेशर मार्केट में पहले के पूर्वी जर्मनी की साफ छाप दिखाई देती है। यहूदियों पर हुए अत्याचार की याद दिलाने वाला एक म्यूजियम है ओटो वाइट्ज का अंधों का कारखाना वाला म्यूजियम। ओटो वाइट्ज नामक जर्मन ने जूतों के ब्रश बनाने का एक कारखाना खोलकर उसमें अंधे यहूदियों को रोजगार दिया था ताकि उनकी जान बच जाए। हालांकि बाद में सभी यहूदी पकड़ लिए गए और उन्हें मार डाला गया।

 इस स्थान को एक म्यूजियम में तब्दील कर दिया गया है ताकि उस कहानी की यादगार सुरक्षित रहे। ओटो वाइट्ज स्पीलबर्ग की मशहूर फिल्म शिंडलर्स लिस्ट के शिंडलर का ही लघु संस्करण था। शिंडलर ने कोई दो-ढाई सौ यहूदियों की जान बचाई थी, जबकि ओटो वाइट्ज के कारखाने में करीब दो दर्जन कारीगर ही थे।

 म्यूजियम में ओटो के साथ सभी कामगारों की तस्वीर भी है। कारखाने के एक कोने में एक कमरा है जिसमें कोई खिड़की या रोशनदान नहीं है। इसमें जाने का दरवाजा एक कपड़ों की आलमारी के पीछे खुलता था। इसमें एक यहूदी परिवार को छुपाकर रखा गया था। हालांकि वह भी अंत में पकड़ा गया था। इस तरह की मन को द्रवित कर देने वाली कहानियां बर्लिन में बिखरी पड़ी हैं या कहें कि जर्मनों ने उन्हें संजोकर रखा है।


कोई अपने इतिहास के कलंकित पन्नों को भी किस तरह संजोकर (लेकिन उन्हें महिमामंडित करके नहीं) रख सकता है इसे जर्मनी से सीखा जा सकता है। बर्लिन की दीवार की याद को ताजा रखने के लिए कहीं-कहीं इस दीवार का एक हिस्सा बिना तोड़े सुरक्षित रख दिया गया है। कहीं-कहीं बीच रास्ते पर कंकड़ों से चिह्न बने हुए दिखाई दे जाएंगे जो यह बताते हैं कि यहां पहले दीवार थी।

 पेवमेंट पर चलते-चलते मेरा मित्र माइक मुझे अचानक नीचे एक छोटी-सी प्लेट दिखाता है। उस पर जर्मन भाषा में उस यहूदी परिवार का नाम लिखा है जो उस स्थान पर पहले रहा करता था। अब उस परिवार के सदस्यों ने इस्राइल से आकर उस स्थान को खोजा और वहां नीचे पटरी पर ही पुलिस के बिल्ले जितनी बड़ी वह प्लेट फिट कर दी। पता नहीं लोगों की ठोकरें खाकर वह प्लेट कब तक बची रहेगी।

रविवार, 12 जून 2016

पोट्सडम की धूप में इतिहास की झलक

आप चाहे तो यहाँ सुन भी सकते है 

यूरोपीय शहरों में सैलानी के तौर पर घूमने वाले यूरोपीय या अमरीकी नागरिकों के लिए आकर्षण का केंद्र वहां के दर्शनीय केंद्र होते हैं, जैसे म्यूजियम और पुराने ऐतिहासिक स्थल। लेकिन जहां तक मुझ जैसे भारतीय पर्यटकों का सवाल है तो सच्चाई यह है कि उनके लिए तो वहां की ट्रैफिक व्यवस्था, समाज व्यवस्था, वहां का आम वास्तुशिल्प, वहां का शिष्टाचार, वहां की ट्रेनें और बसें – ये सब अधिक आकर्षण का केंद्र होते हैं।

अपनी नौ दिन की यूरोपीय यात्रा के दौरान वहां के तीन देशों के चार शहर मेरे लिए नमूने के तौर पर थे और इन शहरों के माध्यम से मैंने यूरोप का अधिक से अधिक अपने अंदर सोखने की कोशिश की।

हर महीने यूरोप-अमरीका की यात्रा पर जाने वालों को यह परम स्वाभाविक लगता होगा कि वहां सड़कों पर आदमी बिल्कुल दिखाई नहीं देते। लेकिन पहली बार पश्चिम जाने वाले के लिए यह किसी सांस्कृतिक धक्के से कम नहीं होता। सड़कों पर इतने कम लोग कि किसी से कुछ पूछना हो तो आप पूछ ही नहीं सकते।

सड़कों पर लोगों की तादाद दिन के तापमान पर काफी हद तक निर्भर करती है। यदि ठंड कम हो तो आपको काफी लोग बाहर मिल जाएंगे वरना ठंड के कारण लोग अंदर रहना ही पसंद करते हैं। 

मौसम यूरोप में बातचीत का एक अहम मुद्दा होता है और अक्सर बातचीत शुरू करने का एक बहाना। हमारे यहां भी मौसम पर काफी बात होती है। लेकिन दोनों में एक फर्क है। हमारे यहां लगभग हमेशा यह कहा जाता है कि ओह, इतनी अधिक गर्मी इससे पहले नहीं पड़ी, या फिर पूर्वोत्तर के राज्यों में यह कहा जाता है इतनी अधिक बारिश पहले कभी नहीं हुई।

लेकिन हमारे यहां तापमान हमारी उम्मीद के अनुसार ही ऊपर-नीचे होता है। जबकि पश्चिमी मौसम का मिजाज पहचानना काफी मुश्किल होता है। आप कहीं दूसरे शहर में दो-तीन दिनों के लिए जाते हैं स्वेटर, जैकेट आदि लेकर और देखते हैं कि वहां तुषारपात यानी स्नोफाल शुरू हो गया। ऐसे में आपकी स्थिति काफी विकट हो जाती है।

मेरी यात्रा का महीना अप्रैल था और दिन के तापमान को 10 – 12 डिग्री के आसपास होना था। लेकिन वापसी के दिन तापमान तेजी के साथ गिरना शुरू हो गया। और वापस आने के बाद मित्रों ने मेल पर बताया कि तापमान काफी नीचे गिर गया और तुषारपात भी हुआ। 


पोट्सडम में सुहानी धूप का एक दिन
धूप को पश्चिम में प्रकृति के तोहफे के तौर पर लिया जाता है। अब समझ में आया कि क्यों पश्चिमी साहित्य में अक्सर ब्राइट सनी डे के बखान के साथ कोई बात शुरू की जाती है। धूप हमारे यहां की तरह वहां साल के बारहों महीने और रोजाना नहीं निकलती। इसलिए धूप निकलने पर उसका आनंद लेने का भी पश्चिम में रिवाज है। 

बर्लिन के पास पुराने प्रुशिया साम्राज्य की राजधानी पोट्सडम में जब मैं किराए की साइकिल से आसापास के इलाके की सैर करने निकला तो उस दिन सौभाग्य से अच्छी धूप निकली थी। पोट्सडम में देखा कि एक ग्रामीण सी दिखती नदी के किनारे लोग एक रेस्तरां के पास आरामकुर्सियों पर लेटे हुए धूप का आनंद ले रहे हैं। वहीं एक बीयर गार्टन में लोग बीयर की चुस्कियां लेकर समय बिता रहे हैं। 

जबकि यह कोई सप्ताहांत नहीं था। जर्मनी में बियर गार्टन की बड़ी महिमा है। चेस्टनट के पेड़ के नीचे घंटों तक बीयर की चुस्कियां लेते लोग आपको किसी भी धूप वाले दिन दिखाई दे जाएंगे।

पोट्सडम का नाम इतिहास में इसलिए भी दर्ज है कि वहीं द्वितीय विश्व युद्ध को समाप्त करने वाली संधि पर हस्ताक्षर हुए थे। विश्व के सभी बड़े राजनीतिक नेता वहां जमा हुए थे। स्टालिन भी आया था। पोट्सडम की किसी ग्रामीण-सी सड़क किनारे बने इन खूबसूरत (आम तौर पर दोमंजिला) भवनों में इन दिनों फिल्म स्टार रहते हैं। कहने का मतलब कि जिनके पास बहुत अधिक पैसा है वैसे लोग। 

जिस मकान में स्टालिन ठहरा था मैंने उसके सामने जाकर फोटो खिंचवाई। उस निर्जन सी सड़क का नाम कार्ल मार्क्स स्ट्रीट रख दिया गया है। पूर्वी जर्मनी के जमाने में यह नाम रखा गया था और दोनों जर्मनी एक होने के बाद भी नाम बदले नहीं गए। बार-बार नाम बदलना कोई अच्छी बात नहीं है। आखिर नाम के माध्यम से भी तो इतिहास का पता चलता है।

पोट्सडम के एक ओर पूर्वी जर्मनी पड़ता है और दूसरी ओर पश्चिमी जर्मनी। लेकिन नदी के पार भी कुछ हिस्सा एक-दूसरे के हिस्से का है। नदी पर जो पुल बने हुए हैं उसका भी आधा-आधा हिस्सा बंटा हुआ था। पुल पर किए गए हरे रंग के फर्क को साफ देखा जा सकता है। 

आधे पुल पर घटिया किस्म का रंग किया हुआ दिखाई देता है वह कम्यूनिस्ट पूर्वी जर्मनी की तरफ का हिस्सा था और दूसरे हिस्सा का रंग ज्यादा चमकदार है। मेरा मित्र माइक मुझे बताते चलता है कि यह देखो यहां-यहां दीवार थी। दीवार कहां-कहां थी उसके चिह्नों को सुरक्षित रखा गया है।

बर्लिन में दीवार की चर्चा के बिना कोई बात पूरी नहीं होती। एक ही शहर, एक ही जाति, एक ही भाषा बोलने वाले लोगों को सिर्फ राजनीति की वजह से अचानक दो भागों में बांट दिया जाता है। इस त्रासदी को हम भारतीय ठीक से नहीं समझ सकते। 

क्योंकि यहां भारत और पाकिस्तान के बंटवारे में दोनों तरफ की आबादी में सांस्कृतिक भेद था। कोई कुछ भी कहे लेकिन अविभाजित भारत के दोनों हिस्सों में ऐसे लोग बहुतायत में थे जो चाहते थे कि बंटवारा हो जाए और आबादी भी अदल-बदल हो जाए। जबकि जर्मनी का बंटवारा बिल्लियों को मूर्ख बनाने वाली बंदरबांट जैसी थी। 

इसलिए जर्मनी (या बर्लिन) के बंटवारे और भारत के बंटवारे में समानता नहीं खोजी जा सकती। जो भी हो, जर्मन लोगों ने इस कटु स्मृति को संजोकर रखा है ताकि आने वाली पीढ़ियां ऐसी त्रासदी को टालने के लिए तैयार रहें।

बंटवारे में मेट्रो ट्रेन (वहां बाह्न कहा जाता है) वहां पूर्वी जर्मनी के हिस्से में आई थी। वह शहर के हिस्से तक जाती और पूर्वी से पश्चिमी बर्लिन जाने वालों को जांच से गुजरना पड़ता। बहुत कम ही लोगों को पूर्वी से पश्चिमी बर्लिन जाने की इजाजत थी। 

जिस स्टेशन पर यह गाड़ियों की बदली होती थी उसे अब हाउस ऑफ टियर्स कहा जाता है, क्योंकि लोग अपने रिश्तेदारों को यहां आंसुओं के साथ विदा करते थे। अब इसे म्यूजियम बना दिया गया है। एक गाइड आपके पास आता है और कहेगा कि सबकुछ मुफ्त है लेकिन आप इतने यूरो दें और आपको और भी अधिक विस्तार से बताया जाएगा। आखिर बिजनेस कहां नहीं है।