बांग्लादेश के एक अखबार के संपादक से मैंने कहा कि आपका नाम भी तो हिटलिस्ट में आया है। इस पर वे कहते हैं – मेरा नाम तो हर हिटलिस्ट में रहता है। उनके होठों पर हल्की सी मुस्कुराहट आती है और चली जाती है। शायद यह अभ्यासवश आई होगी। बांग्लादेश में ब्लागिंग का काफी प्रचलन है। ब्लाग के माध्यम से लोग अपने विचार स्वतंत्र रूप से प्रकाशित करते हैं। ब्लाग संपादकीय रोक-टोक से मुक्त होते हैं। रोकटोक न होने के कारण लोग धार्मिक विषयों पर भी खुलकर टिप्पणी करते हैं। मुस्लिम प्रधान होने के कारण अधिकतर इस्लाम को ही निशाना बनाया जाता है। ब्लागर ऐसी बातें भी लिख डालते हैं जो भारत में कोई उदार से उदार संपादक भी कभी छापने का साहस नहीं कर पाएगा।
ब्लागरों की वैचारिक स्वतंत्रता से हर इस्लामवादी को आपत्ति है लेकिन अल कायदा ने तो ऐसे ब्लागरों का खात्मा कर देने का बीड़ा ही उठा लिया है। अल कायदा नेताओं का कहना है कि उन्हें उनकी कलम की स्वतंत्रता है तो हमें भी हमारे छूरे की स्वतंत्रता है। पिछले तीन सालों में बांग्लादेश में अल कायदा के नाम से ऐसी कई हिटलिस्टें प्रकाशित हुईं और कहा गया कि इन-इन ब्लॉगरों या लेखकों को इस संगठन के लोग सबसे पहले खत्म करेंगे। इनमें कुछ सूचियां फर्जी थीं जिनके बारे में स्पष्टीकरण भी जारी हुए।
अल कायदा की धमकी सिर्फ धमकी नहीं थी। उसने शहबाग आंदोलन (2013) के बाद से अब तक कम से कम 8 ब्लॉगरों और प्रकाशकों की हत्या कर दी है। एक प्रकाशक की हत्या के बाद कहा गया कि प्रकाशक लेखक से भी ज्यादा खतरनाक होते हैं। अमरीकी नागरिक अभिजित रॉय की ढाका पुस्तक मेले से निकलते समय हत्या कर दी गई थी, जिसके बाद में अमरीकी सरकार ने भी बांग्लादेश सरकार पर अपना दबाव बढ़ाया। सभी हत्याओं का एक ही पैटर्न है। छूरा घोंपकर हत्या करना और शरीर को क्षत-विक्षत कर देना।
सरकार का रवैया अल कायदा की इन कार्रवाइयों पर बड़ा लचर और निराश करने वाला है। सरकार उल्टे ब्लॉगरों से ही कहती है कि वे अपनी लेखनी को लगाम दें। इसी साल एक ब्लॉगर निजामुद्दीन समद की हत्या के बाद गृह मंत्री ने कहा कि किसी को भी धार्मिक नेताओं पर लेखकीय हमला करने का अधिकार नहीं है। सरकार देखेगी कि निजामुद्दीन ने अपने ब्लॉग में क्या लिखा था। कुछ ब्लॉगरों को धार्मिक भावनाओं को आघात पहुंचाने के कथित जुर्म में जेल में भी डाल दिया गया है। एक ब्लॉगर बताते हैं कि वे जब सुरक्षा की गुहार लेकर थाने गए तो उन्हें सलाह दी गई कि जिंदा रहना चाहते हैं तो देश छोड़कर कहीं और चले जाइए।
दरअसल बांग्लादेश के ब्लॉगर देश छोड़कर जा भी रहे हैं। उनमें से ज्यादातर यूरोपीय देशों में शरण ले रहे हैं और कुछ अमरीका भी जा रहे हैं। जो नहीं जा पा रहे वे अपनी पहचान छुपाकर घूमते हैं। कोई कोई बताता है कि उसने अमुक ब्लॉगर को हेलमेट पहनकर सड़क पर पैदल घूमते देखा। लेकिन ऐसे भी हैं जो अब भी बांग्लादेश में ही रहते हुए कट्टरपंथियों को अपनी लेखनी का लक्ष्य बना रहे हैं। ऐसे ही एक निर्भीक शख्स हैं इमरान एच सरकार। इमरान सरकार गण जागरण मंच के संयोजक भी हैं और आतंकवादियों तथा कट्टरपंथियों के मुख्य निशाने पर हैं। गण जागरण मंच के ही बैनर तले कादेर मुल्ला को फांसी की सजा देने की मांग करने वाला शहबाग आंदोलन हुआ था।
एक विदेशी न्यूज़ एजेंसी ने जब इमरान सरकार से कहा कि वह उनके बयान के साथ उनका नाम नहीं छापेगी। इस पर सरकार ने कहा कि वे चाहेंगे कि उनका नाम अवश्य छापा जाए। क्योंकि नाम छुपाने पर आतंकवादियों के हौसले और बुलंद होंगे। वे लोग सोचेंगे कि स्वाधीन चिंतक (वैसे ब्लॉगरों को कट्टरपंथी खेमा नास्तिक कहकर पुकारता है) डर गए हैं, बयान के साथ अपना नाम नहीं दे रहे, उनकी योजना सफल हो रही है। इमरान सरकार अपनी सरकार और गृह मंत्री के रवैये से बिल्कुल नाराज हैं। उनका कहना है कि गृह मंत्री के बयान से हत्यारों के हौसले बढ़ेंगे।
इमरान सरकार अकेले ऐसे निर्भीक ब्लॉगर नहीं हैं। मारुफ रसूल भी इमरान सरकार की तरह ही अपने नाम के साथ बयान देने की जिद करते हैं। मारे गए एक प्रकाशक फैज़ल अरेफिन दीपन के पिता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं। उनका बयान सरकार और प्रशासन को सुनने में कड़वा तो लगा होगा लेकिन उससे सरकार के रवैये पर कोई फर्क नहीं पड़ा। दीपन के पिता ने अपने बेटे की हत्या के बाद कहा था कि वे इस सरकार से न्याय की मांग नहीं करेंगे। क्योंकि इस देश में न्याय है ही नहीं। ब्लॉगर आरिफ जेबतिक कहते हैं जब किसी ब्लॉगर की हत्या की खबर आती है तब उन्हें एक अजीब सी राहत की अनुभूति होती है। राहत यह कि चलो इस बार भी शिकार मैं नहीं कोई और बना है।
बांग्लादेश में एक चरम निराशा का वातावरण है। आरिफ कहते हैं मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों ने कट्टरपंथी हत्यारों और अतिवादियों के लिए रास्ता साफ और चौड़ा किया है। ज्यादा दिन नहीं हुए जब सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी बीएनपी ने तथाकथित नास्तिक ब्लॉगरों को फांसी देने की मांग करते हुए एक रैली की थी। इस रैली में पूर्व प्रधानमंत्री बेगम खालिदा जिया ने फरमाया था कि ये ब्लॉगर इस देश के लिए पराए लोग हैं। इन्हें फांसी दी जानी चाहिए। यह बात आरिफ की नजरों से छुपती नहीं कि इस बार पोइला बैशाख (बांग्ला नववर्ष दिवस जिसे बांग्लादेश में बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता रहा है और जो बांग्ला राषट्रवाद का एक प्रतीक भी है) के दिन पिछले सालों की अपेक्षा काफी कम उत्साह था।
भारत में वामपंथी विचारक और कवि स्वर्गीय गोरख पांडेय ने किसी समय एक व्यंगात्मक कविता लिखी थी ‘समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई’। समाजवाद तो धीरे धीरे भी नहीं आया लेकिन बांग्लादेश के संदर्भ में हम जरूर कह सकते हैं कि ‘कट्टरवाद बबुआ धीरे-धीरे आई’। कट्टरवाद बांग्लादेश में धीरे-धीरे अपने पांव पसार रहा है और लगता है सिर्फ बुद्धिजीवियों को ही उसकी पदचाप सुनाई दे रही है। शायद इसीलिए बुद्धिजीवी बुद्धिजीवी है।
ब्लागरों की वैचारिक स्वतंत्रता से हर इस्लामवादी को आपत्ति है लेकिन अल कायदा ने तो ऐसे ब्लागरों का खात्मा कर देने का बीड़ा ही उठा लिया है। अल कायदा नेताओं का कहना है कि उन्हें उनकी कलम की स्वतंत्रता है तो हमें भी हमारे छूरे की स्वतंत्रता है। पिछले तीन सालों में बांग्लादेश में अल कायदा के नाम से ऐसी कई हिटलिस्टें प्रकाशित हुईं और कहा गया कि इन-इन ब्लॉगरों या लेखकों को इस संगठन के लोग सबसे पहले खत्म करेंगे। इनमें कुछ सूचियां फर्जी थीं जिनके बारे में स्पष्टीकरण भी जारी हुए।
अल कायदा की धमकी सिर्फ धमकी नहीं थी। उसने शहबाग आंदोलन (2013) के बाद से अब तक कम से कम 8 ब्लॉगरों और प्रकाशकों की हत्या कर दी है। एक प्रकाशक की हत्या के बाद कहा गया कि प्रकाशक लेखक से भी ज्यादा खतरनाक होते हैं। अमरीकी नागरिक अभिजित रॉय की ढाका पुस्तक मेले से निकलते समय हत्या कर दी गई थी, जिसके बाद में अमरीकी सरकार ने भी बांग्लादेश सरकार पर अपना दबाव बढ़ाया। सभी हत्याओं का एक ही पैटर्न है। छूरा घोंपकर हत्या करना और शरीर को क्षत-विक्षत कर देना।
सरकार का रवैया अल कायदा की इन कार्रवाइयों पर बड़ा लचर और निराश करने वाला है। सरकार उल्टे ब्लॉगरों से ही कहती है कि वे अपनी लेखनी को लगाम दें। इसी साल एक ब्लॉगर निजामुद्दीन समद की हत्या के बाद गृह मंत्री ने कहा कि किसी को भी धार्मिक नेताओं पर लेखकीय हमला करने का अधिकार नहीं है। सरकार देखेगी कि निजामुद्दीन ने अपने ब्लॉग में क्या लिखा था। कुछ ब्लॉगरों को धार्मिक भावनाओं को आघात पहुंचाने के कथित जुर्म में जेल में भी डाल दिया गया है। एक ब्लॉगर बताते हैं कि वे जब सुरक्षा की गुहार लेकर थाने गए तो उन्हें सलाह दी गई कि जिंदा रहना चाहते हैं तो देश छोड़कर कहीं और चले जाइए।
दरअसल बांग्लादेश के ब्लॉगर देश छोड़कर जा भी रहे हैं। उनमें से ज्यादातर यूरोपीय देशों में शरण ले रहे हैं और कुछ अमरीका भी जा रहे हैं। जो नहीं जा पा रहे वे अपनी पहचान छुपाकर घूमते हैं। कोई कोई बताता है कि उसने अमुक ब्लॉगर को हेलमेट पहनकर सड़क पर पैदल घूमते देखा। लेकिन ऐसे भी हैं जो अब भी बांग्लादेश में ही रहते हुए कट्टरपंथियों को अपनी लेखनी का लक्ष्य बना रहे हैं। ऐसे ही एक निर्भीक शख्स हैं इमरान एच सरकार। इमरान सरकार गण जागरण मंच के संयोजक भी हैं और आतंकवादियों तथा कट्टरपंथियों के मुख्य निशाने पर हैं। गण जागरण मंच के ही बैनर तले कादेर मुल्ला को फांसी की सजा देने की मांग करने वाला शहबाग आंदोलन हुआ था।
एक विदेशी न्यूज़ एजेंसी ने जब इमरान सरकार से कहा कि वह उनके बयान के साथ उनका नाम नहीं छापेगी। इस पर सरकार ने कहा कि वे चाहेंगे कि उनका नाम अवश्य छापा जाए। क्योंकि नाम छुपाने पर आतंकवादियों के हौसले और बुलंद होंगे। वे लोग सोचेंगे कि स्वाधीन चिंतक (वैसे ब्लॉगरों को कट्टरपंथी खेमा नास्तिक कहकर पुकारता है) डर गए हैं, बयान के साथ अपना नाम नहीं दे रहे, उनकी योजना सफल हो रही है। इमरान सरकार अपनी सरकार और गृह मंत्री के रवैये से बिल्कुल नाराज हैं। उनका कहना है कि गृह मंत्री के बयान से हत्यारों के हौसले बढ़ेंगे।
इमरान सरकार अकेले ऐसे निर्भीक ब्लॉगर नहीं हैं। मारुफ रसूल भी इमरान सरकार की तरह ही अपने नाम के साथ बयान देने की जिद करते हैं। मारे गए एक प्रकाशक फैज़ल अरेफिन दीपन के पिता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं। उनका बयान सरकार और प्रशासन को सुनने में कड़वा तो लगा होगा लेकिन उससे सरकार के रवैये पर कोई फर्क नहीं पड़ा। दीपन के पिता ने अपने बेटे की हत्या के बाद कहा था कि वे इस सरकार से न्याय की मांग नहीं करेंगे। क्योंकि इस देश में न्याय है ही नहीं। ब्लॉगर आरिफ जेबतिक कहते हैं जब किसी ब्लॉगर की हत्या की खबर आती है तब उन्हें एक अजीब सी राहत की अनुभूति होती है। राहत यह कि चलो इस बार भी शिकार मैं नहीं कोई और बना है।
बांग्लादेश में एक चरम निराशा का वातावरण है। आरिफ कहते हैं मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों ने कट्टरपंथी हत्यारों और अतिवादियों के लिए रास्ता साफ और चौड़ा किया है। ज्यादा दिन नहीं हुए जब सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी बीएनपी ने तथाकथित नास्तिक ब्लॉगरों को फांसी देने की मांग करते हुए एक रैली की थी। इस रैली में पूर्व प्रधानमंत्री बेगम खालिदा जिया ने फरमाया था कि ये ब्लॉगर इस देश के लिए पराए लोग हैं। इन्हें फांसी दी जानी चाहिए। यह बात आरिफ की नजरों से छुपती नहीं कि इस बार पोइला बैशाख (बांग्ला नववर्ष दिवस जिसे बांग्लादेश में बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता रहा है और जो बांग्ला राषट्रवाद का एक प्रतीक भी है) के दिन पिछले सालों की अपेक्षा काफी कम उत्साह था।
भारत में वामपंथी विचारक और कवि स्वर्गीय गोरख पांडेय ने किसी समय एक व्यंगात्मक कविता लिखी थी ‘समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई’। समाजवाद तो धीरे धीरे भी नहीं आया लेकिन बांग्लादेश के संदर्भ में हम जरूर कह सकते हैं कि ‘कट्टरवाद बबुआ धीरे-धीरे आई’। कट्टरवाद बांग्लादेश में धीरे-धीरे अपने पांव पसार रहा है और लगता है सिर्फ बुद्धिजीवियों को ही उसकी पदचाप सुनाई दे रही है। शायद इसीलिए बुद्धिजीवी बुद्धिजीवी है।
बढ़िया आलेख।
जवाब देंहटाएंबढ़िया आलेख।
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