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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

रविवार, 9 अक्तूबर 2016

बांग्लादेश का सत्ता समीकरण और सेना

भारत के एक उर्दू अखबार ने हाल ही में सुर्खी लगाई कि बांग्लादेश में हसीना सरकार पर सेना का खतरा। उस अखबार के ढाका संवाददाता के हवाले छपी इस खबर में अटकलबाजी के अलावा कुछ नहीं था। वैसे भी यह जाहिर सी बात है कि सेना यदि तख्तापलट करेगी तो अखबार वालों को पहले से बोलकर नहीं करेगी। 

लेकिन सवाल है कि क्या सचमुच बांग्लादेश में जमाते इस्लामी के नेताओं की फांसी से सेना इतनी विचलित है कि वहां तख्तापलट हो सकता है? बांग्लादेश की राजनीति की बारीकियों को जानने वाले जानते हैं कि एक तो वहां की सेना कट्टरवादियों की फांसी से विचलित जैसी कुछ नहीं है। वह स्वयं कट्टरवादियों को पसंद नहीं करती। दूसरे, सेना को शेख हसीना ने इतनी चतुराई के साथ साध रखा है कि वे तख्तापलट जैसी किसी कार्रवाई के बारे में सोचना भी पसंद नहीं करेंगे।

शेख हसीना सरकार ने पुलिस और सेना को इतने अधिक अधिकार दे रखे हैं कि वहां मानव अधिकार जैसी कोई चीज रह ही नहीं गई है। इसके अलावा सेना में नीचे स्तर से लेकर शीर्ष स्तर तक के अधिकारियों के आर्थिक लाभ में कोई कमी न आए इसकी भी पूरी व्यवस्था शेखा हसीना ने कर रखी है। पैसे की ताकत से शेख हसीना बखूबी वाकिफ हैं और सैन्य अधिकारियों को साधने में उन्होंने अपने इस ज्ञान का पूरा सदुपयोग किया है। 

अन्य सरकारी अधिकारियों की तुलना में सैन्य अधिकारियों के वेतनमान में अधिक वृद्धि तो हुई ही है, बांग्लादेश में कई व्यावसायिक उपक्रम भी सेना के अंतर्गत परिचालित होते हैं। इन व्यावसायिक उपक्रमों के मुखिया सेना के बड़े अफसर होते हैं और वे जब तक वहां तैनात होते हैं उनके पास जमकर पैसा बनाने के अवसर होते हैं। इस तरह शेख हसीना ने सेना के अफसरों के दिमाग में यह बात कभी आने ही नहीं दी कि वे स्वयं सत्ता पर काबिज हो जाएं तो उन्हें आर्थिक रूप से अधिक लाभ होगा।

अफसरों और जवानों को संतुष्ट करने का एक और तरीका है उन्हें राष्ट्र संघ के शांतिरक्षक बल (यूएनपीकेएफ) में डेपुटेशन पर जाने का मौका देना। बांग्लादेश भारत सहित उन कुछ देशों में से है जिसके सैनिक यूएनपीकेएफ में बड़ी संख्या में हैं। जहां पश्चिमी देशों के सैनिक और अफसर यूएनपीकेएफ में जाने से कतराते हैं वहीं बांग्लादेश के सैनिक और अफसर इसमें जाने के लिए लालायित रहते हैं। 

इसका कारण है इसमें जाने से होने वाला आर्थिक लाभ। कुछ साल तक राष्ट्र संघ की सेना में रहने पर एक सैनिक के आर्थिक स्तर में आमूल सुधार आ जाता है। और कोई भी सैनिक इस मौके को छोड़ना नहीं चाहता।

बांग्लादेश की सेना को सत्ता पर काबिज होने से रोकने में भी राष्ट्र संघ की सेना की एक बड़ी भूमिका है। अमरीका और यूके जैसे बड़े देश इस बात को तय करते हैं कि किस देश से कितने सैनिक राष्ट्र संघ की फौज में लिए जाएंगे। इसलिए बांग्लादेश में सेना के अधिकारियों के साथ होने वाली गुप्त बैठकों में इन देशों के राजदूत साफ-साफ कह देते हैं कि फौज ने यदि राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं पनपने दी तो राष्ट्र संघ की सेना में उनके सैनिकों की संख्या में कटौती कर दी जाएगी। 

इस तरह यूएनपीकेएफ बांग्लादेश में सेना की महत्वाकांक्षा को सीमा में रखने के लिए एक बहुत ही कारगर हथियार साबित हुआ है। साथ ही यह देश के राजनीतिक नेतृत्व को भी अपनी मांग के सामने झुकने पर मजबूर करने वाला एक अस्त्र है। क्योंकि यदि यूएनपीकेएफ में बांग्लादेशी सेनिकों की संख्या में कटौती होती है तो सेना में राजनीतिक नेतृत्व यानी प्रधानमंत्री शेख हसीना के विरुद्ध असंतोष पनपेगा, जो वे कभी नहीं चाहेंगी।

बांग्लादेश सहित विश्व के कई देशों में प्रतिबंधित संगठन हिजबुत तहरीर की ओर से ढाका की दीवारों पर बीच बीच में पोस्टर चिपकाए मिलते हैं। इन पोस्टरों में बांग्लादेश के “ईमानदार” सैन्य अधिकारियों के नाम अपील होती है कि आपलोग सत्ता को अपने हाथ में ले लें। हिजबुत में सिर्फ उच्च शिक्षित युवकों को सदस्य बनाया जाता है। 

इन उच्च शिक्षित युवकों को शायद यह व्यावहारिक ज्ञान नहीं है कि सत्ता में आने से सैन्य अधिकारियों को जो लाभ मिल सकते हैं वे लाभ उन्हें बिना सत्ता के ही मिल रहे हैं। फिर वे क्यों जान को जोखिम में डालें।

2014 के जिन चुनावों के माध्यम से शेख हसीना लगातार दूसरी बार के लिए सत्ता में आई उन्हें प्रहसन मात्र कहा जा सकता है। इन चुनावों में विपक्षी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) ने हिस्सा ही नहीं लिया था। इसलिए सत्ताधारी अवामी लीग के अधिकांश सांसद बिना किसी प्रतिद्वंद्विता के ही जीत गए थे। अमरीका और ब्रिटेन की अगुवाई में पश्चिमी देश काफी दिनों तक इन चुनावों को मान्यता देने से ना-नुकर करते रहे। 

उन्हें यह स्वीकार नहीं था कि एक कठपुतली चुनाव आयोग की अध्यक्षता में हुए चुनाव को वैध चुनाव मान लिया जाए। इसी तरह जिस ट्राइब्यूनल में जमाते इस्लामी के नेताओं पर मुकदमा चलाया जा रहा है उसकी प्रक्रिया से भी पश्चिमी देश खुश नहीं हैं। लेकिन शेख हसीना बड़ी होशियारी से इस स्थिति से निपट रही हैं। इसमें भारत का समर्थन उनके लिए काफी राहत देने वाला है। 

2014 के चुनावों को जब अमरीका, ब्रिटेन आदि किसी भी बड़े देश ने मान्यता नहीं दी थी तब भी भारत शेख हसीना के साथ खड़ा रहा। इसी के बल पर हसीना ने फिर से चुनाव करवाने के पश्चिमी देशों के दबाव के सामने झुकने से इनकार कर दिया।

हसीना समर्थक एक बुद्धिजीवी बिना झिझक इस बात स्वीकार करते हैं कि उनके यहां भारत जैसा लोकतंत्र फिलहाल संभव नहीं है। न ही ट्राइब्यूनल में पश्चिमी मानदंडों के अनुसार कानूनी प्रक्रिया अपनाते हुए युद्ध के अपराधियों पर मुकदमा चलाना। उनके अनुसार बांग्लादेश में अभी भी एक युद्ध चल ही रहा है। 

पाकिस्तान को हराने के बाद भी पाकिस्तानी मानसिकता को हराना अभी बाकी है। जमाते इस्लामी इसी मानसिकता का प्रतिनिधित्व करती है। ये लोग जमाते इस्लामी पर प्रतिबंध लगवाने के लिए दबाव बढ़ा रहे हैं। हर तरफ से घिर जाने के बाद पाकिस्तानी मानसिकता वाली जमाते इस्लामी के लोग आतंकवाद को अपना आखिरी अस्त्र मानते हैं। 

अपने नेताओं की फांसी और अपनी राजनीतिक सहयोगी बीएनपी के राजनीतिक मैदान में मात खाते जाने के बाद उसे आतंकवाद ही एक मात्र सहारा नजर आ रहा है। ऐसे में आईएस के लिटरेचर में जमाते इस्लामी की तीखी आलोचना को पढ़ना काफी दिलचस्प होता है। 

आईएस को जमाते इस्लामी की नीतियां इसलिए पसंद नहीं क्योंकि ये लोग चुनावों में हिस्सा लेते हैं। लोकतंत्र को आईएस वाले आदमी का बनाया हुआ नियम मानते हैं, जबकि शासन सिर्फ अल्लाह के बनाए हुए नियमों के अनुसार होना चाहिए।

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