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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

रविवार, 9 अक्तूबर 2016

कंकरीट का शहर दुबई : मोतियों से तेल तक

दुबई पहली बार जाने वाले किसी भी भारतीय के लिए पहली आश्चर्य वाली बात तब होगी जब टैक्सी ड्राइवर उससे हिंदी में बात करेगा। मेरे टैक्सी ड्राइवर ने भी मुझसे पूछा किदर जाना है। मैंने आश्चर्यचकित होकर पूछा यहां हिंदी चलती है। उसने कहा क्यों नहीं। यह टैक्सी ड्राइवर पाकिस्तान के फैसलाबाद से था। लगभग सभी ड्राइवर भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश से हैं। 

पाकिस्तान के पेशावर से बड़ी संख्या में लोग दुबई में ड्राइवरी करते हैं। कोई भी पेशावरी ड्राइवर आपको भारतीय जानकर शाहरुख खान के बारे में बातचीत कर सकता है। एक ड्राइवर टैक्सी चलाकर अमूमन एक सौ दिरहम रोजाना कमा लेता है। इस तरह महीने में तीन हजार दिरहम यानी करीब साठ हजार भारतीय रुपयों के बराबर आमदनी होती है। इसमें से करीब बीस हजार रुपयों के बराबर खर्च हो जाता है।

अधिकतर कामगार एक कमरे में पांच छह के हिसाब से रहते हैं। रहने की व्यवस्था पर ही कामगारों का मुख्य खर्च होता है। दुबई में भारतीयों की संख्या इतनी अधिक है कि कभी-कभी लगता है आप किसी भारतीय शहर में आ गए। जो भारतीय नहीं हैं वे पाकिस्तानी, बांग्लादेशी, नेपाली या श्रीलंकाई हैं। और अच्छी खासी संख्या फिलीपीन्स के लोगों की भी है। 

वर्क वीसा दो साल, तीन साल और पांच के लिए मिलता है। संयुक्त अरब अमीरात ने जहां लाखों दक्षिण एशियाई लोगों को रोजगार उपलब्ध करवाया है वहीं यहां के श्रमविरोधी कानूनों के लिए इसकी काफी आलोचना भी होती है। उदाहरण के लिए यदि किसी कामगार को कोई गंभीर बीमारी हो जाए (जैसे टीबी) तो उसे वापस उसके देश भेज दिया जाता है।

दुबई में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा हिंदी है। मलयालम भी काफी बोली जाती है। हालांकि मलयाली लोग भी हिंदी जानते हैं। इसी तरह पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका और बांग्लादेश के लोगों के लिए भी बातचीत करने का माध्यम हिंदी ही है। इससे हिंदी के विस्तार का पता चलता है। 

मन में भाव आता है कि क्या हिंदी प्रदेश के लोगों को इस बात का आभास भी है कि उनकी भाषा का भूगोल कितनी दूर दूर तक फैला हुआ है। क्या हिंदी प्रदेशों ने हमेशा शिकायती लहजा बनाए रखने की बजाय हिंदी की इस सहज ताकत का उपयोग इसके विकास के लिए करने के बारे में कभी सोचा है।

काम करने वालों में दक्षिण एशियाई लोगों के बाद फिलीपींस का नंबर है। एयरपोर्ट के स्टाफ हों या होटल के कर्मचारी हर कहीं फिलीपींस के युवक और युवतियां बड़ी संख्या में दिखाई दे जाते हैं। ऐसा लगता है कि यूएई के मूल निवासी सिर्फ सरकारी नौकरियों तक सीमित हैं।

प्रवासियों में तकरीबन पांच प्रतिशत यूरोपीय हैं। सिर्फ महंगे होटलों और ब्रांडेड कॉफी हाउसों में ही यूरोपीय लोग दिखाई देते हैं। हालांकि सिंगापुर की तुलना में दुबई में काम करने वालों में गोरों की संख्या मुझे काफी कम लगी। संयुक्त अरब अमीरात में ही नहीं बल्कि समूचे अरब जगत में हाल के वर्षों में निर्माण कार्य पर इतना अधिक निवेश नहीं हुआ होगा जितना दुबई, अबू धाबी और शरजाह में हुआ है। 

दुबई, अबू धाबी और शरजाह में आप जिधर भी नजर दौड़ाएं या तो आपको पिछले चालीस सालों में हुआ निर्माण दिखाई देगा या फिर नया निर्माण होता हुआ दिखाई देगा। इस तरह ये तीनों शहर गगनचुंबी इमारतों के शहर बन गए हैं।

इस बात पर आश्चर्य होता है कि सिर्फ कंकरीट के जंगल के बल पर दुबई के शासक ने अपने यहां पर्यटन को विकसित कर लिया। जब मैंने अपने जर्मन मित्र के साथ आधे दिन का शहर का महंगा दौरा किया तो हम दोनों ही बुरी तरह निराश हुए। क्योंकि दुबई में देखने के लिए न तो ऐतिहासिक इमारते हैं, न प्राकृतिक मनोरम दृश्य, न कोई कलाकृतियों के म्यूजियम, न थिएटर या ऑपेरा हाउस। वहां जो है वह है सिर्फ बाजार और बाजार। 

टूरिस्ट गाइड सैलानियों को आधुनिक माल में ले जाएगा, मसालों के पुराने बाजार में ले जाएगा जिन्हें सूक कहा जाता है, आंखें चौंधियाने वाले सोने के सूक में ले जाएगा, सात सितारा होटल दिखाएगा, दुनिया की सबसे ऊंची इमारत बुर्ज खलीफा बाहर से दिखाएगा और लीजिए शहर का दौरा पूरा हो गया।

दुबई दुनिया के महंगे शहरों में से एक है। एक तीन कमरों के फ्लैट का किराया भारतीय रुपयों के अनुसार दो लाख रुपए महीना हो सकता है। शरजाह में किराया कम है यानी एक लाख। अबू धाबी में यह और भी अधिक है यानी तीन लाख तक। 

यूएई में बीमार पड़ना पाकिट पर काफी महंगा पड़ता है। एक डाक्टर की फीस 400 दिरहम तक है यानी भारतीय रुपयों में करीब आठ हजार तक। साधारण जेलुसिल जैसी एंटासिड गोलियों के दाम 10 गोलियों के 20 दिरहम यानी 400 रुपए तक देने पड़ते हैं।

दुबई और पूरे यूएई का विकास अभी हाल की कहानी है। साठ के दशक के अंतिम वर्षों में वहां तेल मिलने के बाद उस देश की काया बदलने लगी। इससे पहले यहां काम के नाम पर समंदर से मोती निकालने का काम होता था। गरीब गोताखोर अपने साधारण औजारों के साथ समुद्र में गोता लगाते और गहरे समुद्र की तलहटी पर बिखरी सीपियों को ऊपर लाते। 

ऐसे परंपरागत गोताखोर तीन मिनट तक सांस रोककर पानी के अंदर रह लेते थे। इन सीपियों से मोती निकाले जाते। इन मोतियों की परख जानकार लोग करते जिन्हें तवासीन कहा जाता है। भारत इन मोतियों का एक बड़ा खरीदार देश हुआ करता था। पचास के दशक के बाद विभिन्न कारणों से मोतियों का धंधा मंदा पड़ गया जिसका एक कारण सीपियों के पालन करने की प्रथा शुरू होना है।

दुबई में सरकार ने एक म्यूजियम बनाया है जिसमें इसकी चार दशक पहले की गरीबी स्पष्ट रूप से झलकती है। म्यूजियम की संकल्पना और इसके रख-रखाव की निश्चित रूप से प्रशंसा की जानी चाहिए। इसमें बनाए गए पुतले देखकर लगता है यह भारत का ही कोई मुस्लिम बहुल छोटा-मोटा कस्बा है जहां लोग किसी तरह अपना गुजर-बसर कर रहे हैं। 

बाजार में मसालों, किराने की दुकान, दर्जी, सुनार आदि की दुकानें आज भी भारत के कस्बों में वैसी हैं जो अब दुबई में अब इतिहास और म्यूजियम में रखने की चीजें हो चुकी हैं।

2 टिप्‍पणियां:

  1. बिलकुल सही और सटीक जानकारी । सच है , वहां सिर्फ बाजार है , सिर्फ बाजार !

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