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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

रविवार, 16 नवंबर 2008

साले सेकुलर कहीं के

एक नई गाली चल निकली है "ये साले सेकुलर कहीं के'। किसी कुत्ते को गोली मारनी हो तो पहले उसे बदनाम कर दो। वक्त के द्वारा परखी हुई इसी तकनीक का इस्तेमाल इस समय सेकुलरिज्म के खिलाफ हो रहा है।



इसी तरह कम्युनिस्टों की शब्दावली में एक गाली दशकों से चली आ रही है "बुर्जुवा कहीं का'। जब किसी कम्युनिस्ट कार्यकर्ता को किसी उदारवादी के विचार समझ में नहीं आते या उसका उत्तर नहीं सूझता तो वह उस पर कोई न कोई लेबल चस्पां कर देता है। सबसे पंसदीदा लेबल यही होता है "बुर्जुवा'।



कल एक संघ समर्थक के साथ ट्रेन में सफर करना हुआ। बात करने समय उसका बार-बार उत्तेजित हो जाना कानों में चुभने वाला था। ऐसे में कोई संवाद स्थापित करना संभव ही नहीं होता। मसलन हमारे उन मित्र ने कहा कि बांग्लादेशी के मुद्दे पर तो तुमसे बात करके कोई फायदा नहीं है। इस बात पर ध्यान गया कि कोई भी कट्टरपंथी बात-बात पर उत्तेजित क्यों हो जाता है? ऐसा मुस्लिम कट्टरपंथी, कम्युनिस्ट कट्टरपंथी सबके साथ होता है। उनके साथ संवाद स्थापित नहीं हो पाता। शायद उन्हें संवाद की कोई वास्तविक जरूरत नहीं होती होगी। उनकी पवित्र किताबों में सारी समस्याओं के समाधान दिए हुए होंगे।



कट्टरपंथी आम तौर पर मुद्दों की चीरफाड़ करने के विरोधी होते हैं। जैसे, आप यदि कहें कि अमुक कंपनी अपने कर्मचारियों का काफी ध्यान रखती है। तो कोई कम्युनिस्ट कार्यकर्ता तुरंत आपके लिए यह धारणा बना लेगा कि आप उस कंपनी के पिट्ठू हैं। अपने विरोधी की कोई प्रशंसा सुनना उसे गवारा नहीं।



इसी तरह किसी हिंदुत्ववादी से कहें कि मुसलमानों में आपसी भाईचारे की भावना बड़ी तगड़ी है तो वह कहेगा कि "साले सेकुलरों में तो हिंदुओं के सिवा हर किसी में गुण नजर आते हैं। उन्हें बुराई केवल हिंदुओं में नजर आती है।'



यह तो हुई साधारण कार्यकर्ता की बात, लेकिन जो तपे-तपाए हिंदुत्ववादी, मुस्लिम कट्टरपंथी या कम्युनिस्ट हैं वे ऊपर से काफी सुलझे हुए लगेंगे। यानी वे आपकी बात शांति से सुनेंगे लेकिन जब वे आपके साथ बहस करने से कतराएंगे तो आपको तुरंत आभास हो जाएगा कि वे "विधर्मियों' के साथ बहस करने को समय को दुरुपयोग समझते हैं।



हर तरह के कट्टरवाद के कुछ गुणों में काफी समानता होती है। यह अध्ययन दिलचस्प है। जैसे यह कि, ऐसा लगता है कि कट्टरपंथी के मन में सदियों का गुस्सा पूंजीभूत है और वह झटके के साथ कोई परिवर्तन चाहता है और अपने विचारों का विरोध करने वालों को ही इसमें मुख्य बाधा मानता है। राजनीतिक या सांप्रदायिक हिंसा क्या इसीसे जन्मती है?

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