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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

शनिवार, 22 नवंबर 2008

गुवाहाटी के सबक

तीस दस की घटना से आम जनता, सरकार, प्रेस और राजनीतिक नेताओं - सभी को कुछ सबक लेने चाहिए ताकि ऐसी गलतियों का दोहराव न हो।



सबसे पहले तरुण गोगोई सरकार को इस बात के लिए बधाई दी जानी चाहिए कि एक उचित समय के भीतर राज्य पुलिस की टीम ने बम विस्फोटों में शामिल लोगों में से ज्यादातर को गिरफ्तार कर लिया है। विस्फोट करने वाले उग्रवादियों ने पहले पुलिस को सही मार्ग से भटकाने के लिए एक मुस्लिम संगठन के नाम से एसएमएस भेजकर जनता के बीच भ्रम की स्थिति उत्पन्न कर दी थी। दुनिया भर में जारी इस्लामी आतंकवाद और भारत के कई शहरों में संदिग्ध जिहादियों द्वारा की गई आतंकी कार्रवाइयों के बाद आम जनता ने सहज ही ऐसे एसएमएस पर भरोसा कर लिया था। यहां तक कि विस्फोट होने के फौरन बाद कई राजनीतिक पार्टियों के नेताओं ने यह कहना शुरू कर दिया था कि इनके पीछे जिहादियों का हाथ है।



ऐसे भयानक बम विस्फोट इससे पहले असम में हुए नहीं थे इसलिए यह संदेह होना स्वाभाविक था कि इनके पीछे अब तक राज्य में सक्रिय अलगाववादी विद्रोहियों के अलावा अन्य कोई ताकत होगी। लेकिन जांच के बाद इस रहस्य पर से ज्यों-ज्यों पर्दा उठने लगा है त्यों-त्यों यह स्पष्ट होने लगा है कि यह नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट आफ बोड़ोलैंड की कारस्तानी थी। प्रतिबंधित संगठन एनडीएफबी के लिए आतंकी कार्रवाइयां करना कोई नई बात नहीं है और अपने शिविर चलाने के लिए जरूरी धन के लिए वह लोगों में अपने नाम का आतंक कायम रखना चाहता है। यह भी हो सकता है कि तीस दस की कार्रवाई में संगठन के शीर्ष नेताओं का दिमाग न हो और निचले स्तर पर ही किसी गुट ने यह कार्रवाई की हो।



जो भी हो, तीस दस की घटना से हमें कुछ सीख लेनी चाहिए। उस दिन की घटना में सबके लिए कोई न कोई सबक है। सबसे पहले सरकार - सरकार को चाहिए कि इसके मंत्री आतंकवादी घटना के बारे में आनन-फानन बयान न दें। वस्तुस्थिति से जनता को अवगत कराने के लिए किसी मंत्री को नियुक्त किया जा सकता है लेकिन वे सिर्फ तथ्यों के आधार पर ही बात करें। अपनी राय न दें। ऐसे बयानों से भ्रम फैलता है और जनता में गलत संदेश जाता है। जैसे तीस दस की घटना के ठीक बाद मंत्री हिमंत विश्व शर्मा के बयानों से लोगों को यह लगा कि सरकार मुस्लिम संगठनों को बचाना चाहती है।



प्रेस - प्रेस या मीडिया के लोगों को भी संयम की जरूरत है। हालांकि हम जानते हैं कि ऐसी सलाह अरण्यरोदन के सिवा और कुछ साबित नहीं होगी। मीडिया ने भी तीस दस के बाद इस तरह व्यवहार करना शुरू कर दिया था मानों उसे पक्के तौर पर मालूम है कि बम विस्फोटों के पीछे जिहादियों का ही हाथ है। मीडिया को फैशन के पीछे न दौड़कर तथ्यों के आधार पर बात करनी चाहिए। आज पीछे मुड़कर यदि बीबीसी की रिपोर्टिंग को देखें तो यह समझ में आ सकता है कि क्यों इस समाचार माध्यम की दुनिया में आज भी अलग साख है।



राजनीतिक दल - राजनीतिक दलों को हमेशा एक दूसरे से प्रतियोगिता करते रहना पड़ता है। इसलिए शायद वे भी संयम के परामर्श को उठाकर ताक पर रख देंगे। लेकिन इतनी उम्मीद तो हम कर ही सकते हैं कि कम से कम विभीषिकाओं के समय राजनीतिक दल थोड़ा संयम बरते और राजनीतिक बयानबाजी से बाज आए। सभी राजनीतिक दल इस संबंध में मिल बैठकर एक आचार संहिता तैयार कर सकते हैं कि ऐसे संकट के समय वे किस तरह पेश आएंगे। ऐसी आचार संहिता में यह शामिल किया जाना चाहिए कि अति महत्त्वपूर्ण व्यक्ति घटनास्थल पर पहुंचकर पुलिस के काम में बाधा नहीं पहुंचाएंगे।

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