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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

बुधवार, 26 नवंबर 2008

दलित को इंतजार न्याय का


लक्ष्मी उरांव.
शायद यह नाम लोग भूल चुके होंगे, क्योंकि यह देश की किसी सेलेब्रिटी या राजनीतिक नेता का नाम नहीं है. लेकिन लोग अभी भी देश भर के टीवी चैनलों पर दिखाई गई उस तस्वीर को नहीं भूले होंगे जिसमें एक सांवले रंग की चाय मजदूर समुदाय की लड़की बिल्कुल निर्वस्त्र अपनी लाज बचाने के लिए सड़क पर दौड़ रही है.

यह आज से ठीक एक साल पहले यानी 24 नवंबर 2007 की घटना थी, जो गुवाहाटी के बेलतला में घटी.

इस तस्वीर को लेकर यह बहस खड़ी हुई थी कि क्या ऐसी तस्वीर छापना पत्रकारिता के सिद्धांतों के अनुकूल है. जो लोग अर्धनग्न अभिनेत्रियों की तस्वीरों के माध्यम से मनुष्य की आदिम वृत्तियों को सहलाने के बहाने अपना धंधा गर्म करने पर कभी आत्मचिंतन नहीं करते उन्हीं लोगों को जब समाज की गदंगी दिखाई गई तो वे सिहर उठे और चिल्लाने लगे कि "बंद करो यह अश्लीलता'.

बेलतला की कुख्यात घटना को एक साल पूरा होने के बाद आज यह साफ हो चुका है कि युवती की तस्वीर को पर्याप्त रूप से ढककर छापना कहीं से भी गलत नहीं था, गलत था उस घटना की भयावहता को ढकने का प्रयास करना.

यूं गुजर गया वक्त

आज एक साल बीत जाने के बाद यह सवाल अपनी जगह खड़ा है कि एक लड़की को सरेराह निर्वस्त्र कर देना, एक व्यक्ति को पीट-पीटकर मार डालना और दर्जनों को गंभीर रूप से जख्मी कर देना - इन सब अपराधों को किसी बंद कमरे में नहीं बल्कि बीच सड़क पर दिन के उजाले में अंजाम देने वालों के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई करने के लिए सरकार को और कितने वक्त की जरूरत है.

बेलतला की शर्मनाक घटना के सिलसिले में सात मामले स्थानीय थाने में दर्ज कराए गए. इनमें से मात्र एक मामले को छोड़कर बाकी किसी में भी आरोप पत्र तक दाखिल नहीं हुआ है. जिस एक मामले में आरोप पत्र दाखिल हुआ और चार युवकों को गिरफ्तार किया गया उसमें भी अभियोग पक्ष की ओर से अदालत में कार्रवाई को आगे बढ़ाने के लिए कुछ नहीं किया गया. नतीजा क्या होगा हम जानते हैं, मामला धीरे-धीरे स्वयं ही अपनी मौत मर जाएगा.

घटना की जांच के लिए एक न्यायिक आयोग का गठन हुआ. आयोग ने समय पर अपनी जांच पूरी कर दी. जांच रपट को 1 अप्रैल को राज्य विधानसभा के पटल पर रखा गया. लेकिन सरकार ने मात्र यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि वह केंद्र सरकार से सीबीआई जांच के लिए अनुरोध कर चुकी है.

राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी अपनी ओर से घटना की जांच की. इसने भी घटना की सीबीआई से जांच कराने की अनुशंसा की. लेकिन सरकार ने आज तक आयोग को यह बताने की जहमत नहीं उठाई कि उसकी अनुशंसाओं पर सरकार ने क्या कार्रवाई की है.


उधर घटना की शिकार लक्ष्मी उरांव एक राजनीतिक पार्टी के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ने की तैयारियां कर रही है. उसने अपने अनुभव से यह जाना है कि देश में न्याय उसी को मिलता है जो राजनीतिक रूप से ताकतवर हो. सड़क पर निर्वस्त्र की गई लक्ष्मी आज सड़कों पर चुनावी सभाएं करने में व्यस्त है. इसी में उसे आदिवासी समाज की मुक्ति दिखाई देती है.

लेकिन लक्ष्मी की यह राह भी आसान नहीं है.

उम्र पर राजनीति

जिस झारखंड दिशोम पार्टी ने लक्ष्मी के मुद्दे को देश भर में उठाया, वही दिशोम पार्टी अब लक्ष्मी के तेज़पुर लोकसभा क्षेत्र से चुनाव मैदान में उतरने से नाराज़ है और इसके लिए उसकी उम्र को मुद्दा बना रही है. पार्टी का दावा है कि लक्ष्मी की उम्र 25 से कम है और वह चुनाव नहीं लड़ सकती.

यहां तक कि जिस ऑल आदिवासी स्टूडेंट्स एसोसिएशन की रैली में विरोधी गुंडों द्वारा लक्ष्मी को प्रताड़ित किया गया था, वह एसोसिएशन भी लक्ष्मी को लोकसभा की टिकट देने के खिलाफ है.

लक्ष्मी को लोकसभा की टिकट देने का प्रस्ताव रखने वाली असम युनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट भी इन आरोपों से थोड़ी पशोपेश में है.

तेज़पुर में लगभग 25 फीसदी मतदाता चाय बगान में काम करने वाले आदिवासी मज़दूर हैं और असम युनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट को उम्मीद है कि लक्ष्मी इन मतदाताओं का वोट तो पाएंगी ही. विवादों में फंसे तेज़पुर से लोकसभा सदस्य और लॉटरी किंग मणीकुमार सुब्बा के खिलाफ लक्ष्मी मतदाताओं की पसंद हो सकती हैं लेकिन उम्र के विवाद से फ्रंट भी परेशान है.

तेजपुर से लक्ष्मी को पार्टी टिकट देने की घोषणा के बाद फ्रंट के अध्यक्ष बदरुद्दीन अजमल लक्ष्मी की उम्र के मुद्दे का निर्णय चुनाव आयोग पर छोड़े जाने के पक्ष में हैं. उनका कहना है कि इस मामले में चुनाव आयोग जो भी तय करेगा, उन्हें स्वीकार होगा.

हालांकि लक्ष्मी बड़ी साफगोई से कहती हैं कि वे राजनीति में किसी लोभ में नहीं आई हैं. भविष्य में किसी भी स्त्री के साथ इस तरह का दुर्व्यवहार नहीं हो, यही इच्छा उन्हें राजनीति में लाई है. लेकिन अपनी उम्र को लेकर हुए विवाद से वे दुखी हैं.

लक्ष्मी कहती हैं- “मेरा जन्म 10 अगस्त 1983 को हुआ है और मेरे पास स्कूल के प्रमाणपत्र हैं.आखिर मेरी उम्र पर सवाल खड़े करने वाले किस आधार पर यह बात कह रहे हैं, मैं खुद नहीं समझ पा रही हूं.”

राजनीतिक सवालों के कटघरे में कैद लक्ष्मी उरांव के सामने फिलहाल तो लोकसभा चुनाव का लक्ष्य है और 24 नवंबर 2007 की लड़ाई भी तो उन्हें लड़नी है. एक ऐसी लड़ाई, जो अब सुर्खियों में नहीं है और सवालों पर राजनीति की बिसात बिछाने वालों के लिए भी अब वो किसी बहस का मुद्दा नहीं है.