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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

बुधवार, 4 जुलाई 2012

डिब्रूगढ़ के मनोहर वर्मा की टिप्पणी


विनोद रिंगानिया जी ने "शादियों में आडंबर...' का विषय उठाकर फिर समाज की दुखती रग पर हाथ रख दिया है। बहुविवाह के प्रसंग ने तो बड़ी उम्र के "बेचारे' कुंवारों को उदास ही कर दिया। एक अदद पत्नी का जोगाड़ बैठाने में उम्र ढलती जा रही है, वहां बहुविवाह की बात करना गाली जैसा लगता है। ऊंचे संपन्न समझे जाने वाले घरानों को अपनी हैसियत से निचले पायदान पर उतरकर लड़की वालों के यहां प्रस्ताव भिजवाने पड़ रहे हैं। पैसे के बल पर सब कुछ हो जाता तो ऐसी परिस्थितियां क्यों आती? इतना ही नहीं, न चाहते हुए भी समाज अब अंतर्जातीय विवाहों के पक्ष में तैयार होने लगा है। यह परिवर्तन क्या उपायजन्य है? नहीं, लड़कियों के स्थान पर लड़कों की पैदाइश की चाह ही इस दुष्प्रवृत्ति का कुफल है। आज के दिन लड़कियों और उनके अभिभावकों की मानसिकता में भारी बदलाव आया है। अमीर घरानों की चाहत पीछे छूट गई है।

शादियों में आडंबर ने खर्च तो बढ़ाए ही हैं। पूरे समाज की समरसता को भी चोट पहुंचाई है। सब कुछ ठेके पर नाटकीय ठाठ-बाट सज जाते हैं, परिवार के सदस्य म्लान चेहरों पर झूठी मुस्कुराहट के टेटू गुदवाए लकदक पोशाकों में भावहीन पुतले से लगते हैं। जब से पहले की भांति संपर्क बढ़ानेवाले सामाजिक बंधुओं के श्रम-सहयोग की अपेक्षा नहीं रह गई है तब से आत्मीयता का भी अवसान हो गया है। शादी का आयोजन मांगलिक कहलाता तो है, पर कहीं से भी मंगल ध्वनि और यज्ञिक शुभता की सुवास हमारी ग्राह्य-इंद्रियों को सुखद उत्तेजना नहीं दे पाती। मुहूर्त, अमुहूर्त में बदल जाता है। समधियाने की मीठी गालियों और गीतों की रसिकता का स्थान कर्कस आर्केस्ट्रा पर फिल्मी कामुक आइटम-सोंग और उनकी नकल ने ले लिया है।

अब जरा खाने-पीने की तरफ दृष्टि डालते हैं। तरह-तरह के ठंडे-गरम ड्रिंक्स, हाई-टी के नाम पर चाट-पकौड़े, गोल-गप्पे, फलों के कत्तले, खाने में नाना प्रकार के सलाद, मिठाइयां चप, कचौड़ियां, समोसे, चाइनीज अनेकों आकार-प्रकार की रोटियां, दालें, सब्जियां, पुलाव, चावल, कढ़ी, रायता, पापड़, अचार, चीप्स और फिर आइस्क्रीम, क्या नहीं होता? छप्पन भोग की मर्यादा छोटी पड़ गई है, गरिष्ठ पकवानों के शतक सजने लगे हैं। कोई भोजन-भट्ट भी इन सब पकवानों को चखने का पुरुषार्थ नहीं दिखला सकता। लोग दस चीजें भी तबियत से खा लें तो गनीमत समझें। होने को तो बहुत कुछ होता है, परंतु स्वाद और सत्कार दोनों नदारद रहते हैं। सजावटी नकली फूलों की तरह व्यंजन भी सजावटी और नकली से लगते हैं। बची खाद्य-सामग्री का दूसरे दिन तो कोई उपयोग ही नहीं। उपलब्धि के नाम पर एक मेले की सी रेल पेल को वीडियो कैमरे में कैद कर के सहेज लिया जाता है। काश, दस-बीस ही व्यंजन हों पर खाने योग्य हों और साथ में हो आतिथ्य की गरिमा। यह बिना फिजूलखर्ची और आडंबर के हो सकता है। इसलिए कहा गया है-

करिए काज हिसाब से, जासो सुधरे काज।

फीको थोड़े नून ते, अधिक ते खारो नाज।।

कुरीतियों और आडंबर पर नियंत्रण संभव हो सकता है, परंतु प्रारंभ में सादगी के उदाहरण संपन्न और समझदार लोगों को रखने चाहिए। मैं उदाहरण के लिए कहना चाहूंगा कि हमारे यहां डिब्रूगढ़ में मृत्यु-भोज में गरीब-अमीर सभी के यहां एक-सी रसोई बनती है- दिलकुसार, भुजिया, कचौड़ी या दही बड़ा और सब्जी-पूड़ी बस। बड़े-बूढ़ों की पंचायत में बनाए गए इस पचासों वर्ष पुराने मेनू को भंग कर के आडंबर दिखाने का प्रयास अभी तक तो किसी ने नहीं किया। चाहें तो विवाह समारोहों में भी थोड़े हेर-फेर के साथ ऐसा हो सकता है, यदि समाज लोगों पर दबाव बना सके। पूरे समाज की एक सभा बुलाकर निर्णय लिया जाए। निर्णय को प्रचारित किया जाए। फिर समाज की अवहेलना करते हुए जो आडंबर दिखलाए उनका विनम्रतापूर्वक बहिष्कार होना चाहिए। जो नियमों का पालन करे उसको सम्मानित किया जाए।

- मनोहर वर्मा

डिब्रूगढ़

फोन. 9435330298

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