एक बार मैं और किशोर जैन उनके घर गए। शायद कोई इंटरव्यू लेने का इरादा था। किशोर जैन ने उनके विषय में कुछ लिखा था, उसे भी वे दिखाना चाहते थे। लिखा हुआ देखकर वे कहने लगे- नाटक करने की क्या जरूरत है। नाटक करिबो ना लागे। जीवन में और साहित्य में वे नाटकीयता और गिमिक्स के सख्त विरोधी थे। चश्मा लाने अंदर गए तो चश्मे का प्रसंग याद आ गया। कहने लगे कि शिवसागर में चश्मा भूल गया था। फिर पीछे-पीछे गाड़ी दौड़ाकर लड़कों ने (कवि सम्मेलन के आयोजकों ने) मोरान में मुझे चश्मा दिया। बुरा भी लगता है लड़कों को लेकर। वे अपने भुलक्कड़ स्वभाव को कोसने लगे।
हमने कहा कि वे अपनी एक-दो कविताएं दे दें हिंदी में अनुवाद कर उनके साक्षात्कार के साथ लगा देंगे। उन्होंने एक कविता निकाल कर दी और कहा-कीजिए, इसका अनुवाद मेरे सामने ही कीजिए। हम दोनों भिड़ गए। हीरू दा की कविताएं छोटी-छोटी होती हैं, भाव भी स्पष्ट होता है, बोधगम्य होती हैं, लेकिन शब्दों के चुनाव में वे काफी सावधान रहते हैं। शब्दों की बात चली तो वे कहने लगे- दिल्ली में एक साइन बोर्ड पर लिखा था ""आम लोगों के लिए नहीं''। तब तक मैं आम का अर्थ एक फल के रूप में ही जानता था। काफी सोचा। आम लोगों के लिए नहीं-क्यों नहीं। फिर आम किसके लिए है। बाद में किसी ने बताया कि आम का मतलब साधारण भी होता है तब बड़ी हंसी आई। उनकी कविताओं में असमिया लोकजीवन से शब्द आते हैं। संस्कृत, तत्सम शब्दों से वे परहेज करते हैं। उन्हें यही डर रहता था कि अनुवादक संस्कृतनिष्ठ और तत्सम शब्दों से भरकर उनकी कविता का रंग-रूप बिगाड़ देंगे। गांव की गोरी अनगढ़ ढंग से लिपिस्टिक लगाएगी तो उसका चेहरा बिगड़ेगा या निखरेगा। एक-एक शब्द पर वे चर्चा करते रहे। - कोई दूसरा शब्द सोचिए- ठीक है बांग्ला का शब्दकोश देख लेते हैं। एक शब्द था ""गोमा आकाश''। बादल छाए आसमान के लिए ये शब्द प्रयुक्त होते हैं। ""गोमा'' के लिए कोई उचित शब्द उस समय नहीं मिला। "मेघाच्छादित' जैसा शब्द देने का तो सवाल ही नहीं था। शाम का वक्त था हमने कवि से विदा मांग ली। बाहर बरामदे में निकले तो देखा कि बादल छाए हुए हैं, मैंने कहा, ""आकाश गोमा हो रखा है।'' कवि हंस दिए।
पिछले साल प्रेस में मिल गए। अपने नए संकलन को लेकर व्यस्त थे। आमुख की सज्जा स्वयं ही डिजायनर के पास बैठकर करवा रहे थे। भाषा, शब्द और वर्तनी को लेकर इतने सजग कि प्रकाशक मित्र दबी जबान में मेरे सामने अपनी खीझ व्यक्त किए बिना नहीं रह सके। काफी कमजोर हो चुके थे। फिर कहा, "चलिए, यह कविता अनुवाद कीजिए जरा।'' उनके साथ बैठकर अनुवाद करना एक अनूठा अनुभव होता था। लेकिन वे यह नहीं पूछते थे कि कहां छपवाएंगे, छपने पर दिखाइएगा। बस एक साथ बैठकर अनुवाद करने का आनंद लेते थे। बाद में कुरेदना उनकी आदत नहीं थी।
प्रकाशक मित्र ने कहा कि अभी चांदमारी में हम काफी पीने गए तो वहां बैयरे ने पहचान लिया। यह सुनकर हाल ही में अस्पताल से निकले कवि हंसने लगे, कहने लगे कि अस्पताल की नर्स भी कह रही थी आपको पहचानती हूं सर। हीरू दा की लोकप्रियता की बात ही अलग है। लेकिन कहीं न कहीं यह असमिया संस्कृति की महानता है जहां जनता अपने साहित्यकारों को अथाह प्यार देती है। भूपेन दा की बात छोड़ भी दें, तो अभी मामोनी रायसम गोस्वामी के निधन पर सारा असम रो पड़ा था। पिछले सप्ताह ही तो एक मंत्री का इंटरव्यू आया था कि वे मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहते, हां एक बार असम साहित्य सभा का अध्यक्ष बनने की हसरत जरूर है।
साहित्य की समाज में जगह का प्रसंग चला तो ""कभी-कभार'' में अशोक वाजपेयी की लिखी ये पंक्तियां याद आ गईं- ""क्या थे वे सपने? एक तो यही था कि हमारे समय और समाज में साहित्य की जगह और जरूरत बढ़ेगी। हम जानते थे कि हिंदी समाज, जो भी कारण हो, साहित्यप्रेमी समाज नहीं है, पर हमने उम्मीद लगाई थी कि शिक्षा और साक्षरता के विस्तार से साहित्य के पाठक बढ़ेंगे। ऐसा नहीं हुआ ः पढ़ा-लिखा मध्यम वर्ग समृद्धि की अपनी निर्लज्ज चाहत में अपनी मातृभाषा और साहित्य से दूर होता चला गया, जा रहा है। हमारे विश्वविद्यालयों में और अन्यत्र भी हिंदी साहित्य की प्रतिष्ठा कम होती गई है। हालत यह है कि हिंदी अखबारों में ही हिंदी भ्रष्ट हो रही है और उनमें साहित्य के लिए जगह सिकुड़ती जा रही है।''
ऐसा नहीं है कि असमिया समाज में असमिया भाषा के भविष्य को लेकर कम चिंता है और सभी आश्वस्त हैं। यहां भी नई पीढ़ी के असमिया लिखना-पढ़ना नहीं जानने को लेकर गंभीर विमर्श जारी है। लेकिन असमिया में जो स्थिति है उसकी हिंदी से तुलना ही नहीं है। टीवी पर जब दसवीं और बारहवीं के टापर्स के बाइट्स आते हैं तो ऐसे बहुतेरे होते हैं जो यह कहते हैं कि हम खाली समय में होमेन बरगोहाईं या रीता चौधरी के उपन्यास या नवकांत बरुवा की कविताएं पढ़कर तरोताजा होते हैं। हिंदी में तो ज्ञानपीठ प्राप्त साहित्यकार को भी टीवी वाले पहचानने से इनकार कर देते हैं। हिंदी की युवा पीढ़ी में दोयम दर्जे के अंग्रेजी उपन्यास मूल अंग्रेजी में या हिंदी अनुवाद के रूप में लोकप्रिय हैं।
मैंने हीरू दा के साथ बैठकर उनकी दो कविताओं में प्रयुक्त असमिया शब्दों के लिए ठीक-ठाक हिंदी प्रतिशब्द खोज लिए। आज भी शाम हो रही थी। हवा में खुनकी बढ़ रही थी। तभी कवि का मोबाइल बज उठा। घर से फोन आया था-दवा समय पर ले ली या नहीं। और हां शाम हो रही है, साथ में भेजी गरम चादर ओढ़ लें। कवि ने झोले से गरम चादर निकाल ली। हंसकर मुझसे कहने लगे- घर वाले चिंता करते हैं। सोचते हैं मैं चादर ओढ़ना भी भूल जाऊंगा। आप ठीक कहते हैं हीरू दा आप भुलक्कड़ नहीं हैं। आप हमारी भावनाओं को पंख लगाना भूल थोड़े जाएंगे।
(गत 4 जुलाई को कवि हीरू दा का निधन हो गया। वे 80 वर्ष के थे।)
दिवंगत कवि की सरलता ब्यक्त करने के लिए विषयवस्तु के साथ लगाई गई फोटो ही काफी है। यही तो लेखन परिकल्पना की परिपक्वता है।
जवाब देंहटाएंविनोद, हमारे आस पास (गुवाहाटी मे)हीरू दा का इतना मर्मस्पर्षी संस्मर्ण शायद ही किसी के पास हो कम से कम हिन्दी मे। साधारणता,असाधारणता शब्द मुझे कुछ भाये नही। 'सरलता के विरल गीत'जैसा कुछ प्रयोग क्या ठीक नहीं रहता। माफ करना दोष निकालना कतई मकसद नहीं है।मेरे विचार मात्र है। नाटक करिबो ना लागे यदि हम ऐसा ही लिखते हैं तो असमीया शब्दो की ध्वनी का ज्ञान कैसे सुलभ होगा।
गोमा आकाश के लिेए राजस्थानी शब्द का प्रयोग मिलता है 'बादळवाई'। कुछ कुछ समालोचनात्मक मंतब्य के लिए खेद है। मैने तो अपने आपको करेक्ट करने के लिए अनायास ही उठने वाले विचार ब्यक्त किए हैं।
"टीवी पर जब दसवीं और बारहवीं के टापर्स के बाइट्स आते हैं तो ऐसे बहुतेरे होते हैं जो यह कहते हैं कि हम खाली समय में होमेन बरगोहाईं या रीता चौधरी के उपन्यास या नवकांत बरुवा की कविताएं पढ़कर तरोताजा होते हैं। हिंदी में तो ज्ञानपीठ प्राप्त साहित्यकार को भी टीवी वाले पहचानने से इनकार कर देते हैं। हिंदी की युवा पीढ़ी में दोयम दर्जे के अंग्रेजी उपन्यास मूल अंग्रेजी में या हिंदी अनुवाद के रूप मेंलोकप्रिय हैं"
जवाब देंहटाएंहीरू दा के निधन पर रिंगानियाजी के संस्मरण मे हिन्दी भाषी टॉपर्स से किसी ने भी हिन्दी साहित्य की तो क्या हिन्दी भाषा की चर्चा तक नही की। मैने तो हिन्दी भाषी टॉपर्स के पिता को यह कहते सुना कि हमारे बच्चों को तो हिन्दी लिखना तो क्या पढ़ना भी नही आता। यह कहते हुए पिता के चेहरे पर गौरव के भाव साफ परिलक्षित हो रहे थे। मै एक दिन हिन्दी भाषी परिवार मे गया था। उस परिवार मे एक बच्चा 9 वी कक्षा का छात्र था। उसको अपनी स्कूल मे गोस्वामी तुलसी दास पर पर एक प्रोजेक्ट दिया गया था बच्चे की मां पूछती है तुलसीदास वही थे जिनके लिखे भागोत पर गौशाला मे प्रवचन होते रहते हैं। मैने कहा वह नही। तलसीदास तो शर्मा स्वीट्स के सामने आज कल चाट बेचता है। अपने बच्चे को उसके पास ले जायें तो उचित होगा। वस्तुत रिंगानियाजी के लेखन के पीछे यही पीड़ा है। मै एक शिक्षक के रूप मे सेवा निवृत हूं इसलिए इस तरह के कई वाकये मेरे मामने रहते हैं। टिप्पणी के विस्तार की आशंका को ध्यान मे रखते हुए फिर कभी.
wah, Binod. Itni saral aur sundar Hindi mein tumne kavi ka poora chitra kheench diya.
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