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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

शनिवार, 21 फ़रवरी 2015

मातृभाषा दिवस और इंगलिशफोबिया

शनिवार यानी 21 फरवरी को विश्व मातृभाषा दिवस था। इसी दिन 1952 में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में उर्दू थोपे जाने के खिलाफ आंदोलन शुरू हुआ। पश्चिमी पाकिस्तान ने पूर्वी पाकिस्तान की बांग्ला अस्मिता को ठेस पहुंचाकर अच्छा नहीं किया और इसका परिणाम उसे 1971 में नए राष्ट्र बांग्लादेश के उदय के रूप में भुगतना पड़ा। इतिहास से सबक लेना चाहें तो बहुत सारे सबक हैं। हमारे लिए एक सबक यह है कि एक राष्ट्र एक भाषा का सिद्धांत सही नहीं है और यदि कोई इसे लेकर जिद ठानता है तो उसे अपने राष्ट्र के टुकड़े होने का परिणाम भी भुगतना पड़ सकता है। हमारे यहां बहुत सारे लोग केंद्र सरकार के कामकाज की एकमात्र भाषा हिंदी नहीं होने को लेकर समय-समय पर दुखड़ा रोते हैं और अब तक शासन में रह चुके सभी प्रधानमंत्रियों को गालियां देते हैं। लेकिन कोई भी यह नहीं देखता कि भाषाएं थोपने के दुष्परिणाम किसी राष्ट्र के लिए कितने गंभीर हो सकते हैं। लोगों का क्या है, वे फिर उन्हीं प्रधानमंत्रियों को इसलिए गाली देंगे कि उन्होंने सारे देश पर एक ही भाषा थोपने का प्रयास किया। फैसला हो जाने के बाद ज्ञान देना इस दुनिया में सबसे आसान काम है।

पिछले सप्ताह रूस से मेरे पास एक जन्म प्रमाणपत्र अनुवाद के लिए आया जो असमिया भाषा में था। इस प्रमाणपत्र को हाथ से भरा गया था और बहुत सारी लिखावटें स्पष्ट नहीं थीं क्योंकि वे घसीट कर लिखी गई थीं। ऐसे प्रमाणपत्र अनुवाद के लिए मेरे पास आते रहते हैं। ये अक्सर हाथ से लिखे रहते हैं और इनकी लिखाई स्पष्ट नहीं हुआ करतीं। इसी तरह शिक्षा संस्थानों के प्रमाणपत्र और शादी का प्रमाणपत्र या निकाहनामा हाथ से लिखा होता है और विदेश जाने वाले या वहां बस चुके भारतीयों को विभिन्न सरकारी कामों के लिए उनका अंग्रेजी में अनुवाद और प्रमाणीकरण करवाना होता है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि किसी के भी जीवन के लिए अति महत्वपूर्ण इन प्रमाणपत्रों को हम अंग्रेजी में ही जारी करें और उनमें हाथ से कुछ न लिखकर सबकुछ प्रिंट ही किया हुआ रहे। किसी को लगता हो कि इससे उसकी मातृभाषा पिछड़ रही है तो साथ में मातृभाषा को भी रखा जा सकता है।

प्रमाणपत्रों का अलग-अलग क्षेत्रीय भाषाओं में जारी किया जाना हमारे यहां चलने वाले मिथ्याचार को उजागर करता है। जब भाषाओं के गौरव को पुनःस्थापित करने की बात चलती है तब पहला हमला अंग्रेजी पर होता है। जो काम अंग्रेजी में हो रहा है उसे मातृभाषा में करने पर जोर दिया जाता है। अब जो निजी क्षेत्र है वहां तो कोई परिवर्तन आता नहीं, लेकिन सरकारें लोगों को झूठी दिलासा देने और अपने आपको मातृभाषा की सबसे बड़ी पुजारिन साबित करने के लिए अपने यहां से जारी होने वाले जन्म प्रमाणपत्र, शादी के प्रमाणपत्र और सरकारी शिक्षा संस्थानों से अंग्रेजी हटा देती है।

इस तथ्य से क्यों आंख चुराई जाती है कि आज विश्व के ज्ञान का अधिकतर हिस्सा अंग्रेजी में उपलब्ध है। यदि हमें अपनी मातृभाषा की सेवा करनी है तो सबसे पहले यह होना चाहिए कि इस उपलब्ध ज्ञान को अपनी मातृभाषा में लाया जाए। अंग्रेजी में उपलब्ध ज्ञान को आप मातृभाषा में ला देंगे तो कोई भी औसत बच्चा स्वाभाविक रूप से उस ज्ञान को अंग्रेजी की बजाय अपनी मातृभाषा में ही पढ़ना चाहेगा। इस काम को किए बिना सिर्फ अंग्रेजी को हटाने पर जोर देने का मतलब है अपने बच्चों को विश्व में उपलब्ध ज्ञान से वंचित करना। फिर हम देखते हैं कि कुछ बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं और कुछ अंग्रेजी बिलकुल नहीं जानते। इस तरह अंग्रेजी को हटाने को ही जो लोग समता लाने का एक प्रमुख उपाय मानते थे, उनलोगों ने एक नई तरह की और ज्यादा गंभीर विषमता पैदा कर दी।

इस बात को इस तरह समझा जा सकता हैः वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण दुनिया में सुख-सुविधा के जो साधन आज उपलब्ध हैं उनका फायदा सारे विश्व को मिल रहा है। मान लीजिए मोटर गाड़ी और बिजली का बल्ब यदि आज भी भारत में नहीं आया होता तो हम भौतिक प्रगति के मामले में आज कहां होते। अमेरिका जाकर कोई भी भारतीय आश्चर्य से कहता, अच्छा यहां इस तरह रोशनी होती है, यहां लोग इस तरह यात्रा करते हैं – यहां लालटेन कोई नहीं जलाता, यहां बैलगाड़ी किसी के पास नहीं है।

सौभाग्य से भौतिक साधनों के मामले में ऐसा नहीं है। दुनिया में कहीं भी कोई नई चीज निकली तो उसका लाभ सारी दुनिया को मिला। लेकिन ज्ञान के मामले में ऐसा नहीं है। क्योंकि बल्ब या मोटरगाड़ी का इस्तेमाल करने के लिए कुछ सीखना नहीं पड़ता लेकिन पुस्तकों में पड़े ज्ञान को पाने के लिए वह भाषा सीखना जरूरी है। जो बच्चा या युवक अंग्रेजी नहीं जानने के कारण नए-नए विचारों से वाकिफ नहीं है वह विचारों के मामले में बैलगाड़ी और लालटेन युग में ही है। कोई विचारवान बच्चा किसी विषय पर हो सकता है रात-दिन चिंतन कर रहा हो और अच्छी पुस्तकों की तलाश में हो। लेकिन उसे उसकी भाषा में उस विषय पर पुस्तकें मिलती नहीं। आज के युग के सर्वज्ञानी बाबा गूगल की सहायता भी उसके लिए व्यर्थ है क्योंकि उसे खास अंग्रेजी नहीं आती। लेकिन हो सकता है जिस विषय पर वह चिंतन कर रहा है उस विषय पर पहले ही काफी चिंतन हो चुका हो। यह ऐसे ही है जैसे कोई बैलगाड़ी में सुधार करने या लालटेन को ज्यादा रोशनी देने वाला साधन बनाने में जुटा हो और उसे मालूम ही नहीं हो कि दुनिया के किसी हिस्से में मोटरगाड़ी आ चुकी है, और बिजली का बल्ब बन चुका है।



अब से कोई भी राजनीतिक नेता या समाज सुधारक या बुद्धिजीवी मातृभाषा के पक्ष में बोलते-बोलते अंग्रेजी के खिलाफ विषवमन करने लगे तो श्रोताओं को एक ही काम करना चाहिए। वे उनसे यह पूछें कि क्या उन्होंने अपनी संतान को ऐसे स्कूल में भर्ती करा रखा है जहां अंग्रेजी बिलकुल नहीं सिखाई जाती। आप देखेंगे कि निन्यानवे फीसदी लोगों के बच्चे ऐसी स्कूलों में पढ़ते हैं जहां अच्छी अंग्रेजी भी सिखाई जाती है।

4 टिप्‍पणियां:

  1. नेहरूजी ने चेष्टा की थी एक बार देश में हिंदी लादने की---उस समय दक्षिण भारत में जो बबाल उठा था उसका असर अभी तक देखा जा सकता है चेन्नई शहर में -- लोग हिंदी जानते हुए भी जबाब नहीं देते ---अंग्रेजी में बोलिए जबाब मिलेगा। पर रिगानियाँ यह भी ज़रा सोचिए ---देश के गौरव के लिए एक राष्ट्रीय भाषा तो होनी चाहिए। हाँ यह ठीक है.. अंग्रेजी का पढाना जरूरी होना चाहिए। ऐसा भी नहीं होना चाहिए जो आजकल Eng.Medium School से निकले बच्चों का हो रहा है ---आप उनसे हिंदी लिखवा लीजिए व् पढवा लीजिये मालुम पड़ जाएगा--- किस तरह लिखते है वह कितनी तेजी से पढ़ते है.

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  2. बहुत ही सुंदर और सार्थक रचना।

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  3. प्रिय महाशय,
    आपका निबंध पढ़के मुझे बहुत आच्छा लगा। मैं आपसे बिलकुल सहमत हूँ कि जो कोई भी ज्ञान मार्ग आपनाना चाहते हैं, तो उसे अंग्रेजी का ज्ञान होना अत्यावश्यक हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात जो आपने कही हैं वह यह कि बिज्ञान बिदेशी होने पर भी उसे हम आपनाने में ज़रा भी संकोच नहीं करते हैं, क्योकि वह फायदेमंद जो हैं। तो फायदे के लिए अंग्रेजी क्यो नहीं?

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