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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

मंगलवार, 24 मई 2016

असम में राजनीति के साइड इफेक्ट्स

असम ने भारतीय जनता पार्टी को अभूतपूर्व जीत दिलाकर एक चक्कर पूरा कर लिया है। यह चक्कर जय आई असम से शुरू हुआ और अब भारत माता की जय तक आकर पूरा हुआ है। जय आई असम का मतलब होता है असम माता की जय। असमिया साहित्य में इस नारे या वाक्य की उपस्थिति काफी पहले से है। ज्योतिप्रसाद अगरवाला की कविता से लेकर भूपेन हजारिका के गीतों तक जय आई असम की उपस्थिति हम पाते हैं। लेकिन यह नारा सबसे अधिक लोकप्रिय हुआ 1979 में जब असम के लोगों ने असमिया भाषा और संस्कृति को बचाने के लिए एक जबरदस्त आंदोलन छेड़ा था। इस असमिया डर कि पड़ोसी बांग्लादेश के कारण असम की भाषा और संस्कृति बस कुछ ही दिनों की मेहमान है 1979 में लोगों पर इस कदर हावी हो गया कि उसकी परिणति एक जबरदस्त आंदोलन में हुई। उसी आंदोलन की उपज आज की असम गण परिषद और प्रफुल्ल कुमार महंत हैं।

एक बात गौर करने लायक है कि इस जबरदस्त जनजागरण के बाद 1985 में जो पहला चुनाव हुआ उसमें जनजागरण का नेतृत्व करने वाली शक्ति असम गण परिषद (पार्टी आंदोलन के बाद बनी थी) को इतनी अधिक सीटें नहीं मिली थीं जितनी इस बार भारतीय जनता पार्टी और उसकी सहयोगी असम गण परिषद और बोड़ो पीपुल्स फ्रंट को मिली हैं। हमारा मानना है कि 1985 में असम में रहने वाले गैर-असमिया हिंदुओं तथा जनजातीय समुदायों ने असम गण परिषद का साथ नहीं दिया था जिसके कारण उसे असमिया राष्ट्रवादी आंधी के बीच भी एक-एक सीट के लिए संघर्ष करना पड़ा था। लेकिन इस बार भारतीय जनता पार्टी को इन दोनों समुदायों का भी पूरा समर्थन मिला। इसी की परिणति यह रही है कि पहली बार के लिए असम में किसी चुनावपूर्व गठबंधन को इतनी अधिक सीटें मिल पाईं। मतदान के पैटर्न में आए इस बदलाव को ही हमने जय आई असम से भारत माता की जय तक की यात्रा कहा है।

1985 का चुनाव असमिया पहचान को बचाने के मुद्दे पर लड़ा गया था। पड़ोस में बांग्लादेश के होने और वहां से आने वाले लोगों की सतत धारा के कारण यह मुद्दा काफी पहले से असम में होने वाले किसी भी विमर्श के केंद्र में रहा है। स्वाधीनता के पहले के लेखन में भी हम देखते हैं कि इस मुद्दे का काफी असर था। लेकिन चुनाव में शायद पहली बार 1985 में ही इस मुद्दे की केंद्रीय उपस्थिति रही। इसके बाद मुख्यमंत्री बने प्रफुल्ल कुमार महंत की नाकामयाबियों के कारण लोगों में निराशा फैली। इस निराशा का परिणाम दो तरह से सामने आया। राजनीति से पहचान का मुद्दा गायब हो गया। लोगों को लगने लगा कि अब शायद असमिया भाषा और संस्कृति को बचाने के लिए कुछ नहीं हो सकता। दूसरी ओर, उग्र विचारधारा के एक वर्ग ने अल्फा के माध्यम से अपने विचारों को अभिव्यक्त किया। उनका मानना था कि भारत के हिस्से के रूप में रहकर बांग्लादेशियों के खतरे से हम अपने आपको सुरक्षित नहीं कर सकते। हमें पूर्वोत्तर के दूसरे राज्यों के साथ मिलकर अपना अलग देश बनाना चाहिए। किसी समय असम में इस विचारधारा के समर्थक लोगों की अच्छी खासी संख्या थी। यह वह दौर था जब असम भारत माता की जय के ठीक विपरीत छोर पर खड़ा था।

असम की छवि उस विद्रोही युवक की थी जिसे हर किसी से शिकायत थी। वह अपनी समस्या से सिर्फ अपने बूते पर निपट लेना चाहता था। यह मानसिकता 1979 के असम आंदोलन से शुरू हुई थी। गैर-असमियाभाषी समुदायों के समर्थन की उस आंदोलन में आकांक्षा तो थी, लेकिन उसके दिल में उसके लिए कोई मूल्य नहीं था। यह समर्थन उसे सिर्फ अपने ऊपर लगने वाले संकीर्णता के आरोपों से छुटकारा पाने के लिए चाहिए था। उस दौर के राजनीतिज्ञों ने जय आई असम और भारत माता की जय को दो विपरीत ध्रुवों पर खड़ा कर दिया था। जब जय आई असम के नारे लगते तो चाय बागान के मजदूरों को यह डर सताता कि यह कहीं हमें वापस झारखंड और उड़ीसा भेजने के लिए तो नहीं है। बोड़ो जैसी जनजातियों को डर लगता कि यह कहीं हमारी भाषा को खत्म करने के लिए तो नहीं है।

1979 से शुरू हुआ असमिया पहचान का आंदोलन हालांकि 1985 में समाप्त हो गया लेकिन उसके पीछे काम करने वाली विचारधारा आगे भी जारी रही। यह विचारधारा अपने उग्र से उग्रतम दौर को देख चुकी है और असम उसकी परिणतियों को झेल चुका है। ऐसा भी दौर आया जब उग्रवाद के विरुद्ध चले सैन्य अभियान को लेखकों और पत्रकारों ने असम पर भारत के हमले के रूप में दर्शाने की कोशिश की थी। इस तरह असमिया पहचान को बचाए रखने की जद्दोजहद 1990 के बाद या तो उग्रवादियों के हाथ में चली गई या उसकी आग मंद पड़ गई। आम राजनीति से यह गायब हो गई। लेकिन पिछले करीब एक दशक से हम देखते हैं कि असमिया पहचान को बचाने की यह अकुलाहट फिर से असमिया जनमानस में दिखाई देने लगी। इसका एक कारण बदरुद्दीन अजमल के नेतृत्व में एक ऐसी पार्टी का असम में उत्थान होना था जिसका नेता जमीयत उलेमा ए हिंद जैसे शुद्ध रूप से धर्म आधारित संगठन के भी बड़े पद पर था। लोग आपसी बातचीत में यह चर्चा करने लगे कि क्या बदरुद्दीन अजमल एक दिन असम के मुख्यमंत्री बन जाएंगे। यह किसी व्यक्ति विशेष के विरुद्ध विद्वेष की अभिव्यक्ति नहीं थी बल्कि असम का राजनीतिक नेतृत्व असमियाभाषी समुदाय के हाथ से हमेशा के लिए छिन जाने की उस आंशका के सही होने के कगार पर आने की पीड़ा थी जिसके प्रति स्वाधीनता से पहले के बुद्धिजीवियों ने भी आगाह किया था।

इस समय असम गण परिषद और इसके नेता प्रफुल्ल कुमार महंत की साख कैसी थी इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अखिस असम छात्र संघ ने प्रफुल्ल कुमार महंत का सार्वजनिक स्थानों पर बहिष्कार करने का आह्वान कर रखा था। महंत असमिया समुदाय के लिए असहनीय हो गए थे क्योंकि उन्होंने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में दर्जनों अल्फा उग्रवादियों के नेताओं के परिवार वालों का सफाया करवा दिया था। लोग अल्फा का समर्थन नहीं करते थे लेकिन रात के अंधेरे में नकाबपोश हत्यारे आएं और निरीह परिवार वालों का कत्ल कर जाएं यह भी लोगों के लिए अस्वीकार्य था।

ऐसे ही समय में खाली स्थान को भरने के लिए भाजपा राजनीतिक दृश्यपटल पर आई। भाजपा का असम में काफी पहले से काम चल रहा था। असम के चाय बगीचों में जिन्हें हाल तक कांग्रेस का गढ़ कहा जाता था भाजपा ने चुपचाप काम किया और बगीचे के कई पीढ़ियों से असम में रहने वाले आदिवासी मूल के मजदूरों को कांग्रेस से विमुख कर दिया। जिन समुदायों को असम गण परिषद अपने उत्कर्ष के दिनों में भी अपने साथ नहीं कर पाई वे समुदाय बड़ी आसानी से भाजपा के साथ आ गए। इनमें बंगाली हिंदुओं का नाम लिया जा सकता है क्योंकि पूर्वी पाकिस्तान या बांग्लादेश से आने वाले लोगों हिंदुओं को भारत में शरणार्थी का दर्जा देने का ऐलान भाजपा ने ही किया है। इसकी अस्सी और नब्बे के दशक के उन दिनों से तुलना की जानी चाहिए जब असमिया राष्ट्रवाद का मतलब ही बंगाली हिंदुओं का विरोध करना था।

पिछले दो-तीन सालों से साफ लगने लगा था कि असम में अब मौका मिलते ही लोग भाजपा को सत्ता सौंप देंगे। इसका संकेत पालिका चुनावों और दो साल पहले हुए लोकसभा चुनावों में मिल चुका था। इसका कारण कांग्रेस का दूसरा विकल्प न होना तो था ही, असमिया समुदाय को यह भी लगने लगा कि उसकी पहचान की लड़ाई भारत माता की जय कहकर अधिक प्रभावी ढंग से लड़ी जा सकती है। किसी भी चुनाव के बाद समाज में कटुता फैलने के उदाहरण कई हैं लेकिन असम में हमें यह संभावना दिख रही है कि इन चुनावों के बाद समाज के विभिन्न हिस्सों में एकता बढ़ेगी। धार्मिक आधार पर चुनावों के पहले ध्रुवीकरण निःसंदेह हुआ है लेकिन असमिया समुदाय स्वाभाव से सांप्रदायिक नहीं है इसलिए एक उम्मीद भी है। दूसरी ओर, विगत वर्षों में असम को कई स्तरों पर ध्रुवीकरण के कटु अनुभव से गुजरना पड़ा है। उच्च वर्ण बनाम जनजातीय ध्रुवीकरण, असमिया बनाम गैर-असमिया ध्रुवीकरण जैसे ध्रुवीकरण समाज के लिए घातक तो रहे ही हैं, असमिया पहचान को सुरक्षित करने के एजेंडा को आगे ले जाने में भी सहायक नहीं हुए हैं। असम में भाजपा सरकार के आने के बाद यदि मूल असमिया समुदाय में यह भावना प्रबल होती है कि हमें अपनी समस्याओं का हल जनजातीय समुदायों, गैर-असमियाभाषी समुदायों, चाय बगीचा मजदूर समुदाय और केंद्र सरकार के सहयोग के साथ करना है, तो इसे राजनीति का अच्छा साइड इफेक्ट ही कहा जाएगा।

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