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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

शनिवार, 3 जनवरी 2015

पहले दिन का विषाद और असमिया भाषा से दूरियां



यह 1974 की बात होगी जब मैंने पहली बार राजस्थान की धरती पर पैर रखा था। मैंने अब तक दो ही बार मुख्य रूप से राजस्थान की यात्राएं की हैं। हमारे परिवार में बच्चे के बाल पहली बार राजस्थान जाकर अपने ईष्टदेवता के सामने कटवाने का नियम है। इसे हम लोग जड़ूला कहते हैं। तब तक मेरी उम्र 13 साल हो चुकी थी और मेरे बाल कटवाए नहीं गए थे। इससे दिक्कत तो हुई लेकिन फायदा यह हुआ कि जब मैं पहली बार राजस्थान गया तब तक चीजों को समझने और याद रखने लायक हो चुका था। अब भी वो अल्ल सुबह उठकर ऊंटगाड़ी में बिस्तर (सोड़िए) बिछाकर आसपास के गांवों की यात्रा करने का मनोरम दृश्य याद है। एक दृश्य - सामने से आ रही एक ऊंटगाड़ी भी बांई ओर से आ रही थी। हमारी ऊंटगाड़ी भी बांई ओर से जा रही थी। जब उसे रास्ता देने के लिए हमारी गाड़ी दाएं हुई तो वो भी दाएं हो गई। यह खेल दो-तीन दफे चला। गांव वाले बाएं और दाएं का नियम जानते ही नहीं थे। रेगिस्तान की निष्कलुष भोर में गांववासियों का यह भोलापन मिलकर उसे एक अनुपम ही रंग दे रहा था।

दूसरी बार राजस्थान की यात्रा करीब दस साल पहले हुई। मेरी ही तरह इस बार मेरे बच्चे के बाल कटवाने। मैं पिछली बार जैसी मनोरम यात्रा को लेकर अति उत्साहित था। इस बार हमने एक जीप कर ली। रास्ते भी ऐसे हो गए थे जिन पर जीप चल सके। जीप वाला फर्र-फर्र कर हमें हर जगह ले गया और करीब सात में से छह मंदिरों की यात्रा एक ही दिन में पूरी करवा दी। इस यात्रा में पिछली बार तीन-चार दिन लग गए थे। लेकिन पिछली बार जैसा मजा आया था उसका एक शतांश भी इस बार नहीं आया। पेट्रोल और डीजल से चलने वाले वाहन परिवेश में धुंआ फैला रहे थे। मुझे गुवाहाटी, सुजानगढ़, डीडवाना और कांकरोली में कोई फर्क नजर नहीं आया। गुवाहाटी में तो फिर भी पांव से चलने वाले रिक्शे अभी हैं लेकिन राजस्थान में तो सभी रिक्शे डीजल से चलने वाले हो गए हैं। वे बेहद शोर करते हैं। एक पीढ़ी ऐसी है जिसे कम भीड़ वाले रास्तों और रास्तों पर सहनीय शोर के बारे में कुछ मालूम ही नहीं है। जिस तरह बहुत से लोगों को असली जर्दा, असली दूध, असली मसालों के बारे में कुछ भी पता नहीं।

नववर्ष किसने किस तरह मनाया होगा। सारे भारतवर्ष में इसका भी एक पैटर्न बन गया है। लगभग हर जगह ही कुछ मोटरसाइकिल सवार अपने पिकनिक स्थल पर पहुंचने के लिए किसी ट्रक से होड़ करने के दौरान दुर्घटनाग्रस्त हुए होंगे। कुछ कार चालक नियम तोड़कर सामने से आते किसी वाहन से टकराते-टकराते बचे होंगे। और उनमें से कुछ सचमुच टकरा गए होंगे। लगभग हर शहर के बाहर किसी नदी-तालाब के किनारे पिकनिक मनाने गए कुछ लोगों में कुछ लोग तैरना नहीं जानते हुए नदी-तालाब में उतरे होंगे। और उनमें कुछ लोग डूबते-डूबते बचे होंगे। और उनमें से कुछ लोगों को उनके साथी बचा नहीं पाए होंगे।

क्या मैं बेवजह डर पैदा कर रहा हूं। ऐसी बात नहीं है। आप 2 जनवरी का अखबार उठाकर देखें। कम-से-कम सात लोगों ने छोटे से असम में इन्हीं तरह के कारणों से अपनी जान गंवाई और अपने साथियों के लिए 1 जनवरी को एक मनहूस दिन में तब्दील कर दिया। वाहनों का बढ़ना प्रगति की निशानी है। एक स्तर तक वाहन बढ़ते जाएंगे। फिर एक दौर आएगा जब बहुत अधिक पैसे वाले लोग पेट्रोल-डीजल से चलने वाले वाहनों की जगह साइकिल जैसे वाहन को पसंद करने लगेंगे। तब उनकी देखादेखी हो सकता है साइकिल चलाना एक क्रेज हो जाए। यह सब कब होगा कहना मुश्किल है। लेकिन जब तक साइकिलें वापस आएंगी तब तक के लिए क्या हम नियमों के अनुसार नहीं चल सकते। प्रगति हर निशानी के साथ कुछ नियम भी चले आते हैं। उनका यदि पालन नहीं करें तो प्रगति ही दुर्गति में बदल जाती है।

‘हमारी” युवा पीढ़ी

जो लोग असम के बाहर से आकर यहां रह रहे हैं और जिनकी दो-दो पीढ़ियों का जन्म यहीं हुआ है और जो बात-बात में यहीं के होने का दावा करते हैं उनका असमिया भाषा के साथ कोई गहरा रिश्ता नहीं बन पाया था, लेकिन क्या उनकी नई पीढ़ी का ही स्थानीय भाषा के साथ कोई रिश्ता बन पाया है। मुझे लगता है कि नई पीढ़ी तो और भी अधिक असमिया भाषा से दूर है। एक मित्र ने कहा कि भाषा क्या है, सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम ही तो है। आप जैसे भी हो अपनी बात किसी को समझा पाते हैं तो और क्या चाहिए। लेकिन भाषा के साथ एक पूरा साझा इतिहास, एक संस्कृति जुड़ी होती है। जो युवा असमिया भाषा के साथ नहीं जुड़ा होगा, वह असमिया साहित्य के साथ भी जुड़ा नहीं होगा, वह असमिया नाटक और फिल्म से भी जुड़ा नहीं होगा, उसे असमिया संगीत से भी (हालांकि संगीत की कोई भाषा नहीं होती) कोई सरोकार नहीं होगा। और वह असमिया मानसिकता से भी दूर होगा। तो क्या जिन लोगों के पुरखे यहां सिर्फ रोजगार के लिए आए थे और इस तरह रहते थे जैसे कोई धर्मशाला में रहता है, तो नई पीढ़ी भी उस मानसिकता से उबर नहीं पाई है? जब हम हमारी पड़ताल को जरा गहरे में ले जाते हैं और देखते हैं कि असम जैसे प्रदेश में बाहर से कौन लोग आए? जिन जातियों के लोग आए उन्हें क्या अपने प्रदेश में भाषा, साहित्य, संगीत जैसी (बेकार की) चीजों से बहुत लगाव है। तो हम पाते हैं उन्हें अपने उस प्रदेश की भाषा से भी कोई वैसा लगाव नहीं है, वह चाहे हिंदी भाषा हो चाहे कोई और।


जब हम देखते हैं कि असम जैसे राज्य में पुस्तकों को लेकर कोई चर्चा हो, या टीवी पर कोई कार्यक्रम हो, सिनेमा को लेकर कोई विचारगोष्ठी हो, या नाटक पर कोई वर्कशाप हो, किसी नृत्य की कार्यशाला हो, या पत्रकारिता ही हो – हर जगह मुख्यतः मुख्यधारा के असमिया समुदाय का ही बोलबाला रहता है। फिर यह ख्याल आता है कि इन क्षेत्रों में जहां पैसे नहीं हैं या कम पैसे हैं दूसरे लोग आते कहां हैं। फिर यदि हम किसी की उपेक्षा करने का आरोप लगाएं तो यह गलत होगा। पिछले कुछ अरसे से बाहर से आए ऐसे एक समुदाय के लोगों में राजनीति में आने के लिए काफी जद्दोजहद देखने को मिली। जैसे व्यापार में आए वैसे ही ये लोग राजनीति में आना चाहते हैं। आखिर मलाई तो राजनीति में ही है। राजनीति भी तो एक व्यापार ही है। तो फिर क्यों नहीं आएं हम राजनीति में। लेकिन बिना समाज से जुड़े, बिना स्थानीय भाषा को प्यार किए, बिना स्थानीय संस्कृति का आदर किए – की जाने वाली यह राजनीति किस तरह सिर्फ पैसा कमाने और सिर्फ अपने समुदाय की मुखियागिरी करने वाली राजनीति होगी यह तो पहले से ही साफ है।

5 टिप्‍पणियां:

  1. प्रमोद शाह, कोलकाता की टिप्पणी
    विनोद जी!हम जिस युग में जी रहे हैं वह भोग-काल है।आज पैसा या देह-सुख को छोड़कर और किसी भी चीज में कोई आकर्षण नहीं रह गया है।बुद्धि,मन या आत्म-विकास के बातें अर्थ-हीन सी हो गयी है। मनुष्य और पशु में अंतर बहुत काम होता जा रहा है।

    जहाँ तक भाषा सीखने या जानने का सवाल है,मेरा यह मानना है कि आज हर भारतीय को ठीक से संस्कारित,सभ्य व गतिशील होने के लिए चार भाषाओं की जानकारी आवश्यक है। आप उनमें प्रवीण हों यह जरूरी नहीं।वे चार भाषाएँ हैं --अपनी मात्र-भाषा,हिंदी,अंग्रेज़ी और स्थानीय भाषा।

    जो यह कहते हैं कि भाषा केवल अभिव्यक्ति का माध्यम है,उन्हें न तो यह है पता है कि भाषा क्या है और न उसे अभिव्यक्ति के विभिन्न आयामों का पता है। जो बिगड़े हुए गंदे माहौल में रहते है,अभिव्यक्त तो वे भी करते हैं।जो कम अध्ययनशील होता है,उसकी अभिव्यक्ति अलग होगी।भाषा और अभिव्यक्ति हमारे संस्कार,हमारे अध्ययन,हमारे इतिहास,हमारी संस्कृति,हमारे विकास,हमारी संवेदनशीलता,हमारे चिंतन,प्रेरणा-शक्ति,जीवन-रहस्य और न जाने किस-किस का प्रतीक है।

    अपने यहाँ शब्द को ब्रह्म कहा गया है। खैर बड़ा गहरा विषय है यह। आपकी चिंता सही है।

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  2. रिंगानियाजी, आपरी बात सौळै आना खरी है। आपां डीजल रै इण धूंअे रै गोट सागै आधुनिकता री आंधी दौड़ में भटक रैया हां। आसाम अर राजस्थान दोवां में आज घणौ फरक कोनी रैयो। ऊंट गाडा अर ऊंट अबै विदेसी सैलाणियां नैं रिझावण रा साधन बणग्या है। अठै भी अबै छोटा-छोटा कस्बां अर गांवा तकात में मूंघी मूंघी गाडयां लहरा रैयी है, अर हरैक गांव रै सड़क सूं जुड़यां पछै डीजल सूं चालण वाळा आटो रिक्शा अठै री मखमल जैड़ी ऊजळ रेत नैं मटमैली करण में कोर्इ पाछ कोनी राख रैया। आ ही गत भासा अर संस्कृति री हुय रैयी है। प्रमोद शाह जी रौ पडूतर घणौ सांवठौ लाग्यौ, वां पैली ठौड़ मायड़ भासा नैं दीवी है। दूजी बात राजनीति री तो जठै आप राजनीति कर रैया हो, उठै री भासा संस्कृति सूं तो जुड़ाव राखणौ ही पड़ेला। आपरी बात खरी है कै राजनीति भी वौपार बणगी है। आजकाले ढाळो ही इण भांत रौ है, कै सगळां नैं सफलता रौ शार्टकट इण में ही लाधै। छेवट में ही आ ही कैवणौ चावूं कै जिण री खावो बाजरी उण री बजावो हाजरी। आदरजोग ज्योती प्रसाद जी अग्रवाला अर चन्द्र प्रकाश जी अग्रवाला असमिया जणखै मांय आपरी जिक्की छाप छोडी उण मुकाम तांर्इ आज तकात दूजौ मारवाड़ी क्यूं कोनी पूग सक्यौ? औ सवाल विचारजोग है। थलवा अर बाहिरोर मानू रै फरक रै मरम नैं मारवाड़ी कद समझेला? म्हनैं आदरजोग रामचन्द्रजी मालपाणी री अै औळयां हरमैस चैते आवै कै मोर्इ अन्यौ अखमियो नहोय। जि मानुवै आजी हमाक बाहिरोर कोय, तेवूं हमाके दुर्इ खो बरस आगोत कन्नोज परा आइसिले, आरू आमी दुर्इ खो बरस पाछोत मारवाड़ परा। आ बौत लूंठी बात कैर्इ मालपाणीजी, जिक्की हरैक मारवाड़ी नैं गोखणी चार्इजै।

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  3. हाल ही मे मैं ८६ वर्षीय असमिया सज्जन डा० शरद दत्त से उनकी अस्वस्थता पर मिलने वर्षों बाद उनके घर गई । मुझे देखते ही उनका पहला वाक्य था " गुलाघाटोर सुवाली , मोरानोर सुवाली , एई जे इमरान धुनिया अखमिया कोय "। उन्हे मैं याद थी, और याद थी उन्हे बीस पचीस वर्षों पहले अपनी बेटी की कही बात " बाबा, इतनी सुन्दर असमिया तो मैं भी नहीं बोल सकती ! " बरसों बाद भी उस सज्जन ने मेरी असमिया बातचीत को याद रखा, और शायद मुझे याद रखने का भी वह एक मुख्य कारण था।

    विनोद जी , भाषा संस्कृति से जुड़ी युवा पीढ़ी के बारे में आपकी चिन्ता उचित ही है। युवा पीढ़ी वो है जिसे हमने जन्म दिया है। भाषा संस्कृति के प्रति उनकी उपेक्षा अत्यन्त दुख का कारण है । पर यह हमें सोचने पर विवश करता है कि इस पीढ़ी को संस्कार देने में हम कहीं चूक तो नहीं गये ? तकनीकी ऊँचाइयों को छूने वाली युवा पीढ़ी वैश्विकरण की दौड़ में शायद मैदान मार ले लेकिन सांस्कृतिक विरासत को अपनाने में कही पीछे रह गई है ,एेसा आभास होता है ।

    भाषा सिर्फ़ अभिव्यक्ति का माध्यम है , यह बहुत सीमित सोच है । जिस क्षेत्र में आप पैदा हुये, पले बढ़े उस क्षेत्र की भाषा को अपनाना आपको वहाँ के स्थानीय जन जीवन के साथ जोड़ने के साथ साथ स्थानीय लोगों की नज़रों में आपके लिये अपनायत पैदा करता है । इस सोच को आम जनता तक पहुँचाने व नई पीढ़ी को स्थानीय भाषा संस्कृति से जोड़ने के प्रयास भी हमें ही करने होगे । आशा करती हूँ नया साल इस ओर नई उपलब्धियों की ऊँचाइयाँ छूयेगा ।

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