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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

शनिवार, 31 जनवरी 2015

ट्रेन टू बांग्लादेश (3)

ढाका विश्वविद्यालय छात्र संघ के कार्यालय में बने
म्यूजियम में शोहराब हसन के साथ
सोनार गांव ढाका के चंद बड़े होटलों में से है। वहां चट्टग्राम विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रोफेसर अब्दुल मन्नान और भोरेर कागज के संपादक श्यामल दत्त के साथ मुलाकात तय थी। श्यामल दत्त बांग्लादेश में किसी अखबार के एकमात्र हिंदू संपादक हैं। रंगून में ही इन दोनों विद्वानों से मुलाकात हो गई थी और मुलाकात दोस्ती में बदल गई। श्यामल रोज रात को एक चैनल के टाक शो में एंकरिंग करते हैं। इस तरह काफी व्यस्ततापूर्ण रहती हैं उनकी दिनचर्या। मैंने कहा कि हमें तो कभी एक दिन भी टीवी पर बोलना होता है तो हम दिन भर उसी के बारे में सोचकर हलकान होते रहते हैं। ढाका में कुल 27 चैनल हैं। मन्नान साहब को भी आज टाक शो में जाना था। मैंने बांग्लादेश की आर्थिक स्थिति के बारे में कुछ प्रश्न दागे। अब्दुल मन्नान ने बताया कि पहले बांग्लादेश के अखबारों में खबरें निकला करती थीं कि अमुक जगह ठंड के कारण लोग मर गए। अब ऐसी खबरें नहीं आतीं। अब बदन पर बिना पर्याप्त कपड़े वाला आदमी शायद ही सड़कों पर दिखाई दे। इसी तरह कम से कम शहर में सभी के पांवों में चप्पलें थीं। आपके यहां घरों में काम करने वालियों का क्या वेतन है? अब्दुल मन्नान बताते हैं कि अलग-अलग काम के लिए अलग-अलग बाइयां आती हैं। जैसे बर्तन मांजने के लिए अलग, और कपड़े धोने के लिए अलग। वैसे काम करने वाली बाई पाना आसान नहीं है। और सिल्हट में? सिल्हट में तो सभी लोग धनी हैं – वे कुछ मजाक में कहते हैं। श्यामल भी साथ देते हैं। सिल्हट के तो हर घर का आदमी विदेश में काम करता है। श्यामल का घर चट्टगांव की तरफ है। कहते हैं वहां उनकी पुश्तैनी जमीन बंटाई पर लेने वाला किसान नहीं मिलता।

ढाका में घूमने के बाद मेरी यह समझ बनी कि वहां दैनिक मजदूरी करने वाले की न्यूनतम दर भारतीय रुपयों में 400 है। हमने एक जगह मोबाइल में सिम भरवाया। मोबाइल मैकेनिक से आम मजदूरी करने वालों की मजदूरी के बारे में पूछा तो उसने कहा – सोर्बोनिम्नो पांच सो टाका। यानी बांग्लादेश में भारतीय रुपयों में 400 के नीचे काम करने वाला नहीं मिलता। अब्दुल मन्नान ने भी इसकी पुष्टि की और कहा कि यदि टाका पांच सौ नहीं भी है तो टाका 400 ही पकड़िए। इसके नीचे आपको मजदूर कहीं नहीं मिलेगा। बात भारत में होने वाली घुसपैठ पर आ गई। हमें लगा कि इस समय बांग्लादेश से आर्थिक कारणों से शायद ही बड़े पैमाने पर घुसपैठ होती होगी। लेकिन इसकी और अधिक पड़ताल करने की जरूरत है। असम में किसी भी राजनीतिक विमर्श की शुरुआत और अंत घुसपैठ के मुद्दे से ही होती है। लेकिन ढाका में ऐसी कोई बात नहीं है। वहां राजनीतिक चर्चा अधिकतर इस बात के इर्द-गिर्द घूमती है कि क्या देश में शांति आ पाएगी। क्या पाकिस्तान समर्थक जिहादवादी शक्तियां मजबूत हो जाएंगी, क्या दो बेगमों के बीच कभी आपसी बातचीत होगी भी या नहीं, क्या बांग्लादेश कभी अमरीका के सामने सर उठाकर बातचीत कर पाएगा, क्या भारत की दखलंदाजी से बांग्लादेश को निजात मिल पाएगी? हमें लगा कि ढाका में उस विमर्श के बारे में कोई ज्यादा जानकारी नहीं है जिसमें आरोप के स्वर में कहा जाता है कि बांग्लादेश के मजदूर बड़ी संख्या में चोरी-छुपे भारत में आ जाते हैं।

एक प्रश्न मेरे दिमाग में काफी दिनों से घूम रहा था। बांग्लादेश में अमरीका का रवैया ऐसा है जिससे लगता है कि वह विपक्षी बीएनपी की चेयरपर्सन खालिदा जिया का समर्थन करता है। पिछले साल 5 जनवरी को बिना विपक्ष की भागीदारी के जो चुनाव हुए उसका अमरीका ने अंत तक समर्थन नहीं किया था। अमरीका के ही कारण यूरोपियन यूनियन ने भी उन चुनावों को मान्यता देने में आनाकानी की थी। यही रवैया ब्रिटेन का था। लेकिन जब भारत ने चुनावों और इसके नतीजों को मान्यता दे दी तो एक के बाद एक देश चुनावों को मान्यता देने के लिए आगे आते रहे। भारत के पीछे-पीछे रूस आया, फिर चीन, फिर यूरोपियन यूनियन। शेख हसीना की बांह मरोड़ने का अमरीकी कौशल काम नहीं आया। अंततः अमरीका और ब्रिटेन को भी नई सरकार को मान्यता देनी पड़ी। जिस सवाल का जवाब मैं खोज रहा था वह यह था कि बीएनपी हमेशा जमाते इस्लामी की मदद लेती रही है जबकि शेख हसीना की अवामी लीग सच्चे मायने में सेकुलर है। फिर भी क्यों अमरीका बीएनपी का समर्थन करता है।

ढाका विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर शांतनु मजूमदार ने लंदन में सेकुलरिज्म पर ही डाक्टरेट की है। हम उनके साथ काफी देर तक विश्वविद्यालय में मधु के कैंटीन में बैठे। विश्वविद्यालय परिसर में मधु के कैंटीन का अपना एक इतिहास है। 1971 के मुक्तियुद्ध के दौरान इस कैंटीन के मालिक मधु को गोली मार दी गई थी। अब कैंटीन उनका लड़का चलाता है। काफी पुराने कैंटीन में साधारण कदकाठी वाले मधु की तस्वीर लगी हुई है। अमरीका और शेख हसीना के बीच की तनातनी को लेकर शांतनु दो-एक कारण बताते हैं जोकि व्यक्तिगत संबंधों को लेकर थे। ढाका में अमरीका के राजदूत मोजेना के साथ शेख हसीना के संबंध कभी सामान्य नहीं रहे। यहां तक कि शेख हसीना ने कई वर्षों तक उन्हें मिलने का समय तक नहीं दिया। यह अपनी नाराजगी व्यक्त करने का उनका तरीका था। उधर मोजेना राजदूत के रूप में काफी सक्रिय रहे। उन्होंने देश के सभी जिलों की यात्राएं की और वहां बैठकें आदि करते रहे। हालांकि यह रिपोर्ट लिखने के बाद तक अमरीका ने अपना राजदूत बदल दिया है। दूसरा कारण शांतनु के अनुसार नोबेल पुरस्कार विजेता यूनुस थे। शेख हसीना के प्रधानमंत्री बनने से पहले दो साल तक बांग्लादेश में सेना समर्थित सरकार का शासन था। उस दौरान इस विचार पर काफी सोचा गया कि आपस में लड़ने वाली दोनों बेगमों को विदेश भेज दिया जाए, क्योंकि कुछ लोगों का मत था कि दोनों बेगमों के रहते बांग्लादेश की राजनीति में सुधार नहीं आ सकता। कई प्रभावशाली देशों के राजदूतों के साथ भी इस पर विचार-विमर्श किया गया। राजदूतों ने शेख हसीना के साथ विचार-विमर्श किया। हसीना को पता चल गया कि इस विचार के प्रतिपादक यूनुस ही हैं। उसके बाद से उनके साथ यूनुस के संबंध कभी सामान्य नहीं हुए।

शेख हसीना ने प्रधानमंत्री बनते ही यूनुस के खिलाफ प्रचार अभियान को हरी झंडी दिखा दी। लेकिन देश में भले न हो लेकिन पश्चिमी देशों में यूनुस की अच्छी पूछ है। तत्कालीन अमरीकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन के साथ भी उनके संबंध अच्छे थे। अपने विरुद्ध दुष्प्रचार रुकवाने के लिए यूनुस ने क्लिंटन को कहा होगा और क्लिंटन ने शेख हसीना से फोन पर इसके लिए अनुरोध किया। कहते हैं कि दोनों के बीच चालीस मिनट तक बात हुई, गरमा-गरमी भी हुई, लेकिन हसीना टस से मस नहीं हुईं। और इसके बाद से ही अमरीका बढ़-चढ़कर बीएनपी का समर्थन करने लगा। जो भी हो, इन खबरों से बांग्लादेश के अंदर शेख हसीना के कद में इजाफा ही हुआ है। लोग चर्चा करते हैं कि चलो कोई तो ऐसा है जो अमरीका के साथ सर उठाकर स्वाभिमान के साथ बात कर सकता है। यह अलग बात है कि कुछ लोग हसीना को भारत की पिट्ठू बताते हैं।

हसीना ने भारत की काफी मदद की। खासकर आज असम में जो शांति है उसका नब्बे फीसदी श्रेय उन्हीं को दिया जाना चाहिए। क्योंकि उन्होंने उल्फा के नेताओं को पकड़कर भारत के हवाले कर दिया था। इसी तरह बोड़ो उग्रवादियों के कई नेताओं और मणिपुर अलगाववादियों के नेता राजकुमार मेघेन को भी उन्होंने भारत के हवाले कर दिया। ऐसा करने से देश के अंदर उनकी भारत समर्थक छवि बन गई और किसी भी राजनेता के लिए यह अच्छी बात नहीं होती कि उसे किसी अन्य देश का समर्थक बताया जाए। क्योंकि समर्थक को पिट्ठू या कठपुतली कहने में ज्यादा देर नहीं लगती। भारत के साथ भूमि के लेनदेन वाले समझौते की जब भारतीय संसद में पुष्टि नहीं हुई थी तो अपने देश में उनकी काफी किरकिरी हुई। अखबारों में जो कुछ लिखा जाता है आम जनता पर उसका प्रभाव पड़ता ही है। ढाका विश्वविद्यालय के छात्र संघ के कार्यालय में 1971 के मुक्तियुद्ध की स्मृतियों को लेकर यह म्यूजियम बनाया हुआ है। म्यूजियम के संचालक प्रथम आलो के हमारे मित्र शोहराब हसन को पहचानते हैं। शोहराब संचालक महोदय को बताते हैं कि ये इंडिया से आए हमारे मित्र हैं। संचालक महोदय बात ही बात में कह बैठते हैं हम भारत की जितनी कद्र करते हैं भारत तो हमारी नहीं करता। शोहराब भाई दूसरी ओर देखने लगते हैं।


3 टिप्‍पणियां:

  1. आपने अपनी बांगलादेश की यात्रा का गहराई से अध्ययन किया है और अधिक से अधिक जानकारी हमें देने की की कोशिश की है फिर बहुत सी बातें ऐसा लगता है किआपने छोङ दी हों। जैसे सीमा की अदला बदली की बात को लेकर वंहा की मीडिया का क्या विचार है,बुद्धिजीवियों के क्या मतामत हैं एवम आम जनता क्या कहती है। हमारे यंहा की स्थिति तो आपको पता ही है क्या इसके विपरीत वंहा भी ऐसा कुछ हुुुआ था जानने की उत्सुकता है। छात्र संघ के किसी नेता से भी क्या आपने बातचीत की थी।

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  2. भारत और बांग्लादेश के आपसी संबंधों को सही तरीके से समझाती और वहां की आर्थिक स्थिाती को करीब से बतलाती बेहतरीन पोस्ट है आपकी ! भारत में तो इतनी तनख्वाह नहीं मिलती जितनी बांग्ला देश में है फिर भी घुसपैठ ? कोई विशेस कारण तो नहीं ?

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