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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

बुधवार, 27 जून 2012

प्रमोद शाह की लंबी टिप्पणी : मारवाड़ी संतुलन रखने में चूक गया



विनोद रिंगानिया का लेख "मारवाड़ी को सिर्फ सहन किया जाता है'- विचार हेतु कई बिंदु छोड़ जाता है। वास्तव में इस महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा करने से पूर्व कुछ बुनियादी बातों पर चर्चा जरूरी है। यहां यह स्पष्ट कर देना भी उचित समझता हूं कि हर व्यक्ति या समाज की अपनी-अपनी खूबियां और कमियां हुआ करती हैं। उन पर एक संतुलित विवेचना होनी चाहिए, बिना किसी पूर्वाग्रह के।

पहले हम हमारे देश के आर्थिक मनोविज्ञान को समझने की कोशिश करते हैं, तब मारवाड़ी समाज पर आते हैं। हमारा देश मूलत: एक आध्यात्मिक देश है। यहां भोग को नहीं त्याग को महत्व दिया गया है, जो ॠषि-समाज, आत्मा की गहराइयों तक जा चुका था, उसके लिए भौतिकता को प्रधानता देना कोई बड़ी बात नहीं थी। उन्होंने धन पर बहुत चिंतन किया और सदियों तक विचार-विमर्श के पश्चात उसकी सीमा तय कर दी। उन्होंने कहीं भी भोग को नकारा नहीं है। उसके मानदंड तय कर दिए। उन्होंने भोग को अध्यात्म यानी धर्म को आधार दे दिया और सूत्र दिया-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। यानी धर्म को सर्वोपरि रखते हुए उसको प्रथम स्थान दिया। उसे आधार मानकर अर्थ अर्जित करे और उससे कामनाएं पूरी करते हुए मोक्ष को प्राप्त करे।

हर सभ्यता और संस्कृति को उत्थान-पतन का दौर देखना पड़ता है। इसने भी देखा। प्राकृतिक प्रकोप, महायुद्ध, विवेकहीन आस्था, ज्ञान, एकाधिकार, विशिष्टता और अहंकार इत्यादि अनेक कारणों से देश गुलाम रहा। अंधेरा छा गया, अकर्मण्यता बढ़ी, गरीबी और अशिक्षा ने जकड़ लिया। अनेक भ्रांतियों ने जन्म लिया। एक भ्रांति यह भी फैल गई कि धन व्यर्थ की चीज है। वह यह भूल गया कि किस स्तर आ रहा धन व्यर्थ हो जाता है। वह धन को कोसता रहा, साथ ही लक्ष्मी-पूजा करता रहा। लेकिन पैसे की आलोचना से उसकी जरूरत खत्म नहीं हो जाती। दुनिया का शायद ही कोई व्यक्ति हो जो गरीब रहना चाहता है। जो सही मायने में अध्यात्म में गहरे उतर गए हैं, साधना में लीन हैं, मैं उनकी बात नहीं कर रहा हूं। मगर सवालों का सवाल यह है कि धन की प्राप्ति कैसे करें? उसमें बड़ा आकर्षण है, अत: आदमी गुनाह करने से भी परहेज नहीं करता है। ऐसे लोग हैं जिनकी चाह की कोई सीमा नहीं, तो ऐसे व्यक्ति भी हैं जो केवल अपनी जरूरत पूरी हो जाए, बस उतना चाहते हैं। ऐसे भी व्यक्ति हैं जो धन पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं और ऐसे भी हैं जो अपने सिद्धांतों पर कायम रहकर कमाना चाहते हैं। ऐसे लोग भी हैं जो इस भावना से धन इकट्‌ठा किए जा रहे हैं-सब कुछ लिख दे मेरे नाम, भूखों मर जाए देश तमाम या अब वतन आजाद है-लूट सके सो लूट-तो दूसरी ओर ऐसे व्यक्ति भी हैं जो सादा जीवन उच्च विचार में विश्वास रखते हुए कबीर के इस दोहे को चरितार्थ करते हुए जीते हैं-

"साईं इतना दीजिए, जामे कुटुम्ब समाय।

मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाय।।

वास्तव में जीवन में संतुलन की आवश्यकता है, इसके लिए धन, साहित्य, संगीत, कला, धर्म, अध्यात्म सभी चाहिए वरना जीवन एकांगी हो जाएगा।

अब उन बिंदुओं पर चर्चा करते हैं, जिन्हें विनोदजी ने अपने उपरोक्त वर्णित लेख में उठाया है।

कम्युनिस्ट व्यवस्था की बात की गई है। न जाने कितने साम्यवादी विचारधारावालाओं को धन के इर्द-गिर्द मंडराते देखा है। उन सारे भोग-विलासों के प्रति उनका रुझान रहा है, जिनके लिए वे पूंजीपतियों को जी-भर कर कोसते रहे हैं। साम्यवाद, समाजवाद, प्रगतिशीलता मात्र नारे साबित हुए।

कालांतर में ऐसा घट गया कि एक हीनभावना हमारे अंदर घर कर गई। हमने धन को आदर देना बंद कर दिया। अत: व्यापारी भी अपने आपको व्यापारी कहने में संकोच करने लगा। एक उद्योगपति या व्यापारी मंच पर बैठा है तो उसके श्रम, व्यापारिक कौशल, लगन, दक्षता, प्रबंधन, कला का सम्मान होना चाहिए, लेकिन जो उसका पावना है, हम उसे सही रूप में दे नहीं पाते। हो सकता है कि लोग यह मान बैठे हैं कि उद्योगपति यदि श्रम करता है या किसी को नौकरी देता है तो अपना लाभ प्राप्त करने के लिए। लोगों के दिमाग में यह भी बैठ गया है कि पैसा केवल गलत तरीके से ही कमाया जाता है। आम आदमी यह भी सोचता है कि पैसे वाला अपनी मेहनत का फल तो भोग ही रहा है, सारे सुख प्राप्त कर रहा है, अब वह त्यागियों वाला आदर क्यों चाहता है? विवाहों-त्यौहारों इत्यादि अवसरों पर किए जाने वाले आडंबर आग में घी का काम करते हैं।

यूं आम आदमी आदर उसे ही देता है जो निःस्वार्थ भाव से सर्वजन हिताय के कार्य करता है। जो धनपति विनम्र हैं, दान देते हैं, रहमदिल हैं - उनका आदर आज भी किया जाता है, क्योंकि वह पैसे का सदुपयोग कर रहा है, त्याग कर रहा है। भारत के इतिहास में किसी धनपति का नाम नहीं आता है, भामाशाह को छोड़कर। वह इसलिए कि उन्होंने धन का त्याग किया था। धन की ओर भागने वाले व्यापारी, नेता, पत्रकार, प्रशासक, वकील, शिक्षक साधू के बारे में आम आदमी अच्छी राय नहीं रखता है।

धन और धनपति को आदर न मिलने की व्याख्या करते हुए विनोद रिंगानिया ने लिखा है "ऐसा उस मानसिक प्रदूषण के कारण होता है, जो सदियों से हमारे दिमाग में भरता गया है। भारत में साहित्य में, नाटक में, गीतों में कहीं भी पैसे कमाने को एक महत्वपूर्ण काम नहीं बताया गया है।' मैं उनसे सहमत नहीं हूं। जरा विस्तार में कहना चाहूंगा कि यह हमारे मानसिक प्रदूषण का नहीं, सदियों के आध्यात्मिक चिंतन का परिणाम है। यह सही है कि पिछले हजार वर्ष के अंधकार ने हमारे मन में धन के प्रति एक अन्यथा भाव पैदा कर दिया, लेकिन यह भारत की मूल भावना नहीं है। जब उसने देखा कि धन कमाने वाले अध्यात्म के विरुद्ध काम कर रहे हैं, ऐय्याशियां कर रहे हैं, तो धन के प्रति आदर और कम हुआ। हमें सामंती और नवाबी युग नहीं भूलना चाहिए। उसकी गहराई में आज भी कहीं अध्यात्म बैठा है, वही उसकी प्राण नाड़ी है।

जरा गहराई में उतरें तो पाएंगे कि हमारे देश ने उस पेशे को व्यावसायिक नहीं होने दिया, जिसमें व्यक्ति खुद उत्पादन बन जाए। व्यक्ति के शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास करने वाले का दृष्टिकोण व्यावसायिक नहीं होना चाहिए। यही वजह है कि वैद्य (शारीरिक विकास), शिक्षक (बौद्धिक विकास), कलाकार (मानसिक विकास) और योग गुरु या धर्मगुरु (आध्यात्मिक विकास) अपनी विद्या बेचते नहीं थे, जरूरत भर लेते थे। उनके गुरु उनसे कहते थे कि तुम यदि इनको बेचोगे तो मेरे द्वारा दी गई विद्या भूल जाओगे। और आज ये चारों क्षेत्र बड़े से बड़ा उद्योग बन गए हैं। उच्च इलाज, शिक्षा, संगीत और योग तेजी से आम आदमी की पहुंच के बाहर हो रहे हैं। आज व्यक्ति प्रोडक्ट हो गया है। हर आदमी एक-दूसरे को बेच रहा है, खरीद रहा है। हमारे चिंतकों ने धन की सीमा को भी समझ लिया था, उस सीमा तक उसे आदर भी दिया है। एक व्यक्ति धन के बूते पर हो सकता है कि ओलंपिक में चुन लिया जाए या एक्टर बन जाए या डाक्टर बन जाए, मगर अच्छा खेलना, अच्छी एक्टिंग करना या इलाज करना तभी संभव होगा, जब वह उसके काबिल हो, यानी उसने सीख लिया हो। गीतकार भारतभूषण कहते हैं-

"बिकता है सिंदूर हाट में,

नहीं सुहाग बिका करता।

वीणा चाहे जहां खरीदो,

किंतु न राग बिका करता।

यदि सूनापन मिट जाता तो

नभ दे देता चांद-सितारे।

कलियां हो नीलाम न उनका

गंध-पराग बिका करता है।'

साहित्य में धन के पक्ष में भी लिखा गया है। "मृच्छकटिक (शूद्रक) में लिखा है- निर्धनता सर्वापदामास्पदम्‌' (निर्धनता सब विपत्तियों का घर है)। "नीतिदिष्टिका' (सुंदर पांड्य) में लिखा है- "द्रव्येण सर्वे वशा:' (धन के सभी वशीभूत होते हैं) धन को साधन माना है, साध्य नहीं। लक्ष्मी, विष्णु के पांव दबाती हैं, उनके सर पर नहीं बैठतीं। ॠषि-चिंतन ने धनपति होने को कहा है, धन का गुलाम होने को नहीं। क्या यह उचित होगा कि धन कमाने वालों पर कसीदे लिखे जाएंं। लिखे हैं कवियों और शायरों ने कसीदे- पर पछताए ही। अमीर खुसरो, मिर्जा गालिब और अन्य सामंती युग के कवियों और शायरों को पढ़ें। इस देश में धन के गीत गाए हैं, मगर उन्होंने धन चांदी के सिक्कों को नहीं राम को माना है। मीरा ने नाचते हुए गाया- "पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।' मीरा को क्या करना चाहिए था? क्या वह महलों में रहकर यह गाती कि "पायो जी मैंने लाख टका धन पायो' या "पायो जी मैंने गहना को सुख पायो।' अब "राम' क्या है इसकी व्याख्या की आवश्यकता मैं नहीं समझता, बाबा तुलसी ने बात खत्म कर दी है। जैनियों के सारे तीर्थंकर राजा थे- निकल गए लंगोटी पहनकर, यह काम सिद्धार्थ ने किया, त्याग दिया कपिलवस्तु का राज्य। आज भी ऐसे लोग हैं, जो धन-वैभव छोड़कर सही मायने में संन्यास ले चुके हैं। साहित्य, नाटक या गीत किसके गुण गाए? उनको जिन्होंने सारा राज-पाट निस्सार समझकर छोड़ दिया या उनके जिन्होंने छीना-झपटी करके धन की सत्ता हासिल की है? ॠषि-प्रज्ञा ने सदैव त्याग को महत्व दिया है। छीना-झपटी को नहीं। यही वजह है कि यहां का हर व्यक्ति अपना गोत्र ॠषियों में खोजता है और पश्चिम के लोग अपना उद्‌गम राज्य में खोजते हंैं।

वैसे बता दूं कि भारतीय साहित्य, नाटक या गीत धन की महत्ता से भरे पड़े हैं मगर उसका स्वरूप कुछ और है। गृहस्थाश्रम का महत्व पढ़ें। पहले यह निर्देश दिया गया है कि एक गृहस्थ को धन किस तरह अर्जित करना चाहिए, फिर यह बताया गया है कि उसका उपयोग करके गृहस्थ धर्म कैसे निभाएं और ऐसा करने वालों को संन्यासियों से भी ऊंचा बताया गया है।

संस्कृत साहित्य में व्यापारियों को श्रेष्ठी कहकर संबोधित किया गया है, क्योंकि वह पूरे समाज को देखता है। वही श्रेष्ठी कालांतर में सेठ कहलाया। यह बात भी सोचने की है कि श्रेष्ठी का वह सम्मान गुम क्यों हो गया? सेठ शब्द विकृत क्यों हो गया? व्यापारियों और उद्योगपतियों ने देश के विकास में बहुत बड़ा योगदान दिया है। उनकी महत भूमिका रही है, इस हेतु वह पूरे सम्मान के हकदार हैं। मगर यहां के सदियों के साहित्य, नाटकों और गीतों पर मानसिक प्रदूषण का आरोप नहीं लगाया जा सकता।

उपरोक्त वर्णित लेख में विनोदजी ने गरीबी और संतोष का जिक्र भी एक ही सांस में किया है। इस देश ने कभी भी गरीबी को महिमामंडित नहीं किया। गरीब रहते हुए स्वाभिमान, सहनशक्ति, संघर्ष और आत्मबल कायम रखना मुश्किल हो जाता है, जिन्होंने इनका दामन नहीं छोड़ा, उनकी महिमा गाई गई है। और जहां संतोष का प्रश्न है, यह तो भगवान का वरदान है, जो नसीब वालों को प्राप्त होता है। अमीर और फकीर में यही फर्क है। फकीर हर हाल में संतुष्ट है, अमीर हर स्थिति में असंतुष्ट है। उसका दामन नहीं भरता कभी। कवि शैलेंद्र ने कहा है-

"बहुत दिया देने वाले ने तुझको, आंचल ही न समाए तो क्या कीजै'।
तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। कुछ लोगों ने राजनीतिक लाभ उठाने के लिए आम आदमी की कुंठाओं और भ्रांतियों का सहारा लेकर उनके दिमाग को प्रदूषित किया। उन्हें समझाया गया कि देखो इसने हवेली बना ली, यह पूंजीपति है, इसने तुम्हारा शोषण किया है। अब कोई उनसे यह पूछे कि इनके पास क्या था जो उसका शोषण किया। केवल एक लेबर था, जिसको वो पूंजी में नहीं बदल सके। पूंजीपति ने बदल दिया तो शोषण किया। हां, लेबर को पूरा पैसा नहीं मिलता है तो शोषण है, उसके लिए बात होनी चाहिए, न्याय मिलना चाहिए। पं. जवाहर लाल नेहरू जैसे व्यक्तित्व ने एक जगह कहा था कि मुझे प्रोफिट शब्द से नफरत है। उसका बड़ा करारा जवाब स्व. जेआरडी टाटा ने दिया था। जहां तक भ्रष्ट तरीके से पैसा कमाने का सवाल है, उसमें व्यवसायी ही नहीं, बल्कि पत्रकार हो या कलाकार, प्रशासन हो या राजनीतिज्ञ, डाक्टर हो या अन्य कोई, वह आम आदमी की आलोचना का विषय बनता है। बेईमानी या चोरी का पैसा कमाने वाले कभी भी आदर्श नहीं हो सकते।

मारवाड़ी के संबंध में हमें एक बात याद रखनी होगी कि वे अपने-अपने स्थानों से धन कमाने आए थे, साहित्य रचने या पत्रकारिता करने नहीं। बरसों तक घरवालों को पता नहीं होता था कि उसके परिवार का सदस्य जिंदा है या मर गया। वह अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा था। वैसे ही जैसे आज से करीब तीस वर्ष पहले जो भारतीय अमरीका गए थे वे अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे थे। उन्होंने अब दूसरे क्षेत्रों में रुचि लेनी आरंभ की है। वैसे ही मारवाड़ी कई दशकों तक खुद को स्थापित करने में मितव्ययता से काम लेता रहा। हालांकि मक्खीचूस और कंजूस जैसे विशेषण उस पर लगते रहे। फिर भी उसने अपनी कमाई का एक हिस्सा जनसेवा के कार्य में बराबर खर्च किया। उसकी स्थिति यह नहीं थी कि वह रचनात्मक क्षेत्रों में जाने की सोचे। वह जहां भी गया स्थानीय लोगों के लाभार्थ काम करता रहा, कभी बाधक नहीं बना। उसने इस अंदाज में काम किया-

"आने से हमारे न परेशान हो गुंचों

हम बाग लगाते हैं, उजाड़ा नहीं करते'

व्यापार या उद्योग, वितरण या उत्पादन से ताल्लुक रखता है, जबकि साहित्य, कला, संगीत सृजनात्मकता से संबंध रखते हैं। दोनों का महत्व है। उत्पादन की आयु छोटी होती है, सृजन की लंबी- जरूरी दोनों है। इस समाज ने उत्पादन पर तो बहुत ध्यान दिया, लेकिन सृजन को आदर देने में उदासीन रहा। दोनों में एक संतुलन नहीं बना पाया।

मारवाड़ी समाज के पास प्रचुर मेधा व प्रतिभाएं हैं। लेकिन उन्हें वांछित वातावरण नहीं मिल पा रहा है। यह काम गुजराती समाज ने सफलता के साथ किया है। मारवाड़ी समाज ने अर्थ-केंद्रित इतने रीति-रिवाज कर दिए कि इस समाज के व्यक्ति का पूरा जीवन अर्थ अर्जित करने में ही लग जाता है। यहां महान प्रतिभाओं को विकसित होने का अवसर ही नहीं मिल पाता है। और यदि कोई प्रतिभा इसके बावजूद प्रकाश में आ पाती है तो समाज उसे महत्व नहीं देता। फलस्वरूप अन्य समाज इस समाज को प्रतिभाहीन समझने लगता है। इसकी छवि एक ऐसे समाज की बन गई, मानो जिसे रचनात्मकता से कोई मतलब ही न हो, जो कि सही नहीं है।

इस समाज को सम्मान मिले उसके लिए प्रतिभाओं को प्रकाश में लाना होगा। उन्हें प्रोत्साहित करना होगा। हमारी समृद्ध विरासत को अन्य समाजों के समक्ष प्रस्तुत करना होगा। अब तक इसका एकांगी रूप ही सामने आया है। लिखते हुए अफसोस होता है कि इस समाज के अखिल भारतीय स्तर के संगठन भी समाज की विरासत उजागर करने में कोई रुचि नहीं रखते हैं। उन्हें आत्ममंथन की जरूरत है।

डा. कृष्ण बिहारी मिश्र ने "हिंदी पत्रकारिता-राजस्थानी आयोजन की कृति भूमिका में इस समाज के योगदान को स्वर्णाक्षरों में रेखांकित किया है। इससे मारवाड़ी समाज के पत्रकारिता से संबंधित अनेक महत्वपूर्ण पहलू उजागर हुए।

मिश्रजी की नजर में मारवाड़ी समाज का अपनी प्रतिभाओं के प्रति क्या दृष्टिकोण है, उसके बारे में क्या लिखते है देखें। उन्होंने अपने दिवंगत विद्वान मित्र के संबंध में जो कि मारवाड़ी था, लिखा है - "विद्या ही मेरे मित्र (नाम नहीं दिया जा रहा है) का स्वधर्म था वणिक-कुल में जन्मे मेरे मित्र में वणिक-बुद्धि थी ही नहीं। उनकी नियति की यही विडंबना थी कि वणिक-लोक विद्या को नहीं, वित्त को उपलब्धि मानता है। बनिया बिरादरी में अकुशल व्यापारी का कोई मोल नहीं होता। मेरे मित्र, वाणिज्य विषयक अपने प्रयोग और प्रचेष्टा में कभी कृतकार्य नहीं हुए। यह उनकी विधर्म-साधना थी। और वणिक- समाज अपने धर्म के मुताबिक विद्या उपलब्धि को बहु मान देने को तैयार नहीं था। मगर विशिष्ट जगत से उन्होंने खास इज्जत कमाई थी, वह बड़ी धन-संपदा से नहीं खरीदी जा सकती। आंख हो तो उनकी श्रद्धांजलि सभा ने बड़े-बड़े धनपतियों की आंखें खोल दी होंगी कि परलोक संवारने की सटीक राह कौन-सी होती है। वे वणिक समाज के चरित्र को बारीकी से समझते थे... जहां जन्मे-पले थे, जिनके मुगालते की कांपती जमीन से भली प्रकार परिचित थे, वहां सांस पर निरंतर अवरोध रचने वाले समाज में सांस लेने को अभिशप्त थे (संवेदना के विविध आयाम प्र.सं. 255)

यदि ऐसा नहीं है तो राजस्थानी भाषा में महान गीतकार गजानन वर्मा चुपचाप क्यों चले जाते हैं(पिछले महीने दिवंगत हुए)? जी हां, वे ही गजानन वर्मा, जिनके गीत "पौ फाटी जद बोलण लागी, पांख पंखेरू पीपळ डाल'

"बाजरै की रोटी पोई फोफलिया रो सागजी' "मैं तो बाबल रे बागां री चीड़कली' या "पगड़ी सम्भाळ भई पगड़ी सम्भाळ' जैसे गीत सुन-सुन कर, गा-गा कर एक पीढ़ी बूढ़ी हो चुकी है। मारवाड़ी समाज के संगठन भी बेखबर हैं। खैर। उनसे यही उम्मीद थी।

अंत में एक बात और याद दिला दूं। यहूदी समाज भी 18वीं शताब्दी में व्यापारिक समाज ही था। हमारी जैसी ही स्थिति थी। मगर 19वीं शताब्दी में जागरण हुआ। सामाजिक व धार्मिक मान्यताओं में विवेकपूर्ण परिवर्तन किए तो एक ही सदी में मार्क्स (1818-1883), फ्रायड (1856-1939) और आइंस्टाइन (1879-1955) जैसे चिंतक और वैज्ञानिक पैदा हुए। तस्वीर ही बदल गई उस समाज की। आज दुनिया उसका लोहा मानती है।

अब यह आम मारवाड़ी का कर्तव्य हो जाता है कि वह आगे बढ़कर समाज में परिवर्तन लाए। एक संतुलन पैदा करे। इस समाज की संस्थाएं तो ऐसा करने में नाकामयाब रही हैं, उनसे कोई उम्मीद भी नहीं है। अतः अब आम आदमी को ही आगे आना होगा। फिर किसी विनोद रिंगानिया को यह लिखने की आवश्यकता नहीं होगी कि "मारवाड़ी को सिर्फ सहन किया जाता है' - उनका दर्द समझिए।

2 टिप्‍पणियां:

  1. प्रमोदजी, भाई विनोद रिंगानिया के लेख ‘मारवाड़ी को सिर्फ सहन किया जाता है’ पर आपकी प्रतिक्रिया ‘मारवाड़ी संतुलन रखने में चूक गया’ शीर्षक के तहत लिखे आपके विचार पढ़ कर लगा कि रतन शाह की वाणी मे जो ओज है वही ओज और अभिव्यक्ति की क्षमता आपकी लेखनी में भी मौजूद है और होना स्वाभाविक भी है। क्योंकि रक्त की साम्यता किसी न किसी रुप मे व्यक्त होती ही है। चूंकि मैं पूर्वोत्तर प्रदेशीय मारवाड़ी सम्मेलन (अब पूर्वोत्तर मारवाड़ी सम्मेलन ) से काफी समय तक जुड़ा रहा और रतनजी सम्मेलन और इसके युवा मंच के कई अधिवेशनों के अवसर पर असम आते रहे इसलिए उनको अनेक बार सुनने का अवसर मिलता रहा। लेकिन आपकी लेखन प्रतिभा से रू-ब-रू होने का पहली बार मौका मिला और पहली ही बार में आपकी लेखन शैली का कायल हो गया। हां, यह दीगर बात है कि श्री रिंगानिया के लेख के प्रसंग में लिखे गये आपके विचारों से मैं सहमत न भी हो सकूं।
    आपके लेखन में युवा अभिव्यक्ति की जो सुवास है उसकी मेरे प्रौढ़ लेखन से कृपया अपेक्षा न करें। आपके विचारों से मेरी जहां तक असहमति है उसके दो कारण हो सकते हैं। पहला, प्रौढ़ावस्था की अतीत हुई समझ जिसके बारे में गाहे बगाहे अनायास ही हम यह कह कर गर्व कर लिया करते हैं कि हमने जमाना देखा है, अतीत की रवानगी देखी है, हमसे कुछ सीखो। दूसरा, आधुनिक लेखन शैली की अनभिज्ञता।
    श्री रिंगानिया के लेख पर प्रतिक्रिया के रूप में लिखे आपके लेख से यदि एक-दो पाठ्यांशों को निकाल दिया जाए तो पूरे लेख मे कहीं से भी नहीं लगता कि ‘मारवाड़ी को सिर्फ सहन किया जाता है’ पर व्यक्त की गई यह कोई प्रतिक्रिया है।
    ‘मारवाड़ी संतुलन रखने में चूक गया’ शीर्षक को विस्तार देने के मकसद को पूरा करने के लिए आप अपने विचारों में, लगता है, इतने डूबते चले गये कि श्री रिंगानिया के लेख के शीर्षक ‘मारवाड़ी को सिर्फ सहन किया जाता है’ की पृष्ठभूमि को समझने में आपसे चूक हो गई। श्री रिंगानिया के विचारों की पृष्ठभूमि, मैं जहां तक सोचता हूं, भौतिकवाद पर आधारित है अध्यात्म पर नहीं। यह तो एक अलग विषय है जिसका संपर्क श्री रिंगानिया के उल्लेखित लेख की विषय-वस्तु मे कहीं परिलक्षित नहीं होता।
    मारवाड़ी को सिर्फ सहन किया जाता है की आत्मा वह नहीं जो आपके लेख की है। उसकी आत्मा है असम मे सदियों से रहने वाले मारवाड़ी समाज की वर्तमान स्थिति। इस संदर्भ में मुझे एक दो उदाहरण देने की अनुमति दें तो मेरी बात शायद अधिक स्पष्ट हो सकती है। धुबड़ी असम का एक जिला है। वहां के भाजपा जिलाध्यक्ष थे स्व. पन्नालाल ओसवाल। वहां तक तो उनको सहन किया गया। लेकिन विधानसभा के चुनाव में वे विजयी हो कर विधायक के रूप मे सम्मान पाने की स्थिति में आते लगे तो उनकी हत्या कर दी गई। जनता पार्टी के उत्थानकाल में असम के ही एक जिले गोलाघाट मे (जो कांग्रेस का गढ़ माना जाता था) पूर्वोत्तर प्रदेशीय मारवाड़ी सम्मेलन के भूतपूर्व अध्यक्ष मोहनलाल जालान ने जिले में पार्टी को मजबूत बना कर कांग्रेस को बुरी तरह हारने के मुकाम पर पहुंचा दिया। वहां तक उनको भी सहन किया गया। लेकिन जब निर्वाचन में उनके जीतने की उम्मीद बनती दिखलाई दी तो उनकी ही पार्टी के कार्यकर्ताओं ने उनके खिलाफ प्रचार कर उनको हराया और वे हारे भी तो सिर्फ 800 मतों से।
    आपका यह मानना बिल्कुल सही है कि मारवाड़ी अपने अपने घर से धन कमाने के लिए निकले थे, साहित्य रचने या पत्रकारिता करने नहीं आये। लेकिन जिस समय वे आये उस समय उनको एक मददगार के रूप मे देखा जाता था। उस समय उनको सहन करने के साथ-साथ उनका सम्मान भी किया जाता था। लेकिन आज स्थितियां बदल चुकी हैं।
    आपके विचारों से विनम्र असहमति के बावजूद आपकी लेखन शैली को सलाम। जब संपर्क बन ही गया है तो विचार-विमर्श होता रहेगा।
    नागेन्द्र शर्मा, गुवाहाटी

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