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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

गुरुवार, 29 जनवरी 2009

योगाभ्यास करने वाले एक धर्मपरायण मुसलमान के मन में यह दुविधा जगती है कि कहीं वह धर्मविरोधी कार्य तो नहीं कर रहा

यह अजीब विडंबना ही है कि योग को एक आम धार्मिक हिंदू अपने नियमित पूजा-पाठ का अंग नहीं मानता जबकि एक आम धार्मिक गैर हिंदू इसे एक हिंदू पद्धति मानकर इससे परहेज करता है। कम-से-कम गैर-हिंदू कट्टर धार्मिक गुरू तो यही चाहते हैं कि उनके अनुयायी इस पद्धति से दूर ही रहें। इसीलिए योग को लेकर जब-तब ऐसे विवाद उठते रहते हैं जो यह दिखाते हैं कि गैर-हिंदुओं में, खासकर मुसलमानों के एक वर्ग में, योग को लेकर कितनी दुविधा है। अभी इंडोनेशिया में फतवा जारी कर कहा गया है कि योग के कौन से हिस्से मुसलमानों के लिए जायज हैं और कौन से हिस्से नहीं। मलेशिया में इससे आगे बढ़कर वहां की राष्ट्रीय फतवा परिषद ने फतवा जारी किया है कि मुसलमानों को योग के हर रूप से दूर ही रहना चाहिए, इसके मंत्रों के उच्चारण की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती। इसके विपरीत भारत में देवबंद के दारुल उलूम ने एक समझौतावादी रुख अपनाते हुए ओम तथा दूसरे मंत्रों के उच्चारण से दूर रहते हुए योग को एक वर्जिश के रूप में ग्रहण करने की सलाह दी है।

योग को भारत का विश्व को अनुपम अवदान तो माना जा सकता है लेकिन इसे किसी भी दृष्टि से हिंदू पद्धति मानने का तुक समझ में नहीं आता। आम तौर पर गैर-हिंदुओं को ओम के उच्चारण पर आपत्ति होती है। शायद यह भारतीयों का ही दोष होगा कि उन्होंने योग के विभिन्न पहलुओं कोे सही तरीके से विश्व के सामने व्याख्यायित करते हुए नहीं रखा। ओम के बारे में सर्वमान्य धारणा यही है कि यह उस अदृश्य शक्ति का प्रतीक है जो इस ब्रह्मांड को संचालित कर रही है। हर धर्म में किसी न किसी रूप में ऐसी शक्ति की कल्पना की गई है। जहां ब्रह्मांड को कार्य-कारण संबंधों की अनंत श्रृंखला के द्वारा संचालित माना गया है वहां भी इसकी आराधना के लिए प्रतीकों का चुनाव किया गया है। जरूरी नहीं कि यह प्रतीक हमेशा ओम ही हो। योग गुरू स्वामी रामदेव अपने शिविरों में ठीक ही कहते हैं कि मुसलमान चाहें तो ओम की जगह अल्लाह शब्द का उच्चारण कर सकते हैं। यह उनलोगों को सही जवाब है जो आध्यात्मिकता के रस को छोड़कर उसके छिलके में ही अपने दिमाग को उलझाए रखते हैं।

इस्रायल में योग को दिन पर दिन लोकप्रियता हासिल हो रही है। अमरीका में करीब डेढ़ करोड़ लोग नियमित योगाभ्यास करते हैं। जाहिर है कि इनमें बहुसंख्यक गैर-हिंदू ही होंगे। योग को लेकर सबसे ज्यादा आपत्ति मुस्लिम धर्मावलंबियों को ही होती है तो इससे यह समझ में आता है कि मुस्लिम धर्म में आज भी व्यक्ति की आजादी को कम महत्त्व दिया जाता है। इस्लाम एक संगठित धर्म है और इसमें उलेमाओं के निर्देशानुसार चलने की परंपरा रही है। इस परंपरा का आज के जीवन मूल्यों के साथ कदम कदम पर टकराव होता है। आज व्यक्ति के पास जानकारी के बहुत सारे स्रोत हैं। उसका अन्य धार्मिक परंपराओं के साथ पहले की तुलना में अधिक आदान-प्रदान होता है।

इंडोनेशिया और मलेशिया में योग को लेकर सवाल उठे ही प्रचार माध्यमों के कारण हैं। पिछली सदी तक इन देशों में ये सवाल इसलिए नहीं उठे क्योंकि वहां के लोग योग के गुणों से परिचति नहीं थे। आज दृश्य-श्रव्य माध्यमों के कारण लोग घर बैठे योग के गुणों से परिचित हो रहे हैं, घर बैठे योगाभ्यास के तरीकों को जानकर उन्हें अपनी दिनचर्या में शामिल कर पा रहे हैं। इसीलिए एक धर्मपरायण मुसलमान के मन में यह सवाल उठ रहा है कि कहीं वह योगाभ्यास कर धर्मविरोधी कार्य तो नहीं कर रहा। कभी-कभी ऐसी दुविधाओं के समाधान का सर्वश्रेष्ठ तरीका उन्हें समय पर छोड़ देना होता है। उलेमा हर बात को बेहतर जानने का दावा नहीं कर सकते, हां वे ऐसा दावा कर स्वतंत्र ज्ञान के मार्ग में बाधा अवश्य बन सकते हैं।

1 टिप्पणी:

  1. aap ke es post se hriday vicharo ka lahar phir se hilore madne laga...ki ham dharmwaadi soch ko kab mita paayenge..kuchh darm ke thekedaaro ne jo nai pidhi me dharmwaadi jahar jo boi hai use kab kaise ubar paayenge....

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