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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

बुधवार, 31 दिसंबर 2008

पूर्वोत्तर के विद्रोहियों के दमन और इस्लामी आतंकवाद के खात्मे के मुद्दे पर हमें अपनी अपेक्षाओं को नियंत्रण में रखना चाहिए


बांग्लादेश के चुनाव नतीजों पर खुशी के एक से ज्यादा कारण हैं। सबसे बड़ा कारण तो यह है कि वहां चुनाव हुए और अंतर्राष्ट्रीय पर्यवेक्षकों ने इस बात की पुष्टि की है कि वे निष्पक्ष और प्रक्रियाओं का पालन करते हुए संपन्न हुए। भारत को छोड़कर दक्षिण एशिया के लगभग सभी देशों में जरा सा बहाना मिलते ही संविधान को ताक पर रख देने के रिकार्ड को देखते हुए भारत सहित बाकी दक्षिण एशियावासियों ने राहत की सांस ली है कि चलो बांग्लादेश में संवैधानिक प्रक्रिया का पालन हुआ। जब दो साल पहले सेना ने वहां कमान अपने हाथ में ले ली थी तब उसने कहा यही था कि देश में चुनाव लायक माहौल कायम करना ही उसका मकसद है।

लेकिन जिसके हाथ में सत्ता हो उसकी करनी भी कथनी जैसी ही होगी इसकी क्या गारंटी है। हालांकि बांग्लादेश के हालात भिन्न थे। वहां सेना को मजबूरन सत्ता अपने हाथ में लेनी पड़ी। इसीलिए उसने सीधे-सीधे सत्ता पर कब्जा नहीं जमाया बल्कि दूसरों के माध्यम से अपनी ताकत का इस्तेमाल करती रही।

दरअसल बांग्लादेशी सेना में सत्ता पर कब्जा करने को लेकर एकमत नहीं होना भी एक कारण रहा है कि जल्दी ही चुनाव का वक्त आ गया। बांग्लादेश में सही ढंग से चुनाव हो जाने के कारण आगे के लिए संवैधानिक प्रक्रिया का पालन होते रहने का रास्ता साफ हो गया है। राष्ट्रसंघ के पैसों से बनी मतदाता तालिकाओं में से करीब सवा करोड़ जाली नाम काटे गए। इससे भी चुनावों को निष्पक्ष बनाने में मदद मिली।

आपके पड़ोसी देश का शासक यदि सर्वसत्तासंपन्न न हो तो इससे आपका भी नुकसान ही होगा। पाकिस्तान में इस समय यही हो रहा है। कूटनीति के जानकार कहते हैं कि भारत सरकार को सेना के साथ सीधे बातचीत करनी चाहिए क्योंकि वहां की निर्वाचित सरकार के हाथ में असली ताकत नहीं है।

यह किस तरह संभव है पता नहीं, लेकिन इससे हम यह संतोष तो ले सकते हैं कि बांग्लादेश में ऐसी स्थिति नहीं आने वाली। यदि खालिदा जिया जीततीं तो भी नहीं। पड़ोस में यदि अराजकता हो, तो आपको केवल शब्दों की फुलझड़ियां मिल सकती हैं, काम के नाम पर कुछ मिलने वाला नहीं। इसलिए यह हमारे हित में है कि हमारे सभी पड़ोसी देशों में संवैधानिक प्रक्रिया से चुने गए सर्वसत्तासंपन्न शासक गद्दीनशीं हों।

हमारी खुशी का एक कारण यह भी है कि वहां ऐसा गठबंधन सत्ता में आया है जो कम-से-कम भारत विरोध के लिए नहीं जाना जाता। फिर भी भारत को कुछ समय तक अपनी अपेक्षाओं को नियंत्रण में रखना चाहिए। नवनिर्वाचित बांग्लादेश सरकार पर कुछ इस तरह दबाव नहीं डाला जाना चाहिए कि वहां की विपक्षी पार्टियां हसीना पर भारतपंथी होने का आरोप लगाने लग जाएं।

भारत अपने विशाल आकार के कारण नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका जैसे छोटे-छोटे पड़ोसियों के मन में एक खौफ पैदा करता है। इसलिए भारतीय कूटनीति का यह एक आवश्यक अंग है कि उसकी किसी भी बात से वहां के शासकों कोे अपनी जनता के सामने नीचा न देखना पड़े और ऐसा न लगे कि वे भारत से दब रहे हैं।

भारतीय मीडिया में शेख हसीना के आने के बाद इसलिए खुशी जताई जा रही है कि अब बांग्लादेश में पनाह ले रखे भारतीय विद्रोहियों के खिलाफ कार्रवाई की उम्मीद बनी है। लेकिन हमारा कहना है कि इस संबंध में अति उत्साहित होने से बचा जाना चाहिए। हमने देखा है कि असम और अरुणाचल प्रदेश से भी पूर्वोत्तर के विद्रोेही काफी समय तक अपनी गतिविधियां चलाते रहे हैं। इनके अड्डों को ध्वस्त करने में भारतीय सेना को काफी पसीना बहाना पड़ा है।

कहने का तात्पर्य यह है कि बांग्लादेश सरकार के चाहने भर से वहां से विद्रोहियों के अड्डे खत्म नहीं होने वाले। इसके लिए वहां की पुलिस और सेना को काफी लंबे समय तक आतंकवाद विरोेधी कार्रवाई चलानी पड़ेगी। यही बात इस्लामी आतंकवादियों के साथ है। इसमें ज्यादा मुश्किल इसलिए सामने आ सकती है कि ये आतंकवादी वहां के स्थानीय लोग हैं और वे आसानी से मानवाधिकारों के नाम पर या धर्म के नाम पर सहानुभूति बटोर सकते हैं।

इसलिए विद्रोहियों के दमन और आतंकवाद विरोधी कार्रवाई को लेकर हमें अपनी अपेक्षाओं को शुरू से ही नियंत्रण में रखना चाहिए और नई बांग्लादेश सरकार के साथ एक नइर् शुरुआत करने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए।

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