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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

रविवार, 8 फ़रवरी 2015

ट्रेन टू बांग्लादेश (4)

हम बांग्लादेश सवालों का पुलिंदा लेकर गए थे। एक सवाल काफी दिनों से मुझे परेशान किए हुए था। असम के लोग अच्छी बंग्ला नहीं बोल पाते। ऐसे में हमारे उल्फा के नेता कैसे इतने सालों तक ढाका में रह पाए। उन्हें आखिर लोगों के बीच बांग्लादेशी नागिरक बनकर छुपकर भी रहना था। इसका जवाब पाने के लिए हमें किसी को पूछना नहीं पड़ा। जवाब अपने आप मिल गया। ढाका में कम-से-कम छह तरह बंग्ला चलती है। हम जो टूटी-फूटी बंग्ला बोल रहे थे उसके बावजूद किसी ने हमसे यह नहीं पूछा कि आप किस देश से आए हैं। जबकि असम में आपकी असमिया में थोड़ा भी हेरफेर हो तो यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि आपकी मातृभाषा क्या है। इसी तरह कोलकाता में भी आपकी बंग्ला के उच्चारण में थोड़ा भी अंतर है तो बातचीत करने वाले के सामने आप कम-से-कम बंग्लाभाषी बनकर नहीं रह सकते। लेकिन बांग्लादेश में ऐसा नहीं है। हम धड़ल्ले से बंग्ला बोलते रहे और किसी ने हमसे कोई सवाल नहीं पूछा। दरअसल बंग्ला के कई रूप, जैसे सिल्हट और चट्टग्राम की बंग्ला, मानक बंग्ला से इतने भिन्न हैं कि कई बार कुछ समझ पाना भी मुश्किल हो जाता है। इसलिए ढाका में यदि कोई आपकी बंग्ला समझ नहीं पाता है तो सोचता है कि यह किसी ऐसे इलाके से आया होगा जहां इसी तरह की बंग्ला बोली जाती होगी। वह आपसे आपके गांव या जिले के बारे में पूछ सकता है। गांव को वहां देशेर बाड़ी कहा जाता है।

देशेर बाड़ी को लेकर ढाका में उल्फा के कार्यकर्ता के साथ एक मजेदार वाकया हुआ। एक बार जब उल्फा का एक कार्यकर्ता ऑटो में कहीं गया तो ऑटो वाले ने कहा, भाइया – आप तो बीबीसी की बंग्ला बोल रहे हैं। आप किस देश के हैं। इस पर उल्फा का कार्यकर्ता चौंक गया। चोर की दाढ़ी में तिनका। उसने कहा, अरे मियां मैं तो बांग्लादेश का ही हूं, तुम किस देश के हो। दरअसल देश से ऑटो वाले का तात्पर्य उसकी देशेर बाड़ी से था। यानी तुम किसी गांव या जिले के हो। बाद में उल्फा कार्यकर्ता को इसके बारे में पता चला तो वह अपनी नासमझी और अपने मन के अंदर के डर पर काफी हंसा। उल्फा के अध्यक्ष शुरुआत में अपने आपको श्रीमंगला जिले का बताते रहे और ढाका में ईसाई बनकर रहे। त्रिपुरा के पास के श्रीमंगला जिले में गारो जनजाति के काफी ईसाई लोग रहते हैं और वहां की बंग्ला भी अलग तरह की है इसलिए उनकी बंग्ला के उच्चारण को लेकर किसी को कोई संदेह नहीं होता था। बाद में चट्टग्राम जाने पर उन्होंने अपना नाम-पता सबकुछ बदल लिया और मुसलमान बनकर रहने लगे। क्योंकि चट्टग्राम में ईसाई आबादी नहीं के बराबर है, लिहाजा उनके पहचाने जाने का खतरा था। चट्टग्राम में उल्फा के अध्यक्ष अरविंद राजखोवा का नाम मिजानुर रहमान खान था।

प्रथम आलो के दफ्तर में कई पत्रकारों से फटाफट दोस्ती हो गई। तौफिक ने तुरंत फेसबुक पर मुझे फ्रेंडशिप रिक्वेस्ट भेज दी। पूर्व छात्र नेता तौफिक अब मंजे हुए पत्रकार हैं और अपने देश की स्थिति को लेकर उनकी चिंताएं फेसबुक के पृष्ठों पर विचारोत्तेजक बहस पैदा करती हैं। एक अन्य पत्रकार ने जब अपना नाम बताया तो मैंने कहा – पता है उल्फा के अध्यक्ष जब ढाका में छिपकर रहते थे तब उनका भी यही नाम था। दरअसल इस पत्रकार मित्र का नाम भी मिजानुर रहमान खान था। यह सुनकर उन्हें काफी मजा आया। मिजानुर कानूनी मामलों पर विशेष रूप से लिखते हैं। उल्फा के बांग्लादेश में कैद महासचिव अनूप चेतिया की वापसी के बारे में उनका मत था कि सरकार चाहे तो बिना प्रत्यावर्तन संधि के भी उन्हें भारत वापस भेज सकती है। मिजानुर अफसोस करते रहे कि बांग्लादेश और असम इतने पास होकर भी इतने दूर हैं। वे जनता के स्तर पर आपस में नजदीकियां लाने के तौर-तरीकों के बारे में बातचीत करते रहे। एक अन्य मित्र मशीरुल ने अपने रूस प्रवास के दौरान वहां साथ-साथ रहे गुवाहाटी के असमिया मित्र के संस्मरण सुनाए।

विपक्षी दलों के अवरोध के खत्म होने के आसार नहीं थे। ढाका में हालांकि किसी ने हमें डराया नहीं लेकिन शाम को जब टीवी के सामने बैठते तो अपने-आप डर हम पर हावी हो जाता। मोहाखाली में एक बस को जला दिया गया। अरे यहीं से तो हम दिन में गुजरे थे। यानी एक पल में कुछ भी हो सकता है। एक महीने बाद इन पंक्तियों के लिखे जाने तक भी बांग्लादेश में अवरोध खत्म नहीं हुआ है। बल्कि बीएनपी और जमाते इस्लामी की नृशंसता नए-नए रूपों में सामने आ रही है। त्रिपुरा बार्डर के पास कुमिल्ला में एक बस पर पेट्रोल बम फेंकने से उसमें सवार आठ यात्री जिंदा जल गए। इस घटना से खालिदा जिया को छोड़कर बाकी देश को झकझोर दिया है। विडंबना यह कि एक बीएनपी के पिता भी ऐसे ही एक हमले में अन्यत्र मारे गए। लेकिन बीएनपी सुप्रीमो खालिदा जिया टस से मस होने के लिए तैयार नहीं है। बोर्ड की परीक्षाओं के लिए भी उन्होंने अवरोध खत्म करने से इनकार कर दिया। इससे 14 लाख परीक्षार्थियों के लिए भी वे खलनायिका में परिणत हो गईं।



हमारे वहां रहने के दौरान बसें बंद थीं लेकिन ट्रेनें चल रही थीं। हमने तय किया कि अब घर चलने में ही भलाई है। अल्ल सुबह उठकर हम वापस विमानबंदर रेल स्टेशन पर आ गए। वहां की भीड़ देखकर दिल बैठने लगा। ट्रेनों के अंदर जितने लोग थे बाहर छतों पर भी उससे कम नहीं थे। टिकट तो जैसे-तैसे ले ली लेकिन ट्रेन आने पर उसमें चढ़ेंगे कैसे। फिर एक कुली दुलाल मियां की मदद ली। दुलाल मियां ने एक टीटी से बात की, “मामा, ये लोग इंडिया से आए हैं। इन्हें सीट दिलवा दें, ये आपको खुश कर देंगे।“ हमने दुलाल मियां के साथ फोटो सेशन किया। वापस वही कैंटीन में बैठकर यात्रा। एक पुलिस वाला जो गारो जनजाति का लगता था, बंग्ला के अपने विशेष लहजे में चिल्ला चिल्ला कर कुछ कह रहा था। सिराज मियां रेलवे कांट्रेक्टर के इस कैंटीन में तब तक तीन पुलिस वाले भी आ गए। घबराओ मत मियां बस तीन सीट लेंगे। उनकी पोस्टिंग चट्टग्राम कर दी गई थी। उनमें से एक अभी पिछले सप्ताह ही भारत और श्रीलंका की यात्रा करके लौटा था। अपने साथी को बता रहा था कि भारत की ट्रेनों में इस तरह पांच-छह फुट लंबी सीटें होती हैं और उनमें धुलाई किए बेडशीट और कंबल मिल जाते हैं। बस आप सोते-सोते यात्रा करते रहें। रास्ते में खबर आई कि आगे कहीं दुर्घटना हो गई है। लेकिन वह स्थान हमारी मंजिल अखौड़ा से आगे पड़ता था। चलो बच गए। शाम होने के पहले ही हम अखौड़ा उतर गए। प्लेटफार्म पर वही तीन किन्नर छलांगें लगाते, एक-दूसरे से होड़ करते जा रहे थे। पता नहीं ये लोग इतने बेफिक्र कैसे रह पाते हैं। और यह भी पता नहीं कि इन्हें कहां जाने की इतना जल्दी होती है कि वे एक दूसरे से होड़ करते हुए चलते हैं। हालांकि हमें शाम होने से पहले बार्डर पार करने की जल्दी थी। स्टेशन के बाहर ऑटो और रिक्शा वाले चिल्ला रहे थे – बार्डर – बार्डर। 

3 टिप्‍पणियां:

  1. श्री रिंगानिया जी , मैंने पहले भी उद्धृत किया था कि आपकी लेखनी में एक सरलता है , एक तरलता है जो पढ़ने वाले को बांधे रखती है। थोड़ा बहुत नुमायाँ तो किया है आपने लेकिन लगता है " चोखा माल " बाद में परोसने के लिए अलग से बाँध रखा है। मन की ललक को और उकसा दिया है। लगता है सितारों से आगे अभी जहां और भी हैं। आपके आगामी पोस्ट की प्रतीक्षा रहेगी।

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  2. आज बांगला भाषा के विषय में और उल्फा के अध्यक्ष के विषय में जानकार अच्छा लगा !

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