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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

रविवार, 23 सितंबर 2012

सुनो गौर से हिंदी वालों

हिंदी दिवस मनाने का प्रचलन करने वालों ने भले और कुछ भी सोचा होगा, लेकिन निश्चित तौर पर उनलोगों ने इस दिन की कल्पना इस रूप में नहीं की होगी कि इस दिन हिंदी की दुर्दशा (वास्तविक या काल्पनिक) पर सामूहिक विलाप किया जाए। कहीं हिंदी की स्थिति कहानी के उस भिखारी जैसी तो नहीं हो गई जो कभी बिना गद्दे और चादर के ही आराम से गहरी नींद सो लेता था। लेकिन कुछ दिनों के राजमहल के ऐश के बाद एक दिन उसे राजसी पलंग पर भी रात भर नींद नहीं आई। कारण यह पाया गया कि बिस्तर पर कपास का एक बीज रह गया था, जो उसे चुभ रहा था और नींद में बाधक बना हुआ था। कुछ यही हाल हमारी हिंदी का है। अनुकूल ऐतिहासिक परिस्थितियों में हिंदी अपने खड़ी बोली के छोटे से भौगोलिक दायरे से बाहर निकली और एक समय जब यह प्रश्न सामने आया कि भारत की एक अपनी राष्ट्रभाषा होनी चाहिए, वह भाषा कौन-सी हो सकती है, तब हिंदी को छोड़कर दूसरा कोई विकल्प ही नहीं था। जिन ऐतिहासिक परिस्थितियों की हम बात कर रहे हैं उनमें मुख्य है मुगल साम्राज्य का फैलाव और उसकी स्थिरता तथा बाद में चला स्वाधीनता संग्राम। खड़ी बोली का विकास और फैलाव स्वाधीनता संग्राम के साथ-साथ होता गया, इस पर शायद ही दो मत हों।

हिंदी के विकास में उन भाषाओं के बलिदान पर बहुत ही कम लिखा और कहा गया है जिन्हें आज हिंदी की बोलियां या उपभाषाएं मान लिया गया है। समृद्ध साहित्यिक विरासत वाली अवधी, भोजपुरी, राजस्थानी, मैथिली जैसी भाषाओं को यदि बोली मान लिया गया, तो सिर्फ इस वजह से कि इन भाषाओं के बोलने वालों ने हिंदी के विकास के हित में इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया था। वरना ज्यादा नहीं पांच सौ साल पीछे भी जाएं तो खड़ी बोली आपको कहीं दिखाई नहीं देगी, जबकि (उदाहरण के लिए) अवधी, राजस्थानी, मैथिली जैसी भाषाएं उस समय साहित्यिक ऊंचाइयां छू रही थीं। दरअसल आज जिसे हिंदी प्रदेश कहा जाता है विकास की विभिन्न पायदानों पर खड़ी उस प्रदेश की भाषाओं-बोलियों ने हिंदी के अबाध विकास को अपनी सहमति दी थी और इस सहमति का मतलब यदि इन भाषाओं-बोलियों की अपनी मृत्यु था, तो वह भी उन्हें स्वीकार था।

हमारे परिवार में एक समय तीन पीढ़ियां तीन भाषाओं का व्यवहार करती थीं। हमारी दादी राजस्थानी के अलावा दूसरी भाषा नहीं बोल पाती थीं। उनकी स्कूली शिक्षा नहीं हुई थी। वे हिंदी, बांग्ला और असमिया समझ लेती थीं, लेकिन राजस्थानी के अलावा दूसरी किसी भाषा में जवाब नहीं दे पाती थीं। हमारे माता-पिता राजस्थानी और हिंदी दोनों भाषाओं का व्यवहार कर पाते थे। हम तक आते-आते राजस्थानी सिर्फ बोलचाल की भाषा बनकर रह गई। मां या बहन जैसे अंतरंग संबंध वालों, जिनके साथ हम हिंदी में बात करने की कल्पना भी नहीं कर सकते थे, को भी यदि पत्र लिखना होता तो हमारे पास हिंदी में लिखने के सिवाय कोई चारा नहीं था। कहने का तात्पर्य यह है कि जो कुछ भी औपचारिक था वह हिंदी में होने लगा। किसी सभा में श्रोता बनकर हम राजस्थानी में बात कर सकते थे, लेकिन माइक पर राजस्थानी का प्रयोग कल्पनातीत था।

यह वह समय था, जब हिंदी पट्टी की तथाकथित उपभाषाएं निश्चित मृत्यु की ओर सरक रही थीं। और यह सब इन भाषाओं के बोलने वालों की सहर्ष सहमति से हो रहा था। एक राष्ट्रभाषा के निर्माण में अपने योगदान को लेकर हिंदी पट्टी के लोग गर्वित थे। हम हिंदी की नवीनता की बात कर रहे थे। क्या आप ऐसे किसी बंगाली की कल्पना कर सकते हैं जो यह कहेगा कि मेरे दादा बांग्ला नहीं जानते। या कोई तमिल भाषी यह कहेगा कि मेरी दादी तमिल नहीं बोल सकतीं। लेकिन हम हिंदीभाषियों के अधिकांश परिवारों का सच कमोबेश यही है कि दो पीढ़ियों पहले हिंदी कहीं थी ही नहीं।

जितनी आसानी और स्वाभाविक प्रक्रिया के तहत हिंदी पट्टी की तथाकथित उपभाषाओं को हिंदी ने हटाया, उतनी आसानी हिंदी पट्टी के बाहर होना तो दूर, उल्टे वहां हिंदी को चुनौतियों का सामना भी करना पड़ा। खड़ी बोली हिंदी विकास की जिस पायदान पर खड़ी थी, बांग्ला, असमिया और तमिल जैसी भाषाएं उससे कहीं ऊंची पायदानों पर थीं। उनसे अपने व्यवहार के दायरे को संकुचित कर लेने की उम्मीद करना अव्यावहारिक था और ऐसा किया भी नहीं गया। इन हिंदीतर भाषाओं से सिर्फ यह अपेक्षा थी कि वे अपनी भाषा केे साथ-साथ हिंदी को अपना लें और इस तरह इसे भारत की निर्विवाद राष्ट्रभाषा बनाने का रास्ता सुगम बना दे। हिंदी पट्टी की मातृभाषा बनने के बाद अब हिंदी का सामना पूर्णतः विकसित भाषाओं से हुआ था। इन भाषाओं का लंबे समय से आधुनिक व्यवहार की भाषा के रूप में उपयोग हो रहा था। उनसे यह अपेक्षा नहीं की जा सकती थी कि वे राजस्थानी, अवधी, मैथिली, भोजपुरी आदि की तरह अपने आपको सिर्फ बोलचाल की भाषा तक महदूद कर दे। फिर भी स्वाधीनता मिलने तक और उसके बाद भी लगभग एक दशक तक हिंदीतर क्षेत्रों में हिंदी सीखने की ललक थी और इस पर कोई विवाद नहीं था।

स्वाधीनता के पहले तक हिंदी सीखने के साथ स्वेच्छा का तत्व जुड़ा था। लेकिन स्वाधीनता के बाद हिंदी सीखने और इसके प्रयोग के साथ शासन द्वारा मिलने वाली सुविधा-असुविधा के मसले जुड़ गए। मसलन हिंदी प्रदेश आज भी अहिंदीभाषी प्रदेशों की कुछ शंकाओं के जवाब नहीं दे पाए हैं। ये शंकाएं हैं ः यदि केंद्र सरकार की भाषा सिर्फ हिंदी बन गई तो केंद्र की नौकरियों, राजनीति, शिक्षा आदि हर क्षेत्र में हिंदी वाले अहिंदी वालों की अपेक्षा एक लाभ की स्थिति में रहेंगे। इस तरह क्या हिंदी प्रदेश के लोग इन क्षेत्रों में (नौकरी, राजनीति, शिक्षा) छा नहीं जाएंगे! दूसरा प्रश्न है कि अहिंदी क्षेत्र वाले अपनी मातृभाषा के अलावा अंग्रेजी और हिंदी पढ़ते हैं, जबकि हिंदी वालों को सिर्फ हिंदी और अंग्रेजी पढ़नी पड़ती है। इस तरह अहिंदी क्षेत्र पर हिंदी क्षेत्र की बनिस्पत ज्यादा यानी तीन भाषाओं का बोझ पड़ जाता है। इसका हल अहिंदी क्षेत्र के लोग यह बताते हैं कि आप हिंदी और अंग्रेजी पढ़ें, हम भी हमारी मातृभाषा और अंग्रेजी पढ़ेंगे। यहां यह नोट करने वाली बात है कि इस तरह के प्रस्ताव हिंदी को हिंदी पट्टी की क्षेत्रीय भाषा के रूप में सीमित करके देखते हैं। जबकि अब तक हिंदी की महत्वाकांक्षाएं इतनी बढ़ चुकी हैं कि ऐसे प्रस्ताव उसे अपमानजनक लगते हैं।

बहरहाल, आज का सच यह है कि हिंदी भारत में एक बड़े भूभाग की मातृभाषा बन गई है। 40 करोड़ लोग इसे अपनी मातृभाषा बताते हैं। दूसरी ओर, अहिंदीभाषी राज्यों ने हिंदी को आज की हिंदी पट्टी तक ही सीमित कर दिया है। हिंदी के अश्वमेध का घोड़ा इन सीमाओं से बाहर नहीं निकल सका। हिंदी अपने क्षेत्र के बाहर उतनी ही फैल रही है जितनी इतने विशाल क्षेत्र और बोलने वालों की इतनी बड़ी संख्या से उत्पन्न दबाव के कारण अपरिहार्य है। मसलन, जो तमिल भाषी उत्तर भारत में रोजगार की संभावनाएं तलाशना चाहता है, वह हिंदी सीखने को फायदे का सौदा समझता है। इसी तरह चालीस करोड़ की मातृभाषा होने के नाते सेना में हिंदी वालों की बड़ी संख्या होना स्वाभाविक है और उनके संपर्क में आकर अहिंदीभाषी सैनिक भी हिंदी सीख जाते हैं, या उन्हें सीखनी पड़ जाती है। और अंततः हिंदी ऐसे लोगों के बीच फैलती है जो इसके फैलाव को रोकना चाहते हैं।

हिंदी का यह जो फैलाव हो रहा है, वह उसके संख्या बल से उत्पन्न दबाव के कारण स्वाभाविक रूप से हो रहा है। कदाचित ही हिंदी वालों को हिंदी को एक समर्थ भाषा बनाने के लिए सायास प्रयास करते देखा जाता है। उदाहरण के लिए हिंदी प्रदेश का क्या एक भी विश्वविद्यालय इतना समर्थ नहीं हो सका कि दक्षिण या पूर्वी भारत में अपना कैम्पस स्थापित कर वहां हिंदी विषय या हिंदी माध्यम से अन्य विषयों की शिक्षा का अवसर प्रदान करता? हिंदी प्रदेशों ने हिंदी को आगे बढ़ाने की सारी जिम्मेवारी केंद्र सरकार को सौंप दी और खुद गहरी नींद सोते रहे। हिंदी प्रदेशों से तो यह भी नहीं हो सका कि आपस में बैठकर सरकारी कामकाज में इस्तेमाल होने वाले विभिन्न पारिभाषिक शब्दों में एकरूपता लाए। आज हिंदी में साहित्य के अलावा ऐसी एक दर्जन पुस्तकों के नाम भी अनायास याद नहीं आते, जिन्हें पढ़ने की ललक के कारण कोई अहिंदीभाषी हिंदी सीखने को उद्यत हो।

किसी भाषा के विकास के लिए जरूरी नहीं कि वह सरकारी भाषा ही बने। फारसी भारत के कई प्रतापी राजदरबारों की भाषा थी, लेकिन आज वह भारत में कहां है? ज्यादा जरूरी है किसी भाषा को ज्ञान की भाषा बनाना। हमारी पीढ़ी ने बड़े चाव से हिंदी सीखी। इसके बाद शायद हम अंग्रेजी नहीं सीख पाते, यदि हिंदी बातचीत, शिक्षा का माध्यम और साहित्य की भाषा होने के साथ-साथ ज्ञान की भाषा भी होती। हिंदी को ज्ञान की भाषा बनाने का काम हुआ ही नहीं और अंततः हमारे बाद की पीढ़ी को सिर्फ साहित्य पढ़ने के लिए हिंदी सीखना फालतू का काम लगने लगा। जिस गाड़ी में हमारे जैसे लोग बैठे थे, वह गाड़ी स्टार्ट ही नहीं हुई और अब बाद वाली पीढ़ी के लोग दूसरी तेज गाड़ी में बैठ रहे हैंतो उन्हें दोष देकर सही नहीं। पहली गाड़ी वाला ड्राइवर शायद इंतजार कर रहा था कि सारे यात्री इसमें आ जाएं तब वह गाड़ी चलाएगा। इसका नतीजा यह हुआ कि जो पहले से बैठे थे वे भी उतरने लग गए।

3 टिप्‍पणियां:

  1. बिनोद रिंगानियाजी, आपने लखदाद. हिंदी रे भोलावे आप दूखती रग माथे हाथ धर दियो है. पण दुःख री बात के आज री इण विखमी बेला मे इण पीड़ ने समझे कुण? कुण इण री पाटी-पोळी करे, कुण इण री दाद-पुकार सुणे?

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  2. सतीश जायसवाल, रायपुर24 सितंबर 2012 को 6:12 pm बजे

    प्रिय बिनोद जी,
    हिन्दी के विकास और हमारी भाषाई परम्परा का पुनरावलोकन करते हुए आपने एक बड़े सम्मानसूचक ऐतिहासिक सन्दर्भ को रेखांकित किया है. वह सन्दर्भ, हिन्दी के विकास के लिये अपना बलिदान करने वाली उन भाषाओं का है जिनकी अपनी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परम्पराएं रही हैं.ऐसा रेखांकन, शायद पहली बार हो रहा है.
    इस बलिदान के समकक्ष, अब अन्य क्षेत्रीय बोलियों या भाषाओं की राजनीति को उकसाया जा रहा है जिनकी अपनी समृद्ध ऐतिहासिक परम्परा नहीं रही है. और यह क्षेत्रीय राजनीति ही ''राजभाषा'' जैसे प्रलोभनों को राज्याश्रय भी प्रदान करती है.
    नासमझी में या अपनी कम-अक्लियों को अपना अस्त्र बना कर संघर्ष का श्रेय लेने के इस खेल में हमारी प्राध्यापकीय सामूहिकताएं भी पर्याप्त सक्रियता के साथ अपने खेल, खेल लेती हैं.
    इसलिए मुझे, दक्षिण भारत में अथवा पूर्वोत्तर में किसी विश्व विद्यालय के कैम्पस खोलने के, आपके सुझाव पर पुनर्विचार की ज़रुरत महसूस होती है. अपने पुनर्विचार के लिये, एक पूरे विश्व विद्यालय का उदाहरण भी सामने है, जो केवल हिन्दी को समर्पित है. अर्थात, महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय - वर्धा. इस विश्वविद्यालय की उपलब्धियों को जान-समझ कर हम यह समझ सकेंगें कि हिन्दी के विकास का रास्ता हिन्दी के प्रचार प्रसार के लिये चलाये जा रहे संस्थानों से होकर निकलता है या हिन्दी को हिन्दी साहित्य की परम्पराओं से जोड़ कर निकलेगा.
    यहाँ यह तथ्य भी प्रासंगिक होगा कि, ऐसा सबसे बड़ा और पवित्र संस्थान वर्धा में ही है, जिसके साथ राष्ट्रपिता महत्मा गांधी का नाम जुडा है. वह संस्थान है-- राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा.
    और आखीर बात ये कि, उन्हीं भाषाओं के बलिदान को बलिदान का दर्ज़ा प्राप्त होता है जिनकी अपनी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परम्परा होती है. इस बलिदान को मृत्य कह कर कृपया छोटा मत बनाइये

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