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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

रविवार, 28 अगस्त 2011

अन्ना तुम जीवित रहो, देश को जरूरत है

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आज जब शहर की सड़कों से गुजर रहा था तो कालेजी छात्राओं को नारे लगाते सुना - अन्ना तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं। असम में हिंदी में नारे सुनना एक हिंदीप्रेमी के कानों को अच्छा लगता है। राष्ट्रीय पताका, गांधी टोपी, हिंदी भाषा - इन दिनों हवा में राष्ट्रप्रेम घुला हुआ है। असम जैसे प्रदेश में यह सब विशेष रूप से अच्छा लगता है। लेकिन जब नारे के मर्म में जाते हैं तो ध्यान आता है कि इसका क्या मतलब है। एक व्यक्ति 11 दिन से अनशन पर बैठा हुआ है और हम कह रहे हैं कि तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं। एक अनशन पर बैठे हुए व्यक्ति से यह कहना कि तुम संघर्ष करो, 11 दिन अनशन पर पर बैठे एक सम्माननीय व्यक्ति के समर्थकों से, हम सबसे उम्मीद यह होनी चाहिए कि हम उनसे अनशन तोड़ने की प्रार्थना करें। अनशन तोड़कर आगे सघर्ष चलाते रहने की प्रार्थना करें और आगे चलने वाले संघर्ष में साथ देने का वादा करें। अन्ना हजारे ने स्वयं कहा भी है कि उनकी तीन शर्तों पर लोकसभा में चर्चा होने पर वे अनशन तोड़ने के बारे में सोचेंगे लेकिन रामलीला मैदान से नहीं हटेंगे। भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष चलते रहना चाहिए, लेकिन इसके पहले अन्ना के साथियों को चाहिए कि वे अन्ना से अनशन तुड़वाएं।
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इन पंक्तियों के लेखक ने गांधीजी के बारे में सिर्फ किताबों से जाना है। लेकिन जितनी-सी हमें जानकारी है उसके अनुसार गांधीजी जब भी अनशन की घोषणा करते थे उनके निकट सहयोगियों - नेहरू, पटेल आदि - के मुंह सूख जाते थे। वे गांधीजी को अनशन नहीं करने के लिए मनाते थे। यहां एक बात और कहना चाहेंगे। गांधीजी ने बहुत कम ही बार अनशन अपने मुख्य प्रतिपक्ष यानी ब्रिटिश के विरुद्ध किया। उनके अनशन का उद्देश्य अपने देशवासियों या अपने सहयोगियों से कोई बात मनवाना होता था। या फिर किसी ऐसी बात पर वे अनशन करते थे जिसमें ऐसी स्थिति आ जाती थी कि यदि अभी जिद करके इस बात को नहीं मनवाया तो आगे कभी नहीं हो पाएगा। और इससे होने वाले नुकसान की भरपाई कभी नहीं हो पाएगी। उदाहरण के लिए ब्रिटिश सरकार का अनुसूचित जातियों के लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्र बनाने का प्रस्ताव। गांधीजी को लगा कि इससे हिंंदू समाज में जो फूट पड़ेगी उसकी भरपाई बाद में कभी नहीं हो पाएगी, इसलिए वे अनशन पर बैठ गए और आंबेडकर को अपनी बात मानने के लिए मजबूर कर दिया। आंबेडकर गांधीजी की रणनीति से काफी नाराज भी हुए। गांधीजी अनशन को नैतिक ताकतों के प्रति अपील करने का एक आध्यात्मिक अस्त्र मानते थे। लेकिन अन्ना और उनकी टीम के वक्तव्यों से यह स्पष्ट है कि वे अपने देश के राजनीतिज्ञों की नैतिकता में विश्वास नहीं करते। वे ठीक ही मंच से उनके धोखाधड़ीपूर्ण तरीकों की आलोेचना कर रहे हैं। उन पर व्यंग्य कस रहे हैं। लेकिन आप अपने प्रतिपक्ष को अनैतिक मानते हैं तो अनशन जैसे आध्यात्मिक अस्त्र (गांधीजी की भाषा में) का इसके लिए प्रयोग करने का कोई अर्थ ही नहीं है। यहीं हम इस बात का उल्लेख करना चाहेंगे कि अन्ना हजारे के समर्थन में देश भर में कई स्थानों पर (गुवाहाटी में भी) कुछ लोगों द्वारा उनके साथ-साथ अनशन किया जा रहा है। ज्यादातर स्थानों पर ऐसे लोग उपेक्षित हैं और कोई उन्हें जाकर समझाता नहीं है कि इस चरम अस्त्र का इस तरह उपयोग न करें। जरूरत है ऐसे लोगों को समझाने और उनकी जान बचाने की।
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अन्ना ने नौ दिन का अनशन पूरा होने पर कहा था कि अभी और नौ दिन तक अनशन करने की उनमें ताकत है। लेकिन उनकी उम्र के एक व्यक्ति के इतनी लंबी अवधि तक अनशन करने के बाद क्या उनका स्वास्थ्य वही रह जाएगा जो आज है! ऐसे मामलों में स्वास्थ्य को फिर से पुरानी स्थिति में आने में कई महीने/साल लग जाते हैं। गांधीजी का स्वास्थ्य भी बाद की अवधि में किए गए अनशन के कारण काफी गिर गया था। लेकिन रामलीला मैदान के जमावड़े से अभी भी भ्रष्टाचार को खत्म करने के नारे तो लग रहे हैं, लेकिन अन्ना से अनशन वापल लेने की अपील नहीं की जा रही है। इसका कारण क्या आंदोलनकारियों का स्वार्थपूर्ण रवैया है (कि अनशन टूटने से पहले सरकार से ठोस आश्वासन ले लिया जाए)? हमारे विचार से अब अन्ना को अनशन तोड़ने के लिए मनाना चाहिए और देश भर में भ्रष्टाचार के खिलाफ उठ खड़े हुए आंदोलन को अन्य तरीकों से आगे चलाया जाना चाहिए।
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ऐसे क्षण आते हैं जब लगता है कि देश की सारी जनता किसी एक मुद्दे पर एकमत है। लोग ऐसे समय किसी भी भिन्न मत को सुनना पसंद नहीं करते। भिन्न मत का रहना और उसके रहने की परिस्थितियों का बना रहना ही किसी लोकतंत्र के असली या नकली होने की पहचान होती है। हो सकता है आपका मत ही सही हो, लेकिन आप यह दावा नहीं कर सकते कि सिर्फ आप ही सही हैं और सौ फीसदी सही हैं। दूसरी बात यह है कि भिन्न मत व्यक्त करने वालों के लिए अक्सर गाली-गलौच वाली भाषा का इस्तेमाल किया जाता है। इस समय शेखर गुप्ता, अरुंधती राय, तवलीन सिंह, शबाना आजमी आदि कई लोगों ने अन्ना के आंदोलन के कई पहलुओं पर अपने मतभेद व्यक्त किए हैं। ये मतभेद सार्वजनिक विमर्श में बने रहते हैं तो हर्ज क्या है, जरूरी नहीं कि उनके लिए अभद्र भाषा का प्रयोग किया जाए।
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देश भर में अन्ना के आंदोलन के लिए उमड़ पड़े जनसैलाब को इस रूप में समझा जाना चाहिए कि यह भ्रष्टाचार के प्रति लोगों के मन में सालों से जमा गुस्से का इजहार है। यह विशेषकर राजनेताओं के खिलाफ भी है। इसे कुछ लोग जनलोकपाल बिल के समर्थन के रूप में पेश करना चाहते हैं। दोनों में फर्क है। लेकिन टीम अन्ना के लोेग इसे जनलोकपाल के प्रति समर्थन बताकर और अन्ना के अनशन की दुहाई देकर अपने बिल को ज्यों का त्यों पारित करवाना चाहते हैं। यह एक तरह का ब्लैकमेल है और इसके नतीजे भविष्य के लिए अच्छे नहीं भी हो सकते हैं। जैसे कि कुछ विधिवेत्ताओं का कहना है कि सरकार और टीम अन्ना, दोनों के बिल अपनी-अपनी अति के शिकार हैं। एक संतुलित कानून नहीं बनाने की परिणतियां इस रूप में सामने आ सकती हैं कि या तो अभियुक्त को अपना बचाव करने और शिकायतकर्ता को धमकाने आदि का ज्यादा ही मौका मिल सकता है (सरकारी बिल) या फिर अभियुक्त को अपना पक्ष रखने का उचित समय पर उचित तरीके से मौका ही नहीं मिले (जनलोकपाल)। यदि यह कानून शिकायत मिलने के साथ ही अभियुक्त को दोषी मानकर आगे बढ़ता है तो इससे निर्दोष लोगों को फंसाया जा सकता है या फंसाने की धमकियां देकर लोग उनसे गलत काम करवा सकते हैं। यह कानून से संबंधित मामला है और अच्छा होता यदि दोनों ही पक्षों की सहमति से देश के कुछ चुनिंदा विधिवेत्ताओं (जैसे राम जेठमलानी) की टीम को अपनी ओर से इस बिल का एक मसौदा बनाने की जिम्मेवारी सौंपी जाती।
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यह सही है कि लोकपाल के मुद्दे को राजनेताओं ने उलझाकर रखा है और कुछ लोग कमर कसे हुए हैं कि किसी भी हालत में इसे पारित नहीं होने देना है। महिला आरक्षण बिल का हस्र हम देख चुके हैं। यानी मुंह से इसका विरोध नहीं करना है लेकिन पारित भी नहीं होने देना है। इसलिए हो सकता है इसी कारण टीम अन्ना में एक तरह की जिद आ गई हो कि इस बार राजनेताओं को अपनी साजिश में सफल नहीं होने देना है। लेकिन यह पुरानी बात हो गई है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध इतने बड़े जनांदोलन के बाद किसी भी पार्टी के लिए यह संभव नहीं रह जाएगा कि वह लोकपाल बिल को नियमों की भूलभुलैया में छिपा दे और दिन की रोशनी देखने से वंचित कर दे। इतने बड़े आंदोलन कोे दबाना अब संभव नहीं होगा।

1 टिप्पणी:

  1. आपके लेख से पूर्णतः सहमत हूँ कि टीम अण्णा को अनशन का रास्ता न अख्तियार कर आन्दोलन का रास्ता अपनाना होगा। राजनीतिज्ञों से लड़ाई लड़ने के लिए राजनीति का भी सहारा लेना होगा। इसके लिए संसद में सिविल सोसायटी को कुछ सदस्य भेजने होगें जो समाज की बातों को संसद के भीतर भी उठा सके।

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