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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

मीडिया की औकात




असम के मीडिया के बारे में कहा जाने लगा है कि यहां जरूरत से अधिक मीडिया हो गया। जरूरत से अधिक अखबार छप रहे हैं, कई ऐसे हैं जो जीवन रक्षक दवाओं के सहारे चल रहे हैं लेकिन फिर भी चल रहे हैं। यही हाल चैनलों का है। कई ने ठीक से चलना भी नहीं सीखा कि उनके सामने अपने जनम-मरण का सवाल आ गया। कुछ लोगों को इनकी अधिक संख्या को लेकर आपत्ति है। कहते हैं इतने ज्यादा अखबारों और चैनलों की क्या जरूरत है। लेकिन हमारा मानना है कि बीस अखबार होना कोई बुरी बात नहीं है। क्योंकि भारत की तरह असम में भी विभिन्न समुदायों के लोग रहते हैं। उनके विभिन्न दृष्टिकोण हैं। जिस तरह राजनीति में विभिन्न राजनीतिक पार्टियां अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं उसी तरह मीडिया में विभिन्न अखबार भी बने रहें तो क्या आपत्ति है। लेकिन सवाल है कि ये बीस अखबार क्या बीस दृष्टिकोण लेकर चल रहे हैं? क्या किसी एक सवाल पर इन अखबारों में बीस अलग-अलग पहलू निकलकर आते हैं? 

अफसोस की बात यही है कि ये बीस अखबार मिलकर एक अखबार का ही काम कर रहे हैं। असम में ऐसे लोग कम ही हैं जो किसी एक विषय पर अपनी सुचिंतित राय रखते हों। इसलिए अधिकांश अखबारों के संपादकीय पृष्ठों तक जाने की जरूरत ही नहीं होती। ये बीस अखबार मिलकर किसी एक भीड़ की तरह काम करते हैं। बातचीत के दौरान एक मित्र ने आरोप लगाया कि हाल ही में उभर कर आया एक "मसीहा' मीडिया की ही उपज है। हमने मित्र को समझाया कि हमारे यहां मीडिया कोई ऐसी चीज नहीं है जो अपने विवेक से निर्णय लेता हो। या जिसके कामों के पीछे कोई पूर्व परिकल्पना हो। यह एक भीड़ की तरह काम करता है। मान लीजिए किसी चौराहे पर कोई एक व्यक्ति कोई हंगामा कर रहा है या कोई हैरतअंगेज हरकत कर रहा है। वहां हमारे जैसे आते-जाने लोग उत्सुकतावश खड़े हो जाएंगे। यदि हंगामा दिलचस्प हुआ तो वहां काफी देर तक रहेंगे। और न हुआ तो आगे अपने काम के लिए निकल जाएंगे। अब हो सकता है कोई आरोप लगाए कि रास्ते पर आने-जाने वाले इन लोगों ने इस हंगामा खड़ा करने वाले की औकात इतनी बढ़ा दी है। लेकिन रास्ते पर गुजरने वाले लोगों ने सिर्फ अपने स्वभाव के अनुकूूल काम किया है। उसके काम के पीछे कोई योजना नहीं है।

यही बात हमारे आज के मीडिया पर लागू होती है। कहीं भी कोई हंगामा खड़ा हो जाए तो वहां मीडिया पहुंचकर उस घटना के महत्व को बढ़ाने में अनजाने में लग जाता है। इसके पीछे कोई योजना नहीं होती। वह एक भीड़ की मानसिकता से काम करता है। भीड़ किसी भी घटना की तह में जाने की कोशिश नहीं करती। यदि मारो-मारो कहकर किसी व्यक्ति को दो-चार लोग पीटने लग जाएं तो बाकी भीड़ भी उसे पीटने पर उतारू हो जाती है। वह उन शुरू में पीटने वाले लोगों की बात पर विश्वास कर लेती है कि पिटने वाला व्यक्ति चोर है।

मीडिया की इस मानसिकता का लाभ कई शातिर दिमाग वालों ने उठाया है। अपने प्रतिद्वंद्वी को फंसाने के लिए उसके विरुद्ध किसी तरह का आपराधिक मामला दायर कीजिए और इसके बाद मीडिया के अपने मित्रों को बुला लीजिए। अपने प्रतिद्वंद्वी को आप बदनाम तो कर ही देंगे साथ ही भविष्य में उसे तंग न करने की एवज में मोटी राशि भी ऐंठ सकते हैं। अधिकांश संवाददाता आज भी यह सोचते हैं कि थाने में रपट का होना ही किसी के विरुद्ध कुछ भी लिखने की पूरी आजादी दे देता है। इसका एक दूसरा रूप भी है। मान लीजिए किसी अस्पताल में किसी की अस्वाभाविक मौत हो गई। आप उस अस्पताल पर इलाज में लापरवाही बरतने का आरोप लगाते हुए वहां जाकर हंगामा कीजिए, साथ ही मीडिया के अपने मित्रों को बुला लीजिए, कैमरों के सामने कुछ तोड़-फोड़ कीजिए। मीडिया वालों के जाने के बाद आप अस्पताल के मालिकों के साथ मोटी रकम का लेन-देन कर सकते हैं। हमारे राज्य में यह एक अचूक नुस्खा है और मीडिया के सहयोग से भयादोहन एक कुटीर उद्योग का रूप लेता जा रहा है।

रोज एक "मसीहा' बनाने का आरोप लगाने वाले मित्र के सामने हमने अरविंद केजड़ीवाल का उदाहरण रखा। कल तक उसे मीडिया की उपज कहा जा रहा था। लेकिन अब जब वे दो सप्ताह तक अनशन पर बैठे रहे तो वही मीडिया कहां गायब हो गया। क्या मीडिया ने आपस में कोई मंत्रणा कर ली कि अब इस "मसीहा' को आगे नहीं दिखाना है। दरअसल इसका कारण है मीडिया की भीड़ मनोवृत्ति। कल तक केजड़ीवाल के तमाशे में रस मिल रहा था। इसे मीडिया वाले न्यूज वैल्यू कहते हैं। आज वह रस खत्म हो गया तो मीडिया भी मोदी बनाम राहुल के बेमतलब विमर्श में व्यस्त हो गया। दो सप्ताह तक अन्न-जल छोड़ने वाले केजड़ीवाल की ओर उसने झांका तक नहीं।

असम में इतने अखबार निकलते हैं लेकिन किसी भी राजनीतिक या सामाजिक प्रश्न पर किन्हीं दो अखबारों की राय में रत्ती भर भी फर्क नहीं मिलता। मीडिया राह चलतों की भीड़ की तरह उसकी ही ओर आकर्षित हो जाता है जिसके फेफड़े ज्यादा मजबूत होते हैं। जो अधिक ऊंची आवाज में चिल्ला सकते हैं। चीख-पुकार बंद होते ही वह भीड़ के लोगों की तरह अपने दूसरे काम पर निकल पड़ता है।

जहां तक असम के मीडिया की बात है, उसने तो सौ प्रतिशत अपने आपको राजनीतिक रूप से सही-सही कहने की सुरक्षित सीमाओं के बीच कैद कर रखा है। अखबारों पर कोई प्रत्यक्ष दबाव नहीं है लेकिन मीडिया का कुल वातावरण इतनी बौद्धिक धार वाला नहीं है कि वह किसी भी मुद्दे की विभिन्न कोणों से चीरफाड़ कर सके। उसकी इतनी औकात कहां कि वह मसीहा बना सके। वह खुद ही लोगों की नजरों से तेजी से गिर रहा है।
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8 टिप्‍पणियां:

  1. रिंगानियाजी, आप सही मुददो उठायो है। आप जिक्की बात आसाम प्रांत रै मीडीया री करी है तो अठै कांई समूचै देस में अे ही हाल है। सरकार जद सूं अखबारां नैं उद्योग रौ दरजो दियो है अखबारां री बाढ सी आयगी है। पैली प्रदेस री राजधानियां सूं अखबार निकळतो अबै तो जिल्लां कस्बां सूं अखबार निकळ लागग्या है। आ ही हालत चैनलां री है। अबै जद औ उद्योग बणग्यो तद इण नैं लोन मिलणो सरू हुयग्यौ। इणरै जबकै करोड़ां रूपियां री मसीनां लागण लागगी अर कलर पांना छपण लागग्या। जद हाथी नैं बांध लेवे तो उणरी खुराख रौ ध्यान भी राखणो पड़े, इण मुजब माल बणावणो अर बजार में बेचणो कोई सौरो काम कोनी। अठै मूल्य अर आदर्श जिस्सा सबद बीत्यै जमाने री बातां हुयगी। अखबार भी अबै अेक कंज्यूमर प्रोडक्ट री भांत बिके। हरैक अखबार रा आपरा न्यारा—न्यारा बिजनेस सिक्रेट है उणी मुजब अै चाले। इण में काम करणिया पत्रकारां भी इण मूल्यां अर आदर्शां नैं अेक किनारे मेल'र वगत रै सागै कदमताळ करणो सीख लियो। औ घणी संभावनावां भरयौ वौपार है इण में वांरै कनै लूंठा—लूंठा हथियार है, किण नैं किंया बख में करणो अर किंया चांदी काटणी अे सगळा लखण आज रा पत्रकार सीख चुक्या है। सरकार अर राजनेतावां री मेहर भी मीडीया माथै हरमैस रैयी अर वगत रै सागै आ मेहर बढती जा रैयी है। कुल मिलायनै अखबार अर राजनेतावां री आ सीर री दुकान है जिण नैं अे दोवूं लोकतंत्र री आड में चला रैया है। लारलै पनरै बरसां में डीएवीपी अर डीपीआर रा दिरीजण वाळा विज्ञापनां रा आंकड़ा चौड़े हुय ज्यावै तो इण सीर री सरकार रा पौत आपूंआप ही चौड़े आ ज्यावै। ओ सगळो धन जनता रौ है जिण नैं अे सीर री दुकानां भोग रैयी है। आज भारत रै भृस्टाचारां री खबरां नैं विदेशी मीडीया चौड़े ला रैयी है अर भारत रा अखबार फगत अेक कंज्यूमर प्रोडक्ट बण'र रैयग्या है।

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  2. Very thoughtful..........Anil K. Jajodia, Varanasi

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  3. मीडिया के औचित्य पर कोई बात करने से पहले अब , यह विवेचना ज़रूरी होगी कि मीडिया पर किसका नियंत्रण है ? चाहे वह समाचार-पत्रों की बात हो या चैनलों की। जब कोई अदृश्य शक्तियों मीडिया को संचालित करने लगती हैं तो -- कारण तर्क और विवेक भी उनका ही होगा। और अब तो वो शक्तियां अदृश्यता में भी नहीं होतीं। वो हमारी जानकारी के भीतर होती हैं।
    हमारे आपस में, अर्थात ''मीडिया जाति'' के लोगों के आपस में सक्षम संवाद से कोई बात बने तो बने।
    आपको याद होगा, देश के विभिन्न क्षेत्रों-अंचलों में घटित होने वाली चिन्ताजनक घटनाओं पर मैंने आपसे बात साझा की थी। वह यह कि उन पर हमें आपसी संलग्नता के साथ अपनी भूमिकाएं निर्धारित करनी होंगी। असम में घटने वाली घटना हो या बस्तर में। अमुक क्षेतीय सरहदबन्दियों से बाहर निकल कर हमें दोनों के साथ, वृहत मानवीय सन्दर्भों में अपनी वैचारिक सक्रियता दिखानी होगी।

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  6. baat chubhne wali he magar bilkul sach he-logo ka bhi media ke prati dristikon badal gaya-jis tarah aam public police se darti he bilkul usi tarah aajkal media se darne lagi he aur yeh sb baadlau e-media ane se jyada tezi se hua he-media karmiyoon ka samaj ka pratinidhi ke taur pe mana jata he magr aajkl baat kuch aur hogyi-yellow journalism shld be stopped warna media ka future baht bura ho skta he

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