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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

असम में किसे चाहिए आजादी

पिछले तीन दशकों में असम में काफी खून बहा है। मोटे तौर पर तीन कारणों से राज्य में हिंसा हुई। एक बोड़ो आंदोलन, दो असम आंदोलन और तीन अल्फा का स्वाधीनता को लेकर अलगाववादी आंदोलन। हिंसा का कोई तर्क नहीं होता। लेकिन इस हिंसा का संचालकों के पास इसके औचित्य को लेकर किसके पास क्या तर्क हैं इसे देखा जाना चाहिए। बोड़ो समुदाय के पास हो सकता है यह तर्क हो कि इंसानी खून के बदले में बोड़ो समुदाय ने अपनी पहचान हासिल कर ली। असम आंदोलन के नेताओं के पास भी तर्क हो सकते हैं कि तीन हजार से अधिक लोगों की जान के विनिमय में सारे देश का ध्यान असमिया समुदाय की समस्याओं पर गया। बांग्लादेशी घुसपैठ की समस्या हो सकता है असम आंदोलन के बिना भी किसी समय देश के राजनीतिक एजेंडे में सबसे ऊपर आ जाती, लेकिन असम आंदोलन ने इस समस्या को ठीक समय पर देश के सामने रख दिया।

लेकिन अल्फा के द्वारा किए गए खून-खराबे के पक्ष में इसके समर्थक लाख कोशिश करके भी कोई पचने वाला तर्क नहीं दे सकते। स्वाधीनता! असम में स्वाधीनता कौन चाहता है? 1947 में देश के आजाद होने के बाद से 1979 में अल्फा के द्वारा एक और आजादी की मांग उठाए जाने के बीच असम के राजनीतिक विमर्श में कभी भी प्रदेश की स्वाधीनता किसी की जबान पर नहीं रही। 1989-92 के दौरान अल्फा थोड़े दिनों के लिए हीरो बना जब इसके कैडर सिर्फ मारवाड़ी व्यवसायियों और असम में बाहर से आकर काम करने वाले बड़े अधिकारियों से पैसे वसूलते थे। उन दिनों अल्फा को "हमारे लड़के' कहकर संबोधित किया जाता था। जनता की नब्ज पकड़ने में राजनीतिक नेता माहिर होते हैं। अल्फा का जनता के बीच प्रभाव था इसीलिए प्रफुल्ल महंत उसके विरुद्ध कार्रवाई करने से कतराते रहे। महंत के बाद आए हितेश्वर सइकिया अल्फा और आसू दोनों के ही दुश्मन थे। लेकिन अपनी प्रेस वार्ताओं में वे भूल से भी (और लाख कोंचने के बावजूद) अल्फा के खिलाफ कोई शब्द उच्चारित नहीं करते थे। जो कुछ कहना होता था अपने पुलिस अधिकारियों को कहते थे। कथनी और करनी में उनके यहां जितना अंतर था उतना और कहीं नहीं मिलता।

1989-92 का दौर खत्म होने के बाद अल्फा की हथियारों की भूख बढ़ने लगी, साथ-साथ पैसे की भी। सेना के दो-दो अभियान झेल लेने के बाद इसका आत्म-विश्वास बढ़ गया था और इसके नख-दंत असमिया मूल के समुदायों को भी चुभने लगे थे। तब धीरे-धीरे मीडिया में अल्फा की आलोचना होने लगी। लेकिन तब तक मर्ज काफी बढ़ चुका था। विदेशों में हथियारों की मंडी तक उनकी पहुंच हो चुकी थी, म्यांमार में शस्त्र चालन के कोचिंग सेंटरों तक का रास्ता वे पहचान चुके थे। इसलिए जब तक असमिया समाज के एक बड़े वर्ग के बीच यह सहमति बनी कि इस मर्ज की रोकथाम होनी चाहिए, तब तक काफी देर हो चुकी थी - और इसीलिए समाज में असम की स्वाधीनता के एक फीसदी समर्थक भी मौजूद न होने के बावजूद अल्फा का खून-खराबा, हत्याओं का दौर इतने लंबे समय तक जारी रह पाया।

हम चर्चा कर रहे हैं इस बात की कि अल्फा के इस तथाकथित संघर्ष का क्या कोई औचित्य था। ब्रिटिश साम्राज्य में शामिल होने के बाद भारत के अंग के रूप में बने रहने पर राज्य में कभी कोई आपत्ति रही हो इसका उदाहरण ताजा इतिहास में हमें नजर नहीं आता। लेकिन जिस बात पर हम जोर देना चाहते हैं वह यह है कि आज से दो दशक पहले जो लोग स्वाधीनता या अलगाव के नाम पर उदासीनता दिखाते थे वे भी आज सक्रिय रूप से ऐसी किसी विचारधारा का विरोध करते हैं। इसका कारण यह है कि आज बीस साल पहले की अपेक्षा ज्यादा बड़ी संख्या में असम के छात्र दूसरे राज्यों के शिक्षा-संस्थानों में पढ़ते हैं, ज्यादा बड़ी संख्या में असम के युवा भारत के विभिन्न शहरों में नौकरियां करते हैं, ज्यादा बड़ी संख्या में असम के विभिन्न मूल समुदायों के लोग भारतीय सेना के तीनों अंगों में भर्ती हैं, ज्यादा बड़ी संख्या में लोग विशाल भारतीय बाजार के साथ जुड़े हुए हैं और इसका महत्व समझते हैं।

इसलिए असम में आज भावना यह है कि स्वाधीनता एक राजनीतिक बकवास है। लेकिन "लड़कों' ने इतने सालों तक "संघर्ष' किया है तो कुछ ले-देकर समझौता हो जाना चाहिए। यदि असम को अन्य राज्यों के मुकाबले कुछ अतिरिक्त सुविधाएं हासिल हो जाती हैं, तो अल्फा का "संघर्ष' धन्य हो जाएगा। लेकिन क्या यह कहा जा सकेगा कि इतने खून-खराबे और इंसानी जानों की कीमत अदा हो गई? हम ऐसा नहीं समझते। शायद आज के असम में कोई भी ऐसा नहीं समझता। क्योंकि भारतीय लोकतंत्र में स्पेस की इतनी कमी कभी नहीं हुई कि ज्यादा नौकरियां, ज्यादा धन, ज्यादा आरक्षण, संवैधानिक सुरक्षा जैसी चीजों के लिए इतना खून बहाना पड़े, जितना अल्फा ने बहाया है। जब किसी व्यवस्था में शांतिपूर्ण आंदोलन के लिए गुंजाइश न हो, तब वहां हिंसा के पक्ष में दलील की गुंजाइश बनती है। असम आंदोलन को नजदीक से देखने वालों और इसमें हिस्सा लेने वालों को जिस तरह आज अहसास हो रहा है कि केंद्रीय विश्वविद्यालय, आईआईटी जैसी चीजों के लिए तीन हजार से ज्यादा लोगों की जानों की बलि कुछ ज्यादा ही बड़ी कीमत है यदि अंततः विदेशियों को बाहर नहीं निकाला जाता। उसी तरह कल को असम को संविधान के अंतर्गत कुछ सविधाएं देने के एवज में अल्फा के साथ समझौता हो जाए तो यह अहसास होने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा कि इतना तो किसी शांतिपूर्ण आंदोलन से ही हासिल हो जाता।

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