1980 में इंटरनेट नहीं था, आज इंटरनेट है। अखिल असम छात्र संघ और पूर्वोत्तर छात्र संगठन अपनी एक वेबसाइट खोलकर समस्या पर अपने नजरिए को इस पर डाल सकते हैं। 1980 में असम और पूर्वोत्तर के बारे में अंग्रेजी में भी नगण्य सामग्री उपलब्ध थी। किसी पत्रिका में कुछ निकलता था तो हम उसे चाट जाते थे। आज अंग्रेजी में काफी सामग्री और पुस्तकें उपलब्ध हैं। लेकिन हिंदी तथा अन्य भाषाओं में आज भी स्थिति दरिद्रता की है। आश्चर्य ही क्या कि हिंदी पट्टी के पत्रकारों-बुद्धिजीवियों का असम-विवेचन कई बार हास्तास्पदता की सामाएं छूता है।
कर्नाटक और महाराष्ट्र सरकार ने पूर्वोत्तर वासियों को वहां से भागने से रोकने के लिए जो प्रयास किए वे आंखें खोलने वाले हैं। खासकर पूर्वोत्तर के राजनीतिज्ञ तो इस जन्म में कभी वह सब नहीं कर सकते जो कर्नाटक सरकार ने किया है। पूर्वोत्तर में बाहरी राज्यों से काफी लोग आकर बसे हुए हैं, जबकि दो दशक पहले तक पूर्वोत्तर से कोई इक्का-दुक्का लोग ही बाहर जाते थे। स्थायी रूप से बसने के लिए तो कोई नहीं जाता था। अब दो दशकों से पढ़ाई के लिए जो लोग जाते हैं उनमें से बहुतेरे वहीं नौकरी करने लग जाते हैं। बाहरी राज्यों से पूर्वोत्तर में बसे लोगों को कभी अच्छी नजर से नहीं देखा गया। हो सकता है व्यक्तिगत स्तर पर किसी को कोई असुविधा नहीं हुई हो, लेकिन एक समूह के रूप में बाहरी राज्यों से आए लोगों के लिए समाचारपत्रों में खुले रूप में आज भी तिरस्कारपूर्ण शब्दों के इस्तेमाल को एक सामान्य बात माना जाता है। कई जगह इस तरह की पंक्तियां पढ़ने को मिल जाती हैं कि "असम एक चरागाह है जहां ये लोग चरने आ जाते हैं।'
आज जब हम देखते हैं कि एक राज्य का उप-मुख्यमंत्री असम सिर्फ इसलिए आता है कि उनके राज्य की राजधानी से भागकर आए लोगों को सुरक्षा का आश्वासन दिया जा सके। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रियायती दर पर हवाई जहाज उपलब्ध कराने की पेशकश करते हैं। घटनाएं घटती हैं और दिन गुजरने के साथ भुला दी जाती हैं या लोग सोचते हैं कि भुला दी जाती होंगी। लेकिन क्या सचमुच घटनाएं भुला दी जाती हैं। एक-एक घटना एक-एक समुदाय की विश्व दृष्टि यानी चीजों के प्रति नजरिए को बदलने वाली होती है। सिर्फ उन लोगों के लिए नहीं जिन्होंने उन घटनाओं को देखा और भोगा है। बल्कि उनकी आने वाली पीढ़ियां भी उन घटनाओं की छोटी से छोटी तफसील, उन घटनाओं से पैदा हुए "ज्ञान' को ग्रहण करते हुए बड़ी होती हैं। ऐसी घटनाओं के समय विभिन्न लोगों - पड़ोसियों, शहरवासियों, सरकारों - द्वारा दिखाए गए आचरण को वे भविष्य में एक कसौटी के रूप में इस्तेमाल करते हैं। तभी तो असमवासी 1962 के ीचन युद्ध के समय पंडित नेहरू के कहे शब्दों को आज भी याद करते हैं। नगा युवा अपने बुजुर्गों से खोनोमा गांव के कत्लेआम की कहानियां सुनकर बड़ा होता है।
कर्नाटक और महाराष्ट्र की सरकारों ने अपने शहरों में रहने वाले प्रवासियों के प्रति जो संवेदनशीलता दिखाई है वह भविष्य के लिए एक नजीर बन जाएगी। "हिंदुस्तान एक है यहां हर कहीं हर किसी को रहने का हक है।' बेंगलुरु स्टेशन पर खड़े एक पूर्वोत्तरवासी को टीवी कैमरा के सामने यह नारा लगाते सुनना सुखद लगा था। इस नारे की प्रतिध्वनि हो सकता है भविष्य में पूर्वोत्तर में भी सुनाई दे। हो सकता है कभी यह भाव भी जाग्रत हो कि जब समय की मांग हुई थी तब हमने इस वाक्य के मर्म को अपने राज्य में लागू नहीं किया था।
एक मह्त्वाकंकांक्षी राजा ने अपने राज्य में युद्ध व यात्रा के लिए बढिया नस्ल के घोड़े मंगाए | सामान ढोने के लिए कुछ गधो का भी प्रबंध किया गया. एक दिन राजा के वित् मंत्री ने राजा को एक नायाब सुझाव दिया और राजा मुदित हुआ.उसने फोरन घोड़ो को बुलाया,फरमान सुनाया की अब उन्हें बोझा ढोने का काम भी करना होगा.क्योकि राज्य की अर्थ वयस्था सुधारने के लिए गधो की छटनी की जा रही है.घोड़ो को यह फरमान अपमानजनक लगा, उन्होंने बोझा ढोने से स्पष्ट मना कर दिया. घोड़ों को देश से निकाल दिया गया . तब राजा ने गधों को बुलाया. फरमान हुआ की उन्हें घोड़ों का काम भी संभालना होगा. गधों के लिए क्या फर्क - सामान या आदमी. उन्हें प्रस्ताव सम्मानवर्धक लगा. उन्होंने तुरंत हामी भर दी. तब से यह देश गधों को घोडें मान कर चल रहा है.
जवाब देंहटाएंरिंगानियाजी, आपने लखदाद. आपरो ओ लेख म्हे पढयो| घणो चोखो लाग्यो. आप जिस्सा कलमकार तो हकीकत मे आसाम मे रेव्णिया वाँ लाखू प्रवासिया रा एकला इस्सा जुझार हो जिक्का आपरी कलम री कोरणी सूँ साँचा चितराम मांडता थका उण मूक लोगा री आवाज ने जबान देवो. अल्फा रे आतंक री वगत भी आप जित्तो की पुर्बांचल प्रहरी मे लिख्यो वो सोनलिया आखरां मे लिखण जोग है. पण हिंदी भाषा री आपरी सीवाँ है अर आपरो वो लिख्योड़ो उण सीवाँ मे ही समटीज्ग्यो| म्हे आज भी मानूँ के आपरे उण लेखन री कूंत हुवणी चाईजे.
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