शुक्र है कि असम में ईद का त्योहार ठीक-ठाक गुजर गया, लेकिन वहां की हिंसा के संदर्भ में जो चीज सबसे ज्यादा आश्चर्य में डालने वाली है, वह है राज्य से बाहर के लोगों में असम के बारे में कुछ भी न सीखने की जिद। अब भले ही वह लालकृष्ण आडवाणी जैसे पूर्व उप प्रधानमंत्री हों, या चौबीसों घंटे चलने वाले खबरिया चैनल, हिंदी के राष्ट्रीय अखबार हों या देश का उर्दू मीडिया। ऐसा लगता है कि किसी की भी मामले की तह तक पहुंचने में कोई रुचि नहीं है, लेकिन हर कोई इस हिंसा में से अपनी पसंद का कोई एक पहलू छांट कर उसकी ढोल पीटना चाहता है।
भारतीय बनाम बांग्लादेशी
श्री आडवाणी ने कोकराझाड़ की हिंसा को 'भारतीय बनाम बांग्लादेशी' की लड़ाई के फारमूले में ढाल कर इसका पॉलिटिकल माइलेज लेने की कोशिश की। लेकिन उन्होंने यह सोचने की कोशिश नहीं की कि उन्हीं के गृह मंत्री रहते 2003 में हुए बोड़ो समझौते के तहत उग्रवादियों से सारे हथियार वापस क्यों नहीं लिए गए थे। और यह इलाका आज भी अपराधियों का स्वर्ग क्यों बना हुआ है कि पुलिस भी कोई कार्रवाई करने में हिचकती है।
उर्दू अखबारों और मुस्लिम संगठनों को मुख्यमंत्री पद की बलि चाहिए, इससे कम कुछ नहीं। उनके लिए एक बिकाऊ फार्मूला है -तरुण गोगोई की तुलना नरेंद्र मोदी से करना। वे कहते हैं कि चूंकि बोड़ो स्वायत्त इलाके में राज कर रहे बोड़ो पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) के साथ प्रदेश में कांग्रेस ने गठजोड़ कर रखा है, इसलिए राज्य सरकार अपनी भागीदार पार्टी के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं कर सकती। उर्दू मीडिया के ये विश्लेषक इस तथ्य पर गौर नहीं करना चाहते कि असम में कांग्रेस का बीपीएफ के साथ गठजोड़ तो है, लेकिन सत्ता में बने रहने के लिए कांग्रेस किसी भी अन्य पार्टी पर निर्भर नहीं है। इसके अलावा, कांग्रेस और बीपीएफ के इस गठजोड़ के बावजूद बीपीएफ अपने प्रभाव वाले इलाके में कांग्रेस के लिए एक भी सीट नहीं छोड़ती।
राज्य की मांग का विरोध
असम की घटनाओं को सतही ढंग से देखने वालों को मालूम नहीं है कि बोड़ो स्वायत्त इलाके में तीन-चार महीने पहले से ही गैर बोड़ो समुदायों ने अपना एक संगठन बनाकर आंदोलन छेड़ रखा था। यह आंदोलन बोड़ो स्वायत्त इलाके में बढ़ रहे अपहरण और धन वसूली जैसे अपराधों के विरुद्ध था। इन समुदायों की सम्मिलित आबादी बोड़ो स्वायत्त इलाके में 70 फीसदी तक है। ये समुदाय अलग बोड़ोलैंड राज्य की मांग का भी विरोध करते रहे हैं। पिछली जुलाई में इन लोगों ने अपनी इन मांगों को ले कर गुवाहाटी में राजभवन के सामने प्रदर्शन भी किया था। लेकिन अलग बोड़ोलैंड राज्य की मांग का विरोध किसी भी बोड़ो संगठन या राजनीतिक पार्टी को रास नहीं आया और इसने गैर बोड़ो आबादी के लिए उनके मन में बसी नफरत के लिए आग में घी का काम किया।
बोड़ो स्वायत्त क्षेत्र के गैर बोड़ो समुदायों की आबादी में अच्छा-खासा हिस्सा मुसलमानों का है। इन मुसलमानों कोआम बोलचाल में बांग्लादेशी कह दिया जाता है। यह बात इस मायने में सही है कि ये सभी मूल रूप से वहां के हैंजिसे आज बांग्लादेश कहा जाता है। और यह इस मायने में गलत है कि ये सभी बांग्लादेशी घुसपैठिए नहीं हैं।इनका असम में आना उस समय से जारी है, जब आज का बांग्लादेश अविभाजित भारत का हिस्सा था। वे पश्चिमबंगाल और त्रिपुरा में भी इसी तरह आते रहे हैं। इस संबंध में असम के लोगों का केंद्र सरकार के साथ यह समझौताहुआ है कि मार्च 1971 तक आए लोगों को भारतीय नागरिक मान लिया जाएगा। आज असम की आबादी में 30फीसदी से अधिक मुसलमान हैं। इनमें बहुत छोटा-सा हिस्सा असमिया भाषी मुसलमानों का है, बाकी सभीबांग्लाभाषी मुसलमान हैं। इन बांग्लाभाषी मुसलमानों में अवैध घुसपैठिए नहीं होंगे, यह नहीं कहा जा सकता।
जब बोड़ो स्वायत्त क्षेत्र में रहने वाले गैर बोड़ो लोगों की ओर से यह चुनौती मिलने लगी कि सिर्फ 30 फीसदी बोड़ोआबादी 70 फीसदी आबादी पर अपना राज कैसे चला सकती है, तो बोड़ो समुदाय ने इसका आसान-सा उत्तरखोजा। 21 जुलाई से मुसलमानों को उनके गांवों से खदेड़ना ही वह उत्तर था जो बोड़ो समुदाय ने उनके वर्चस्व कोचुनौती देने वाले मुसलमानों को दिया है। हालांकि सरकारी दस्तावेजों में 2003 के बाद से बीएलटी नामक संगठनका कोई अस्तित्व नहीं है और इसके सदस्य रहे लोगों के पास कोई हथियार भी नहीं है। लेकिन सचाई यह है किहथियारबंद पूर्व बीएलटी के सदस्य इस बोड़ो स्वायत्त क्षेत्र में आतंक का पर्याय बने हुए हैं। बोड़ो स्वायत्त क्षेत्र में जोकुछ हुआ है, उसके छोटे-छोटे संस्करण असम के पड़ोसी राज्यों में भी यदा-कदा घटित होते रहे हैं। इन राज्यों केबाशिंदों को हमेशा यह खतरा दिखाई देता है कि अस्थायी रूप से आए ये मजदूर यहां-वहां खाली पड़ी जमीन परअपना बसेरा बना लेंगे और बाद में इन्हें वापस करना मुश्किल हो जाएगा।
नागरिकों की पहचान
असम में नागरिकों की पहचान का कोई सर्वमान्य तरीका नहीं होने के कारण सारे बांग्लाभाषी मुसलमानों कोइसका खामियाजा उठाना पड़ता है। इसका एकमात्र हल यह है कि नागरिकों का एक राष्ट्रीय रजिस्टर बनाया जाए,जिसमें सभी भारतीय नागरिकों के नाम हों। किसे भारतीय नागरिक माना जाएगा और यह रजिस्टर कैसे बनेगा,इस पर काफी वाद-विवाद के बाद सभी पक्षों के बीच सहमति बन चुकी है। लेकिन फिर भी यह रजिस्टर सिर्फप्रशासनिक बहानेबाजियों के कारण नहीं बन पा रहा है। नकारात्मक भविष्यवाणी करना अच्छा नहीं लगता, फिरभी कहना पड़ता है कि जब तक यह रजिस्टर नहीं बन जाता, तब तक यह हिंसा बार-बार सिर उठाती रहेगी।
भारतीय बनाम बांग्लादेशी
श्री आडवाणी ने कोकराझाड़ की हिंसा को 'भारतीय बनाम बांग्लादेशी' की लड़ाई के फारमूले में ढाल कर इसका पॉलिटिकल माइलेज लेने की कोशिश की। लेकिन उन्होंने यह सोचने की कोशिश नहीं की कि उन्हीं के गृह मंत्री रहते 2003 में हुए बोड़ो समझौते के तहत उग्रवादियों से सारे हथियार वापस क्यों नहीं लिए गए थे। और यह इलाका आज भी अपराधियों का स्वर्ग क्यों बना हुआ है कि पुलिस भी कोई कार्रवाई करने में हिचकती है।
उर्दू अखबारों और मुस्लिम संगठनों को मुख्यमंत्री पद की बलि चाहिए, इससे कम कुछ नहीं। उनके लिए एक बिकाऊ फार्मूला है -तरुण गोगोई की तुलना नरेंद्र मोदी से करना। वे कहते हैं कि चूंकि बोड़ो स्वायत्त इलाके में राज कर रहे बोड़ो पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) के साथ प्रदेश में कांग्रेस ने गठजोड़ कर रखा है, इसलिए राज्य सरकार अपनी भागीदार पार्टी के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं कर सकती। उर्दू मीडिया के ये विश्लेषक इस तथ्य पर गौर नहीं करना चाहते कि असम में कांग्रेस का बीपीएफ के साथ गठजोड़ तो है, लेकिन सत्ता में बने रहने के लिए कांग्रेस किसी भी अन्य पार्टी पर निर्भर नहीं है। इसके अलावा, कांग्रेस और बीपीएफ के इस गठजोड़ के बावजूद बीपीएफ अपने प्रभाव वाले इलाके में कांग्रेस के लिए एक भी सीट नहीं छोड़ती।
राज्य की मांग का विरोध
बोड़ो स्वायत्त क्षेत्र के गैर बोड़ो समुदायों की आबादी में अच्छा-खासा हिस्सा मुसलमानों का है। इन मुसलमानों कोआम बोलचाल में बांग्लादेशी कह दिया जाता है। यह बात इस मायने में सही है कि ये सभी मूल रूप से वहां के हैंजिसे आज बांग्लादेश कहा जाता है। और यह इस मायने में गलत है कि ये सभी बांग्लादेशी घुसपैठिए नहीं हैं।इनका असम में आना उस समय से जारी है, जब आज का बांग्लादेश अविभाजित भारत का हिस्सा था। वे पश्चिमबंगाल और त्रिपुरा में भी इसी तरह आते रहे हैं। इस संबंध में असम के लोगों का केंद्र सरकार के साथ यह समझौताहुआ है कि मार्च 1971 तक आए लोगों को भारतीय नागरिक मान लिया जाएगा। आज असम की आबादी में 30फीसदी से अधिक मुसलमान हैं। इनमें बहुत छोटा-सा हिस्सा असमिया भाषी मुसलमानों का है, बाकी सभीबांग्लाभाषी मुसलमान हैं। इन बांग्लाभाषी मुसलमानों में अवैध घुसपैठिए नहीं होंगे, यह नहीं कहा जा सकता।
जब बोड़ो स्वायत्त क्षेत्र में रहने वाले गैर बोड़ो लोगों की ओर से यह चुनौती मिलने लगी कि सिर्फ 30 फीसदी बोड़ोआबादी 70 फीसदी आबादी पर अपना राज कैसे चला सकती है, तो बोड़ो समुदाय ने इसका आसान-सा उत्तरखोजा। 21 जुलाई से मुसलमानों को उनके गांवों से खदेड़ना ही वह उत्तर था जो बोड़ो समुदाय ने उनके वर्चस्व कोचुनौती देने वाले मुसलमानों को दिया है। हालांकि सरकारी दस्तावेजों में 2003 के बाद से बीएलटी नामक संगठनका कोई अस्तित्व नहीं है और इसके सदस्य रहे लोगों के पास कोई हथियार भी नहीं है। लेकिन सचाई यह है किहथियारबंद पूर्व बीएलटी के सदस्य इस बोड़ो स्वायत्त क्षेत्र में आतंक का पर्याय बने हुए हैं। बोड़ो स्वायत्त क्षेत्र में जोकुछ हुआ है, उसके छोटे-छोटे संस्करण असम के पड़ोसी राज्यों में भी यदा-कदा घटित होते रहे हैं। इन राज्यों केबाशिंदों को हमेशा यह खतरा दिखाई देता है कि अस्थायी रूप से आए ये मजदूर यहां-वहां खाली पड़ी जमीन परअपना बसेरा बना लेंगे और बाद में इन्हें वापस करना मुश्किल हो जाएगा।
नागरिकों की पहचान
असम में नागरिकों की पहचान का कोई सर्वमान्य तरीका नहीं होने के कारण सारे बांग्लाभाषी मुसलमानों कोइसका खामियाजा उठाना पड़ता है। इसका एकमात्र हल यह है कि नागरिकों का एक राष्ट्रीय रजिस्टर बनाया जाए,जिसमें सभी भारतीय नागरिकों के नाम हों। किसे भारतीय नागरिक माना जाएगा और यह रजिस्टर कैसे बनेगा,इस पर काफी वाद-विवाद के बाद सभी पक्षों के बीच सहमति बन चुकी है। लेकिन फिर भी यह रजिस्टर सिर्फप्रशासनिक बहानेबाजियों के कारण नहीं बन पा रहा है। नकारात्मक भविष्यवाणी करना अच्छा नहीं लगता, फिरभी कहना पड़ता है कि जब तक यह रजिस्टर नहीं बन जाता, तब तक यह हिंसा बार-बार सिर उठाती रहेगी।
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