गुवाहाटी कांड में प्याज के छिलकों की तरह एक के एक बाद परतें उतर रही हैं। इस घटना का एक पहलू है पुरुष प्रधान समाज में आम लोगों की मानसिकता का उजागर होना। जब से यह घटना हुई है कुछ लोगों की जबान पर एक सवाल बार-बार सुनने को मिल रहा है कि वह लड़की या औरत कौन थी? उसका नाम क्या था? राष्ट्रीय मीडिया पर पीड़ित लड़की का नाम उजागर होने के बाद जांच के लिए असम आई अलका लांबा नामक सामाजिक कार्यकर्ता की काफी किरकिरी हुई है। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर लोगों को पता नहीं कि असम में पीड़ित लड़की का नाम न केवल एकाधिक मीडिया हाउसों में आया है बल्कि प्रिंट मीडिया के कई तथाकथित खोजी पत्रकारों ने उस लड़की के बारे में सूचनाएं खोद निकालने में इतनी मेहनत की जितनी उन लोगों ने अपने कैरियर में इससे पहले अन्य किसी समाचार के लिए नहीं की होगी।
इन खोजी पत्रकारों ने उक्त लड़की के मां-बाप, उसके रोजगार, उसके पति, वह किसलिए बार में गई थी, उसका चरित्र कैसा है - ये सारी बातें सविस्तार प्रकाशित की है। केवल इसी लड़की के बारे में ही नहीं, देखा गया है कि राज्य में कई समाचार पत्र यौन उत्पीड़न या बलात्कार आदि की पीड़ित स्त्री की पहचान को गुप्त रखने को महत्वपूर्ण नहीं मानते। किसी भी तरह के नियम और नैतिकता को नहीं मानने की प्रवृत्ति की पराकाष्ठा 9 जुलाई को जीएस रोड कांड का टीवी पर प्रदर्शन था।
इन दिनों देखा गया है कि स्थानीय मीडिया पर - जिसमें प्रिंट और इलेक्ट्रानिक दोनों ही शामिल हैं - नैतिकतावादी बहस और भाषणों की झड़ी-सी लग गई है। लोग राज्य में शराब के अधिक प्रचलन, स्त्रियों के पहनावे और रात में लड़कियों के बाहर निकलने आदि पर ज्यादा ही नैतिकतावादी भाषण देने लग गए हैं, जिसका लब्बोलुवाब यह होता है कि हाय अपना परम नैतिक समाज आज किधर जा रहा है। ऊपर जिन विषयों का उल्लेख किया गया है उन पर बहस और चर्चा हो इस पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती। लेकिन चूंकि इस चर्चा के लिए विचारोत्तेजना का कारण बना है जीएस रोड कांड, इसलिए यह मानने का कारण है कि ऐसी चर्चाएं शुरू करने वालों की मानसिकता अमूमन इस तरह की होती है - ऐसे परिधान पहनेगी तो ऐसे कांड करने वालों का क्या दोष, रात को ये लड़कियां क्या करने को बार में जाती हैं, हमारा समाज आधुनिकता की दौड़ में जिस तरह भाग रहा है उसका यही परिणाम होना था, आदि। हम फिर कहते हैं कि ऐसी चर्चा गलत नहीं है, लेकिन इस विशेष समय में इस दिशा में चिंतन करना उसी तरह गलत है जिस तरह किसी व्यापारी के यहां डकैती हो जाए और उसी समय कहा जाए कि सारी तो ब्लैक मनी है थोड़ी-सी डकैती में चली गई तो क्या हुआ। यह एक तरह से डकैतों का पक्ष लेने के समान है। नैतिकतावादी दिशा में चिंतन करने वाले इस लिहाज से समाज का बहुत बड़ा अहित करते हैं कि वे समाज में हर हालत में कानून और व्यवस्था के बने रहने के महत्त्व को कम करते हैं।
रात को महिलाओं के घूमने और उपयुक्त रूप से वस्त्र पहनने की बात चली तो बताते चलें कि (उदाहरण के तौर पर) दुबई शहर की स्थानीय अरब महिलाएं बुरका पहनकर ही बाहर निकलती हैं लेकिन वहां विदेशियों की संख्या 90 फीसदी है जो लोग बहुत ही कम कपड़ों में दिन और रात किसी भी समय सड़कों पर घूमते हैं। लेकिन मजाल है कि कोई भी उन्हें हाथ भी लगा ले। आप अपनी संस्कृति का पालन करें लेकिन यह नहीं भूलें कि जिस देश में महिलाएं डर के मारे रात को घर से नहीं निकल पाती हों वहां संस्कृति, परंपरा और नैतिकता की बड़ी-बड़ी बातें करना मिथ्याचार के अलावा और कुछ नहीं। जो लोग नारी के वस्त्रों और उसके रात को बार में जाने के औचित्य पर चर्चा कर रहे हैं क्या वे इस बात की गारंटी देते हैं कि अधिक वस्त्र पहनने और रात को घर से बाहर नहीं निकलने पर इस देश में गुवाहाटी कांड जैसा कांड फिर से नहीं घटेगा?
इन खोजी पत्रकारों ने उक्त लड़की के मां-बाप, उसके रोजगार, उसके पति, वह किसलिए बार में गई थी, उसका चरित्र कैसा है - ये सारी बातें सविस्तार प्रकाशित की है। केवल इसी लड़की के बारे में ही नहीं, देखा गया है कि राज्य में कई समाचार पत्र यौन उत्पीड़न या बलात्कार आदि की पीड़ित स्त्री की पहचान को गुप्त रखने को महत्वपूर्ण नहीं मानते। किसी भी तरह के नियम और नैतिकता को नहीं मानने की प्रवृत्ति की पराकाष्ठा 9 जुलाई को जीएस रोड कांड का टीवी पर प्रदर्शन था।
इन दिनों देखा गया है कि स्थानीय मीडिया पर - जिसमें प्रिंट और इलेक्ट्रानिक दोनों ही शामिल हैं - नैतिकतावादी बहस और भाषणों की झड़ी-सी लग गई है। लोग राज्य में शराब के अधिक प्रचलन, स्त्रियों के पहनावे और रात में लड़कियों के बाहर निकलने आदि पर ज्यादा ही नैतिकतावादी भाषण देने लग गए हैं, जिसका लब्बोलुवाब यह होता है कि हाय अपना परम नैतिक समाज आज किधर जा रहा है। ऊपर जिन विषयों का उल्लेख किया गया है उन पर बहस और चर्चा हो इस पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती। लेकिन चूंकि इस चर्चा के लिए विचारोत्तेजना का कारण बना है जीएस रोड कांड, इसलिए यह मानने का कारण है कि ऐसी चर्चाएं शुरू करने वालों की मानसिकता अमूमन इस तरह की होती है - ऐसे परिधान पहनेगी तो ऐसे कांड करने वालों का क्या दोष, रात को ये लड़कियां क्या करने को बार में जाती हैं, हमारा समाज आधुनिकता की दौड़ में जिस तरह भाग रहा है उसका यही परिणाम होना था, आदि। हम फिर कहते हैं कि ऐसी चर्चा गलत नहीं है, लेकिन इस विशेष समय में इस दिशा में चिंतन करना उसी तरह गलत है जिस तरह किसी व्यापारी के यहां डकैती हो जाए और उसी समय कहा जाए कि सारी तो ब्लैक मनी है थोड़ी-सी डकैती में चली गई तो क्या हुआ। यह एक तरह से डकैतों का पक्ष लेने के समान है। नैतिकतावादी दिशा में चिंतन करने वाले इस लिहाज से समाज का बहुत बड़ा अहित करते हैं कि वे समाज में हर हालत में कानून और व्यवस्था के बने रहने के महत्त्व को कम करते हैं।
रात को महिलाओं के घूमने और उपयुक्त रूप से वस्त्र पहनने की बात चली तो बताते चलें कि (उदाहरण के तौर पर) दुबई शहर की स्थानीय अरब महिलाएं बुरका पहनकर ही बाहर निकलती हैं लेकिन वहां विदेशियों की संख्या 90 फीसदी है जो लोग बहुत ही कम कपड़ों में दिन और रात किसी भी समय सड़कों पर घूमते हैं। लेकिन मजाल है कि कोई भी उन्हें हाथ भी लगा ले। आप अपनी संस्कृति का पालन करें लेकिन यह नहीं भूलें कि जिस देश में महिलाएं डर के मारे रात को घर से नहीं निकल पाती हों वहां संस्कृति, परंपरा और नैतिकता की बड़ी-बड़ी बातें करना मिथ्याचार के अलावा और कुछ नहीं। जो लोग नारी के वस्त्रों और उसके रात को बार में जाने के औचित्य पर चर्चा कर रहे हैं क्या वे इस बात की गारंटी देते हैं कि अधिक वस्त्र पहनने और रात को घर से बाहर नहीं निकलने पर इस देश में गुवाहाटी कांड जैसा कांड फिर से नहीं घटेगा?
चलिए मान लेते हैं कि कोई भी पत्रकार अपराधी, बलात्कारी, भ्रष्टाचारी नहीं है।
जवाब देंहटाएंचलिए जान लेते हैं कि सारे पत्रकार मासूम, पाक फ़रिश्ते हैं।
जब इंसान जुर्म करता है - तो इंसानियत रुसवा होती है
लेकिन जब फ़रिश्ते ख़ताएँ करते हैं - तो ख़ुदाई शर्मसार होती है।
मैं बुझे हुए अंगारों से - फिर आग जलाने निकला हूँ..!
मैं इस गूंगे बहरे शासन को - फिर से जगाने निकला हूँ..!!
जलते घर को देखने वालो ! फूस का छप्पर आपका है,
आपके पीछे तेज़ हवा है , आगे मुक़द्दर आपका है।
उनके क़त्ल पे मैं जो चुप था, आज मेरा नम्बर आया,
मेरे क़त्ल पे आप जो चुप हैं, अगला नम्बर आपका है।
ब्लॉग पर ब्यक्त विचारों से पूर्ण सहमति नहीं हो सकती। क्योंकि ये विचार सामाजिक ब्यवस्था की नितांत आधुनिकता, जो भारतीय सभ्यता के प्रतिकूल है, से प्रेरित लगते हैं। खोजी पत्रकारिता के नाम पर पीड़ित लड़की की पहचान को परिवार सहित उजागर करने की मानसिकता बीमार पत्रकारिता की मानसिकता का परिचायक है। यदि खोजी पत्रकारिता करनी ही तो चैनल से त्यागपत्र देने वाले पत्रकारों के अतीत मे जाओ और पता लगाओ कि अतीत मे इनका संपर्क किससे था। अतः पीड़ित लड़की की पहचान उजागर करने के संदर्भ मे ब्लॉग पर ब्यक्त किये गये विचारों से पूर्ण सहमति है।
जवाब देंहटाएं“लोग राज्य में शराब के अधिक प्रचलन, स्त्रियों के पहनावे और रात में लड़कियों के बाहर निकलने आदि पर ज्यादा ही नैतिकतावादी भाषण देने लग गए हैं, जिसका लब्बोलुवाब यह होता है कि हाय अपना परम नैतिक समाज आज किधर जा रहा है। ऊपर जिन विषयों का उल्लेख किया गया है उन पर बहस और चर्चा हो इस पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती। लेकिन चूंकि इस चर्चा के लिए विचारोत्तेजना का कारण बना है जीएस रोड कांड, इसलिए यह मानने का कारण है कि ऐसी चर्चाएं शुरू करने वालों की मानसिकता अमूमन इस तरह की होती है - ऐसे परिधान पहनेगी तो ऐसे कांड करने वालों का क्या दोष, रात को ये लड़कियां क्या करने को बार में जाती हैं, हमारा समाज आधुनिकता की दौड़ में जिस तरह भाग रहा है उसका यही परिणाम होना था, आदि।“
ब्लॉग पर ब्यक्त विचारों की असहमति के रुप मे मुझे कहने दें कि भारतीय सामाजिक ब्यवस्था मे लौकिक शील रक्षण को प्रधानता दी जाती है। हमारा देश वह देश था जहां भाभी के चरण स्पर्ष करते समय पैरों के अलंकार ही देखे जाते थे। आज पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण के चलते स्थितियां भले ही बदल जाये पर इससे वास्तविकत नहीं बदली जा सकती। पीड़ित लड़की के साथ बदसलूकी हूई वह निंदनीय है लेकिन इसके पीछे अन्यान्य कारणों के साथ साथ पहनावा, रात के समय बार मे जाना और फिर खा पी कर लड़खड़ाते हुए बाहर निकलना क्या प्रोवोकेटिव नहीं है। इसलिए इन चर्चाओं को ज्यादा ही नैतिकतावादी भाषण देने लग गये हैं कहना उचित नहीं लगता।
ब्लॉग पर इन चर्चाओं को गलत भी नहीं माना गया है, सिर्फ गलत माना है एक घटना विशेष के संदर्भ मे। कृपया मुझे सवाल करने दें कि जब हम अन्य मौकों पर किसी लड़की को अत्याधुनिक पहनावे मे देखते है तो क्या हमारी किसी न किसी रुप मे प्रतिकूल प्रतिक्रिया ब्यक्त नहीं होती।
असहमति के लिए खेद है।
हमारे यहाँ की प्रगतिवादी महिलाएं बस एक ही चिज की माँग करती हैं वह है आजादी, समान अधिकार। मैं भी इनके पक्ष में हूँ लेकिन जहाँ तक मुझे लगता है कि इन सब के पिछे ये महिलाएं कुछ चिजो को भुल जा रहीं है। इन्हे ये नहीं दिखता की आजादी को खुलापन कहकर किस प्रकार से इनका प्रयोग किया जा रहा है। चुनाव प्रचार हो या शादी का पंड़ाल छोट-छोटे कपड़ो में महिलाओं को स्टेज पर नचाया जा रहा है।
जवाब देंहटाएंपश्चिमी सभ्यता और संस्कृति के अन्धानुकरण के कारण अपनी मौलिक संस्कृति को लोग नजरंदाज करने लगे हैं। भारतीय जन मानस इसी कारण अलग प्रकार के सोच में ढ़लने लगा है। परिणामत: संस्कृति के प्राण तत्त्व त्याग, बलिदान, सदाचार, परस्परता और श्रमशीलता के स्थान पर पनपने लगी हैं-उच्छृंखलता, अनुशासनहीनता, आलसीपन और स्वार्थपरता जैसी प्रवृत्तियां। नई पीढ़ी इनके दुष्प्रभावों के व्यामोह में अपने को लुटाने और बरबाद करने में लग गई है।क्लबों, होटलों, बारों आदि में शराब और विलासिता में लिप्त अपने
भारतीय नारी अपनी लज्जा के लिए विश्व प्रसिद्ध है। शर्म उसका प्रिय गहना है, तभी तो विवेकानंद को कहना पड़ा कि भारतीय नारी का नारीत्व बहुत आर्कषक है। जयशंकर प्रसाद जैसे कवि नारी,तुम केवल श्रृद्धा हो कहकर चुप हो जाते है। मगर इन कम शब्दों में भी कितनी बड़ी बात है। नारी को पुरूषों के गुणों की कसौटी बताते हुए दार्शनिक गेटे कहते है कि नारियों का संपर्क ही उत्तमशील की आधारशिला है। शीलवती नारियो के संपर्क में आकार ही पुरूष चरित्रवान, धैर्यवान, एवं तेजस्वी बनता है। नारी सम्मान की बात याद आती हे तो हमारे पूर्वज मनु का कथन याद आता है कि जहां स्त्रियों का सम्मान होता है वहां देवना निवास रत होते है। प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तू ने भी यही बात कही है कि स्त्री की उन्नति और अवनति पर ही राष्ट्र की उन्नति और अवनति निर्भर करती है।
संसार में एक नारी को जो करना है वह पुत्री बहन,पत्नी और माता के पावन कर्तव्यों के अंतर्गत आ जाता है। फिर भी पता नहीं क्यों आधुनिकता के चक्कर मे पड़ी नारी पश्चिमी देशों के बनाए हुए अंधे रास्ते पर चलकर ग्लैमर की दुनिया में खोना चाहती है। और यही वह कदम है जो पंरपरागत मूल्यों पर चलने वाली कल की नारी और आज की स्वच्छंद नारी में अंतर स्पष्ट करता है। भारतीय नारी भारतीय संस्कृति के परंपरागत मूल्यों को त्यागकर विदेशी नारी की नकल कर रही है। आज बनावट, पैसे की चकाचौंध, विज्ञापन की दुनिया व फिल्मी माध्यमों से प्रभावित नारी ने अपने सारे परंपरागत मूल्यों को धोकर अश्रृद्धा का रूप धारण कर लिया है। आज भी नारी को कविवर जयशंकर प्रसाद की एक बात याद रखनी होगी कि नारी तुम केवल श्रृद्धा हो। आज नारी स्वयं अपनी भूल से अनेक समस्याओं से घिर गयी है ।