इसमें कोई शक नहीं कि मुंबई पर हुआ हमला भारत का 9/11 है। सवाल है कि क्या हम उस तरह के कदम उठाने के लिए तैयार हो पाए हैं जिस तरह के कदम अमरीका ने पिछले सात सालों में फिर से किसी 9/11 की पुनरावृत्ति रोकने के लिए उठाए हैं।
इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि कल को फिर से सशस्त्र बदमाशों का दल भारत के किसी अन्य शहर के किसी होटल, स्टेशन या हवाईअड्डे पर हमला नहीं कर देगा। ऐसा हो ही सकता है। लेकिन सवाल है कि क्या हम आज भी यह स्वीकार करने के लिए तैयार हैं कि आतंक के विरुद्ध ईमानदार, पार्टीगत राजनीति से इतर जीरो टालरेन्स की नीति अपनाने में काफी देर हो गई है?
आतंक का मुकाबला करने के रास्ते में बाधा यह नहीं है कि कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच कोई मौलिक वैचारिक मतभेद हैं, न ही हमारे गृह मंत्री कोई बाधा हैं जो जीवंत कैमरे के सामने बिना यह सोचे कि आतंकवादी और उनके आका भी टीवी देख रहे होंगे, सूचना देते हैं कि 200 कमांडों दिल्ली से इतनी बजे रवाना हो चुके हैं।
आतंकवाद का मुकाबला करने में बाधा है हमारी अति यर्थाथवादी राजनीति जो विचारधारा के आधार पर नहीं गणित के आधार पर चलती है। इसलिए जब हमारा राजनीतिक वर्ग आतंकवाद के बारे में सोचता है तो वह इसके संप्रदायीकरण के बारे में भी सोचता है। इसमें यूपीए और एनडीए दोनों ही समान रूप से दोषी हैं। जहां भाजपा केवल जिहादी आतंकवाद के बारे में सोचती है, वहीं कांग्रेस आतंकवाद के मूल कारणों की खोज में समय जाया करती है।
केपीएस गिल ने अपने आलेख में ठीक ही लिखा है कि आतंकवाद से मुकाबला करने के लिए कानून का सहारा लिया जाए या विकास का सहारा लिया जाए या राजनीति का सहारा लिया जाए या बातचीत का सहारा लिया जाए या पुलिस का सहारा लिया जाए या मिलिटरी का सहारा लिया जाए - इस िनरर्थक बहस में उलझने का कोई मतलब नहीं है। आतंकवाद से मुकाबला करने का एक और एकमात्र तरीका है आतंकवाद विरोध या काउंटर टेररिज्म, इसमें ही सारी बातें समाहित हो जाती हैं।
जब मालेगांव बम विस्फोट में हिंदुओं का हाथ मिला तो कांग्रेस पक्ष के कुछ लोगों के चेहरों पर मुस्कान छुपाए नहीं छुप रही थी। तो दूसरी ओर भाजपा मामले की जांच कर रहे एटीएस और उसके प्रमुख की विश्वसनीयता पर ही प्रश्नचिन्ह लगाते हुए इसके प्रमुख हेमंत करकरे को हटाने की मांग करने लगी।
हेमंत करकरे अब अंततः मरने के बाद वह चीज हासिल कर लेंगे जो वे जीवित रहते कभी नहीं कर पाते। वह चीज है कांग्रेस और भाजपा दोनों के ही नेताओं की आंखों से एक साथ निकली आंसू की चंद बूंदें। यही वह चीज है जो आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में आज सबसे महत्वपूर्ण है। एक साथ।
आतंकवाद को छोड़ दें तो देश में सबकुछ ठीकठाक ही चल रहा था। दुनिया भर की मंदी के बीच हम सात फीसदी वृद्धि दर की उम्मीद कर रहे थे। चांद को भी हमने छू लिया। देश के कई शहरों में बम विस्फोट करने वाले गिरोह को भी हमने पकड़ने में कामयाबी हासिल कर ली। कश्मीर में साठ फीसदी मतदान हो गया। तो हम आधा या एक दर्जन दहशतगर्दों को इस देश की तकदीर लिखने की इजाजत कैसे दे सकते हैं।
होने को इन दहशतगर्दों के हाथ बहुत लंबे होंगे लेकिन भारत की संकल्प शक्ति भी अभी चुकी नहीं है। जरूरत है इसके राजनीतिक वर्ग को एक साथ आने की। आज देश की दो सौ बीस करोड़ आंखें मनमोहन सिंह, लालकृष्ण आडवाणी, लालूप्रसाद, मुलायम सिंह, मायावती और प्रकाश करात को एक मंच से यह घोषणा करते हुए देखना चाहती हैं कि आतंकवाद से मुकाबला करने के मामले में सारा देश एक है। इस मुद्दे पर किसी तरह की राजनीति न तो की जाएगी और न ही बर्दाश्त की जाएगी।
" शोक व्यक्त करने के रस्म अदायगी करने को जी नहीं चाहता. गुस्सा व्यक्त करने का अधिकार खोया सा लगता है जबआप अपने सपोर्ट सिस्टम को अक्षम पाते हैं. शायद इसीलिये घुटन !!!! नामक चीज बनाई गई होगी जिसमें कितनेही बुजुर्ग अपना जीवन सामान्यतः गुजारते हैं........बच्चों के सपोर्ट सिस्टम को अक्षम पा कर. फिर हम उस दौर सेअब गुजरें तो क्या फरक पड़ता है..शायद भविष्य के लिए रियाज ही कहलायेगा।"
जवाब देंहटाएंसमीर जी की इस टिपण्णी में मेरा सुर भी शामिल!!!!!!!
प्राइमरी का मास्टर
"हेमंत करकरे अब अंततः मरने के बाद वह चीज हासिल कर लेंगे जो वे जीवित रहते कभी नहीं कर पाते। वह चीज है कांग्रेस और भाजपा दोनों के ही नेताओं की आंखों से एक साथ निकली आंसू की चंद बूंदें। "
जवाब देंहटाएंआंसू उन लोगो के निकलते हैं जिनके सीने में दिल होते हैं. इन नेताओं का दिल तो स्विस बैंक में रखा हुवा है.
बहरहाल, खुश-फहमियां पलने में हर्ज़ भी क्या है?
मेरा मानना है की जब तक जनता का और जनता के सवालों का डर इन नेताओं को नहीं होगा, इस तरह के किसी बोल्ड कदम की आशा करना सिर्फ़ खुश फहमी पलना सा ही होगा.
ओमप्रकाश