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हमें यह पता नहीं था कि त्रिपुरा की राजधानी अगरतला बिल्कुल अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर ही बसी हुई है (हम कितने अज्ञानी हैं)। हमें यह तो पता था कि अंतर्राष्ट्रीय सीमा वहां से पास ही है लेकिन इस बात का आभास नहीं था कि हमारे देश के एक राज्य की राजधानी बिल्कुल सीमा पर ही है। सीमा के उस पार के कस्बे का नाम अखौड़ा है। औपचारिकताएं पूरी कर सीमा चौकी पार करने के बाद ऑटो से अखौड़ा स्टेशन तक जाने के दो सौ बांग्लादेशी टाका लगते हैं। यही 7-8 किलोमीटर की दूरी होगी। अखौड़ा में सड़कें संकरी थीं, काफी भीड़-भड़क्का। स्टेशन पर एक ट्रेन खड़ी थी। बांग्लादेश की सभी ट्रेनें चेयर कार वाली हैं। टिकट पर ही सीट नंबर लिखा रहता है। प्लेटफार्म पर तीन-चार सजे-धजे किन्नर तेज-तेज जा रहे थे, एक-दूसरे से होड़ करते हुए। जैसे हमारे यहां जाते हैं। जब हम बांग्लादेश में घुसे तो वहां विपक्षी पार्टियों का रास्ता जाम चल रहा था जिसे वहां अवरोध कहा जाता है। अवरोध के कारण पहले से ही भीड़ वाली ट्रेनों में और भी ज्यादा भीड़ थी। लेकिन अखौड़ा से ढाका जाने वाली ट्रेन भी नहीं थी। हमें आजमपुर जाने की सलाह दी गई। आजमपुर वहां से यही कोई 6-7 किलोमीटर था। हमने एक ऑटो ले लिया।
ऑटो ड्राइवर हारून ने हमसे पूछा कि असमिया कैसे बोलते हैं। मैंने एक-दो वाक्य बोलकर सुनाया। लगा कि उसे अच्छा लगा। उसका मन हिंदी बोलने का था। कहा हिंदी बोलिए न। मैं हिंदी जानता हूं। हारून ने दुबई में हिंदी में सीखी थी। वहां वह रंगमिस्त्री का काम करता था। लेकिन ज्यादा कमाई नहीं कर पाया। वहां की एक हजार मुद्राएं यानी बांग्लादेशी टाका में बाईस हजार की कमाई होती थी। अब वह ऑटो चलाकर कम-से-कम तीस हजार कमा लेता है। अखौड़ा में ऑटो ड्राइवरों की अच्छी कमाई है। ऑटो चलाने वाले छह सौ टाका देकर किराए पर ऑटो ले सकते हैं। जबकि अगरतला में एक दिन का किराया तीन सौ रूपया (बांग्लादेशी 360 टाका) है। यानी उधर कमाई ज्यादा है। उधर कमाई ज्यादा होने के प्रमाण हमें आगे भी मिलते गए।
आजमपुर का दबा-सिकुड़ा-मरियल सा स्टेशन था। हमारे यहां ऐसे स्टेशन चालीस साल पहले भी नहीं थे। प्लेटफार्म पर ही मस्जिद बनी हुई थी। विदेशी जानकर प्लेटफार्म के बाहर एक युवक हमारी मदद करने के लिए आगे आया। कहा आपलोग बंग्ला नहीं जानते क्या। हमने पूछा तुम हिंदी कहां से सीखे। वह भी दुबई रिटर्न था। हमें अपने देश का मेहमान समझकर वह मदद करने को आगे आया था। तब तक ट्रेन आ चुकी थी। हमारी टिकट पर सीट नंबर नहीं थे। सीट वाली टिकटें खत्म हो चुकी थी। हमें बैठने का अधिकार नहीं था। पहले ही मिल चुकी सलाह के अनुसार हम बिल्कुल पीछे चले गए थे। वहां की ट्रेनों में पीछे के कोच में कैंटीन रहता है। कैंटीन वाले की ना-नुकर की परवाह नहीं करते हुए हम उसमें जबरदस्ती घुस गए। आखिर कैंटीन वाले को भी पैसे कमाने थे। जो पैसे देने वाले जैसे लगे उनलोगों को उसने कड़ाई से नहीं रोका।
अंदर चाय पीने और खाने के लिए टेबल-कुर्सियां लगी हुई थीं, जैसे कभी हमारे यहां की ट्रेनों में डाइनिंग कार में हुआ करती थीं। लेकिन यह पूरा कोच नहीं था। कोच का आधा या एक-तिहाई हिस्सा था। हर कुर्सी पर यात्री जमे हुए थे। ये लोग कुछ खाने-पीने के लिए नहीं आए थे। बल्कि कैंटीन वाले को कुछ टाका देकर वे लोग उन सीटों पर जम गए थे। कैंटीन वाले ने हमारे लिए भी एक बक्से पर जगह कर दी। उस स्थिति में हमारे लिए वह एसी से भी बढ़िया जगह थी। कैंटीन में सैंडविच, चाय, पानी, कोल्ड ड्रिंक और चावल मिल रहे थे। हमने भी समय पर सैंडविच खा ली। बांग्लादेश में ट्रेनों को किराया बहुत अधिक है। 120 किलोमीटर के 150 टाका ज्यादा ही हैं। हमारे यहां स्थानीय गाड़ियों में बीस-बाइस रुपए लगते हैं, मेल ट्रेन में यही 65-70 रुपए होंगे।
ढाका बिमान बंदर स्टेशन से हमारा होटल नजदीक पड़ता था इसलिए हम वहीं उतर गए। ढाका में कहीं टैक्सी दिखाई नहीं दी। स्टेशन से हमने ऑटो लिया। ढाका के ऑटो लोहे की जाली से पूरी तरह सुरक्षित रहते हैं। बताते हैं कि यहां छिनताई बहुत होती है। चलते ऑटो से औरतों के पर्स या मोबाइल छीन ले जाना आम बात है। उल्फा के अध्यक्ष अरविंद राजखोवा की पत्नी काबेरी कछारी राजखोवा अपने संस्मरण में बताती हैं कि तरह एक बार रिक्शे पर जाते समय एक लड़का उनका पर्स छीन ले गया। ढाका में ऑटो वालों की तेज गति दिल दहला देने वाली होती है। अब मैंने जाना कि ढाका अखबारों में दुर्घटनाओं की खबरें इतनी ज्यादा क्यों होती हैं। सीटी बस वाले चाहते हैं कि सिगनल को अनदेखा कर गाड़ी लाल बत्ती में भी बढ़ा ले जाएं। घर लौटने के बाद ढाका के अखबार में पढ़ा कि एक बस तीन लोगों के ऊपर से निकल गई। पहले लगता था ढाका में इतनी ज्यादा दुर्घटनाएं क्यों होती हैं। अब लगता है इतनी बेपरवाह ड्राइविंग के बाद भी इतनी कम दुर्घटनाएं। शायद ईश्वर के अस्तित्व का यही प्रमाण है। (बस एक मजाक है, ढाका के मित्र माफ करेंगे।)
हमारे हिंदी को लेकर अति उत्साही रहने वाले मित्रों को पता नहीं बांग्लादेश जाकर कैसा लगेगा। बांग्लादेश में सार्वजनिक स्थानों पर अंग्रेजी न के बराबर है। ट्रेनों में कहीं भी अंग्रेजी में कुछ भी लिखा नहीं रहता। टिकट पर होने को तो अंग्रेजी है लेकिन वह साफ नहीं है और आप यदि बंग्ला नहीं जानते तो आपको दूसरों के आसरे ही रहना पड़ेगा। यहां तक कि रोमन संख्याओं का उपयोग करने से भी उन्हें परहेज है। इस स्थिति में हमारे हिंदी-उत्साही मित्र शायद यह कहें कि देखो हमारा एक छोटा-सा पड़ोसी देश भी अपनी भाषा को कितना प्यार करता है और उसने अंग्रेजी को उखाड़ बाहर किया है। और हम हैं कि अंग्रेजी की गुलामी करते हैं। बांग्लादेशियों ने शायद यह मान लिया है कि विदेश से आने वाला कोई भी इंसान बंग्ला तो जानता ही होगा। या फिर उनलोगों को शायद विदेशी सैलानियों की जरूरत नहीं है या यह उम्मीद नहीं है कि उनके यहां काफी संख्या में विदेशी सैलानी आएंगे। बंग्ला पढ़ना नहीं जानने वाले को बांग्लादेश में निश्चित रूप से दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा, लेकिन हमारे हिंदी-उत्साही मित्र शायद इन दिक्कतों को इसलिए सहर्ष झेल लें कि अंग्रेजी हटाओ का साक्षात पूर्ण क्रियान्वयन उनके बिल्कुल पड़ोस में हो रहा है।
(अगले रविवार को पढ़ें ट्रेन में इंडिया की बातें। लेखक से संपर्क 98640-72186)
अच्छा व रोचक
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट
जवाब देंहटाएंअभी रोमांच शुरुर ही हवा था कि लेख समाप्त ?
जवाब देंहटाएंअगले सप्ताह फिर आ रहा हूं, रवि।
जवाब देंहटाएंबहुत ही आकर्षक रूप से सरल शब्दों में आपने इस यात्रा का वर्णन लिखा है। बांग्लादेश के सभी नागरिक दुबई रिटर्न होते हैं। " सऊदी गया था " ये तो जैसे पेज ३ स्टेटस है। और फिर आपसे क्या छुपा है। नमस्ते।
जवाब देंहटाएंSir ji,
जवाब देंहटाएंAapki Bangladesh ki yatra ka bratant padha, jo log bhi yatra ka bratant padhenge unhe Bangladesh ki kai mahatvapurn jankari mil jayegi, sath hi apni bhasha ke prati prem ki bhawna ka example bhi mil jayega
Hari Har Singh
बांग्ला देश की यात्रा का वर्णन पहली बार पढ़ रहा हूँ , अन्यथा नेट पर तो अमेरिका , इंग्लैंड और स्विट्ज़रलैंड के किस्से ही छाये रहते हैं ! कई साड़ी बातें काम की भी हैं और सबसे बड़ी बात , पढ़ने में मजा आ रहा है ! इंतज़ार रहेगा आपकी अगली कड़ी का
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सारस्वत जी।
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