पिछले दिनों नगर निगम चुनाव में असम गण परिषद की हार के बाद यह चर्चा चली कि क्या असम में क्षेत्रीयतावाद प्रासंगिक रह गया है? असम में क्षेत्रीयतावाद पर जब चर्चा करते हैं तो हमें ट्रेड यूनियन आंदोलन के साथ इसकी समानता दिखाई देने लगती है। जैसे किसी उद्योग में कर्मचारी या मजदूर यूनियन का ध्यान उद्योग की सामग्रिक सफलता पर न होकर सिर्फ अपने वेतन-भत्तों पर होती है। उनके पास न तो उद्योग के वित्तीय आंकड़ों तक पहुंच होती है और न ही उन आंकड़ों का विश्लेषण करने लायक समझ। प्रबंधन के साथ एक तरह के विरोधात्मक संबंध को हर श्रमिक संघ स्वाभाविक मानकर चलता है। ठीक इसी तरह का संबंध असम की असम गण परिषद ने केंद्र सरकार के साथ बनाकर रखा। यहां केंद्र सरकार उनके लिए प्रबंधन थी और राज्य को योजना या अन्य मदों में मिलने वाली राशि वेतन-भत्ते हो गई। किसी भी क्षेत्रीयतावादी पार्टी के लिए केंद्र सरकार के पक्ष में एक शब्द भी बोलना भयानक राजनीतिक भूल मानी जाती है। उसी तरह जिस तरह जिस तरह श्रमिक संघ का नेता यदि प्रबंधन के पक्ष में एक शब्द कह दे तो उसे बिका हुआ मान लिया जाता है। ट्रेड यूनियन वालों के पास जिस तरह हमेशा मांगों की लंबी फेहरिश्त तैयार रहती है, उसी तरह क्षेत्रीयतावादी पार्टियां भी अपना मांगपत्र हमेशा तैयार रखती हैं।
जिस तरह ट्रेड यूनियनें छोटी-छोटी बातों पर हड़ताल करने पर उतारू हो जाती हैं, उसी तरह आंचलिक हितों के ये स्वघोषित मसीहा बात-बात पर "बंद' का आह्वान कर बैठते हैं। जिस तरह रोज-रोज की हड़ताल से कोई अच्छा-खासा उद्योग भी घाटे में चला जाता है, उसी तरह इन क्षेत्रीयतावादियों के रोज-रोज के "बंद' से किसी राज्य की आर्थिक स्थिति बदतर होती चली जाती है। जिस तरह अच्छा-खासा लाभ कमाने वाला कोई उद्योग अपने कर्मचारियों को मोटी तनख्वाह देकर ट्रेड यूनियन को अप्रासंगिक बना देता है, उसी तरह इस समय केंद्र सरकार ने असम तथा पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों को अधिक से अधिक केंद्रीय राशि देकर क्षेत्रीयतावाद को अप्रासंगिक बना दिया है। अब वे पुराने दिन नहीं रहे कि किसी एक पुल या रिफाइनरी या विश्वविद्यालय के लिए लोगों को मांगपत्र सौंपना पड़े। लेकिन इसके बावजूद असम में परियोजनाएं आगे नहीं बढ़ रहीं तो इसके तीन कारण हैं। एक, दिसपुर का विरोध करने वाले गरमपंथी क्षेत्रीयतावादियों यानी उग्रवादियों द्वारा निर्माण परियोजनाओं के ठेकेदारों-इंजीनियरों को परेशान करना, उनका अपहरण करना, जान से मार देना। दो, लाहे-लाहे यानी धीरे काम करने की प्रवृत्ति। तीन, दिसपुर में बैठे राजनीतिक नेतृत्व की काम के प्रति अनिच्छा, लापरवाही तथा अधीनस्थ कर्मचारियों से काम करवा पाने की योग्यता न होना।
अब यदि हमारे क्षेत्रीयतावादी राजनेता इन तीन कारणों पर बोले तो यह उनकी क्षेत्रीयतावादी विचारधारा में फिट नहीं बैठता। क्षेत्रीयतावाद में अपने ही राज्य के नेतृत्व को-भले वह प्रतिद्वंद्वी पार्टी का ही हो-दोषी ठहराना राजनीतिक रूप से गलत होता है। जिस तरह ट्रेड यूनियन आंदोलन में प्रमाण होने के बावजूद अपने सहकर्मी को या देर से आने वाले या काम नहीं करने वाले कर्मचारियों को किसी भी सूरत में गलत नहीं माना जाता।
जब तक लच्छेदार भाषणों और काल्पनिक शत्रुओं के खिलाफ नारेबाजी से आम जनता प्रभावित होती रहेगी, तब तक क्षेत्रीयतावाद और श्रमिक संघ दोनों ही प्रासंगिक बने रहेंगे। लेकिन व्यावहारिक राजनीति में सिर्फ एक ही कारक काम नहीं करता। सार-संक्षेप में कहें तो असम की राजनीति में मुसलमानों की बढ़ती जनसंख्या और एआईयूडीएफ के बढ़ते प्रभाव ने स्थिति को बदल दिया है। अब जनता को तुरंत एक ऐसी पार्टी चाहिए जो एआईयूडीएफ के खिलाफ एंटी-डोट का काम कर सके। ऐसे समय में लोगों को भारतीय जनता पार्टी अचानक भाने लगी है, जिसके यहां मुसलमानों के सवाल पर साफ-साफ बोलने की मनाही नहीं है।
असम गण परिषद के दिन पर दिन घटते कद के बावजूद उसकी ओर से जैसे बयान आ रहे हैं उससे साफ है कि उसने दीवार का लेखन पढ़ा नहीं है। दीवार पर साफ-साफ लिखा है कि असम में आने वाले कम-से-कम दो दशकों तक राजनीति मुस्लिम सवाल के इर्द-गिर्द घूमती रहेगी। मजेदार बात यह है कि भारत में कहीं भी मुसलमानों का समर्थन और विरोध करने वाले दोनों ही साफ शब्दों में कुछ नहीं कहते, लेकिन यही कारक सबसे निर्णायक साबित होता है।
इसमे कहीं दो राय नही हो सकती कि यूडीएफ का उत्थान असम के क्षेत्रीयवाद को पूरा खतरा है। यह बिल्कुल सही है कि क्षेत्रीय आन्दोलनो को नेतृत्व के पास किसी भी प्रकार का दूरदर्शी विजन नहीं होता। न ही कोई विज्ञान सम्मत लक्ष्य होता है। बहुत ही सुन्दर और सामयिक विचार है। स्थानीय बुद्धिजिवियों की भी यही सोच ह। लेकिन किसी न किसी प्रकार के स्वार्थवश कोई ठोल विचार नही रखथे। हाल ही मे हुई होमेन बरगोहांई की अध्यक्षता हुई बैठक कोई नई बात नहीं कही गई। गोहांई का वक्तब्य भी गोलमोल ही था।
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