हालांकि कम्युनिस्ट व्यवस्थाएं ध्वस्त हो चुकी हैं, लेकिन जब ये व्यवस्थाएं थीं तब वहां पैसे कमाने को गुनाह माना जाता था। चीन में कहने को कम्युनिस्ट शासन है, लेकिन वहां पूंजीवादी शैली की व्यवस्था की इजाजत दे दी गई। तंग (देंग) श्याओ पिंग की वह उक्ति काफी प्रसिद्ध हो चुकी हैकि बिल्ली चाहे भूरी हो या सफेद हमें मतलब इस बात से है कि वह चूहे पकड़ती है। यानी पूंजी का सृजन, धन पैदा करना किसी भी व्यवस्था का उद्देश्य होना चाहिए, चाहे वह धन कम्युनिस्ट प्रणाली से पैदा हुआ हो या पूंजीवादी प्रणाली से।
भारत में कम्युनिज्म और मार्क्सवाद का काफी प्रभाव रहा। यहां तक कि जो पार्टियां अपने-आपको कम्युनिस्ट या मार्क्सवादी नहीं कहती थीं उन पर भी इन विचारों का जाने-अनजाने में गहरा प्रभाव रहा। कांग्रेस या भारतीय जनता पार्टी- जैसी पार्टियां भी साफ शब्दों में आज भी यह कहने का साहस नहीं जुटा पातीं कि हम पूंजीवाद का समर्थन करती हैं। पिछड़ों और मुसलमानों को आधार बनाकर राजनीति करने वाले मुलायम सिंह यादव भी अपनी पार्टी को समाजवादी पार्टी ही कहलवाना पसंद करते हैं।
इस वैचारिक वातावरण का प्रभाव हमें रोजाना की दिनचर्या में देखने को मिलता है। जब किसी सार्वजनिक मंच पर किसी पैसे वाले का सम्मान करना होता है, तो उसे समाजसेवी कहकर संबोधित किया जाता है। उसे व्यवसायी, पूंजीपति, उद्यमी या उद्योगपति कहते समय जबान खुद-ब-खुद लड़खड़ा जाती है। ऐसा दूसरे पेशों को अपनाने वालों के साथ नहीं होता। पत्रकार को पत्रकार, शिक्षक को शिक्षक (इन्हें शिक्षाविद् कहने का चलन हो गया है), डाक्टर को डाक्टर और अफसर को प्रशासनिक अधिकारी कहते समय जबान नहीं लड़खड़ाती, लेकिन व्यवसायी को व्यवसायी कहते समय जबान रुक जाती है। वह कोई और शब्द खोजने लगती है।
ऐसा उस मानसिक प्रदूषण के कारण होता है, जो सदियों से हमारे दिमाग में भरता गया है। भारत में साहित्य में, नाटकों में, गीतों में कहीं भी पैसे कमाने को एक महत्त्वपूर्ण काम नहीं बताया गया है। बल्कि इसकी जगह गरीबी को या संतोष को महिमा मंडित करते हुए हम जरूर देखते हैं। यह एक दिलचस्प बात है कि जिन जातियों, पेशों को बाकी समाज तिरस्कार की नजर से देखता है, वे जातियां या वे पेशे वाले स्वयं भी अपनी जाति या पेशे को नीची नजरों से देखने लग जाते हैं। जो लोग दलित आंदोलन या ओबीसी आंदोलन से जुड़े हैं या उस राजनीति से जुड़े हैं उनकी बात छोड़ दें तो आप किसी भी धोबी, नाई या सफाई कर्मचारी को गर्व के साथ अपने पेशे की घोषणा करते हुए नहीं देखेंगे। हो सकता है एक धोबी एक साधारण किरानी से ज्यादा कमा लेता होगा; लेकिन किसी ट्रेन यात्रा में कोई धोबी अपना परिचय धोबी के रूप में नहीं देगा।
यही बात कमोबेश व्यवसायियों पर लागू होती है। जो टाटा समूह देश की शान है, जिस समूह के साथ भारत की पहचान जुड़ गई है- उस समूह के नाम को कल तक राजनीतिक पार्टियां शोषण के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल करती थीं। हाल के वर्षों में भले थोड़ा परिवर्तन आया हो, लेकिन अस्सी के दशक तक "शोषक' और "टाटा बिड़ला' को पर्यायवाची के रूप में इस्तेमाल करना एक आम बात थी।
भारत में कुछ सरकारी विभाग ऐसे हैं, जहां कोई बिरला ही सौ प्रतिशत ईमानदार मिलता है। जैसे कर विभाग। लेकिन किसी कर आयुक्त को अपना परिचय कर आयुक्त के रूप में देते समय यह कैफियत नहीं देनी पड़ती कि मैंने भ्रष्ट तरीके से पैसे नहीं कमाए। यही बात अन्य पेशों पर लागू होती है। जब कोई कहता है कि अमुक जी पत्रकार हैं या लेखक हैं या गीतकार हैं- तब यह मानकर चला जाता है कि पत्रकार, लेखक या गीतकार महोदय की रचनाएं मौलिक ही होंगी। जब तक कोई आरोप न लगे तब तक उनकी मौलिकता पर कोई सवाल नहीं उठा सकता। यदि कोई उठाता है, तो उसे ईर्ष्यालु या बदतमीज माना जाएगा। लेकिन व्यवसायी के मामले में यह सवाल बिना किसी संकोच के उठा दिया जाता है। जब एक चर्चा के दौरान एक वक्ता ने पूछा कि "पैसा कमाना गुनाह तो नहीं' तो किसी ने कहा कि "गुनाह नहीं है यदि पैसे ईमानदारी तरीकों से कमाए गए हों।' क्या यह "यदि' किसी अन्य पेशे के साथ जोड़ा जाता किसी ने देखा है। इस सामाजिक बेहयाई की सिर्फ व्यापारी के मामले में इजाजत है।
असम की विशेष परिस्थितियों में जहां हरेक समुदाय के पास अपने पड़ोसी समुदाय के विरुद्ध शिकायतों की सूची होती है मारवाड़ी को यहां पूंजीपति या व्यवसायी के पर्याय के रूप में देखा गया। यह सही भी है कि आज असम में मारवाड़ी समुदाय के अधिकांश लोग व्यवसाय की गतिविधियों में लगे हुए हैं। असम के मारवाड़ी साधारणतया विनयी और झगड़े-झंझट से दूर रहने वाले लोग हैं। ये लोग स्थानीय राजनीति, साहित्य, संस्कृति से भी दूर रहते हैं। अपनी लगन, मेहनत, अध्यवसाय और व्यवसाय जगत में छाए पहले के शून्य स्थान के कारण इन लोगों ने पूंजी का सृजन किया है, अखिल भारतीय स्तर पर भले एक-दो ग्रुप ही उभर का आए हों, लेकिन प्रांत के स्तर पर व्यवसाय-उद्योग में मुख्यत: मारवाड़ियों का ही बोलबाला है।
पूंजी विरोधी मानसिक प्रदूषण ने क्षेत्रीयतावाद के साथ मिलकर जो विचारधारा रची है, उसमें मारवाड़ी सिर्फ एक विलेन के रूप में ही फिट होता है। विडंबना यह है कि इस वातावरण ने स्वयं मारवाड़ियों के दिमाग को भी दूषित कर दिया है। इसका प्रमाण यह है कि जब आरोप लगाने वाली अंगुलियां मारवाड़ियों की ओर उठती हैं तो उनके बुद्धिजीवी अपना बचाव करते समय आरोप लगाने वालों की विचारधारा का ही सराहा लेते हैं। मसलन, जब कहा जाता है कि "छि: आपलोग व्यवसायी हैं अर्थात शोषक हैं'' (स्रोत : मार्क्सवाद) तो उत्तर दिया जाता है कि "माफ कीजिए सभी लोग व्यवसायी नहीं हैं। हमारे बहुत से लोग अन्य पेशों में भी लगे हुए हैं (जिन्हें आपलोग भी सम्मानजनक मानते हैं), यहां तक कि बहुत से लोग तो कविता तक लिखते हैं (आपकी नजर में अत्यंत सम्मानजनक कर्म)''। जब यह आरोप लगाया जाता है कि ""आपलोग सिर्फ अपने आप से और पैसे से मतलब रखने वाले लोग हैं, स्थानीय भाषा, संस्कृति से आपका कोई लगाव नहीं है'' (स्रोत : अंध क्षेत्रीयतावाद) तब उत्तर में एक सूची पेश की जाती है कि हमारे ये-ये लोग असमिया भाषा में सृजन कार्य कर रहे हैं। यह सूची बहुत ही छोटी होती है और एक तरह से आरोप लगाने वालों की बात को ही सिद्ध करती है। इस सूची में घालमेल में भी इस अर्थ में होता है कि महान असमिया साहित्यकार ज्योति प्रसाद अगरवाला के परिवार को भी मारवाड़ी मानकर इसमें शामिल कर लिया जाता है। कई बार इस पर प्रतिक्रिया नहीं होती और कई बार इसी परिवार के सदस्य अपने आपको मारवाड़ी कहे जाने पर एतराज जताते हैं।
कुल मिलाकर प्रश्न, जैसा कि एक चर्चा के दौरान पूछा गया, यहीं सिमटकर आ जाता है कि मारवाड़ी को सम्मान क्यों नहीं मिलता। इसका एक ही उत्तर है कि सम्मान पाना न पाना असम में मारवाड़ी के कर्मों पर उतना निर्भर नहीं है जितना सामने वाले की दृष्टि पर। देखने वाला एक भ्रष्ट अधिकारी को सम्मान की दृष्टि से देखता है, लेकिन एक खुदरा दुकानदार को सम्मान नहीं देता तो यह पूरी तरह उसकी दृष्टि पर निर्भर है। वह कहता है कि हमें कविता पसंद है और आप सम्मान पाने के लिए कविता लिखने लग जाएं तो यह हास्यास्पद होगा। कोई धोबी को सम्मानजनक दृष्टि से नहीं देखता तो इलाज उसकी दृष्टि का होना चाहिए, न कि धोबी को अपना काम छोड़कर दूसरे काम में लग जाना चाहिए।
मारवाड़ियों के असम आने की जो भी ऐतिहासिक परिस्थितयां रही हों, लेकिन भारत के एक अग्रणी उद्यमी समुदाय के इस क्षेत्र में आने से एक शून्य की पूर्ति हुई है और इसे देखते हुए इनकी भूमिका का यहां स्वागत होना चाहिए था। लेकिन विडंबना यह है कि मारवाड़ियों को यहां सिर्फ सहन किया जाता है।
प्रिय बिनोद जी,
जवाब देंहटाएंहमारी ग्रामीण सामाजिक संरचना आजीविका के हमारे पुश्तैनी कौशलों के (जिन्हें रोजगार धंधे भी कह सकते हैं) आधार पर हुयी है. मारवाड़ियों को या आजीविका के उनके कौशलों को इस आधार से अलग कर के कैसे देखा जाने लगा ? शायद इस पर विचार करने की जरूरत है.
'पैसा कमाने' को आक्षेपजन्य मानने के बदले इस तरह देखना चाहिए कि कोई जाति आजीविका के अपने पुश्तैनी कौशल का अधिकाधिक दाम वसूल करने के लिये कैसे कौशल प्रयोग में ला रही है ? अपने इस कौशल के लिये उचित और न्यायपूर्ण दाम वसूल करना अमुक पुश्तैनी कौशल का सम्मान भी है और अपनी सामाजिक संरचना का निर्वाह भी है. लेकिन जब दाम-वसूली औचित्य और न्याधारिता का अतिक्रमण करती है तो उस पर आक्षेप आता . ऐसा आक्षेप मारवाड़ियों पर ही संभवतः अभ्यासवश लक्षित हो जाता है . इसके कारण मारवाड़ियों के अच्छे और सामाजिक कामों की पूरी तरह अनदेखी हो जाती है. यह एक तरह का दुराग्रह होता है, इस से बचने के लिये एक जाति आजीविका के अपने पैत्रिक कौशल से जुडी हुयी अपनी पहिचान को छिपाते हुए खुद को समाजसेवी , साहित्य अनुरागी या संस्कृति के संरक्षक की तरह प्रस्तुतु करने के उपाय ढूँढती है.
इसके बर-अक्स साहित्य और कला से जुडा हुआ रचना समाज अपने अर्जित कौशल का दाम वसूलने का कौशल विकसित नहीं कर पाया इसलिए आज भी किसी साहित्यकार या कलाकार के परिचय के बावजूद प्रश्न किया जाता है -- और क्या करते हैं ?'
मुझे लगता है कि जब तक हमारा वणिक या दस्तकार समुदाय अपनी ग्रामीण सामाजिक संरचना की संहिता से आबद्ध रहा तब तक औचित्य की सीमा भी निर्धारित रही. लेकिन औद्योगिक विकास के साथ ग्रामीण सामाजिक संहिता निष्प्रभावी होती गयी और औचित्य का आधार क्रमशः अधिकाधिक दाम वसूलने की तरफ होता चला गया . अधिकाधिक वसूलने की लिप्सा. एक तरह का विकार भी थी . भारतीय उद्योग के विकास में यह विकार दिखाई पड़ता है.
भारतीय औद्योगीकरण में किन्हीं अन्य भारतीय जातियों के मुकाबले मारवाड़ियों की भूमिका संभवतः अग्रणी और संगठित भी रही इसलिए यह विकार भी वहाँ अग्रणी और संगठित दिखाई पडा और इसलिए ये आक्षेप उन पर केन्द्रित हुए . इसे , हमेँ प्रतिस्पर्धात्मक स्थितियों में देखने की जरूरत थी जहां अन्य जातियां भी अपने-अपने अनुपात में औद्योगीकरण और उसके साथ जुडी हुयी विकृतियों में भी संलग्न दिखेंगी.
धन्यवाद,
सतीश.
प्रिय विनोद,
जवाब देंहटाएंआपके लेख में संतुलित ढंग से बात उठाई गई है.
ललित सुरजन
Yakinan ek behtarin lekh....
जवाब देंहटाएंMy comlements to Ringaniaji for such a well written deep analysis of facts . I am sure it will
जवाब देंहटाएंmake readers think and introspect .
However, in my opinion the mindset will change only with allround economic progress of all
sections of society.
With Regards.
CA. Shankar Agarwal
S L AGARWAL & ASSOCIATES
Chartered Accountants
204,Royal Centre,Opp.S.B.Deorah College,
Bora Service, G S Road,Guwahati-781007
Phone: 0361-2460036 (o)
0361-2450694 (R)
098640 45454 (M)
विनोद,
जवाब देंहटाएंविषय वस्तु का चुनाव समुपयोगी और सटीक हुआ है।
लेकिन अवांछित विस्तार खटकता है। 'सहन किया जाता............
..........' इस पर असहमति है। देर सबेर लिखने का प्रयास करुंगा ।
नागेन्द्र
In India wealth creators are less respected than wealth regulators.
जवाब देंहटाएंOmprakash Agarwalla
असम में मारवाड़ियों को एक व्यवसाइयों के रूप में ही देखा जाता है, चाहे वे कितिनी भी सदाशयता दिखा दे. असम में व्यापारी और मारवाड़ियों एक जैसे दीखते है. वर्षों से व्यवसाय में कार्यरत व्यापारी अगर मारवाड़ी है तो अन्य जातियां भी तो व्यवसाय कर रही है, उन्हें कई दोष नहीं देता, बल्कि यह कहा जाता है कि उसके पास को काम नहीं था, इसलिए वह व्यवसाय में ही उतर गया. मेरी एक असमिया व्यवसायी से बात हुवी, वह एकदम अलग थलग बन कर बात कर रहा था. उसके अधिकतर ग्राहक मारवाएर पर उसके रवैये से एक असमिया होने का दंभ नजर आ रहा था. व्यापारिक गुण लेश मात्र भी नहीं थे, जो एक मारवारी व्यापारी में होते है.
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