नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड ने यह माना है कि किसी क्रांति का संचालन करना आसान है, लेकिन किसी देश की समस्याओं को हल करना उससे कई-कई गुना कठिन है। दरअसल यह बात एक नहीं कई बार साबित हो चुकी है कि जनता को किसी क्रांति के लिए तैयार करना जितना आसान होता है किसी देश का नवनिर्माण करना उसकी तुलना में काफी कठिन होता है। क्रांति के संचालक कह सकते हैं कि क्रांति भी कोई पिकनिक पार्टी नहीं होती, इसमें काफी खून बहता है और दशकों के संघर्ष के बाद इसमें कामयाबी हासिल होती है, वह भी निश्चित तौर पर नहीं। लेकिन फिर भी हम प्रचंड के सुर से सुर मिलाकर कहेंगे कि क्रांति की तुलना में देश का नवनिर्माण कहीं ज्यादा मुश्किल काम होता है।
असम में हमने देखा कि विदेशी नागरिकों के खिलाफ चला असम आंदोलन प्रफुल्ल कुमार महंत और उनकी मंडली ने काफी सफलतापूर्वक चलाया। यह आंदोलन एक तरह की शांतिपूर्ण क्रांति ही था। आंदोलन के कारण राज्य के शासन की बागडोर बाद में प्रफुल्ल कुमार महंत को ही मिल गई। लेकिन शासन की बागडोर संभालने के बाद हमने देखा कि विदेशी नागरिकों को वापस बांग्लादेश भेजने के मामले में महंत पूरी तरह विफल हो गए। इस तरह यह साबित हो गया कि लोगों की भावनाएं उभारकर उन्हें आंदोलित करना और किसी मुद्दे पर उनका समर्थन हासिल करना एक बात है, लेकिन किसी एक समस्या को सुलझाना बिल्कुल दूसरी बात। विदेशी नागरिकों के मुद्दे पर आज भी लोग आपको कहते मिल जाएंगे कि इसमें राजनेताओं का स्वार्थ है इसलिए वे इसे हल नहीं करते। यह बात एक हद तक सही है। लेकिन सभी राजनेताओं का स्वार्थ विदेशी नागरिकों की उपस्थिति में नहीं है। जिनका स्वार्थ इससे जुड़ा नहीं है उन्हें भी आप शासन की बागडोर देकर देख लें, यह काम उतना आसान नहीं है जितना दिखाई पड़ता है। हम यह नहीं कहते कि अवैध विदेशियों को बाहर करना असंभव है। लेकिन हम यह जरूर कहना चाहेंगे कि यह गुत्थी इतनी उलझी हुई है कि इसे शांत दिमाग से सुलझाना ही एकमात्र विकल्प है। उत्तेजनापूर्ण नारेबाजी की समस्याओं को सुलझाने में अक्सर कोेई भूमिका नहीं होती।
क्रांति के प्रणेता अक्सर इस तरह दिखाते हैं मानों मर्ज और उसकी दवा के बारे में दुनिया भर में वही सबसे अच्छी तरह जानते हैं। अक्सर वे सभी तरह के मर्ज का कारण चल रही समाज व्यवस्था, शासन व्यवस्था, शासक वर्ग को ठहरा देते हैं। उनके विरुद्ध लोगों को उकसाते हैं। लोग धीरे-धीरे इस बात के कायल हो जाते हैं कि इस व्यवस्था, इस शासक वर्ग को हटाते ही सारी समस्याओं का अंत हो जाएगा। कई बार क्रांति के प्रणेताओं की ईमानदारी, उनके बलिदान के कारण भी लोगों पर प्रभाव पड़ता है और वे सोचते हैं कि इतने ईमानदार नेताओं द्वारा सुझाए गए समाधान कैसे सही नहीं होंगे! इस तरह वे क्रांति या किसी आंदोलन के समर्थक बन जाते हैं। व्यवस्था बदल जाती है, कल के क्रांतिकारी आज के शासक बन जाते हैं। इसके बाद जनता चाहती है कि उनकी अपेक्षाओं को अब पूरा किया जाए। इसके लिए वह धीरज खोने लगती है। लेकिन समाज को बदलने में वक्त लगता है। शासक बदलते ही समाज व्यवस्था नहीं बदल जाती।
असम में हमने अन्य स्थानों पर भी ऐसे उदाहरण देखे हैं। बोड़ोलेैंड की मांग के साथ छिड़े हिंसक आंदोलन के दौरान बोड़ो इलाकों में काफी विध्वंस हुआ। सड़कों को नष्ट किया गया, पुल उड़ा दिए गए। अब पुनर्निमाण में उससे काफी अधिक वक्त लग रहा है जितने समय में विध्वंस किया गया था। एक उदाहरण देना चाहेंगे - मनास राष्ट्रीय उद्यान का। ऐसे उद्यान कई सदियों में तैयार होते हैं। मनास की जैव विविधता अनुपम है। लेकिन बोड़ो आंदोलन के दौरान इसे काफी नुकसान पहुंचा। एक बार किसी जंगल से कोई जीव खत्म हो जाए, तो कई बार वैसे जीव को वापस उस जंगल का निवासी बनाने के लिए असामान्य मानवीय प्रयत्नों की जरूरत होती है - उस प्रयत्न से कई-कई गुना अधिक जितने में उस बरबादी को अंजाम दिया गया था।उड़ा दिए गए। अब पुनर्निमाण में उससे काफी अधिक वक्त लग रहा है जितने समय में विध्वंस किया गया था। एक उदाहरण देना चाहेंगे - मनास राष्ट्रीय उद्यान का। ऐसे उद्यान कई सदियों में तैयार होते हैं। मनास की जैव विविधता अनुपम है। लेकिन बोड़ो आंदोलन के दौरान इसे काफी नुकसान पहुंचा। एक बार किसी जंगल से कोई जीव खत्म हो जाए, तो कई बार वैसे जीव को वापस उस जंगल का निवासी बनाने के लिए असामान्य मानवीय प्रयत्नों की जरूरत होती है - उस प्रयत्न से कई-कई गुना अधिक जितने में उस बरबादी को अंजाम दिया गया था।
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