पत्नी और बच्चों को बगल की सीटों पर बैठा कर ज़रा व्यवस्थित हुआ ही था कि सुनाई दिया, “बैठ सकते हैं शायद। बच्चे को ज़रा गोद में ले लीजिए।” बोलने वाला एक दाढ़ी वाला व्यक्ति था जो मेरे बेटे की जगह बैठना चाहता था। डिब्बे में भीड़ थी। ऐसे में अमूमन तीन की सीट पर तीन यात्री बैठे नहीं रहे सकते। इसे अगर जगह नहीं देता तो आगे किसी और को देनी पड़ती। मैंने पत्नी से बच्चे को गोद में ले लेने के लिए कहा। शनिवार को इस ट्रेन में हमेशा भीड़ रहती है।
“आप श्यामल हैं न ?”
अरे दाढ़ी वाला मुझे जानता है ? मेरे कान खड़े हो गए। ख़रगोश की तरह मेरे कान ज़रा सा अंदेशा होते ही खड़े हो जाते हैं। कोई और होता तो चेहरे पर मुस्कुराहट ला कर “हाँ” कहता, लेकिन मैंने बिना मुस्कुराए पूछा, “आप?” “मैं भी आप के साथ एक ही कक्षा में था। ज़िला सदर में।”
वह मैमनसिंगिया मूल का मुसलमान था। असमिया उच्चारण इस लिहाज से काफ़ी शुद्ध था। पहनावे में झकझक सफ़ेद चूड़ीदार और उस पर शेरवानी। शायद किसी मदरसे में पढ़ाता होगा। नाम बताने पर मैं चौंका, “अरे हाँ, हाँ। तुम तो करीब साल भर रहे थे ऑनर्स में।” इतना कहते-कहते मैं चुप हो गया। मेरी आँखें डिब्बे के यात्रियों का जायज़ा लेने लगीं। ज्यादातर अपने ही थे। उधर कोई युवक भाषण देने के अंदाज़ में जोर-जोर से बतिया रहा था। मैंने रूमाल निकाल कर पसीना पोंछा, खूँटी पर टँगी पानी की बोतल से सूख रहे हलक़ को गीला किया। कोई स्टेशन आया था। ट्रेन के रुकते ही भीड़ का एक और रेला अंदर आ गया। सभी बंगाली थे, तेजी से इधर से उधर आते-जाते हुए बैठने की जगह तलाश रहे थे। जगह मिलते ही शोर मचा कर अपने साथी को बुलाने लगते। हमारा ध्यान भीड़ पर केंद्रित हो गया। कोई सिमट कर बैठने को न कह दे इसलिए हमने अपने चेहरों पर गंभीरता ओढ़ कर चुप्पी साध ली थी।
हम एक ही कक्षा में थे फिर भी चाँद महमूद हमें आप कह कर संबोधित करता। हम उसे तुम कह कर पुकारते। दो शर्टें थीं उसके पास जिन्हें वह अदल-बदल कर पहना करता। शर्ट की आस्तीनें कोहनी तक मुड़ी रहतीं। पैंट एक ही थी। नीले रंग के धारीदार कपड़े की। पैरों में हवाई चप्पल। सर के बालों में गाढ़ा सरसों को तेल जो गरमियों में कनपटी तक दिखाई दे जाता। चेहरे पर धूप की तपिश साफ झलकती थी। देखने में छात्र कम किसान ज़्यादा लगता। ऑनर्स में लड़के ही कितने थे हम- यही सात या आठ। आ कर नियम से पिछली बेंच पर बैठ जाता था वह। उसके साथ बैठता था एक लड़का तालुमारी। चाँद महमूद गाँव से आता था। उसी ने एक दिन बताया कि दो किलोमीटर पैदल चलकर वह पक्की सड़क तक पहुँचता था। बाक़ी चार किलोमीटर का रास्ता बस से तय करता। बस में छात्रों से किराया अधिक लिया जाता था। चाँद महमूद मुझे विस्तार से यह सब इसलिए बताता कि मैं उसे सही सलाह दे सकूँ-बस से (जिसे वह मोटर कहता) आना ज़्यादा किफ़ायती है या पूरा छह किलोमीटर साइकिल से आना। बारिश के दिनों में उसकी पैंट के पायँचे मुड़े होते। गाँव का कीचड़ भरा रास्ता तय करते समय वह उन्हें काफ़ी ऊपर तक मोड़ लेता था। बस में बैठने के बाद भी वह नीचे की एक तह मुड़ी हुई ही रहने देता। कक्षा में भी वह इसी तरह मुड़े हुए पायँचे सहित दाख़िल होता। उसकी पैंट पर कीचड़ के छींटे बिलकुल नहीं होते थे जबकि हवाई चप्पलें छींटे ख़ूब फेंकती हैं। उसी ने बताया कि वह गाँव का कच्चा रास्ता चप्पलें हाथ में लेकर तय करता है। गाँव में सभी ऐसा ही करते हैं। पक्की सड़क पर पहुँचने के बाद वे लोग सबसे पहले “बिल” के पानी से पाँव धोते और उसके बाद ही बस की फ़िक्र करते। वह अकेला था और हम छह। (होने को तो तालुमारी भी था लेकिन कक्षा में उसकी उपस्थिति का ग्राफ इतना नीचे था कि हम सब ने यह मान रखा था कि ऑनर्स में इस का बने रहना मुमकिन नहीं है।) वह चुपचाप हमारी गतिविधियों को देखता रहता। कुछ भी सीधे पूछ पाने का साहस उस में नहीं था। हमारी गतिविधियों से ही उसे अंदाज़ लगाना पड़ता कि अगली कक्षा में उपस्थित रहने का हमारा इरादा है या नहीं। यदि हम छह न रहें तो वह कक्षा होती ही नहीं थी। कभी हम चाय-वाय पीने बाज़ार की तरफ़ निकल जाते और वहीं मन बना लेते कि अब आज की पढ़ाई को यहीं पूर्ण विराम लगाया जाए। ऐसे में वह हमारा इंतज़ार करता देर तक बैठ रहता। कक्षा लेने वाले शिक्षक आकर आ कर जब देखते कि अकेला वही है बाकी छह नहीं आए तो कक्षा नहीं लेने की घोषणा कर देते। इस घोषणा के बाद ही वह परिसर से बाहर निकलता। कभी उसका अंदाज़ा ग़लत साबित हो जाता। बीच की दो कक्षाओं के समय हम बाज़ार में डोलते-फिरते। इस की कारण कुछ भी हो सकता था। कभा-कभी यह भी कि किसी खास शिक्षक का चेहरा हमें पसंद नहीं था। फिर इन कक्षाओं का समय गुज़ार कर हम प्रैक्टिकल के लिए प्रयोगशाला में उपस्थित हो जाते। हाँ, कभी-कभार हमारे परिसर से बाहर जाते समय वह पूछ भी लेता था। लेकिन सही जवाब दे पाने की स्थिति में हम नहीं होते थे, क्योंकि तब तक हम ने निश्चित ही नहीं किया होता था कि अगली कक्षाओं का क्या करेंगे ?
हम छहों ने कोई गुट-वुट नहीं बना रखा था। जो साथ था वह बस ऑनर्स कक्षा तक का साथ था। हम छह में से चार का घर ज़िला सदर में हीं था। इन में से दो साइकल पर और दो पैदल आते थे। बाक़ी हम दो पासे के क़स्बे से बस में आते थे। मेरा बस का साथी बाहरी मूल का था। दुबला-पतला, पढ़ने में तेज़ लेकिन बेहद डरपोक और संकोची। वह हमारी भाषा में उतना पारंगत नहीं था। वैसे भी हमारे ज़िले की भाषा मानक भाषा से काफ़ी अलग थी। शब्दों के उस के उच्चारण को ले कर हम मज़ाक उड़ाते। कभी-कभी उस की रोनी सूरत देख कर मुझे ही औरों को डपट कर चुप कराना पड़ता। मज़ाक़ उड़ने के डर से वह कम बोलता। मन-ही-मन बुदबुदा कर शब्दों को तौलते हुए मैं ने उसे कई बार देखा। ऑनर्स के बाद जब हम साधारण पाठ्यक्रम की कक्षा में जाते तो आठों तितर-बितर हो जाते। चाँद महमूद अपने ही जैसे एक मित्र के साथ बैठता। तालुमारी का कोई स्वजातीय मित्र नहीं था। यहाँ भी वह सबसे पिछली बेंच पर बैठता। ज़िला सदर वाले लड़के यहाँ आ कर अलग हो जाते। वे अलग-अलग विद्यालयों से पढ़ कर आए थे। इस बड़ी कक्षा में वे अपने पुराने सहपाठियों के साथ बैठते थे। मैं और दुबला साथ बैठते।
कक्षा न हो पाने के नौ बहाने हुआ करते थे। रात में कक्षा में घुस गई गायों को निकाल बाहर करना तो ख़ैर कोई बहाना नहीं बनता था। गोबर यदि ठीक सामने शिक्षक के बैठने की कुर्सी के आसपास न किया हो ते यह भी कक्षा रद्द होने का कारण नहीं बनता। लेकिन कभी-कभी हम देखते कि हमारे आने से पहले उसी कक्षा में राजनीति शास्त्र के छात्र जमे हुए हैं और उनके शिक्षक बड़े मनोयोग से पढ़ा रहे हैं। यह रूटीन बनाने वाले की ग़लती होती थी। यह पैंतालीस मिनट का समय हम बरामदे में खड़े होकर निचली कक्षाओं की छात्राओं को आते-जाते देखते हुए बिताते। कक्षा में जो पैंतालीस मिनट इतने लंबे लगते थे वे ही बरामदे में सिकुड़ कर पाँच-दस मिनट जितने रह जाते। ऐसे समय चाँद महमूद न जाने कहाँ ग़ायब रहता।
हमारे सत्र को छह महीने भी पूरे नहीं हुए होंगे कि राजधानी के छात्र नेताओं ने जनता की की तमाम परेशानियों का कारण खोज निकाला। समूचे देश में हमारा सूबा पिछड़ा क्यों है और इसके लिए कौन लोग दोषी हैं, इस का इलहाम उन्हें हो चुका था। उन का संदेश समूचे सूबे के छात्रों के बीच वितरित किया जा रहा था। आने वाली पीढ़ियों को यदि बचाना है तो आज के छात्रों को थोड़ी क़ुर्बानी देनी होगी। शराईघाट के अंतिम युद्ध में हर छात्र को हिस्सेदारी करनी होगी। यह कोई छोटा-मोटा काम नहीं था। ज़िला सदर के छात्र नेता महाविद्यालय परिसर में आते और कह जाते कि अमुक व्यक्ति का घेराव किया जाना है। दिन भर का काम इस महाविद्यालय कर दिया करते, शाम को स्थानीय छात्र मोर्चा सँभाल लेते। जाते वक़्त मुट्ठी भर भींगे चने मिलते जिन्हें चबाते हुए मैं और दुबला बस में चढ़ते। बस के यात्री कनखियों से हमें भीगे चने चबाते देखते और आपस में फुसफुसाकर युद्ध की बातें करते। हाट से घर लौट रहे बंगाली व्यापारी कानाफ़ूसी करते। मैंमनसिंगिया किसीन बीड़ी फूँकना बंद कर देते। आसपास कोई मैंमनसिंगिया बीड़ी पीता होता तो मैं ज़ोरों से डपट देता, “अय मियाँ, बीड़ी बंद कर।”
तवे पर रोटी सिकने पर आटे का रंग जैसे बदलना शुरू होता है, वैसे ही महाविद्यालय में छात्रों के चेहरों का रंग बदलने लगा। बोस, मंडल, चक्रवर्ती जैसी उपादियों वाले शिक्षकों की कक्षाओं में गुस्ताख़ियाँ करना एक पवित्र देशभक्तिपूर्ण कार्य था। नीचे से ज्यों-ज्यों आँच आती गई, छात्र अपने अंदर की भाप से फूलते गए। युद्ध विश्वासघातियों के कारण हारे हैं-राजधानी से ख़बर आई। इतिहास की पुस्तकें पलटी गईँ। बात सही थी- बदन नाम के किसी विश्वासघाती के कारण शराईघाट के बाशिंदों को एक युद्ध हारना पड़ा था। महाविद्यालय के चार विश्वासघाती शिक्षकों की शिनाख़्त की गई। सभागार में उन के विरूद्ध अभियोग पत्र पढ़े गए- चारों पढ़ने-लिखने में रूचि रखते हैं, राजधानी के छात्र नेतों को प्राप्त हो चुके सत्य के ज्ञान के बावजूद ये व्यक्तिगत तौर पर चिंतन-मनन को जारी रखे हुए हैं, एक ही विषय पर चारों अपने अलग-अलग विचर रखकर जनता को गुमराह करते हैं, मातृभूमि से ज़्यादा उन्हें विश्वबंधुत्व की चिंता रहती है। छात्रों ने छीः छीः कहा। क्या ऐसे व्यभित हमारे योग्य शिक्षक हो सकते हैं ? छात्र नेता ने सभा में प्रश्न उछाला। मैं पहली पंक्ति में बैठा था। नहीं-नहीं, कदापि नहीं। सब से पहले मैं बोला था। आखिर छात्र ही यह बेहतर समझ सकते हैं कि उनके लिए कैसे शिक्षक योग्य हैं। मेरे पीछे छात्रों की भीड़ में भी शोर उठा। हम प्रतिनिधिमंडल से लेकर प्राचार्य के पास गए। प्राचार्य ने इन दिनों कानों में रूई डाल कर आना शुरू कर दिया था। रूई निकाल कर उन्होंने हमारी शिकायतें सुनीं और फिर से कानों में रूई डालकर अपने काम में व्यस्त हो गए।
छात्रों से चारों “बदनों” की कक्षाओं में न जाने का अह्वान किया जा चुका था। लेकिन फिर लगा कि पासा कुछ उलटा पड़ गया है, क्योंकि चारों ने महाविद्यालय आना ही छोड़ दिया था। तब फिर से रणभेरी बजाई गई, प्रस्ताव पारित किए गए। चारों को महाविद्यालय से निकाला जाए – प्राचार्य से शिकायत की गई। प्राचार्य ने कान से रूई निकाल कर शिकायत सुनी और वापस रूई डालकर काग़ज़ात पर दस्तख़त करने में व्यस्त हो गए। इस बीच कुछ शिक्षकों ने भी कान में रूई डाल कर आना शुरू कर दिया था। वे बेचारे इतने संवेदनशील और कमज़ोर दिल वाले थे कि अपने सहकर्मियों को पीछे से गालियाँ देना बर्दाश्त नहीं कर पाते थे।
वैसे तो युद्ध में हर सिपाही की अपनी अहमियत होती है लेकिन हमारे ज़िला सदर के लड़के कई मामलों में पिछड़े हुए थे। कहने को तो यह शहर ज़िला सदर था लेकिन इल्म में हमारे छोटे-से कस्बे से भी पिछड़ा था। लिहाज़ा धीरे-धीरे मेरी अहमियत बढ़ने लगी। आवेदन लिखना हो, प्रस्ताव बनाना हो, रणनीति तैयार करनी हो- कोई भी काम मेरे बिना पूरा नहीं होता। परिसर में घुस आए पुलिस अफ़सर को फटकारते वक़्त जब मेरे गाल लाल हो उठते तो निचली कक्षाओं की छात्राएँ हसरत भरी नज़रों से देखतीं। परिसर के फाटक को बंद कर जब प्राचार्य को अंदर जाने से मैं ने रोक दिया तो जोश के मारे छात्राओं ने मुझे अपने घेरे में ले लिया था। इस ठेलमठेल के बीच मैं नज़रें दौड़ा कर देखता तो चां महमूद कहीं किसी बरामदे के कोने में पड़ी बेंच पर दिखाई दे जाता – कक्षा शुरू होने का इंतज़ार करते हुए। दुबला अकसर मेरे साथ पीछे-पीछे रहता। कक्षाओं में अब हम भी नहीं जा पाते थे। लेकिन बाज़ार में मटरगस्ती करने का समय कहाँ था ? जागते-सोते, उठते-बैठते अब तो देश की ही चिंता थी। आने वाली पीढ़ियों के लिए छोटी सी कुर्बानीइस विषय पर बस में ज़ोर-ज़ोर से हुई बहस सुनने के बाद कंडक्टर हम से किराया माँगने का साहस नहीं करता था। धीरे-धीरे मैंने किराया देना ही छोड़ दिया। शत्रु पक्ष के साथ सहानुभूति रखने वाले चारों शिक्षकों को अब भी महाविद्यालय से निकाला नहीं गया था। हम उन को लेकर रणनीति तय कर पा रहे थे और इधर राजधानी से युद्ध तेज़ करने के लिए दबाव आने लगा। स्थानीय विवाद आते रहेंगे – आप लोग उन से अपने तऱीके से निपटते रहिए, लेकिन ऊपर से आए निर्देशों की अवमानना न हो- राजधानी से आए एक बड़े नेता ने समझाया। छात्र संघ के दफ़्तर से आकर जब मैने दुबले को बताया- किस से मुलाक़ात कर आया हूँ, तो उसकी आँखें विस्मय से चौड़ी हो गईं।
युद्ध की गति तेज़ हो रही थी। शहर में लोगों के चेहरे सुलगने लगे थे। बंगाली व्यापारी शाम होने से पहले ही अपने घर पहुँचने लगे। मैमनसिंगिया किसान बिना ज़रूरत ज़िला सदर आने से कतराने लगे। लेकिन हम ने उन्हें छुआ तक नहीं था। शत्रु पक्ष से मिले भेदिए ही हमारे शिकार थे। आस-पास के महाविद्यालयों से उत्साहवर्धक ख़बरें आ रहीं थीं। एक महाविद्यालय “बदनों” का गढ़ बना हुआ था। हमारी सेना ने सफलतापूर्वक उस गढ़ को धव्स्त कर दिया। कुछ खास करना भी नहीं पड़ा था – बस दो विश्वासघातियों को छात्रावास से बाहर घसीट लाए। उन्हें जान से मार देने की ऐसी अच्छी प्रतिक्रिया हुई कि सारा का सारा महाविद्यालय हमारे कब्ज़े में आ गया। पुलिस के दारोग़ा तक हमारे साथ थे। ऊपर के अफ़सर भले ही हमारे विरूद्ध हों। उन्हें देश से क्या लेना-देना था। लेकिन वे भी बिना सिपाही-हवलदार-दारोग़ा के कुछ नहीं कर सकते थे। अख़बार में ये सारी ख़बरें नहीं आती थीं। इनकी जानकारी के लिए छात्र संघ के दफ़्तर में एक घंटा बैठना जरूरी होता था। जब चाँद महमूद कक्षा में नहीं होता था तब मैं ये सारी ख़बरें ऑनर्स के पाँच साथियों को सुनाता। तामुलारी ने तो अब तक महाविद्यालय आना लगभग बंद कर दिया था।
मुझे पता नहीं था कि हम छहों में से भी एक शत्रु पक्ष के साथ सहानुभूति रखता है। एक दिन अंग्रेजी के सर ने जब प्रॉलिटेरिएट शब्द का अर्थ पूछा तो हमारे उस साथी ने तुरंत हाथ उठा दिया। बड़ा भोला-भाला दिखता था वह। हम सब उसे सीधा कह कर पुकारते थे। प्रॉलिटेरिएट का अर्थ बताते ही मेरे मन में संदेह पैदा हो गया। अरे ! यह सीधा? यह प्रॉलिटेरिएट का अर्थ जानता है ! लेकिन मैं ने कुछ कहा नहीं। छात्र संघ के नेता से सलाह ली। यदि सीधा ग़द्दार है तो उस के और भी साथी हो सकते हैं। नेता अनुभवी था। उसने तहक़ीक़ात की। एक दिन कक्षा में वह आया। लंबा छरहरा बदन, ठुड्डी पर घुँघराली दाढ़ी और गोल सीसे वाला चश्मा उस के चेहरे पर एक बौद्धिक आभा बिखेर रहा था। आते ही हमला-सा करते हुए उस ने सीधा को एक काग़ज़ दिखाया, “क्या यह तुम्हारे दस्तख़त हैं?” सीधा हकलाने लगा जो उसके अपराध का पर्याप्त प्रमाण था। नेता उसे गिरेबान से कपड़ कर बाहर ले गया। बाक़ी चारों और चाँद मदमूद मेरी ओर देखने लगे थे। मैं क्या करता? मित्र देश से बढ़ कर नहीं होता। सीधा को छात्र संघ दफ़्तर ले जाया गया। लेकिन वहाँ उसे सस्ते में छोड़ दिया गया – एक माफ़ीनामे पर दस्तख़त करा कर तथा भविष्य में देशविरोधी संगठनों से संबंध न रखने की चेतावनी देकर।
युद्ध में हमारा महाविद्यालय एक बड़ा योगदान करने से वंचित रह गया। मैं नेता से मशविरा करता – क्यों न कुछ ऐसा किया जाए जो युद्ध को क निर्णायक मोड़ दे। बोस, मंडल, चक्रवर्ती सर को पीछे से गालियाँ देना मैं बंद कर चुका था। मुझ जैसे देशभक्त को अब यह सब शोभा नहीं देता था। चारों ग़द्दार शिक्षकों को महाविद्यालय से निकालने की माँग एक छोटी-सी स्थानीय माँग थी। इस पर प्रबंधक समिति की सहमति अनिवार्य थी। प्रबंधक समिति के सभी सदस्य अभी देशभक्ति के रंग में रंगे नहीं थे। युद्ध की गति तेज कैसे की जाए? आस-पास से ख़बरें आतीं –अमुक जगह एक ग़द्दार को बैलगाड़ी से बाँध कर सारे गाँव में घसीटा गया, जिस से उस की जान चली गई। मैं नेता से कहता –“लानत है हम पर। हम माफ़ीनामे और चेतावनियों पर ग़द्दारों को खुला छोड़ रहे हैं। यह युद्ध है या पिकनिक?” हम रात-दिन इसी उधेड़बुन में रहते कि कुछ ऐसा किया जाए कि हमारे महाविद्यालय की इज़्ज़त बचा ले।
रसायन विभाग की प्रयोगशाला में मैं जब ब्यूरेट में लाल द्रव लिए टाइट्रेशन कर रहा होता तब भी यही उधेड़बुन दिमाग़ में चल रही होती। ब्यूरेट से गिर रही डाइक्रोमेट की बूँदें बीकर के घोल का धीरे-धीरे ऑक्सीकरण कर जातीं। मुझे उस समय का इंतज़ार होता जब ऑक्सीकरण पूरा हो जाता। एक-एक बूँद पर तेज़ नज़रें टिकी होतीं। बीकर के द्रव को ध्यान से देखते—कहीं गुलाबी आभा तो नहीं आ गई। सूबे से चल रहे युद्ध से मिलता-जुलता था यह टाइट्रेशन। एक-एक व्यक्ति पर तीखी नज़र रखनी पड़ती। ....कब दो-चार बूँदें ज़्यादा गिर जातीं....बीकर का सारा द्रव लाल हो जाता और सारी मेहनत बेकार चली जाती पता ही नहीं चलता। चाँद महमूद को देखकर मुझे उस दिन मुझे एक उम्दा ख़याल आया। मुझे लगा कि अब ग़द्दारों को खोजना और पीटना छोड़ कर थोड़ा आगे बढ़ना चाहिए। जो लोग सूबे की परेशानियों के मूल कारण हैं उन का तो अब तक हम बाल भी बाँका नहीं कर पाए। नेता के साथ मैं जब भी इस विषय पर मशविरा करता वह तरह-तरह की बातों में मूल विषय को उलझा देता। यदि हम इन के साथ कुछ करते हैं तो आसपास इन्हीं की बस्तियाँ हैं, ये भी तो कुछ कर सकते हैं। मुझे कुछ नहीं सूझता, बस यही कह पाता—“लानत है हम पर।” इसलिए इस बार मैं ने नेता के साथ सलाह न करने की पहले ही ठान ली थी। लेकिन किसी के साथ तो सलाह करनी ही चाहिए। मैं ने दुबले को अपना ख़याल बताया। लड़का तेज़ है, बस थोड़ा डरपोक है। सारी योजना सुनते ही बाथरूम की ओर दौड़ पड़ा था।
हमारी योजना में हमारे लैब बॉय मामा को अहम् भूमिका निभानी थी। मामा का असली नाम क्या था किसी को पता नहीं। हम से न जाने कितनी बैच पहले के किसी छात्र का वह मामा रहा होगा। वह भी सगा या दूर के रिश्ते में पता नहीं। हर नया छात्र पुराने की देखादेखी उसे मामा पुकारता। वह बड़े लक़दक़ कपड़ों में रहता, यहाँ तक कि छोटे-मोटे काम के लिए उसे कहने में हमें संकोच होता। निचली कक्षा के नए-नए छात्र तो उस के प्रयोगशाला में आते ही ऐसे चुप हो जाते मानो शिक्षक ही आ गए हों। लेकिन धीरे-धीरे छात्र मामा से खुल जाते थे। परीक्षा के समय मामा पाँच रुपए की एवज़ में “साल्ट” का नाम बता दिया करता था। नियमानुसार जिस “साल्ट” की शिनाख़्त सारे रासायनिक विश्लेषणों के बाद होनी चाहिए, उसे मामा सूँघ कर ही बता देता था। अब किसी की क़िस्मत ही फूटी हो तो मामा का बताया ग़लत निकलता था। ऐसे छात्र परिणाम घोषित होने के बाद मामा से झगड़ते, अपने पाँच रुपए वापस माँगते। लेकिन मामा की मुट्ठी में एक बार पैसे जाने के बाद वापस नहीं आते। परीक्षा के समय हम पाँच का नोट ही ले जाते थे। मामा के हाथ में दस का नोट पड़ने के बाद पाँच वापस नहीं मिलते।
मामा रोज़ अख़बार पढ़ता था, युद्ध क्या है समझता था। जब पचास का नोट उस की हथेली पर रख कर मैं ने सारी योजना उसे समझाई तो वह तुरंत समझ गया। लालची है लेकिन पक्का देशभक्त। उसने कन्सेन्ट्रेटेड हाइड्रोक्लोरिक एसिड की नई बोतल मेरे सामने ही आलमारी से निकाल ली। प्रयोगशाला के पिछवाड़े महाविद्यालय की काफ़ी ज़मीन थी। यह ढलवाँ ज़मीन बस स्टैंड की ओर जाती थी। कभी देर हो जाती तो हम पिछवाड़े की इसी ढालू जमीन से होते हुए बस अड्डे की ओर दौड़ लगा लिया करते थे। चाँद महमूद अमूमन इसी रास्ते से बस अड्डे जाता था। गाँव का होने के कारण छोटे रास्तों की खोज की सहजात वृत्ति थी उस में।
वह दिन था ही बड़ा घटनापूर्ण। सुबह-सुबह छात्र संघ के दफ़्तर में घुसते ही यह ख़बर मिली कि राजधानी में एक बड़े प्रोफ़ेसर को रास्ते पर पीटा गया। वह मातृभूमि की एवज़ में विश्वबंधुत्व का पाठ पढ़ाया करता था। उस की बग़ल में दबा अख़बारों का बंडल छीन कर नाली में फेंक दिया गया था। दोपहर को बाज़ार से गुजर रहे लुंगी पहने मज़दूरों के दल को हमारे साथियों ने पुलिस के हवाले कर दिया। और अब शाम ढलते-ढलते यह महत्वपूर्ण घटना घटने जा रही थी। मैं उत्तेजना और उत्कंठा के मारे प्रयोगशाला में चहलकदमी कर रहा था। दुबले को छोड़ कर बाक़ी सभी चले गए थे। योजना के अनुसार मामा प्रयोगशाला के पिछवाड़े से हो कर जा रहे चाँद महमूद के पीछे हो लिया। काफ़ी दूर जा कर वे दोनों साथ हो गए थे। फिर दोनों खिड़की से नज़र आना बंद हो गए। कुछ सेकेंड बाद उसी ओर से एक मर्मभेदी चीख़ मेरे कानों में पड़ी। मैं ने ख़ुशी से दुबले को देखा – काम हो गया। हम दोनों अपनी कॉपियाँ पिछली पॉकिट में डाल तुरंत प्रयोगशाला से निकल गए। बस अड्डे के सामने स्थित सरकारी अस्पताल में ऐसी कोई ख़ास हलचल हमें नज़र नहीं आई। हम अड्डे से बाहर निकल रही एक बस पर तुरंत लटक लिए। रास्ते भर हम दोनों ने आपस में कोई बातचीत नहीं की।
दूसरे दिन चाँद महमूद दिखाई नहीं दिया, उसके जैसे दूसरे छात्रों की उपस्थिति भी कम थी। मामा चहलक़दमी करते हुए ऑनर्स कक्षाओं की तरफ़ आया। बड़े सहज रूप से हम सब को देख कर मुस्कुराया, “आज प्रैक्टिकल होगी क्या जी ?” पूछते हुए गुज़र गया। औरों की नज़रें बचा कर उस ने मुझे प्रयोगशाला में मिलने का इशारा कर दिया था। मैं उत्कंठा के मारे बेहाल हो रहा था। पाँच मिनट बाद ही प्रयोगशाला में पहुँच गया। मामा ने अफ़सोस जताते हुए कहा कि काम हो नहीं पाया, क्योंकि ऐन वक़्त पर उधर से स्कूली लड़कियों का एक झुंड आ गया था। मैं ने मामा को कोसा, “स्कूली लड़कियाँ क्या बिगाड़ लेतीं तुम्हारा-हमारा। तम नहीं जानते तुम ने कितना बड़ा मौका खो दिया।” मामा कुछ बोला नहीं। मैं चाहता था कि पचास का नोट वह वापस कर दे। लेकिन वह मँजा हुआ खिलाड़ी था।
“मैं ने काम के लिए कब मना किया बाप्पा। काम जब हाथ में लिया है तो उसे पूरा करके ही छोड़ूँगा।”
“देखना मामाओं की ग़फलत के कारण हमारे देश को काफी नुकसान उठाना पड़ा है। लेकिन मामा देश से बढ़ कर नहीं होता, यह भी तुम जानते हो।” मैं ने मामा को धमकी सी दे डाली।
लेकिन काम क्या ख़ाक होता? चाँद महमूद फिर कभी महाविद्यालय में दिखाई ही नहीं दिया। उस के जैसे कई दूसरे लड़कों ने भी महाविद्यालय आना छोड़ दिया। इस घटना के बाद मुश्किल से और दो सप्ताह कक्षाएँ हुई होंगी। फिर तो युद्ध की गति इतनी तेज़ हो गई कि पढ़ना-लिखना मात्र देशविरोधियों का शगल बन कर रह गया। कितने गाँव जले, कितने लोग मरे, युद्ध में कौन जीता यह सब इतिहास में ब्यौरेवार दर्ज है। इन ब्यौरों में जाने पर हमारी कहानी रास्ते में भटक सकती है।
“मामा से मिले थे क्या कभी ? ” जगह मिलने के बाद से अब तक चुप बैठे चाँद महमूद ने मुझ से पूछा।
मामा शब्द सुनते ही मैं चौंक गया। डिब्बे में बैठे यात्रियों का एक बार फिर जायजा लिया। सब अपने ही थे। चाँद महमूद अकेला था।
“महाविद्यालय छोड़ने के बाद कभी नहीं मिला, कहाँ है आजकल ?” मैं ने पूछा।
“मुझे भी पता नहीं। मामा से मिलने की बड़ी इच्छा थी। आज जो मैं बचा हूँ मामा और आप की वजह से ही। फिर भी आप से तो मिलना हो गया। दुनिया आप जैसे भले आदमियों के भरोसे ही चल रही है।”
“मेरी वजह से बचे हुए हो ?”
“हाँ। महाविद्यालय के वे युद्धकालीन दिन याद हैं न। आप उस दिन मामा द्वारा संदेश भिजवा कर मुझे सावधान नहीं करते और झूठमूठ चीख़ने का नाटक करने को नहीं कहलवाते तो पता नहीं उस दिन मेरा क्या होता?”
मेरा सारा प्रयास आश्चर्य के भाव अपने चेहरे पर आने से रोकने पर केन्द्रित था। मैं बड़े सहज रूप से मौन रहा। पीठ पर निकल आया पसीना अंदर-ही-अंदर सूख रहा था। गाड़ी अपनी स्वाभाविक गति से दौड़ रही थी।
“यह क्या कर रहे हो?” मैं लगभग चीख़ कर बोला। डिब्बे के यात्री भी मेरी तरफ़ देखने लगे। चाँद महमूद का स्टेशन आ गया था। वह ज़बर्दस्ती मेरे बच्चे के हाथ में एक बड़ी- सी चॉकलेट पकड़ा रहा था।