होनहार विद्यार्थी अच्छे दर्जों में पास हो गए हैं। मेरिट सूची में स्थान पाने वाले विद्यार्थी और उनके माता-पिता गौरव की धूप सेंक रहे हैं, उनके चेहरे चमक रहे हैं। मीडिया में उन्हीं का बोलबाला है। लेकिन जिनके मार्क्स औसत आए हैं और जिनके औसत से भी कम आए हैं उनके बारे में बचपन में हम समझते थे कि उनका कोई मूल्य नहीं है। लेकिन उतार-चढ़ाव भरे जीवन ने सिखाया है कि हर व्यक्ति और इसलिए हर विद्यार्थी अपने आप में अनूठा है।
शीर्ष पर आने वालों का हम महत्त्व कम नहीं करना चाहते, लेकिन जो बीच में और पीछे रह गए हैं उनके महत्त्व को भी भूलना नहीं चाहते। शीर्ष पर आने वाले विद्यार्थियों को किस दृष्टि से देखा जाए? उन्हें केवल इसी दृष्टि से देखा जाए कि उनमें कुछ कुशलताएं औरों से अधिक हैं। जैसे उनकी स्मृति दूसरों से तेज है। रटंत विद्या के खिलाफ हमेशा आवाज उठती रही है लेकिन हर तरह के इम्तहान में स्मृति का महत्त्व कहीं कम तो कहीं बेश है ही। इसके बाद गणित की समस्याएं सुलझाने का नंबर आता है। किसी समस्या का विश्लेषण कर पाने की योग्यता की बात आती है।
भाषा का प्रयोग हम सभी करते हैं लेकिन कोई शुद्ध भाषा लिखता है और कोई एक आवेदन लिखवाने के लिए भी औरों का मुंह ताकता है। अच्छे विद्यार्थी का किताब लेकर बैठने का दिल करता है, कम अंक पाने वाला विद्यार्थी कभी-कभी कुशाग्र बुद्धि वाला होकर भी किताब पढ़ना नहीं चाहता। इसलिए पाठ्यक्रम की उसे जानकारी नहीं होती और किताबी कीड़ा स्तंभ के ऊपर तक पहुंच जाता है।
ऊपर हमने जिन गुणों का जिक्र किया उनके अलावा भी कई गुण होते हैं जिनका इम्तहान नहीं होता, बल्कि सारा जीवन ही एक इम्तहान होता है। उदाहरण के लिए, श्रद्धा और भक्ति। भारत में इनका बहुत महत्त्व है। तीक्ष्ण बुद्धि वाला विद्यार्थी सिविल परीक्षा पास कर लेता है, लेकिन अच्छी पोस्टिंग के लिए तरस जाता है। श्रद्धा और भक्ति का भारत में जरूरत से ज्यादा महत्त्व है। इसी तरह अध्यवसाय एक बहुत बड़ा गुण होता है। इसे अंग्रेजी में परसिवरेंस कहते हैं। यानी एक ही चीज के पीछे लगे रहना।
राजस्थान से "डोरी और लोटा' लेकर आसाम आने वाले बनिए भले मैट्रिक भी पास नहीं थे, लेकिन वे धुन के पक्के थे। जिन लोगों ने एक ही पीढ़ी में ढेर सारी दौलत कमायी है उनके जीवन का अध्ययन कीजिए। एक बात आप समान रूप से सभी में पाएंगे कि उसमें पैसे कमाने को प्रबल भावना थी। उनका ध्यान एक ही चीज पर रहा, इधर-उधर भटका नहीं। आप कहेंगे कि पैसा तो हर कोई कमाना चाहता है, लेकिन दरअसल ऐसी बात नहीं है। एक आम आदमी की इच्छा होती है कि गरिमापूर्ण तरीके से जीवन यापन करने लायक वह कमा ले, अकूत दौलत कमाने की इच्छा हर किसी में नहीं होती।
कहते हैं "हिस्ट्री-ज्योग्राफी बेवफा, शाम को पढ़ते सुबह सफा।' बच्चों को इतिहास और भूगोल से बहुत डर लगता रहा है। पिछले कुछ दशकों तक छात्र इस डर से बचे रहे, लेकिन अब फिर से पाठ्यक्रम में इतिहास और भूगोल शामिल किया जा रहा है। बुद्धिजीवियों का एक वर्ग इस पर खूब वाह-वाह कर रहा है। हमारा मानना है कि स्कूलों में बच्चों को हर तरह का ज्ञान देने के लोभ से बचना चाहिए। स्कूली शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान देना नहीं बल्कि उसे स्वयं ज्ञान प्राप्त करने लायक बनाना होना चाहिए। इसके लिए जरूरी है उसे गणित और विज्ञान के अलावा दो या तीन भाषाओं की जानकारी करा देना। बच्चा पढ़ना सीख जाए तो वह स्वयं ही ज्ञान प्राप्त कर लेगा। इसके लिए उसमें इतनी क्षमता होनी चाहिए कि वह दो-तीन भाषाएं धाराप्रवाह पढ़ सके। पता नहीं शिक्षा को लेकर इतने अधिक प्रयोग क्यों होते हैं?
तो क्या फिर हम टापर्स का महत्त्व कम करने में लग गए? दरअसल हमारा ध्यान उन विद्यार्थियों की ओर है जो इम्तहान का नतीजा देखकर अपने जीवन का ही नाश कर लेते हैं। जो इस अति तक नहीं जाते वे लंबे अवसाद के शिकार हो जाते हैं। ऐसे विद्यार्थियों से मैं कहना चाहूंगा कि किसी एक व्यक्ति ने एवरेस्ट पर झंडा गाड़ दिया, और लोगों की वाहवाही लूट ली तो क्या हम अवसाद के शिकार हो जाएं? ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा के कारण कोई बहुत बड़ा गायक बन गया तो क्या हम जमीन में गड़ जाएं? हम तो यही सोचेंगे न कि यह उनका काम है, इस क्षेत्र में उन्हें प्रतिभा मिली है, उनसे हमारी क्या प्रतिस्पर्धा? हममें जो गुण हैं हम उनकी धार को तेज करेंगे, हमने जो छोटा-सा क्षेत्र चुना है हम उसमें बेहतर करके दिखाएंगे। स्कूली इम्तहान हजारों में से दो-चार गुणों की परीक्षा लेता है, जरूरी नहीं कि हम उनमें खरे उतरें। और हम जिन गुणों का परिष्कार कर सामने पाएंगे, उनमें हो सकता है स्कूल में अव्वल आने वाले पीछे की बैंच पर बैठे दिखाई दें।
कहते हैं "हिस्ट्री-ज्योग्राफी बेवफा, शाम को पढ़ते सुबह सफा।' बच्चों को इतिहास और भूगोल से बहुत डर लगता रहा है। पिछले कुछ दशकों तक छात्र इस डर से बचे रहे, लेकिन अब फिर से पाठ्यक्रम में इतिहास और भूगोल शामिल किया जा रहा है। बुद्धिजीवियों का एक वर्ग इस पर खूब वाह-वाह कर रहा है। हमारा मानना है कि स्कूलों में बच्चों को हर तरह का ज्ञान देने के लोभ से बचना चाहिए। स्कूली शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान देना नहीं बल्कि उसे स्वयं ज्ञान प्राप्त करने लायक बनाना होना चाहिए। इसके लिए जरूरी है उसे गणित और विज्ञान के अलावा दो या तीन भाषाओं की जानकारी करा देना। बच्चा पढ़ना सीख जाए तो वह स्वयं ही ज्ञान प्राप्त कर लेगा। इसके लिए उसमें इतनी क्षमता होनी चाहिए कि वह दो-तीन भाषाएं धाराप्रवाह पढ़ सके। पता नहीं शिक्षा को लेकर इतने अधिक प्रयोग क्यों होते हैं?