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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

बुधवार, 14 अगस्त 2013

झंडा फहराएं

पुस्ताक्यल
1979 तक असम में स्वाधीनता दिवस और गणतंत्र दिवस पर कुछ न कुछ कार्यक्रम अवश्य होते थे। कम-से-कम लोग अपने घरों पर झंडा तो अवश्य फहराते थे। बाद में विदेशियों के विरुद्ध हुए आंदोलन का पहला शिकार राष्ट्रीय पर्व हुए। लोगों की झंडा फहराने की आदत एक बार छूटी तो फिर छूटी ही रह गई। 1982 में एक बार उत्तर प्रदेश के एक छोटे शहर में जाना हुआ। वहां 15 अगस्त को ही हमारा बाहर कुछ छोटे-छोटे कस्बों में घूमने का कार्यक्रम था। मुझे यह देखकर धक्का लगा कि देश के इस हृदय स्थल में भी स्कूल, पुलिस थाना और स्टेशन आदि सार्वजनिक इमारतों को छोड़कर निजी भवनों पर किसी ने झंडा फहराने की जहमत नहीं उठाई थी। राष्ट्रीय पर्व के उल्लास का क्षय वहां असम से पहले ही शुरू हो गया होगा।

इसलिए असम में अपने घर पर झंडा नहीं फहराने का कारण जब कोई उग्रवादियों का काल्पनिक डर बताता है तो मुझे उत्तर प्रदेश की वह घटना याद आ जाती है। वे उत्तर प्रदेशवासी क्या तर्क देते होंगे - टीवी पर धुआंधार बहस के जरिए किसी ने इसके लिए हमें उकसाया ही नहीं, झंडा फहराने से हमें क्या लाभ होने वाला है, झंडा नहीं फहराने से हमें कौन-सा जुर्माना लगने वाला है, या फिर यह कि झंडा फहराने का हमारे धर्म, भाषा, जाति से कोई संबंध तो है नहीं फिर हम क्यों झंडा फहराएं।

जब भाषा, जाति, समुदाय या क्षेत्र के नाम पर राष्ट्र को कमजोर करने वाली भावनाओं का इजहार इतना खुलेआम होता है तो हम अपने राष्ट्रप्रेम का प्रदर्शन करने के मौके को क्यों गवां देते हैं। इसके लिए हम न्यूनतम अपने घर की छत पर, अपनी गाड़ी पर आज के दिन राष्ट्रीय पताका तो लगा ही सकते हैं। यह न्यूनतमम है। जो पर्वत का बोझ नहीं उठा सकते वे सर के दो बोझे तो कम कर ही सकते हैं। सागर नहीं उलीच सकते तो आंखों के दो आंसू तो हर ही सकते हैं।

जो ज्यादा करना चाहते हैं वे बहुत कुछ कर सकते हैं। स्कलों-कालेजों में रात को रोशनी करनी चाहिए, डीनर पार्टी करनी चाहिएष राजनीतिक दलों को सेमीनार करने चाहिए, सामाजिक संस्थाओं को बच्चों के लिए क्वीज करनी चाहिए, शाम को नाटक आयोजित करने चाहिए, आतिशबाजी करनी चाहिएष सार्वजनिक मैदान या भवन में प्रदर्शनी करनी चाहिए, महत्वपूर्ण आयोजनों की शुरुआत जैसे पुस्तक मेला, नाट्य समारोह, स्कूल या कालेज सप्ताह की शुरुआत 15 अगस्त या 26 जनवरी से ही करनी चाहिए।

किसलिए हम इन दो दिनों को अलसाए-से, मरे-मरे, उदास-उदास, पड़े-पड़े, ताश खेलकर, टीवी से चिपककर बिताएं! आखिर ये दो दिन उस घटना की याद दिलाते हैं जब विश्व में एक नए तरह के राष्ट्र का उदय हुआ। विद्वानों ने कहा था कि भाषा या धर्म या इतिहास का सहारा नहीं होने के कारण यह राष्ट्र बन नहीं सकता। हमने बनाया। विद्वानों ने कहा कि यह टिक नहीं सकता। हमने टिकाया। 


हमारा राष्ट्र एक ऐसा पौधा है जिसके बारे में अनुभवी बागवानों का कहना है कि यह पौधा इस मिट्टी में पनप नहीं सकता। इसलिए हमारा और भी यह कर्तव्य हो जाता है कि हर 15 अगस्त और 26 जनवरी को इसे श्रद्धा से सींचें और बागवानों को गलत साबित कर दें। आखिर बहुत-सी फसलों को नए भूगोल में पहुंचाने के प्रयोग इस दुनिया में होते ही रहे हैं।